30 नवंबर 2014

पहले तो हम को पंख हवा ने लगा दिये - नवीन

पहले तो हम को पंख हवा ने लगा दिये । 
और फिर हमारे पीछे फ़साने लगा दिये ॥ 

तारे बेचारे ख़ुद भी सहर के हैं मुन्तज़िर । 
सूरज ने उगते-उगते ज़माने लगा दिये ॥ 

हँसते हुए लबों पै उदासी उँडेल दी । 
शादी में किसने हिज़्र के गाने लगा दिये ।। 

कुछ यूँ समय की जोत ने रौशन किये दयार । 
हम जैसे बे-ठिकाने ठिकाने लगा दिये ॥ 

ऐ कारोबारे-इश्क ख़सारा ही कुछ उतार । 
साँसों ने बेशुमार ख़ज़ाने लगा दिये ॥ 

दुनिया हमारे नूर से वैसे भी दंग थी । 
और उस पे चार-चाँद पिया ने लगा दिये ॥ 

सहर – सुबह; मुन्तज़िर - के लिये प्रतीक्षारत 

:- नवीन सी. चतुर्वेदी 

बहरे मज़ारिअ मुसमन अख़रब मकफूफ़ मकफूफ़ महज़ूफ़
मफ़ऊलु फ़ाइलातु  मुफ़ाईलु फ़ाइलुन
 221 2121 1221 212

साहित्यम् - वर्ष 1 - अङ्क 7 - सितम्बर, अक्तूबर, नवम्बर' 2014

सम्पादकीय

आप ही की तरह मैं ने भी सुन रखा था कि “साहित्य समाज का दर्पण है”। बहुत बार लगा कि क्या बकवास है – साहित्य कहीं समाज का दर्पण हो सकता है? अगर ऐसा होता तो साहित्य की यूँ दुर्दशा न होती। लेकिन नहीं साहब, अग्रजों ने एक दम दुरुस्त फ़रमाया है कि “साहित्य समाज का दर्पण है”। अभी भी यक़ीन नहीं होता तो देखिये आप को कुछ उदाहरण देता हूँ।

सामाजिक मूल्यों का ह्रास हो चुका है – साहित्यिक मूल्यों का असेस्मेण्ट ख़ुद ही कर के देख लीजिये।

समाज आज उस जगह पहुँच चुका है कि वह जो चाहे पैसे से ख़रीद सकता है – औसत से भी कम स्तर के रचनाधर्मियों को ये दे और वो दे टाइप परोसे जा रहे पुरस्कारों की व्यथा इस बात को सौ फ़ी-सदी सही साबित करती है।

समाज भाषा-संस्कारों को भुला चुका है – वर्तमान साहित्य में परिवर्तन के नाम पर जिस भाषा का इस्तेमाल किया जा रहा है वह प्रवृत्ति भी इस बात को सही ठहराती है।

समाज ऑल्मोस्ट भौंड़ा हो चुका है – बहुत सारे तथाकथित साहित्यकार उन के अपने साहित्य को भौंड़ेपन की दौड़ में सब से आगे ले जाने के लिये रात-दिन भरसक प्रयास करते स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर हो रहे हैं।

आज आदमी के अन्दर से सम्वेदना और सरोकार लुप्त हो चुके हैं – कुछ को छोड़ दें तो बहुत सारे तथाकथित  साहित्यकार भी सम्वेदना-शून्य रचनाओं की गठरी उठाये सरोकार विहीन दिशा की तरफ़ बढ़ते हुये स्पष्ट रूप से दिख रहे हैं।

ऐसे अनेक विषय हैं जो “साहित्य समाज का दर्पण है” वाले सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं।

मगर, जहाँ एक तरफ़ यह दुरावस्था है वहीं दूसरी तरफ़ इस पीड़ा को महसूस करने वाले तमाम साहित्यानुरागी बरसों से कमर कस कर मैदान में डटे हुये भी हैं ताकि नुकसान को कम से कम घटाया तो जा सके। अनेक मोर्चों पर साहित्यानुरागियों ने अपने-अपने स्तर पर ऐसे-ऐसे कामों बल्कि यूँ कहिये कि प्रकल्पों को सम्हाला हुआ है कि परिचय होते ही उक्त व्यक्तित्वों की शान में सर ख़ुद-ब-ख़ुद झुक जाता है।

प्रश्न उपस्थित होता है कि दर्पण को साफ़ किया जाये या कि ऑब्जेक्ट को? बच्चा भी उत्तर दे सकता है कि दर्पण झूठ नहीं बोल सकता। लिहाज़ा हमें अपने चेहरों को ही साफ़ करना चाहिये। हमें समाज को ही उचित अवस्था में लाने के लिये निरन्तर प्रयास-रत रहना चाहिये। बेशक़ आज के दौर में हम अठारहवीं या फिर पहली-दूसरी सदी में तो नहीं जा सकते; मगर नोस्टाल्जिया को गरियाये बग़ैर पुरातन की अच्छी बातों को अधुनातन रूप में पुनर्स्थापित करने की दिशा में प्रयास तो कर ही सकते हैं।

छन्द इस दिशा में पहला प्रयास हो सकता है। छन्द का मतलब सिर्फ़ सवैया या घनाक्षरी या दोहा आदि आदि ही नहीं होता। बल्कि छन्द की परिभाषा में  ग़ज़ल, सोनेट, हाइकु के साथ-साथ वह सारी रचनाएँ भी आती हैं जो एक नियत विधान का अनुपालन करते हुये मानव-मस्तिष्क से सफल-सम्यक-सार्थक सम्वाद स्थापित करते हुये उस की सम्वेद्नात्मक संचेतना तक पहुँचने में सक्षम हों।

किसी को लग सकता है कि छन्द के रास्ते पर चल कर यह बदलाव कैसे सम्भव है। छन्द लिखने-पढ़ने-परखने वाले इस बात की पुष्टि करेंगे कि छन्द यानि एक भरपूर अनुशासनात्मक प्रणाली। ज़रा भी कम या ज़ियादा हुआ कि सौन्दर्य-बोध ख़त्म। सौन्दर्य-बोध ख़त्म होते ही लालित्य ख़त्म। रसात्मकता का लोप।

छन्द-संरचना हमें एक सुनियोजित मार्ग पर सुव्यवस्थित पद्धति से अग्रसर होने के लिये प्रेरित करती है। इस मन्तव्य को व्यावहारिक रूप से अनुभव कर के भी समझा जा सकता है।

आसाराम बापू के बाद रामपाल प्रकरण के भी गवाह बन चुके हैं हम लोग। कोई भी चैतन्य-मना व्यक्ति किसी भी सूरत में इन प्रकरणों से सरोकार नहीं रख सकता। इन प्रकरणों ने हमारी आस्थाओं के साथ हो रहे खिलवाड़ों की कलई खोल के रख दी है। उमीद करते हैं कि तमाम अन्य धर्मों / पंथों के लोग भी इन प्रकरणों से सबक लेंगे। दरअसल धर्म हमारे लिये एक ऐसा उपकरण होना चाहिये जिस की सहायता से हम अपने आप को सुनियंत्रित पद्धति को अपनाते हुये, भटकने से बचते हुये परमार्थ के विज्ञान को समझने का यत्न कर सकें। धर्म का मतलब हम सभी विचारधाराओं वाले लोगों के यहाँ यम-नियम-संयम न हो कर आडम्बर अधिक होता जा रहा है। इस दिशा में यदि हम गम्भीरता पूर्वक विचार न कर सके तो हमारी नई पीढ़ी के और अधिक नास्तिक आय मीन निराशावादी होने के अवसर बढ़ जायेंगे।

मोदी सरकार बनने के बाद से एक अलग ही तरह का उन्माद ओपनली दिखाई पड़ने लगा है। हर तरफ़ से। कोई चाहे तो जिरह यूँ भी कर सकता है कि पहले मुर्गी हुई या पहले अण्डा? मगर हर स्थिति में उन्माद हमारे बच्चों से तरक़्क़ी के मौक़े ही छीनेगा। व्हाट्सअप ने आजकल ख़ासी धूम मचाई हुई है। अपने मित्रों में सभी विचारधाराओं के व्यक्ति शामिल हैं। सभी मित्र अपने-अपने ज्ञान को हमारे साथ बाँटते रहते हैं। इस ज्ञान-वाटप में एक ऐसा मेसेज वायरल हुआ जिस ने इन पंक्तियों के लेखक को वाक़ई व्यथित किया। विषय अजमेर वाले चिश्ती साहब के द्वारा लाखों हिंदुओं को मुसलमान बनाये जाने पर उन्हें उक्त दर्ज़ा मिलने के बाबत था। उसी मेसेज में पृथ्वीराज चौहान की पत्नी के बारे में भी कुछ अत्यन्त दुखद लिखा हुआ था। एक औसत व्यक्ति के नाते मेरा निवेदन यही है कि ऐसे किसी भी संदेश को वायरल करने से पहले अच्छी तरह चेक भी कर लेना चाहिये, चूँकि हमारे पूर्वजों के साथ ज़ोर-जबर्दस्ती करने वालों के लिये हमारे मन में अच्छी भावनाएँ नहीं हो सकतीं। हिंदुस्तान मज़हब को ले कर कई बार बड़े-बड़े नुकसान झेल चुका है। एक और नुकसान????????

एक बड़ा ही मज़ेदार वाक़या है कि जैसे ही आप कोई शेर सुनाएँ और अगर उस शेर पर किसी पूर्ववर्ती शायर के ख़याल की छाया हुई [जो कि अक्सर होती भी है] तो फ़ौरन से पेश्तर लोग उस शायर का हवाला देने लगते हैं। मगर बाद के पन्थ के लोगों से अगर हम कहें कि यह बात वेदों में भी लिखी है तो पता नहीं क्यों वे लोग अचानक ही असहज हो जाते हैं? भाई आप को वेद की ऋचा को उद्धृत नहीं करना, आप की मर्ज़ी। आप उपकार  को मेहरबानी या obligation या कुछ और कहना चाहते हैं – आप की मर्ज़ी। मगर हमें तो अपनी आस्थाओं से जुड़ा रहने दीजिये। हम सभी को एक दूसरे पर अपने विचार थोपने की बजाय, अपने-अपने बच्चों तक अपने पूर्वजों के विचार पहुँचाने पर अधिक ध्यान देना चाहिये। इसे यूँ भी समझा जा सकता है कि यदि कोई व्यक्ति कहे कि वही सर्व-श्रेष्ठ है तो इसका एक मतलब यह भी हो सकता है कि वह नेष्ट है इसलिये ख़ुद को सर्व-श्रेष्ठ साबित करने के लिये एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाये जा रहा है।

कोई त्यौहार आया कि सारा मीडिया देशी मिठाइयों के पोस्ट-मार्टम में लग जाता है। नो प्रॉबलम। मगर भाइयो आप ने कभी कृत्रिम सब्जियों, मिलावटी मसालों, केडबरी-पेप्सी के आकाओं द्वारा नकारी गईं दवाओं, मशीनों वग़ैरह के बारे में सोचना नहीं होता है क्या? कमी को दूर करना हमारा लक्ष्य अवश्य ही होना चाहिये, मगर हिन्दुस्तान की रीढ़ यानि कुटीर उद्योग यानि छोटे-छोटे कारोबारियों को अनिश्चित भविष्य की निधि टाइप नौकरियों की भट्टियों में धकेलने की क़ीमत पर नहीं। इशारा पर्याप्त है।

हिन्दुस्तानी साहित्य सेवार्थ शुरू किया गया यह शैशव प्रयास अपने सातवें चरण में है। हम हर बार ग़लतियों से सीखने का प्रयास करते हैं। अपने पाठकों की ख़िदमत करने की भरसक कोशिश करते हैं। फिर भी चूँकि हम मनुष्य हैं सो हम से भूल होना स्वाभाविक है। आप सभी से साग्रह निवेदन है कि हमें हमारी ग़लतियों से अवगत कराने की कृपा करें। आप के सुझावों की प्रतीक्षा रहेगी। आभार। नमस्कार।

सादर
नवीन सी. चतुर्वेदी

रचनाएँ देवनागरी में मङ्गल फोण्ट में टाइप कर के [सम्भवत:  ड़,, ञ के अलावा चन्द्र-बिन्दु तथा अनुस्वार का भी उपयोग करते हुये]  navincchaturvedi@gmail.com पर भेजने की कृपा करें। अगला अङ्क फरवरी में आयेगा / अद्यतन होगा।


साहित्यम्  अन्तरजालीय पत्रिका / सङ्कलक

सितम्बर, अक्तूबर, नवम्बर 2014      
वर्ष – 1 अङ्क  7

विवेचना                       मयङ्क अवस्थी
                                    07897716173

छन्द विभाग                 संजीव वर्मा सलिल
                                    9425183144

व्यंग्य विभाग               कमलेश पाण्डेय
                                    9868380502

कहानी विभाग             सोनी किशोर सिंह
                                    8108110152

राजस्थानी विभाग        राजेन्द्र स्वर्णकार
                                    9314682626

अवधी विभाग               धर्मेन्द्र कुमार सज्जन
                                    9418004272

भोजपुरी विभाग            इरशाद खान सिकन्दर
                                    9818354784

विविध सहायता           मोहनान्शु रचित
                                   9457520433  
                                   ऋता शेखर मधु

सम्पादन                      नवीन सी. चतुर्वेदी
                                    9967024593

अनुक्रमाणिका
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छन्द 

ग़ज़लें

आञ्चलिक गजलें







कहानी फ़ोटो जर्नलिस्ट – डॉ. वरुण सूथरा

कहानी

फ़ोटो जर्नलिस्ट – डॉ. वरुण सूथरा

फागुन महीने का एक बेहद ठंडा दिन था  वो, मौसम विभाग ने भी उस दिन तापमान में एक रिकार्ड गिरावट दर्ज की थी। पिछले चार दिन से शहर में लगातार बारिश हो रही थी और पहाड़ी इलाकों में बर्फबारी भी हुई थी। इस दौरान बहुत से घरों में शादियां भी हो रही थी, लगातार बारिश से लोगों को आयोजन में अचानक फेरबदल करने पड़ रहा था,  जिनके शादी-ब्याह के कार्यक्रम पहले खुले में होने थे अब उन सभी को किसी न किसी बंद हॉल में ही अपने आयोजन को सीमित करना पड़ रहा था। मनोहर के लिए भी ये सीजन बहुत अहमियत रखता था, यही वो समय था जब वो अपनी फोटोग्राफी से कुछ रकम कमा सकता था। शादियों के सीजन के बाद तो फिर काम ढीला ही पड़ जाता था। पहले तो शादियों के काम उसे अकेले ही मिल जाते थे लेकिन जब से मार्केट में डिजिटल कैमरा आए थे उसे किसी न किसी और बड़े फोटोग्राफर से ही काम मिलता था क्योंकि उसके पास इतना पैसा नहीं था कि वो एक अच्छा डिजिटल कैमरा खरीद सके।

लेकिन उसे अपने काम के लिए जुनून था, वो हर तस्वीर में जान डाल देता था। जब तक उसे संतोष न हो जाए, तब तक वो एक ही तस्वीर को बार-बार खींचता था। उसका लोगों से बात करने का ढंग भी इतना आकर्षक होता था कि बार-बार कहने पर भी, सब बिना किसी हिचक अथवा गुस्से के अलग-अलग पोज में फोटो खिंचवाने को तैयार हो जाते थे। उस दिन शहर के मशहूर व्यापारी प्रीतम कुमार के बेटे की शादी थी,  जहां एक बड़े फोटोग्राफर ने पूरे समारोह की फोटो खींचने का ठेका ले रखा था, उसने मनोहर को भी इस आयोजन में तीन सौ रूपये दिहाड़ी पर काम दिया था। उस रात की ठण्ड में भी मनोहर का जोश कम नहीं हुआ था।

लगातार बढ़ती ठण्ड में भी उसकी बातों की गर्माहट के कारण लोगों को उसके कहने के मुताबिक पोज बनाने में कोई परहेज नहीं हो रहा था। वो किसी को भी जब मुस्कुरा कर फोटो खिंचवाने को कहता था तो लोग हँस के उसकी बात मान लेते थे और जो कोई उसी समय अपनी फोटो देखना चाहता, तो वो पास जाकर डिजिटल कैमरा में उन्हें दिखा देता और खुद ही कह देता कि बहुत कमाल की फोटो आई है। ये देखिये सर,  क्या लग रहे हैं इस तस्वीर में आप। आपको तो इस फोटो को बड़ा करवाकर अपने बैडरूम में लगाना चाहिए ताकि आप रोज सुबह उठकर अपना ये हंसता हुआ चेहरा देखें। अगर आप कहें तो मैं ऑर्डर में लिख दूं, फोटो दो दिन में आपके घर पहुंच जाएगी।

लिख लो भाई, लिख लो बताओ क्या पेमेंट करनी है, हम अभी किए देते हैं।

साहिब उसकी कोई चिंता नहीं, वो तब ले लेंगे जब आपको यह फोटो पहुंचेगी।

इस तरह मनोहर अपने हुनर और स्वभाव के कारण कुछ और रूपये भी बना लेता था क्योंकि एक बात उसके अवचेतन मन में हमेशा ही रहती थी कि उसके पास सीजन रहने तक का ही मौका है। एक बार शादियों का सीजन गया तो फिर गुरबत का एक लम्बा दौर उसे परेशान करने के लिए तैयार था। यही वो समय था जब वो अपने पुराने उधार चुका सकता था ताकि फिर से उधार के नए खाते शुरू कर सके, इसी समय वो अपनी बीवी के साथ प्यार के कुछ पल बिता सकता था क्योंकि आने वाला समय तो फिर कलह और क्लेश का एक लम्बा दौर लेकर आएगा। इसी दौरान वो अपनी बेटी की कुछ ख्वाहिशें पूरी कर सकता था, इस छोटे से समय में उसे अपनी बेटी को हमेशा झूठ बोल कर टालना नहीं पड़ता था, जैसे कि साल के बाकी समय उसकी हर मांग पर मनोहर को कोई न कोई बहाना बनाना पड़ता, यानी हर रोज उसे एक झूठे वादे के साथ सुलाना पड़ता ताकि उसकी आस बनी रहे।

मनोहर जब आठ साल का था तो उसके पिता की एक सड़क हादसे में मौत हो गई थी, उनकी अपनी टैक्सी थी। एक बार वो तीन विदेशी पर्यटकों को लेकर मनाली जा रहे थे तो रास्तें में गाड़ी फिसलकर खाई में गिर गई और उसमें मौजूद सभी लोगों की मौत हो गई। उसके बाद मनोहर का जीवन बहुत मुश्किलों भरा रहा,  पिता की मृत्यु के तीन महीने बाद उसकी इकलौती छोटी बहन भी चल बसी, वो पिता के गुजरने के बाद हमेशा बीमार ही रहती थी। मां ने किसी तरह छोटा-मोटा काम करके मनोहर को आठवीं तक पढ़ाया और फिर उसे किसी फोटोग्राफर की दुकान पर काम पर लगा दिया। मनोहर ने बहुत मेहनत से काम सीखा और चार साल के अंदर एक दुकान किराये पर लेकर अपना काम शुरू कर दिया। कुछ समय के बाद उसकी मां ने अपनी दूर की रिश्तेदारी में ही लक्ष्मी नाम की लड़की से उसकी शादी करवा दी। शादी के सात महीने बाद मां भी चल बसी। मनोहर अपनी बीवी और बेटी पल्लवी के साथ एक किराये के मकान में रहता था और अपनी छोटी सी दुकान भी चला रहा था। मनोहर का काम पहले ठीक चल रहा था लेकिन अब नए आए डिजिटल कैमरा ने उसके काम को खासा झटका दिया था। उसके पास अभी नई तकनीक का कैमरा नहीं था और न ही वो उन्हें खरीदने के बारे में सोच सकता था। उसने कई बार कुछ पैसे उधार लेकर अपने काम को और भी बढ़ाने के बारे में सोचा लेकिन अपने परिवार के हालात देखकर वो कभी हिम्मत नहीं कर पाता था। प्रीतम कुमार के बेटे की शादी के तीन दिन बाद मनोहर ने उन सभी लोगों के फोटो बड़े करवा लिए जिनसे उसने समारोह में देने को कहा था। उसने सात लोगों के फोटो बनाये थे, छह फोटो देने के बाद वो आखिरी फोटो देने के लिए एक बड़ी कोठी के बाहर पहुंचा। जब वो गेट से अंदर प्रवेश करने लगा तो वहां खड़े दरबान ने उसे रोक लिया।

हां भाई कहां घुसा चला जा रहा है, कौन है तू।

जी मुझे गुप्ता साहिब से मिलना है, उनका यह फोटो है मेरे पास यह मुझे उन तक पहुंचाना है।

ला ये फोटो मुझे पकड़ा दे मैं पहुंचा दूंगा।

नहीं ये मैं आपको नहीं दे सकता और वैसे भी मुझे इसके पैसे भी लेने हैं।

उन दोनों में इस बात को लेकर बहस छिड़ गई, तभी गेट पर गुप्ता जी की गाड़ी भी पहुंच गई। ड्राईवर के हार्न करने पर भी जब दरबान ने गेट नहीं खोला तो पीछे बैठे हुए गुप्ता जी ने पूछा कि ये दरबान किसके साथ लगा हुआ है। वे गाड़ी से खुद नीचे उतरे तो मनोहर दौड़ के उनके पास जा पहुंचा, दरबान उसे हटाने लगा तो मनोहर ने गुप्ता जी को शादी के समारोह का हवाला देते हुए अपनी पहचान बताई। गुप्ता जी ने दरबान से कहा कि उस आदमी को अंदर भेज दें।

करीब आधे घंटे बाद गुप्ता जी ने मनोहर को अपने कमरे में बुलाया और उसका खींचा हुआ फोटो देखने लगे। मनोहर फोटो तो तुमने बहुत अच्छा खींचा है, वाकई तुम्हारे हाथ में कमाल है। लेकिन हम सोच रहे हैं कि तुम्हे इसके पैसे न दिए जाएं। यह सुनते ही यूं तो मनोहर का मन खट्टा हो गया लेकिन उसका जवाब बिल्कुल उलट था। साहेब आपको इस गरीब का काम पसंद आ गया, ये क्या कम है और मैंने आपसे पैसे मांगे ही कब।

हमने यह नहीं कहा कि तुम्हे कुछ नहीं मिलेगा, हमारे कहने का मतलब है कि तुम जैसे हुनरमंद आदमी को सिर्फ पैसे देना ही काफी नहीं है। तुम इस काम से कितना ही कमा लेते होंगे, और फिर न तो हमेशा सीजन रहता है और न ही हमेशा कद्रदान मिलते हैं। हम अगले महीने से एक नया अखबार शुरू करने जा रहे हैं, तुम्हारा काम हमें पसंद आया है, अगर तुम चाहो तो हम तुम्हें फोटो जर्नलिस्ट की नौकरी दे सकते हैं। शुरू में तुम्हें 4500 रूपये महीना मिलेगा और काम चल निकलने पर और भी बढ़ा देंगे। और हां यह लो तुम्हारी मेहनत। मनोहर अपने पैसे लेकर घर वापिस आ गया और वही पैसे उसने घर के खर्च के लिए अपनी पत्नी को दे दिए। उसने गुप्ता जी के प्रस्ताव के बारे में लक्ष्मी को बताया।
उस काम में क्या करना होगा आपको ?

मुझे भी पूरी तरह पता नहीं है, शायद अखबार में फोटो खींचने वालों का काम होता है। मैं सोच रहा था कि वैसे भी दुकान से कोई स्थायी आमदनी तो होती नहीं है, आठ सौ रूपये तो किराया ही चला जाता है अगर मैं सेठ के यहां काम कर लूं तो बुरा ही क्या है और फिर जब कभी सीजन या कोई खास समारोह हुआ तो अखबार के काम के साथ वो भी किया जा सकता है। उस रोज की चर्चा के बाद फिर वो अपने काम में लग गया। अब दुकान से आमदनी रोज घटती ही जा रही थी, उसकी कमाई से जोड़े हुए पैसे बेटी की स्कूल के एडमिशन में ही चले गए थे। हाथ इतना तंग हो गया कि घर का राशन पूरा करना भी मुश्किल हो गया। ऊपर से मकान और दुकान का किराया सिर पर आ गया। किसी तरह से वो चुकाया तो अब हाथ और तंग हो गया,  दो दिन तक मनोहर सिर्फ एक वक्त ही रोटी खाकर रूपयों के इंतजाम के लिए जाता रहा। तीसरे दिन सुबह उठते ही उसे गुप्ता जी के प्रस्ताव की याद आई, उसने उनका कार्ड निकाला और घर के सामने फोन बूथ से जाकर नंबर मिलाया।

गुप्ता जी बोल रहे हैं।

यस, कौन बोल रहा है।

साहिब मैं, मनोहर लाल बोल रहा हूं जिसने आपकी फोटो खिंची थी और आपने अखबार में काम करने का प्रस्ताव दिया था।

हां, याद आया, लेकिन अब तो हमने एक आदमी रख लिया है, मैंने तुम्हे दो दिन में जवाब देने को कहा था अब तो अखबार निकले भी महीना हो गया है। साहेब मैं आपसे गुजारिश करता हूं, मुझे इस वक्त काम की बहुत जरूरत है, तनख्वाह जो चाहे वो देना आप,  लेकिन मैं काम में कोई शिकायत नहीं आने दूंगा। ठीक है, तुम हमारे अखबार के दफ्तर चले जाओ, वहां दिनेश जी होंगे। मैं उनसे कह देता हूं, अखबार का नाम है महाराज टायम्स और दफ्तर नेताजी रोड पर है।

बहुत-बहुत धन्यवाद साहेब।

मनोहर ने गुप्ता जी के कहे अनुसार ही किया और जाकर दिनेश जी से मिला, जो कि अखबार का मुख्य संपादक था। तुमने पहले किसी अखबार में काम किया है। नहीं सर,  बस अपना ही काम किया है। मतलब सिर्फ शादियों में ही काम किया है, गुप्ता साहिब भी ना जाने क्यूं प्रोफेशनल लोगों को छोड़कर अनाड़ियों को भर्ती कर लेते हैं,  बाद में परेशानी मुझे ही होती है। अच्छा ये बताओ तुम्हारे पास मोटर साइकिल है।

नहीं सर।

दिनेश ने अपने फोटो जर्नलिस्ट, महेश को बुलाया और उससे कहा कि शहर में एक नए रेस्तरां का उद्घाटन हो रहा है वहां चला जाए और साथ में मनोहर को भी ले जाए। उसने मनोहर से कह दिया कि जब तक वो काम नहीं सीख लेता तक तक उसे महेश के नीचे ही काम करना होगा और जब वो काम को समझ लेगा तो उसे एक अलग डिजिटल कैमरा मिल जाएगा। महेश उसे अपनी मोटरसाइकिल पर ले गया और रास्ते में उसके बारे में भी सब समझ गया और उसे अपने बारे में भी अच्छे से समझा दिया। उसने इशारे में कह दिया कि मनोहर को यदि अखबार में काम करना है तो उसी को अपना गुरु मानकर चलना होगा। हालात का शिकार मनोहर तो कुछ भी मानने को तैयार था फिर मनोहर के अहम को स्वीकार करना तो कुछ बड़ा या कठिन काम नहीं था।

वो दोनों रेस्तरां पहुंच गए, उनके पहुंचते ही उनका स्वागत ढेर सारे व्यंजनों से किया गया। महेश ने मनोहर को इशारा किया और खुद भी खाना शुरू कर दिया। दो दिन से भूख सह रहे मनोहर के लिए तो ये ईश्वर के वरदान से कम नहीं था, शादियों के सीजन के बाद पहली बार उसने इतना लजीज खाना खाया था, खाते समय उसे ख्याल आ रहा था कि काश वो इसमें से कुछ अपनी बीवी और बेटी के लिए भी ले जा सकता। उसके बाद महेश ने फंक्शन के फोटो खींचे और वो दोनों वहां से जाने लगे, तभी आयोजकों ने उन दोनों की ओर दो पैकेट बढ़ा दिए।
अरे इसकी क्या जरूरत है सर, महेश बोला।

क्या बात करते हैं जनाब, आप हमारा इतना ख्याल रखते हैं, उसके आगे यह तुच्छ भेंट क्या मायने रखती है।

महेश ने पैकेट ले लिया और मनोहर से भी लेने को कहा।

बाहर निकलते ही उसने मनोहर से कहा कि अब वो इस पैकेट को लेकर सीधे अपने घर चला जाए और दो घंटे के अंदर वापिस दफ्तर आ जाए तब तक वो भी आ जाएगा और बाकी का काम उसे वहीं समझाएगा।

मनोहर ने जब घर पहुंचकर पैकेट खेाला तो उसमें फास्ट फूड और कुछ चाकलेट था। वो सब देखते ही उसे बहुत खुशी हुई उसने लक्ष्मी से कहा कि वो और छोटी मिलकर खा लें और छोटी को चाकलेट देते हुए प्यार जताया। रेस्तरां में हुई खातिर और सम्मान से मनोहर बहुत खुश था। अब महेश के साथ रहकर उसने काम को सीख भी लिया और समझ भी लिया। महेश दिन भर उसे अपने साथ रखता और शाम को कंप्यूटर पर खींचे हुए फोटो को एडिट करना भी सिखाता था। फिर एक महीने बाद मनोहर को भी कम्पनी की तरफ से एक कैमरा मिल गया। अब उसे महेश से अलग अकेले ही काम पर भेजा जाता था, उसकी दोस्ती अब दूसरे अखबार वाले फोटो जर्नलिस्ट से भी हो गई। रंजीत उसका खास दोस्त बन गया, वो दोनों एक-दूसरे की बहुत मदद करते थे, उनमें से एक से अगर कोई स्पॉट छूट जाता था तो दूसरा उसे अपनी खींची हुई फोटो भेज देता था। अक्सर वे दोनों फोन पर ही तय कर लेते थे कि जहां उनमें से एक जा रहा होगा, वहां दूसरा नहीं जाएगा और बाद में वे लोग आपस में फोटो बांट लेंगे। मनोहर के पास लैपटॉप और कार्ड रीडर भी थी, इसलिए अब लक्ष्मी और छोटी की जरूरतें भी पूरी कर दिया करता था। धीरे-धीरे वे समाज के वरिष्ठ लोगों के संपर्क में आने लगा। उसके फोन पर जब कभी शहर के किसी बड़े पुलिस के अधिकारी या किसी बड़े नेता का फोन आता था तो बहुत शान से लक्ष्मी को बताता था और कभी-कभी जब शाम को प्रेस क्लब से शराब के कुछ पैग मारकर घर आता था तो अपनी मल्लिका के आगे खुलकर अपनी महानता का बखान करता था।

एक रात जब वो शराब के सुरूर में था तो बिस्तर पर लक्ष्मी को अपनी बाहों में लेकर बोला, जानती है तू किसकी पत्नी है।

हां सब जानती हूं मैं,  अभी शराब का नशा है तो बहुत प्यार आ रहा है, वरना दिन में कभी जो तुम्हे फोन करो तो खाने को आते हो। अरे तू तो मेरी रानी है, यह देख मेरा आई कार्ड, मनोहर लाल फोटो जर्नलिस्ट, महाराज टायम्स, अरे बड़े-बड़े मंत्री इस कार्ड को देखकर सलूट मारते हैं। हां तभी तो मंत्री करोड़ों कमाते हैं और सलामी लेने वाले मुश्किल से तीन हजार ही बचा पाते हैं, लक्ष्मी ने हंसते हुए कहा। तू चिंता क्यूं करती है मेरी जान, हम भी कमाएंगे। और फिर मनोहर उसे चूमते हुए उसके आगोश में खो गया और वो भी मनोहर में लीन हो गई।

उनके हालात में कोई खासा सुधर नहीं हुआ था, हां सिर्फ इतना फर्क पड़ा था कि कुछ खर्चे निकल जाते थे और जान-पहचान बन जाने के कारण कुछ खर्चे बच जाते थे। लेकिन अभी मनोहर की पहचान सिक्के के दूसरे पहलु से नहीं हुई थी। एक दिन वो दिनेश जी के पास गया और उससे इजाजत मांगी कि सीजन के दिन हैं इसलिए उसे दफ्तर के काम के बाद कुछ शादियों के फंक्शन करने दिए जाएं। दिनेश ने साफ इंकार कर दिया और कहा कि उसके ऐसा करने पर उसके और कंपनी दोनों के नाम को धक्का लगेगा। तुम एक फोटो जर्नलिस्ट हो और हमारा अखबार अब इस राज्य का एक जाना-माना नाम बन चुका है, जब तुम्हें लोग शादियों के फोटो खींचते देखेंगे तो क्या नाम रह जाएगा हमारा। दोबारा ऐसी बात सोची भी तो निकाल दिए जाओगे।
वो मायूस चेहरा लेकर दफ्तर से बाहर निकल आया। अखबार को बढ़ता देखकर गुप्ता जी ने फैसला किया कि अब अखबार के आठ पेज और बढ़ा दिए जाएंगे। एक मीटिंग की गई और सबसे काम बढ़ाने को कहा गया, अब ये तय हुआ कि दोनों फोटोग्राफर भी ज्यादा फोटो दिया करेंगे। मनोहर को कम्पनी की तरफ से एक मोटर साइकिल भी दी गई लेकिन अब उसे पूरा दिन दौड़ना पड़ता था, उसकी तनख्वाह का एक अच्छा हिस्सा तो अब पेट्रोल खर्च में ही चला जाता था। एक बार वो दिनेश जी के पास तनख्वाह बढ़ाने की खातिर गया तो दिनेश जी ने फिर उसे खरी-खोटी सुना डाली।

तुम काम क्या करते हो। तुम्हे रखा है यही तुम पर एक बहुत बड़ा एहसान है, अरे वरना जितने फोटो तुम खींचते हो ना, उससे दुगुने और कहीं बेहतर तो मैं यहीं बैठे मंगवा सकता हूं, हजारों एजेंसी वाले तैयार बैठे हैं। फिर हम तुम्हें क्यूं झेलें, पहले अपने काम में क्वालिटी लाओ फिर बात करना आकर।

मनोहर समझ गया था कि वो एक ऐसे अजीब से जाल में फंस चुका है जिसे भेद पाना अब उसके लिए संभव नहीं है। उसे लगा कि यदि वो नौकरी छोड़ता है तो जो लोग उसके एक बार कहने पर उसका काम कर देते हैं वो घास भी नहीं डालेंगे और
अगर काम करता रहता है तो यह सब उसे मानना होगा और मालिकों की गुलामी को चुपचाप सहना भी होगा। उसके पास कोई ऐसी खास काबिलियत या डिग्री डिप्लोमा भी नहीं था कि किसी और अखबार में हाथ पैर मार सके और अगर उसने ऐसा कुछ किया तो ये कंपनी उसे निकालते देर न लगाएगी। क्योंकि शहर में ऐसे हजारों सीजन खींचने वाले फोटोग्राफर थे जो एक बार किसी अखबार में काम करने का मौका ढूंढ रहे थे। शहर में किसी नेता के विवादास्पद बयान के कारण दो समुदायों में दंगे छिड़ गए। मनोहर को भी दिनेश ने फोन कर के कहा कि वो जाकर दंगों और जुलूसों के फोटो खींचकर ले आए। मनोहर अपने दोस्त रंजीत को साथ लेकर निकल गया, उन्होंने दो जगह का फोटो खींचा और शहर के मुख्य चौक पर चले गये क्योंकि वहां सबसे अधिक अफरा-तफरी थी और एक बड़ा जुलूस निकल रहा था, वहां पहुंचकर उन्होंने देखा कि पुलिस भीड़ पर लाठियां भांज रही थी, वे दोनों उस घटना की तस्वीरें खींचने लगे। तभी मौके पर ही खड़े पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी की नजर उन दोनों पर पड़ी, उसने अपने सिपाहियों से कहा कि उन दोनों से कैमरे छीन लें और उनकी भी पिटाई करें। सिपाहियों ने उन दोनों की जमकर पिटाई की, रंजीत के हाथ में मनोहर की उंगलियों में फ्रैक्चर हो गया और इसके अलावा उन्हें सिर पर भी चोटें आई। उन दोनों को इलाज के लिए अस्पताल भर्ती करवाया गया और शहर की बाकी मीडिया ने घटना की निंदा की। मीडिया के दबाव में पुलिस के सर्वोच्च अधिकारी ने उन दोनों के इलाज का खर्चा और मुआवजा दिया लेकिन इस घटना से लक्ष्मी और उसकी बेटी बहुत सहम गए थे उनके अंदर एक असुरक्षा की भावना घर कर गई थी। घटना को हुए एक महीना बीत चुका था, मनोहर घर पर ही आराम कर रहा था, तभी दिनेश जी का फोन आया।

मनोहर बहुत हो गया आराम, अब तो तुम ठीक हो चुके होगे। कल से काम पर वापिस आ जाओ। इतना कहकर उसने फोन काट दिया। लक्ष्मी, जो कि मनोहर के पास ही बैठी थी, बोली, ये उसी मनहूस का फोन है ना, जो इंसान को इंसान नहीं समझता कह दो उससे कि अब तुम ये काम नहीं करोगे। क्या तीन हजार के लिए तुम्हारी जान ले लेंगे ये लोग, एक महीना हो गया तुम्हे बिस्तर पर पड़े हुए कोई मुआ देखने तक नहीं आया। भगवान ना करे कल को तुम्हे कुछ हो गया तो, हम दोनों का क्या होगा और वैसे भी तुम अपना काम कर सकते हो, भले ही पैसे कुछ कम आएं पर जान तो सलामत रहेगी। मनोहर चुपचाप लक्ष्मी की सब बातें सुनता रहा, उस रात उसके दिमाग में यही सब बातें घूमती रहीं।

मनोहर ने लक्ष्मी के जोर देने पर अखबार की नौकरी छोड़ दी और फिर से अपनी फोटोग्राफी की दुकान करने लगा। उसने देखा कि जैसे ही उसकी काम छोड़ने की बात लोगों का पता चली, तो जो लोग उसे दिन-रात फोन करते थे और एसएमएस कर करके उसके मोबाइल को भर देते थे, अब वही लोग उसका फोन उठाना बंद कर चुके थे। जिन वरिष्ठ लोगों के यहां उसे कभी भी जाने की इजाजत थी अब उनके दरबान ही उसे वापिस भेज देते थे। बेटी के स्कूल में उसे कभी भी फीस जमा करवाने की इजाजत थी, उसके लिए कोई अंतिम तिथि नहीं होती थी, क्योंकि वो हमेशा प्रिंसीपल के कहने पर उनके स्कूल के समारोह की फोटो खींचकर अखबार में लगवा देता था लेकिन अब स्कूल की तरफ से उन्हें जल्द फीस जमा करवाने का दबाव था और ऐसा न होने पर उसकी बेटी को निकालने की धमकी भी मिल चुकी थी। उसने सोचा नहीं था कि लोगों का रूख इस तरह बदल जाएगा, जिन लोगों ने उसे खुद पैसे दिए थे वही लोग अब उसे पैसे वापिस करने के लिए फोन करते थे। शहर के एक रेस्तरां के मालिक ने एक बार अपनी ओर से मनोहर के बेटी के जन्मदिन पर पार्टी करवाई थी लेकिन अब वो भी उसके पैसे मांग रहा था। जबकि उस समय उसने कहा था ये मेरी बेटी पहले है और मनोहर की बाद में और अब उसने फोन करके कहा मनोहर मैं शराफत से बोल रहा हूं, सिर्फ रोटी के पैसे दे दो,  हॉल का किराया तो मैं मांग ही नहीं रहा हूं।

लेकिन सेठ आपने तो कहा था, कि सारा खर्चा मेरा होगा।

अरे भाई खर्चे से मेरा मतलब ये नहीं था कि तुम मुफ्त का माल समझ लो, मेरा तो हॉल का किराया ही एक लाख है।

मेरे पास तो एक पैसा भी नहीं है।

तो ठीक है मैं तुम्हारी बेटी को उठाकर ले जाता हूं।
मनोहर चिल्लाने लगा, उसे छोड़ दो सेठ, उसका क्या कसूर है, उसे छोड़ दो...।

अचानक मनोहर की नींद खुली और उसे समझ आया कि वो एक सपना देख रहा था। लक्ष्मी और बच्ची सो रहे थे। वो उठा और बिना नहाये ही  अपना कैमरा उठाया और बाहर आकर मोटरसाइकिल चालू की और निकल पड़ा।