हर शय पे ये
दिल आता यूँ हर दिन भी नहीं है
इस दौर में
अब इश्क़ तो मुमकिन भी नहीं है
कहने को
ज़माने का ज़माना मेरा अपना
और उस पे
सितम है कोई मोहसिन भी नहीं है
क्यों ख़ुद
से ज़ियादा मुझे उस पर है भरोसा
जो शख़्स
मेरे शह्र का साकिन भी नहीं है
जीने की हवस
ने मुझे छोड़ा है जहाँ पर
डँसने के
लिये उम्र की नागिन भी नहीं है
पढ़ ही न सके
चेहरा-ए-हस्ती की इबारत
अब मेरी नज़र
इतनी तो कमसिन भी नहीं है
महफ़ूज़ मेरे
ज़ह्न में सदियों के हैं ख़ाके
हालाँकि
मेरे कब्ज़े में एक छिन भी नहीं है
इस वासते
मुंसिफ़ ने मेरी क़ैद बढ़ा दी
बेज़ुर्म भी
हूँ और कोई जामिन भी नहीं है
सागर
त्रिपाठी
+91 9920052915
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