छन्द – सागर
त्रिपाठी
चाह नहीं
दधि-माखन की
तट-तीर
कदम्ब की डार न चाहूँ
स्वाति की
बूँद से तुष्टि मुझे
शिव-भाल से
गङ्ग की धार न चाहूँ
पेट की भूख
को अन्न मिले
धन का मैं
अपार बखार न चाहूँ
पाँव पखारि
सकूँ हरि के
बड़ दूजो कोऊ
उपकार न चाहूँ
मत्त-गयन्द सवैया
सात भगण + दो गुरू
सखियों से
खेल हारी कर अठखेल हारी
दिल से
कन्हाई की मिताई नहीं जायेगी
मन है अधीर
ऐसे मीन बिनु नीर जैसे
बात,
बैरी-जग को बताई नहीं जायेगी
कहने को लाख
कहे, साँवरा जो हाथ गहे
राधा से
कलाई तो छुड़ाई नहीं जायेगी
अधरों की
लाली राधा तुम ने छुपा ली माना
रङ्गत कपोलों की छिपाई नहीं जायेगी
घनाक्षरी छन्द
8, 8, 8, 7 वर्ण
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