31 अक्तूबर 2021

सदियों का सारांश - द्विजेन्द्र द्विज - एक समीक्षा

 

पहाड़ों पर जाना किसे अच्छा नहीं लगता ? कौन है जिसे पहाड़ों से मुहब्बत नहीं है? पहाड़ों का हुस्न, पहाड़ों का पानी, पहाड़ों की चढ़ाई, पहाड़ों की उतराई, पहाड़ों की गर्मी, पहाड़ों की सर्दी, पहाड़ों का खाना, पहाड़ों के सरोकार ऐसे अनेक विषयों से आप अवश्य ही दो-चार हो चुके होंगे अब तक । पहाड़ों पर अनेक कविताएँ, गीत, शेर आदि भी पढे होंगे आप ने अब तक । परन्तु किसी एक ही काव्य संग्रह विशेष कर ग़ज़ल संग्रह में बार-बार पहाड़ों के बारे में बतियाना और वह भी अलग-अलग ज़ावियों के साथ ऐसे उदाहरण अगर आप को मिले भी होंगे तो बहुत कम ही मिले होंगे । उस में भी विशेष बात यह कि शायर भी पहाड़ों वाला ही हो ।

 आज की इस चर्चा में हम स्वभाव से बहुत ही विनम्र और अध्ययन में बहुत ही गहरे शायर श्री द्विजेन्द्र द्विज जी के हालिया रिलीज हुए ग़ज़ल-संग्रह “सदियों का सारांश “ की बात का रहे हैं ।

 द्विज जी न केवल हिमाचली, उर्दू और हिन्दी के बेहतरीन जानकार हैं बल्कि अंग्रेजी के भी उन चुनिन्दा जानकारों में आप का शुमार होता है जो अंग्रेजी भाषा की बारीकियों पर साधिकार बात करते हैं । 10 अक्तूबर 1962 को इस धराधाम पर द्विज जी पधारे और अब तक उन्हें उनकी कृतियों के लिए अनेकानेक सम्मान प्राप्त हो चुके हैं । “ ऐब पुराणा सीहस्से दा “ नाम से आप का हिमाचली ग़ज़ल संग्रह क़ाफ़ी चर्चित हुआ है ।

 विवेच्य ग़ज़ल-संग्रह “ सदियों का सारांश “ में द्विज जी ने देवनागरी लिपि में अपनी उर्दू ग़ज़लों को संग्रहित कर प्रस्तुत किया है । इस ग़ज़ल-संग्रह में शायर ने हिन्दी भाषा के लालित्य को भी बख़ूबी इस्तेमाल किया है । उर्दू शायरी में जिन अशआर  को सुना / पढ़ा और सराहा जाता रहा है, आइये पहले ऐसे कुछ अशआर पढ़ते हैं

 इन आँसुओं को सीने में रखना मुहाल है
धारे निकल ही आते हैं पत्थर को तोड़ के
 
ज़ुरअत करे, कहे तो कोई आसमान से
पंछी कहाँ गये, जो न लौटे उड़ान से
 
चलो मिलकर उजालों के लिए दीपक जलाते हैं
अंधेरे में अकेले बैठना अच्छा नहीं लगता
 
शिफ़ाख़ाने में तेरे ऐ हकीम, इतनी तो राहत हो
न कम हो दर्द लेकिन दर्द सहने की इजाज़त हो
 
वो आयी है तो चमन मुँह बना के बैठा है
गयी बहार को रोयेगी हर कली इक दिन
 
एक लमहे को उसको देखा था
उम्र भर फिर उसी के ख़्वाब आये
 
कोई निस्बत नहीं ज़मीं से मियाँ
घर तुम्हारा है आसमान में क्या
 
जो धोखा दे रहे थे हर नज़र को
मैं आख़िर ऐसे मंज़र देखता क्या
 
मशीन बन तो चुका हूँ मगर नहीं भूला
कि मेरे जिस्म में दिल भी कभी धड़कता था

 द्विज जी ने रवायती और जदीद दौनों तरह की शायरी की है । हिन्दी ग़ज़ल के नाम से मशहूर मगर वास्तव में दुष्यंत कुमार की उर्दू शायरी का जो लबो-लहजा है वह भी द्विज जी के यहाँ भरपूर मात्रा में उपलब्ध है । इस ग़ज़ल संग्रह में पहली दो ग़ज़लें ऐसी हैं जिन की रदीफ़ ही “पहाड़” है । इन दौनों ग़ज़लों में और दीगर ग़ज़लों में भी जहाँ-जहाँ मौक़ा मिला है शायर ने पहाड़ों से अपने पवित्र-प्रेम को बड़ी ही शिद्दत से बयान किया है । आइये अब उन अशआर को पढ़ते हैं जो मुझे इस ग़ज़ल संग्रह का वैशिष्ठ्य प्रतीत हुए :

 ख़ुद भले ही झेली हो त्रासदी पहाड़ों ने
बस्तियों को दी लेकिन हर ख़ुशी पहाड़ों ने
 
भाता अगर है आप को जीना पहाड़ का
लेकर कहाँ से आयेंगे सीना पहाड़ का
 
जो देखना है तुझको भी जीना पहाड़ का
सर्दी में आ के काट महीना पहाड़ का
 
इमदाद हो कोई कि इशारा वतन का हो
आता है काम ख़ून-पसीना पहाड़ का
 
बस आसमान सुने तो इन्हें सुने यारो
पहाड़ की भी पहाड़ों सी ही व्यथाएँ हैं
 
न जाने कितनी सुरंगें निकल गयीं उस से
खड़ा पहाड़ भी तो आँख का ही धोखा था
 
रू-ब-रू हमसे हमेशा रहा है हर मौसम
हम पहाड़ों का भी किरदार सम्हाले हुए हैं
 
फिर आज धूप टहलती दिखी पहाड़ों पर
फिर आज दीप उमीदों के हो गये रौशन
 
पर्वतों को चीर कर जिस दम नदी आगे बढ़ी
दूर उसका फिर किनारे से किनारा हो गया
 
कुछ देर डरायेगा पहाड़ों का कुहासा
फिर इस में नज़र आयेगी सूरज की किरन भी
 
आगे बढ़ने पै मिलेंगे तुझे मंज़र भी हसीन
इन पहाड़ों के कुहासे को कुहासा न समझ

 द्विज जी ने अपनी शायरी में सादगी को वरीयता प्रदान की है । हालाँकि व्यंजनात्मकता और लालित्य से इन्होंने परहेज़ नहीं किया है मगर जो देखा सो लिखा पर इनका अधिक ज़ोर रहा है और आज के युग में ऐसे साहित्य को भी रेखांकित किया जा रहा है । द्विज जी को इस ग़ज़ल संग्रह के लिए बहुत-बहुत बधाई ।

भारतीय ज्ञान पीठ की लोकोदय ग्रंथमाला के अंतर्गत प्रकाशित इस पुस्तक को पाने का पता

भारतीय ज्ञानपीठ
18, इन्स्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नयी दिल्ली – 110003
फोन – 011-24626467, 23241619, 09350536020 
ईमेल – bjnanpith@gmail.com
 
द्विज जी का मोबाइल नम्बर – 09418465008
 
सादर सप्रेम
जय श्री कृष्ण

मनसुख विरह - एक उत्तम ब्रजभाषा काव्य संग्रह

 

ऐसा शायद ही कोई साहित्य प्रेमी होगा जिसे ब्रजभाषा के बारे में जानकारी न हो - जिसने ब्रज भाषा की रचनाओं का रसास्वादन न किया हो, जिसने ब्रजसरोवर में गोते न लगाये हों, जिसने सूरदास सहित अष्टछाप के विविध कवियों की अमृतवाणी चखी न हो, जिसने दीवानी मीरा के निश्छल और निष्कपट प्रेम की अनुभूति न की हो, जिसने रहीम के दोहों में छुपे जीवन दर्शन का अवलोकन न किया हो, जिसने भूषण के अर्थ विस्फोट वाले छंदों और केशव के काव्य सौन्दर्य से सुसज्ज छंदों का विहंगावलोकन न किया हो, जिसने तुलसी के “ माया तू न गयी मेरे मन ते “ जैसे अनेकानेक पदों और छंदों से सुरभित कानन में विचरण न किया हो, जिसने “ काहु दिन उठ गयौ मेरे हाथ, बलम तोहि ऐसौ मारोंगी” या “ बन गये नंदलाल लिलिहार कि लीला गुदवाय लेहु प्यारी “ या ब्रज की तोहि लाज मुकुट वारे” जैसे अनेक रसियाओं / भजनों पर ठुमके न लागाये हों । ब्रजभाषा जिसके बारे में कहा जाता है कि “ धन्य ब्रजभासा तो सी दूसरी न भासा तै नें बानी के बिधाता कों बोलिवौ सिखायौ है” , ऐसी ब्रजभाषा से अमूमन हर रसिक साहित्यानुरागी भलीभाँति परिचित है ।

ब्रजभाषा में अनन्त काल से उत्कृष्ट से उत्कृष्टतम रचनाएँ होती रही हैं । अमीर खुसरो हों या बाबा फ़रीद ख़ान साहब हों, भारतेन्दु हरिश्चंद्र हों या जयशंकर प्रसाद, बाबू जगन्नाथ दास रत्नाकर, कविवर नवनीत, गोविंद कवि जी, लला कवि, नाथ कवि, चतुर्भुज पाठक कंज जी, यमुना प्रसाद चतुर्वेदी प्रीतम जी जैसे अनेकानेक रचनाधर्मियों ने ब्रजभाषा के उपवन में भाँति-भाँति के सुमन सरसाये हैं ।

आज हम 2021 में प्रकाशित हुई बड़ी ही प्यारी सी कृति “ मनसुख विरह “ की चर्चा कर रहे हैं । इस पुस्तक को, जिसे “खण्डकाव्य” कहने में किसी को संकोच नहीं होना चाहिए, ब्रजभाषा के वर्तमान काल के समर्पित अध्येता, मनीषी एवं शिल्पी श्री राधा गोविन्द पाठक जी ने प्रस्तुत किया है ।

मनसुख या मनसुखा यशोदानन्दन भगवान श्री कृष्ण के परमप्रिय सखाओं में से एक हैं । बचपन के सखाओं एवं सखियों की स्मृतियाँ सदैव ही मधुर ही होती हैं । उन के साथ व्यतीत किये गये पल-छिन अनन्य होते हैं । ऐसी अनेक बातें होती हैं जिन्हें ऐसे सखाओं और सखियों के सिवा और कोई भी नहीं जानता या नहीं जान सकता । लीला पुरुषोत्तम आनन्दघन श्याम सुन्दर के सनेही सखा के स्वरूप में अधिकांश लोगों को सुदामा चरित्र ही याद आता है । परन्तु कविवर राधा गोविन्द पाठक जी ने श्री कृष्ण के बालसखा मनसुखा के माध्यम से रसिकता से ओतप्रोत लड़कपन के विविध कथानकों को पटल पर लाने का पूर्णरूपेण सफल प्रयास किया है ।

हमने ब्रज साहित्य में राधा के विरह को पढ़ा है, गोपियों के कष्ट पढे हैं, मातु यशोदा की पीड़ा पढ़ी है, अन्य ब्रजवासियों की अनुभूतियाँ भी पढ़ी हैं परन्तु जिस तरह से एक बालसखा के बालमन की अनुभूतियों को ब्रजभाषा के छंदों के माध्यम से कवि ने प्रस्तुत किया है वह बड़ा ही लोमहर्षक है । एक उदाहरण देखिये :

एक दिन रूठ गयौ खेल खेल में हम सों
का बिध मनायौ सुधि रह रह आवै है

सपने हू सोचौ नहिं जैहै तू हमें बिसार
पल हू न चैनरैन बीत नाँहि पावै है

छाती फटी जातआह निकसत बैनन सों
नेह कूँ निभावै हैकै बीजूरी गिरावै है

धीर को धरावैभाँति-भाँति की उठत पीर,
निपट लबार तेरी याद च्यों सतावै है

 जिन्हों ने ब्रज साहित्य में गोपियों की पीड़ा और उलाहने पढे हुए हैं ऐसे साहित्यानुरागी इस महीन अन्तर को स्पष्ट रूप से अनुभूत कर सकते हैं । जिन लोगों ने अपने लड़कपन में जम कर शरारतें की हैं उन के लिए यह छन्द विशेष रूप से :

एक दिन तुममैं औ सिरीदामा तीनों मिलि
पौंचे लखि सूनों घर ललिता कौ पाइ कें
 
माखन चुरान खान निज नेह देखन कों
भिरौ हो जो द्वारधीरें खोलि दियौ जाइ कें
 
सूनौ सौ सदन जानि तीनों घुसि कें सप्रेम
हम दोऊ घोड़ा बने तू लियौ चढ़ाइ कें
 
पकरत छींकौ निज घर आई ललिता तौ
चौंकि भाजे तीनों झट मटुकी गिराइ कें

 “ मनसुख विरह “ में कवि ने कृष्ण की अमूमन सभी बाल लीलाओं का वर्णन सखा की स्मृतियों और अनुभूतियों के माध्यम से किया है जो अपने आप में अनूठा है । कृष्ण जिनके आराध्य हैं उन्हें तो यह पुस्तक आनन्ददायिनी सिद्ध होगी ही परन्तु जो लोग भले ही कृष्ण को आराध्य न मानते हों परन्तु बाल लीलाओं के रसिक हों और कृष्ण के लौकिक स्वरूप से प्रभावित हों उन्हें भी यह पुस्तक आनन्द से सराबोर करेगी, ऐसा इस पुस्तक को पढ़ कर सिद्ध होता है ।

 इस पुस्तक और इस प्रसंग पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है परन्तु समीक्षा का उद्देश्य क्षुधा की पूर्ति करना न हो कर क्षुधा को जगाना होता है इसलिए कविवर राधा गोविन्द जी के इस काव्य-कर्म की अनुशंसा करते हुए लेखनी को यहीं विराम देना श्रेयस्कर है ।

 पुस्तक प्राप्ति हेतु सम्पर्क करें

 श्री गोविन्द पचौरी, जवाहर पुस्तकालय, हिन्दी पुस्तक प्रकाशक एवं वितरक, सदर बाजार, मथुरा – 281001, मोबाइल – 09897000951

ईमेल – jawahar.pustakalaya@gmail.com

 कवि का सम्पर्क मोबाइल नम्बर – 9837426310

जय श्री कृष्ण

राधे राधे

24 अक्तूबर 2021

करवा चौथ कविता - मेरे तो तुम ही ईश्वर हो - अटल राम चतुर्वेदी

 

 

 तुम ढूँढ़ो दुनिया में ईश्वर।

मेरे तो तुम ही ईश्वर हो।

मेरी है हर साँस तुम्हारी।

तुम पर ही मैं सब कुछ हारी।

सदा तुम्हारी आस करूँ मैं।

तुम ही तो शीतल तरुवर हो।

मेरे तो तुम ही ईश्वर हो।

तुम बिन मैं तड़फूँ बन मछली।

तुम्हें देखकर ही मैं सँभली।

होश नहीं रहता मुझको कुछ।

तुम हो तो मुझ पर है सब कुछ।

तुम ही तो मेरे सहचर हो।

मेरे तो तुम ही ईश्वर हो।

"अटल" प्रीत का तुमसे बंधन।

तुमसे बिंदिया, चूड़ी, कंगन।

तुम्हीं सितारे मेरे सिर के।

तुम बिन भटकूँ बिन मंजिल के।

तुम्हीं शक्ति व बुद्धि प्रवर हो।

मेरे तो तुम ही ईश्वर हो।

तुमसे जुड़ा अनूठा नाता।

साथ तुम्हारा मुझको भाता।

झेलूँ दिन भर भूख-प्यास मैं।

लगे उमर तुमको चाहूँ मैं।

मैं नदिया तो तुम सागर हो।

मेरे तो तुम ही ईश्वर हो।


अटल राम चतुर्वेदी 

बदन की आग दिखाई गई थी साज़िश से - मयंक अवस्थी

 


बदन की आग दिखाई गई थी साज़िश से ।

बदन में आग लगा दी गई थी साज़िश से ॥

 

हम उसको धर्म की आँधी समझ रहे थे मगर ।

वो  धूल आँख में झोंकी  गई थी साज़िश से ॥

 

मिलेगी राह तो मुर्दे भी उठ के दौड़ेंगे ।

वो कब्र इसलिए खोदी गई थी साज़िश से ॥

 

उस एक बेल ने पानी पे कर लिया कब्ज़ा ।

जो बेल ताल में डाली गई थी साज़िश से ॥

 

नदी को पार कराने का आसरा दे कर ।

भँवर में नाव भी मोड़ी गई थी साज़िश से ॥

 

मचल-मचल के चराग़ों से जा लिपटती थी ।

हवा दयार में भेजी गई थी साज़िश से ॥

 

चरस जो दूर तलक लहलहा रही है यहाँ ।

ये ख़ुद  नहीं उगी,  बोई गई थी साज़िश से ॥

 

हमारे ख़्वाब तो बेचे ही ताजिरों ने मगर ।

हमारी नींद भी बेची गई थी साज़िश से ॥

 

मयंक अवस्थी

यही इक मुख़्तसर सी दास्ताँ सब को सुनानी है - प्रेम भटनेरी



यही इक मुख़्तसर सी दास्ताँ सब को सुनानी है ।

हर इक मौसम में ख़ुश रहना यही तो ज़िंदगानी है ॥

 

मिरे दिल पर हुई दस्तक न जाने कौन आया है ।

फ़ज़ा की आहटों में आज ख़ुशबू ज़ाफ़रानी है ॥

 

तुम्हें जब मुझ से मिलना हो तो अपने आप से मिल लो ।

तुम्हारे दिल में रहता हूँ तुम्हारी बात मानी है ॥

 

कहीं बालू कहीं पत्थर कहीं कटते किनारे हैं ।

कोई कुछ भी नहीं कहता ये दरिया की रवानी है ॥

 

दिखाता है जो सब को रास्ता दुनिया में सोचो तो ।

ये उस का ही इशारा है उसी की मेहरबानी है ॥

 

छुपाऊँ किस तरह ख़ुद को मैं इन नक़ली नक़ाबों में ।

हक़ीक़त सामने इक रोज़ यारो आ ही जानी है ॥

 

प्रेम भटनेरी

इस ग़लाज़त को साफ़ कर देना - चेतन पंचाल

 


इस  ग़लाज़त को साफ़ कर देना ।

मुझको दिल से मुआफ़ कर देना ॥

 

मैं  अगर   भूलना   तुम्हें    चाहूँ ।

मुझको मेरे  खिलाफ़  कर  देना ॥

 

ग़लतियाँ  बाद  में  बताना  मेरी ।

पहले मुझको  मुआफ़ कर देना ॥

 

मैं करूँ गर तअल्लुक़ात को तर्क ।

तुम  ज़रा  इख़्तिलाफ़  कर देना ॥

 

गर   अंधेरा  उठाये  सर  "चेतन" ।

जुगनुओं  को ख़िलाफ़ कर देना ॥

 

चेतन पंचाल

मिरे क़दमों में दुनिया के ख़ज़ाने हैं उठा लूँ क्या - असलम राशिद

 


मिरे क़दमों में दुनिया के ख़ज़ाने हैं उठा लूँ क्या ।

ज़माना गिर चुका जितना मैं ख़ुद को भी गिरा लूँ क्या ॥

 

तिरा चेहरा बनाने की जसारत कर रहा हूँ मैं ।

लहू आँखों से उतरा है तो रंगों में मिला लूँ क्या ॥

 

सुना है आज बस्ती से मुसाफ़िर बन के गुज़रोगे ।

अगर निकलो इधर से तो मैं अपना घर सजा लूँ क्या ॥

 

भरा हो दिल हसद से तो नज़र कुछ भी नहीं आता ।

मैं नफ़रत में अदावत में मोहब्बत को मिला लूँ क्या ॥

 

कि बरसों से तो गिन गिन कर मैं इन को ख़र्च करता हूँ ।

अभी भी चंद साँसें हैं तिरी ख़ातिर बचा लूँ क्या ॥

 

असलम राशिद

23 अक्तूबर 2021

ख़ुद भले ही झेली हो त्रासदी पहाड़ों ने - द्विजेन्द्र ‘द्विज’


 ख़ुद भले ही झेली हो त्रासदी पहाड़ों ने ।

बस्तियों को दी लेकिन हर ख़ुशी पहाड़ों ने ॥

 

ख़ुद तो जी अज़ल ही से तिश्नगी पहाड़ों ने ।

सागरों को दी लेकिन हर नदी पहाड़ों ने ॥

 

आदमी को बख़्शी है ज़िंदगी पहाड़ों ने ।

आदमी से पायी है बेबसी पहाड़ों ने ॥

 

मौसमों से टकरा कर हर कदम पै दी यारो ।

जीने के इरादों को पुख़्तगी पहाड़ों ने ॥

 

देख हौसला इनका और शक्ति सहने की ।

टूट कर उचट कर भी उफ़ न की पहाड़ों ने ॥

 

विश स्वयं पिये सारे नीलकण्ठ शैली में ।

पर हवा को बख़्शी है ताज़गी पहाड़ों ने ॥

 

बादलों के आवारा कारवाँ के गर्जन को ।

बारिशों सी बख़्शी है नग़मगी पहाड़ों ने ॥

 

त्याग और तपस्या से योगियों की भाषा में ।

ज़िन्दगी की बदली है वर्तनी पहाड़ों ने ॥

 

सबको देते आये हैं नेमतें अज़ल से ये ।

द्विज को भी सिखायी है शायरी पहाड़ों ने ॥

 

द्विजेन्द्र द्विज

मैं अपने होठों की ताज़गी को तुम्हारे होठों के नाम लिख दूँ - रमेश प्रसाद कँवल


 

मैं अपने होठों की ताज़गी को तुम्हारे होठों के नाम लिख दूँ । 

हिना से रौशन हथेलियों पर नज़र के दिलकश पयाम लिख दूँ ॥

 

अगर इजाज़त हो जानेमन तो किताबे-दिल के हर इक वरक़ पर ।

मैं सुबहे-काशी की रौशनी में अवध की मस्तानी शाम लिख दूँ ॥

 

बदन पै सावन की है इबारत नज़र में दौनों की एक चाहत ।

मेरे लबों को जो हो इजाज़त वफ़ा का पहला सलाम लिख दूँ ॥

 

जो दिलनशीं है सितम पै माइल उसे हर इक पल दुआएँ दूँ मैं ।

सुलगते सूरज से दूर रखकर अमन-सुकूँ का क़याम लिख दूँ ॥

 

मसर्रतों पै गहन प्रदूषण अवामी ख़ुशियाँ बिलख रही हैं ।

तुम्हीं बताओ ऐ मेरे रहबर कहाँ से बेहतर निज़ाम लिख दूँ ॥

 

डिलीट कर दूँगा उसके ग़म को मैं दिल के अब लैपटॉप से ही ।

ख़ुशी के जितने मिले हैं DATA उन्हें मैं दिलबर के नाम लिख दूँ ॥

 

रमेश प्रसाद कँवल

कभी तो दीन के दुखड़े कभी दुनिया नहीं मिलती - नवीन जोशी 'नवा'


कभी तो दीन के दुखड़े कभी दुनिया नहीं मिलती ।

कभी गायब है खेवय्या, कभी नय्या नहीं मिलती ॥

 

न कोई पेड़ मिलता है न कोई छत ही मिलती है ।

जहां हो धूप विधिना की वहीं छाया नहीं मिलती ॥

 

बड़ा संघर्ष हो जितना बड़ी उतनी ही होगी सीख ।

महाभारत न होता तो हमें गीता नहीं मिलती ॥

 

उसे राधा भी मिलती है उसे मीरा भी मिलती है ।

मगर कान्हा को राधा में कभी मीरा नहीं मिलती ॥

 

सिया-वर को नहीं समझे सिया को कैसे समझेंगे ।

कि जिसने राम को त्यागा उसे सीता नहीं मिलती ॥

 

नवीन जोशी 'नवा'