ऐसा
शायद ही कोई साहित्य प्रेमी होगा जिसे ब्रजभाषा के बारे में जानकारी न हो - जिसने ब्रज
भाषा की रचनाओं का रसास्वादन न किया हो,
जिसने ब्रजसरोवर में गोते न लगाये हों,
जिसने सूरदास सहित अष्टछाप के विविध कवियों की अमृतवाणी चखी न हो,
जिसने दीवानी मीरा के निश्छल और निष्कपट प्रेम की अनुभूति न की हो,
जिसने रहीम के दोहों में छुपे जीवन दर्शन का अवलोकन न किया हो,
जिसने भूषण के अर्थ विस्फोट वाले छंदों और केशव के काव्य सौन्दर्य से सुसज्ज छंदों
का विहंगावलोकन न किया हो, जिसने तुलसी के
“ माया तू न गयी मेरे मन ते “ जैसे अनेकानेक पदों और छंदों से सुरभित कानन में विचरण
न किया हो, जिसने “ काहु दिन उठ गयौ
मेरे हाथ, बलम तोहि ऐसौ मारोंगी”
या “ बन गये नंदलाल लिलिहार कि लीला गुदवाय लेहु प्यारी “ या ब्रज की तोहि लाज मुकुट
वारे” जैसे अनेक रसियाओं / भजनों पर ठुमके न लागाये हों । ब्रजभाषा जिसके बारे में
कहा जाता है कि “ धन्य ब्रजभासा तो सी दूसरी न भासा तै नें बानी के बिधाता कों बोलिवौ
सिखायौ है” , ऐसी ब्रजभाषा से अमूमन
हर रसिक साहित्यानुरागी भलीभाँति परिचित है ।
ब्रजभाषा
में अनन्त काल से उत्कृष्ट से उत्कृष्टतम रचनाएँ होती रही हैं । अमीर खुसरो हों या
बाबा फ़रीद ख़ान साहब हों, भारतेन्दु हरिश्चंद्र
हों या जयशंकर प्रसाद, बाबू जगन्नाथ दास
रत्नाकर, कविवर नवनीत,
गोविंद कवि जी, लला कवि,
नाथ कवि, चतुर्भुज पाठक कंज जी,
यमुना प्रसाद चतुर्वेदी ‘प्रीतम’
जी जैसे अनेकानेक रचनाधर्मियों ने ब्रजभाषा के उपवन में भाँति-भाँति के सुमन सरसाये
हैं ।
आज
हम 2021 में प्रकाशित हुई बड़ी ही प्यारी सी कृति “ मनसुख विरह “ की चर्चा कर रहे हैं
। इस पुस्तक को, जिसे “खण्डकाव्य” कहने
में किसी को संकोच नहीं होना चाहिए,
ब्रजभाषा के वर्तमान काल के समर्पित अध्येता,
मनीषी एवं शिल्पी श्री राधा गोविन्द पाठक जी ने प्रस्तुत किया है ।
मनसुख
या मनसुखा यशोदानन्दन भगवान श्री कृष्ण के परमप्रिय सखाओं में से एक हैं । बचपन के
सखाओं एवं सखियों की स्मृतियाँ सदैव ही मधुर ही होती हैं । उन के साथ व्यतीत किये गये
पल-छिन अनन्य होते हैं । ऐसी अनेक बातें होती हैं जिन्हें ऐसे सखाओं और सखियों के सिवा
और कोई भी नहीं जानता या नहीं जान सकता । लीला पुरुषोत्तम आनन्दघन श्याम सुन्दर के
सनेही सखा के स्वरूप में अधिकांश लोगों को सुदामा चरित्र ही याद आता है । परन्तु कविवर
राधा गोविन्द पाठक जी ने श्री कृष्ण के बालसखा मनसुखा के माध्यम से रसिकता से ओतप्रोत लड़कपन के विविध कथानकों को पटल पर लाने का पूर्णरूपेण सफल प्रयास किया है ।
हमने
ब्रज साहित्य में राधा के विरह को पढ़ा है,
गोपियों के कष्ट पढे हैं, मातु यशोदा की पीड़ा
पढ़ी है, अन्य ब्रजवासियों की अनुभूतियाँ
भी पढ़ी हैं परन्तु जिस तरह से एक बालसखा के बालमन की अनुभूतियों को ब्रजभाषा के छंदों
के माध्यम से कवि ने प्रस्तुत किया है वह बड़ा ही लोमहर्षक है । एक उदाहरण देखिये :
एक दिन रूठ गयौ खेल खेल
में हम सों
का बिध मनायौ सुधि रह रह
आवै है
सपने हू सोचौ नहिं जैहै
तू हमें बिसार
पल हू न चैन, रैन बीत नाँहि पावै है
छाती फटी जात, आह निकसत बैन’न सों
नेह कूँ निभावै है, कै बीजूरी गिरावै है
धीर को धरावै, भाँति-भाँति की उठत पीर,
निपट लबार तेरी याद च्यों
सतावै है
जिन्हों
ने ब्रज साहित्य में गोपियों की पीड़ा और उलाहने पढे हुए हैं ऐसे साहित्यानुरागी इस
महीन अन्तर को स्पष्ट रूप से अनुभूत कर सकते हैं । जिन लोगों ने अपने लड़कपन में जम
कर शरारतें की हैं उन के लिए यह छन्द विशेष रूप से :
एक दिन तुम, मैं औ सिरीदामा तीनों मिलि
पौंचे लखि सूनों घर ललिता
कौ पाइ कें
माखन चुरान खान निज नेह
देखन कों
भिरौ हो जो द्वार, धीरें खोलि दियौ जाइ कें
सूनौ सौ सदन जानि तीनों
घुसि कें सप्रेम
हम दोऊ घोड़ा बने तू लियौ
चढ़ाइ कें
पकरत छींकौ निज घर आई
ललिता तौ
चौंकि भाजे तीनों झट
मटुकी गिराइ कें
“
मनसुख विरह “ में कवि ने कृष्ण की अमूमन सभी बाल लीलाओं का वर्णन सखा की स्मृतियों और अनुभूतियों के माध्यम से किया है जो अपने आप में अनूठा है । कृष्ण जिनके आराध्य
हैं उन्हें तो यह पुस्तक आनन्ददायिनी सिद्ध होगी ही परन्तु जो लोग भले ही कृष्ण को
आराध्य न मानते हों परन्तु बाल लीलाओं के रसिक हों और कृष्ण के लौकिक स्वरूप से प्रभावित
हों उन्हें भी यह पुस्तक आनन्द से सराबोर करेगी,
ऐसा इस पुस्तक को पढ़ कर सिद्ध होता है ।
इस
पुस्तक और इस प्रसंग पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है परन्तु समीक्षा का उद्देश्य क्षुधा
की पूर्ति करना न हो कर क्षुधा को जगाना होता है इसलिए कविवर राधा गोविन्द जी के इस
काव्य-कर्म की अनुशंसा करते हुए लेखनी को यहीं विराम देना श्रेयस्कर है ।
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श्री
गोविन्द पचौरी, जवाहर
पुस्तकालय, हिन्दी
पुस्तक प्रकाशक एवं वितरक, सदर
बाजार, मथुरा – 281001, मोबाइल
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