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नज़्म - ऐ शरीफ़ इन्सानो - साहिर लुधियानवी

नज़्म  -  ऐ शरीफ़ इन्सानो  -  साहिर लुधियानवी


खून अपना हो या पराया हो
नस्ल-ए-आदम का ख़ून है आख़िर,
जंग मशरिक़ में हो या मग़रिब में,
अमन-ए-आलम का ख़ून है आख़िर !

बम घरों पर गिरे कि सरहद पर ,
रूह-ए-तामीर जख्म खाती है !
खेत अपने जले कि औरों के ,
ज़ीस्त फ़ाकों से तिलमिलाती है !

टैंक आगे बढे कि पीछे हटे,
कोख धरती की बांझ होती है !
फ़तह का जश्न हो कि हार का सोग,
ज़िंदगी मय्यतों पे रोंती है !

जंग तो खुद ही एक मसलआ है
जंग क्या मसलों का हल देगी ?
आग और ख़ून आज बख्शेगी
भूख और एहतयाज कल देगी !

इसलिए ऐ शरीफ़ इंसानों ,
जंग टलती रहे तो बेहतर है !
आप और हम सभी के आंगन में,

शमा जलती रहे तो बेहतर है

फ़रार / साहिर लुधियानवी

अपने माज़ी के[1] तसव्वुर से[2] हिरासां[3]हूँ मैं 
अपने गुज़रे हुए ऐयाम से[4] नफरत है मुझे

अपनी बेकार तमन्नाओं पे शर्मिंदा हूँ 

अपनी बेसूद[5] उम्मीदों पे नदामत है मुझे 

मेरे माज़ी को अँधेरे में दबा रहने दो 

मेरा माज़ी मेरी ज़िल्लत के सिवा कुछ भी नहीं
मेरी उम्मीदों का हासिल, मिरी काविश[6] का सिला 
एक बेनाम अज़ीयत के[7] सिवा कुछ भी नहीं

कितनी बेकार उम्मीदों का सहारा लेकर
मैंने ऐवान[8] सजाए थे किसी की खातिर

कितनी बेरब्त[9] तमन्नाओं के मुबहम ख़ाके[10]
अपने ख़्वाबों में बसाए थे किसी की ख़ातिर 


मुझसे अब मेरी मोहब्बत के फ़साने[11] न कहो 

मुझको कहने दो कि मैंने उन्हें चाहा ही नहीं

और वो मस्त निगाहें जो मुझे भूल गईं 
मैंने उन मस्त निगाहों को सराहा ही नहीं 


मुझको कहने दो कि मैं आज भी जी सकता हूँ 

इश्क़ नाकाम सही – ज़िन्दगी नाकाम नहीं 

उन्हें अपनाने की ख्वाहिश, उन्हें पाने की तलब
शौक़े-बेकार[12] सही, सअइ-ए-ग़म-अंजाम[13] नहीं 


वही गेसू[14], वही नज़रें, वही आरिज़[15], वही जिस्म 

मैं जो चाहूं तो मुझे और भी मिल सकते हैं 

वो कंवल जिनको कभी उनके लिए खिलना था 
उनकी नज़रों से बहुत दूर भी खिल सकते हैं


शब्दार्थ:
1.      भूतकाल के
2.      कल्पना से
3.      भयभीत
4.      दिनों से
5.      व्यर्थ
6.      प्रयत्न का
7.      कष्ट के
8.      महल
9.      असंगत
10.  अस्पष्ट चित्र
11.  कहानियां
12.  बेकार शौक़
13.  दुखांत चेष्टा
14.  केश
15.  कपोल


कविता कोश से साभार