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'लव की हॅप्पी एंडिंग' एवं 'कुछ दिल की कुछ दुनिया की' - पुस्तक समीक्षा

अब जरूर हम मथुरा को ठीकठाक सा एक टाउन कह सकते हैं मगर 1990 के आसपास मथुरा इतना डिवैलप नहीं हुआ था । हालाँकि रिफायनरी आ चुकी थी, टाउनशिप बस चुकी थी, कॉलोनियों की बात हवाओं में तैरने लगी थी फिर भी 1990 का मथुरा 1980 के मथुरा से बहुत अधिक उन्नत नहीं लगता था ।

उस मथुरा की एक गली में जन्मी हुई लड़की की शादी महानगर में होती है । मथुरा के संस्कारों को मस्तिष्क में और महानगर वाले पतिदेव के अहसासात को दिल में सँजोये हुए वह गुड़िया बाबुल का घर छोड़ कर पी के नगर के लिए निकल पड़ती है । जिस तरह कहते हैं न कि दुनिया गोल है उसी तरह गृहस्थी की दुनिया भी सभी जगह और सभी के लिए गोल-मोल ही होती है । उस गोल-मोल दुनिया में यह लड़की डटकर परफोर्म करती है, दूरदर्शन, सी एन एन, सी एन बी सी, डी डी भारती और आई बी एन से मीडिया अनुभव ग्रहण करते हुए कालान्तर में एक सफल लेखिका बन कर राष्ट्रीय पटल पर छा जाती है । इस लड़की का घर का नाम गुड़िया ही है और अब भारतीय साहित्य-जगत इसे अर्चना चतुर्वेदी के नाम से जानता है । उत्कृष्ट कोटि की व्यंग्य लेखिका अर्चना जी का साहित्यिक प्रवास उत्तरोत्तर ऊर्ध्व-गामी रहा है । ब्रजभाषा और हिन्दी दौनों ही क्षेत्रों में आप की रचनाओं को पाठकों का अपरिमित स्नेह प्राप्त हुआ है । आप की अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं । आपको अनेक पुरस्कार मिल चुके हैं ।

पिछले दिनों आप की दो पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं । पहली पुस्तक “लव की हॅप्पी एंडिंग” जो कि हास्य कहानी संग्रह है और दूसरी पुस्तक “कुछ दिल की कुछ दुनिया की” किस्सा गोई पर आधारित है । अर्चना चतुर्वेदी प्रसन्नमना लेखिका हैं, दिल से लिखती हैं, मज़े ले-ले कर लिखती हैं, इसीलिए इन्हें पढ़ने वाले इन्हें बार-बार पढ़ना चाहते हैं ।





इन पुस्तकों को भावना प्रकाशन से मँगवाया जा सकता है ।

भावना प्रकाशन – फोन नम्बर – 8800139685, 9312869947

हम ग़ालिबो-नज़ीर नहीं बन सके तो क्या

 

हम ग़ालिबो-नज़ीर नहीं बन सके तो क्या
शेरो-सुख़न में हमने गुज़ारी तमाम उम्र
उर्दू ज़बाँ पै अपना भी है क़र्ज़ दोसतो
हमने इसी की ज़ुल्फ़ सँवारी तमाम उम्र

हिमाचल प्रदेश के भाषा व संस्कृति विभाग द्वारा प्रकाशित उर्दू साहित्य की त्रैमासिक पत्रिका “ जदीद फ़िक्रो-फ़न” का 102 वाँ अंक प्राप्त हुआ । पत्रिका के मुख्य सम्पादक हैं डॉ. पंकज ललित और अतिथि सम्पादक हैं श्री विजय कुमार अबरोल उर्फ़ ज़ाहिद अबरोल साहब । आदरणीय लालचन्द प्रार्थी उर्फ़ चाँद कुल्लुवी साहब को अपनी उपरोक्त पंक्तियाँ समर्पित कर के अपने सम्पादकीय को शुरू करते हुए अबरोल साहब ने भूत-वर्तमान और भविष्य की अच्छी पड़ताल की है । विशेषतः इन्हों ने विवेच्य अंक में उन रचनधर्मियों को विशेषतः स्थान दिया है जो किसी न किसी कारणवश भीड़ से दूर रहते हैं । उर्दू की इस पत्रिका के 26 पन्ने देवनागरी लिपि में हैं और 86 पन्ने नस्तालीक रस्म-उल-ख़त (पर्शियन स्क्रिप्ट जिसे हम उर्दू समझते हैं ) में हैं । मैं चूँकि पशियन स्क्रिप्ट से अनभिज्ञ हूँ इसलिए बस देवनागरी लिपि वाले हिस्से का ही रसास्वादन कर सका हूँ ।
 
इस पत्रिका से कुछ चुनिन्दा अशआर
 
मैं पहले ख़ौफ़ फैलाता हूँ फिर यह सोचता हूँ
परिन्दे मेरे आँगन में उतरते क्यों नहीं हैं
: अयाज़ अहमद तालिब
 
हमारी आँखें हमारी कहाँ हैं हो कर भी
वही है देखना हम को जो रब दिखाता है
“ कृष्ण कुमार “तूर”
 
तेरे मकान के बेलों लदे दरीचे पर
ये किसकी रूह का ताइर तवाफ़ करता है
“ राजिन्दर नाथ “राहबर”
 
रहते थी जिसके हाथ हमेशा कपास में
बेचारा मर गया नये कपड़ों की आस में
“ ज़मीर दरवेश
 
अब्र ख़ुशियों का अगर जम कर नहीं बरसा तो क्या
ग़म के बादल भी बहुत जल्दी धुआँ हो जाएँगे
: आबशार आदम
 
बहुत से लोग हवादिस में मारे जाते हैं
हर आदमी का जनाज़ा नहीं निकलता है
: “कशिश” होशियारपुरी
 
एक पोरस भी तो रहता है हमारे अन्दर
जो ‘सिकन्दर’ को ‘सिकन्दर’ नहीं रहने देता
: द्विजेंद्र द्विज
 
अब वो भी दिन में तारे दिखलाते हैं
जिनकी थाली में कल चाँद उतारा था
: नववीत शर्मा
 
यादों के गुलशन में यूँ तो रंग-बिरंगे फूल भी हैं
लेकिन फिरते हैं काँटों को सीने से चिपकाए लोग
: कृष्ण कुमार “नाज़”
 
ऐ वतन! अहले-वतन उनको भुला देते हैं
जो तेरा क़र्ज़ चुकाते हुए मर जाते हैं
“ सुभाष गुप्ता “शफ़ीक़”
 
कहाँ पर वार करना है पराया क्या ही जाने
कहाँ से दुर्ग ढहना है ये अपना जानता है
: जावेद उलफ़त
 
मोहल्ले वालों का सर फोड़ना है बात अलग
फटेगी शर्ट तो समझोगे तुम रफ़ू क्या है
: टी. एन. राज़
 
पहली सफ़ों में आज गुलूकार आ गये
कितना बड़ा मज़ाक़ हुआ शाइरी के साथ
: काशिफ़ अहसन
 
इस पत्रिका के सम्पादकीय में श्री विजय कुमार अबरोल उर्फ़ ज़ाहिद अबरोल साहब ने लिखा है कि 1982 में परलोक सिधार चुके चाँद कुल्लुवी साहब का देवनागरी लिपि में शेरी मजमूआ अभी भी प्रकाशन के लिए प्रतीक्षारत है । इस के अलावा भी अबरोल साहब ने इस बात से जुड़ी और भी बातों पर इशारे किए हैं । जो नहीं लिखा है उसे भी कोई भी ललितकला प्रेमी सहज ही समझ सकता है । आओ हम सभी आशा करें कि अबरोल साहब के प्रयासों को सफलता मिले ।

लघु कथा - भाड़ में जाय ऐसा इन्क़लाब - नवीन सी. चतुर्वेदी

क़स्बाई संस्कृति के वाहक मध्यवर्गीय परिवार का एक होनहार लड़का रोज़ सुबह उठते ही घर के बाहर के चबूतरे पर बैठ जाता। 

अख़बार पढ़ता और रूस, अमरीका, जर्मन, जापान, चीन आदि-आदि की बातें ज़ोर-ज़ोर से बोलते हुए करता। 

साथ ही हर बार यह कहना नहीं भूलता कि अपने यहाँ है ही क्या? आदि-आदि। 

उस के अपने घर के लोग उसे डाँटते हुए कहते कि अरे बेटा अभी-अभी उठा है। ज़रा दातुन-जंगल कर ले। स्नान कर ले। घड़ी दो घड़ी रब को सुमिर ले। 

मगर वह नहीं सुनता। लोगों से बहसें लड़ाता रहता। 

उस के अनुसार सारे विद्वान विदेशों में हुए और भारत ने तो सिर्फ़ और सिर्फ़ पाखण्डियों को ही पैदा किया। 

उस लड़के के घर के लोग उसे बार-बार टोकते रहते, मगर वह सुनता ही नहीं।

ऐसे ही किसी एक दिन वह रोज़ की तरह बे-तमीज़ी पर उतारू था। उस के पिता उसे बार-बार टोक रहे थे। वह अनसुना करता जा रहा था। तभी अचानक पड़ोस वाले डेविड साब की वाइफ उस के लिए चाय बिस्कुट ले आई।

पट्ठा अपने बाप की बातों को धता बता कर चाय बिस्कुट के मज़े लेने लगा। 

इस पर उस के पिता आग बबूला हो कर उसे पीटने दौड़ पड़े। न जंगल गया न दातुन की। न नहाया। न रब को सुमिरा। और चाय बिस्कुट खाने लगा। 

उस लड़के के पिता उस लड़के को पीटते इस से पहले ही गली मुहल्ले के बहुत से लोग बीच बचाव में आ गए। 

जिनके घर से चाय और बिस्किटें आई थीं वह डेविड साब उस लड़के के पिता को समझाने लगे कि पण्डित जी आप का लड़का इन्क़लाबी है उसे पीटिये मत। उसे समझने की कोशिश कीजिये। 

यह सुन कर उस लड़के के पिता बोले कि :- 

"अगर सुबह उठ कर बिना दातुन जंगल किये चाय-बिस्किट निगलते हुए दूसरों की तारीफ़ और अपनों की बुराई करना ही इनक़लाब है तो भाड़ में जाय ऐसा इनक़लाब" । 

वे लौट रहे हैं - शैलेश सिंह


वे लौट रहे हैं, इस बार खाली हाथ
उनकी जेबों में महज गांव का पता है
और मर चुके पिता का नाम।

उनकी आंखें सूनी हैं, जैसे  छीन ले कोई
मार कर दो थप्पड़
वे थप्पड़ और ठोकर खाकर लौट रहे हैं।

उनका लौटना हर बार से अलग है।

इस बार नहीं है कोई सामान
मसलन पत्नी का पिटारा
नहीं है माई के लिए लुग्गा
और भाई के लिए लमका छाता।

उनका लौटना, उनका नहीं है
वे तो लौटने के लिए गए ही नहीं थे
वे तो  बसना चाहते थे बीराने देस में

वे लौट रहे हैं ठीक उसी तरह
जैसे  लौटता है हारी  हुई पलटन  का सिपाही
वे लौट रहे हैं, जैसे खूंखार बाघ से बचकर भागती हुई लौटती है हिरनी
वे लौट रहे हैं, जैसे लौटे थे  चित्रकूट से भरत
वे लौट रहे हैं, अपनी खौफनाक यादों के साथ
वे लौट रहे हैं, जैसे लौटते हैं  अंतिम संस्कार के बाद परिजन
वे लौट रहे हैं, कभी वापस न आने की झूठी शपथ के साथ
वे लौट रहे हैं, जैसे लौटते हैं नदी जल के लिए हाथी
वे लौट रहे हैं, जैसे लौटा था पूस की रात का हलकू
वे लौट रहे हैं जैसे लौटते हैं प्रवासी पक्षी

उनका लौटना इतिहास में लौटना  नहीं है
उनका लौटना इतिहास को बदलना भी है
उनका इस तरह आना असंभव  को संभव बनाना था

वैसे वे हर बार असंभव को संभव बनाते रहे हैं।
// इति   //
शैलेश सिंह

इस सन्नाटे शहर में - शैलेश सिंह



हम किस शहर में रह रहे हैं!,
शहर जो अब नहीं रहा कहीं से भी शहर
अपने उद्दात्त व भव्य सौन्दर्य को अर्थहीन करता
यह  सन्नाटे और खौफ़  का आलम  कैसे तारी हो गया!,
एक सियाह चादर फैल गई सबकी छतों, खिड़कियों और दरवाजों पर
भयानक आवाजें गूंजती रहती हैं अक्सर यहां की सड़कों पर
जबकि आलम यह था कि लोग अपनी ही आवाज़ को सुनने को तरसते थे
इतना शोर कि बहरे होने का अंदेशा हमेशा बना रहता था।

भेड़ियाधसान से शायद ही यह शहर कभी मुक्त हुआ हो
याकि होना चाहा हो,
भीड़ ही जिसकी शिनाख्त हो, भीड़ ही जिसकी मौसकी हो
और भीड़ ही जिसकी कभी न गायब होनेवाली रूह हो
यकायक जाने कहां चले गए सब?

सड़कें जिन्हें देखने की हसरत  लिए
लोग चले आते थे दुनिया के हर आबाद और नायाब  गांव व शहर से
जहां चलना हमेशा मौत से टकराने के मानिंद
ख़ौफज़दा होता था।

जहां परिन्दों, कुत्तों और मवेशियों का आना लगभग वर्जित था।

जहां हवाओं तक को जद्दोजेहद करनी पड़ती थी
जहां आसमान की नीलिमा खो गई थी
जहां लदे रहते थे हर सिम्त लोग
जहां कौवों और कोयलों में लोगों ने फर्क करना कभी मुनासिब नहीं समझा
याकि उन्हें फुर्सत ही कहां थी, अपने से बाहर झांकने की

जहां हव्वा की  प्यारी संतानें अपने हसीन सपनों के साथ इस शहर में  दाखिल होती थीं
और सप्ताह के दूसरे इतवार तक  वे भूल जातीं थीं अपनी मादरी जुबान
और समुद्र की लहरों के साथ तरंगें लेने लगतीं थीं ।

वह परदेसी इस शहर से कभी जुदा होना नहीं चाहता था,
अचानक ऐसी बिपदा , ऐसा कुदरत का क़हर, ऐसी बीमारी ऐसी गाढ़ी महामारी
कि कभी किसी भी फितरत से    क़ैद होनेवाला शहर
अपनी मोसकी की रव में मुत्लिबा रहनेवाला यह शहर
सन्नाटे की सांय- सांय -- भांय- भांय में विलीन हो गया।

सड़कें अब परिंदों की सैरगाह  में तब्दील चुकीं हैं
गोया ये कभी सड़कें थीं ही नहीं

कुत्ते खोजते रहते हैं आदम की औलादों को
जो  सरे-आम देखते- देखते गायब हो गए।

कभी - कभी जेठ की दुपहरी में अस्पताल की गाड़ी
दौड़ती है अपने सायरन की खौफ़नाक आवाजों के साथ।

एक आदमी खिड़की से देखता है
और कहता है-- हम इक्कीसवीं सदी के मोहन- जोदारों में आ गए हैं।

यहां निरीह चेहरे बंद आंखें लिए खड़े हैं।

यह शहर कहीं भूल तो नहीं गया अपनी रफ़्तार?

रफ़्तार और तेज रफ्तार जिसका वजूद था।

वह कैसे पस्त हो गया एक न दिखाई देनेवाले अणुजीव से।

हे समुद्र के शहर तुम लौटो अपनी पूरी रफ्तार के साथ,

अपने लोगों के साथ।
अपनी भीड़ के साथ
अपनी रूह के साथ,
अपनी अहर्निश  गति के साथ
अपने वर्तमान  में तुम लौटो,

ताकि लौट सकें जीवन,
ताकि लौट सकें आदम - हौव्वा की संतानें
जिनके हाथ संवारें तुम्हारा और अपना भविष्य
यह  विज्ञापन नहीं , कविता नहीं ,एक गुहार है विज्ञान से,
समुद्र से,
नदियों से
आसमान से
और उन कभी न दिखनेवाले तारों से
//इति//

शैलेश सिंह

पुरुष दिवस पर कविता - अर्चना चतुर्वेदी


मर्द के दर्द

तुमने कहा एक चुटकी सिंदूर की कीमत तुम क्या जानो ?
मैं खटता रहा दिन रात ताकि जुटा सकूँ
सिंदूर के साथ गहने कपड़े तुम्हारे लिए
और देख सकूँ तुम्हे मुस्कुराते हुए ..

तुमने कहा मर्दों के दिल नहीं होता
और मैं मौन आंसू पीता रहा .और छुपाता रहा अपने हर दर्द को
और उठाता रहा हर जिम्मेदारी हँसते हँसते ..
ताकि तुम महसूस ना कर सको किसी भी दर्द को और खिलखिलाती रहो यूँ ही

तुम मुझे बदलना चाहती थी और जब मैंने ढाल लिया खुद को तुम्हारे मुताबिक
और एक दिन कितनी आसानी से तुमने कह दिया
तुम बदल गए हो ...
और इस बार मैं मुस्कुरा दिया था हौले से

अबकी तुमने कहा ‘तुम मर्द एक बार में सिर्फ एक काम ही कर सकते हैं
हम महिलाएं ही होती हैं मल्टीटास्किंग में महारथी
और मैं ऑफिस ,बॉस ,घरबच्चे ,माँ और
तुम्हें खुश रखने के सारे जतन करता रहा
बिना थके बिना हारे

सच कहा तुमने ,
नहीं जानता मैं सिंदूर की कीमत
ना ही होता है मुझे दर्द आखिर मैं हूँ मर्द
और मर्द के दर्द नहीं होता ।।

अर्चना चतुर्वेदी

कहानी फ़ोटो जर्नलिस्ट – डॉ. वरुण सूथरा

कहानी

फ़ोटो जर्नलिस्ट – डॉ. वरुण सूथरा

फागुन महीने का एक बेहद ठंडा दिन था  वो, मौसम विभाग ने भी उस दिन तापमान में एक रिकार्ड गिरावट दर्ज की थी। पिछले चार दिन से शहर में लगातार बारिश हो रही थी और पहाड़ी इलाकों में बर्फबारी भी हुई थी। इस दौरान बहुत से घरों में शादियां भी हो रही थी, लगातार बारिश से लोगों को आयोजन में अचानक फेरबदल करने पड़ रहा था,  जिनके शादी-ब्याह के कार्यक्रम पहले खुले में होने थे अब उन सभी को किसी न किसी बंद हॉल में ही अपने आयोजन को सीमित करना पड़ रहा था। मनोहर के लिए भी ये सीजन बहुत अहमियत रखता था, यही वो समय था जब वो अपनी फोटोग्राफी से कुछ रकम कमा सकता था। शादियों के सीजन के बाद तो फिर काम ढीला ही पड़ जाता था। पहले तो शादियों के काम उसे अकेले ही मिल जाते थे लेकिन जब से मार्केट में डिजिटल कैमरा आए थे उसे किसी न किसी और बड़े फोटोग्राफर से ही काम मिलता था क्योंकि उसके पास इतना पैसा नहीं था कि वो एक अच्छा डिजिटल कैमरा खरीद सके।

लेकिन उसे अपने काम के लिए जुनून था, वो हर तस्वीर में जान डाल देता था। जब तक उसे संतोष न हो जाए, तब तक वो एक ही तस्वीर को बार-बार खींचता था। उसका लोगों से बात करने का ढंग भी इतना आकर्षक होता था कि बार-बार कहने पर भी, सब बिना किसी हिचक अथवा गुस्से के अलग-अलग पोज में फोटो खिंचवाने को तैयार हो जाते थे। उस दिन शहर के मशहूर व्यापारी प्रीतम कुमार के बेटे की शादी थी,  जहां एक बड़े फोटोग्राफर ने पूरे समारोह की फोटो खींचने का ठेका ले रखा था, उसने मनोहर को भी इस आयोजन में तीन सौ रूपये दिहाड़ी पर काम दिया था। उस रात की ठण्ड में भी मनोहर का जोश कम नहीं हुआ था।

लगातार बढ़ती ठण्ड में भी उसकी बातों की गर्माहट के कारण लोगों को उसके कहने के मुताबिक पोज बनाने में कोई परहेज नहीं हो रहा था। वो किसी को भी जब मुस्कुरा कर फोटो खिंचवाने को कहता था तो लोग हँस के उसकी बात मान लेते थे और जो कोई उसी समय अपनी फोटो देखना चाहता, तो वो पास जाकर डिजिटल कैमरा में उन्हें दिखा देता और खुद ही कह देता कि बहुत कमाल की फोटो आई है। ये देखिये सर,  क्या लग रहे हैं इस तस्वीर में आप। आपको तो इस फोटो को बड़ा करवाकर अपने बैडरूम में लगाना चाहिए ताकि आप रोज सुबह उठकर अपना ये हंसता हुआ चेहरा देखें। अगर आप कहें तो मैं ऑर्डर में लिख दूं, फोटो दो दिन में आपके घर पहुंच जाएगी।

लिख लो भाई, लिख लो बताओ क्या पेमेंट करनी है, हम अभी किए देते हैं।

साहिब उसकी कोई चिंता नहीं, वो तब ले लेंगे जब आपको यह फोटो पहुंचेगी।

इस तरह मनोहर अपने हुनर और स्वभाव के कारण कुछ और रूपये भी बना लेता था क्योंकि एक बात उसके अवचेतन मन में हमेशा ही रहती थी कि उसके पास सीजन रहने तक का ही मौका है। एक बार शादियों का सीजन गया तो फिर गुरबत का एक लम्बा दौर उसे परेशान करने के लिए तैयार था। यही वो समय था जब वो अपने पुराने उधार चुका सकता था ताकि फिर से उधार के नए खाते शुरू कर सके, इसी समय वो अपनी बीवी के साथ प्यार के कुछ पल बिता सकता था क्योंकि आने वाला समय तो फिर कलह और क्लेश का एक लम्बा दौर लेकर आएगा। इसी दौरान वो अपनी बेटी की कुछ ख्वाहिशें पूरी कर सकता था, इस छोटे से समय में उसे अपनी बेटी को हमेशा झूठ बोल कर टालना नहीं पड़ता था, जैसे कि साल के बाकी समय उसकी हर मांग पर मनोहर को कोई न कोई बहाना बनाना पड़ता, यानी हर रोज उसे एक झूठे वादे के साथ सुलाना पड़ता ताकि उसकी आस बनी रहे।

मनोहर जब आठ साल का था तो उसके पिता की एक सड़क हादसे में मौत हो गई थी, उनकी अपनी टैक्सी थी। एक बार वो तीन विदेशी पर्यटकों को लेकर मनाली जा रहे थे तो रास्तें में गाड़ी फिसलकर खाई में गिर गई और उसमें मौजूद सभी लोगों की मौत हो गई। उसके बाद मनोहर का जीवन बहुत मुश्किलों भरा रहा,  पिता की मृत्यु के तीन महीने बाद उसकी इकलौती छोटी बहन भी चल बसी, वो पिता के गुजरने के बाद हमेशा बीमार ही रहती थी। मां ने किसी तरह छोटा-मोटा काम करके मनोहर को आठवीं तक पढ़ाया और फिर उसे किसी फोटोग्राफर की दुकान पर काम पर लगा दिया। मनोहर ने बहुत मेहनत से काम सीखा और चार साल के अंदर एक दुकान किराये पर लेकर अपना काम शुरू कर दिया। कुछ समय के बाद उसकी मां ने अपनी दूर की रिश्तेदारी में ही लक्ष्मी नाम की लड़की से उसकी शादी करवा दी। शादी के सात महीने बाद मां भी चल बसी। मनोहर अपनी बीवी और बेटी पल्लवी के साथ एक किराये के मकान में रहता था और अपनी छोटी सी दुकान भी चला रहा था। मनोहर का काम पहले ठीक चल रहा था लेकिन अब नए आए डिजिटल कैमरा ने उसके काम को खासा झटका दिया था। उसके पास अभी नई तकनीक का कैमरा नहीं था और न ही वो उन्हें खरीदने के बारे में सोच सकता था। उसने कई बार कुछ पैसे उधार लेकर अपने काम को और भी बढ़ाने के बारे में सोचा लेकिन अपने परिवार के हालात देखकर वो कभी हिम्मत नहीं कर पाता था। प्रीतम कुमार के बेटे की शादी के तीन दिन बाद मनोहर ने उन सभी लोगों के फोटो बड़े करवा लिए जिनसे उसने समारोह में देने को कहा था। उसने सात लोगों के फोटो बनाये थे, छह फोटो देने के बाद वो आखिरी फोटो देने के लिए एक बड़ी कोठी के बाहर पहुंचा। जब वो गेट से अंदर प्रवेश करने लगा तो वहां खड़े दरबान ने उसे रोक लिया।

हां भाई कहां घुसा चला जा रहा है, कौन है तू।

जी मुझे गुप्ता साहिब से मिलना है, उनका यह फोटो है मेरे पास यह मुझे उन तक पहुंचाना है।

ला ये फोटो मुझे पकड़ा दे मैं पहुंचा दूंगा।

नहीं ये मैं आपको नहीं दे सकता और वैसे भी मुझे इसके पैसे भी लेने हैं।

उन दोनों में इस बात को लेकर बहस छिड़ गई, तभी गेट पर गुप्ता जी की गाड़ी भी पहुंच गई। ड्राईवर के हार्न करने पर भी जब दरबान ने गेट नहीं खोला तो पीछे बैठे हुए गुप्ता जी ने पूछा कि ये दरबान किसके साथ लगा हुआ है। वे गाड़ी से खुद नीचे उतरे तो मनोहर दौड़ के उनके पास जा पहुंचा, दरबान उसे हटाने लगा तो मनोहर ने गुप्ता जी को शादी के समारोह का हवाला देते हुए अपनी पहचान बताई। गुप्ता जी ने दरबान से कहा कि उस आदमी को अंदर भेज दें।

करीब आधे घंटे बाद गुप्ता जी ने मनोहर को अपने कमरे में बुलाया और उसका खींचा हुआ फोटो देखने लगे। मनोहर फोटो तो तुमने बहुत अच्छा खींचा है, वाकई तुम्हारे हाथ में कमाल है। लेकिन हम सोच रहे हैं कि तुम्हे इसके पैसे न दिए जाएं। यह सुनते ही यूं तो मनोहर का मन खट्टा हो गया लेकिन उसका जवाब बिल्कुल उलट था। साहेब आपको इस गरीब का काम पसंद आ गया, ये क्या कम है और मैंने आपसे पैसे मांगे ही कब।

हमने यह नहीं कहा कि तुम्हे कुछ नहीं मिलेगा, हमारे कहने का मतलब है कि तुम जैसे हुनरमंद आदमी को सिर्फ पैसे देना ही काफी नहीं है। तुम इस काम से कितना ही कमा लेते होंगे, और फिर न तो हमेशा सीजन रहता है और न ही हमेशा कद्रदान मिलते हैं। हम अगले महीने से एक नया अखबार शुरू करने जा रहे हैं, तुम्हारा काम हमें पसंद आया है, अगर तुम चाहो तो हम तुम्हें फोटो जर्नलिस्ट की नौकरी दे सकते हैं। शुरू में तुम्हें 4500 रूपये महीना मिलेगा और काम चल निकलने पर और भी बढ़ा देंगे। और हां यह लो तुम्हारी मेहनत। मनोहर अपने पैसे लेकर घर वापिस आ गया और वही पैसे उसने घर के खर्च के लिए अपनी पत्नी को दे दिए। उसने गुप्ता जी के प्रस्ताव के बारे में लक्ष्मी को बताया।
उस काम में क्या करना होगा आपको ?

मुझे भी पूरी तरह पता नहीं है, शायद अखबार में फोटो खींचने वालों का काम होता है। मैं सोच रहा था कि वैसे भी दुकान से कोई स्थायी आमदनी तो होती नहीं है, आठ सौ रूपये तो किराया ही चला जाता है अगर मैं सेठ के यहां काम कर लूं तो बुरा ही क्या है और फिर जब कभी सीजन या कोई खास समारोह हुआ तो अखबार के काम के साथ वो भी किया जा सकता है। उस रोज की चर्चा के बाद फिर वो अपने काम में लग गया। अब दुकान से आमदनी रोज घटती ही जा रही थी, उसकी कमाई से जोड़े हुए पैसे बेटी की स्कूल के एडमिशन में ही चले गए थे। हाथ इतना तंग हो गया कि घर का राशन पूरा करना भी मुश्किल हो गया। ऊपर से मकान और दुकान का किराया सिर पर आ गया। किसी तरह से वो चुकाया तो अब हाथ और तंग हो गया,  दो दिन तक मनोहर सिर्फ एक वक्त ही रोटी खाकर रूपयों के इंतजाम के लिए जाता रहा। तीसरे दिन सुबह उठते ही उसे गुप्ता जी के प्रस्ताव की याद आई, उसने उनका कार्ड निकाला और घर के सामने फोन बूथ से जाकर नंबर मिलाया।

गुप्ता जी बोल रहे हैं।

यस, कौन बोल रहा है।

साहिब मैं, मनोहर लाल बोल रहा हूं जिसने आपकी फोटो खिंची थी और आपने अखबार में काम करने का प्रस्ताव दिया था।

हां, याद आया, लेकिन अब तो हमने एक आदमी रख लिया है, मैंने तुम्हे दो दिन में जवाब देने को कहा था अब तो अखबार निकले भी महीना हो गया है। साहेब मैं आपसे गुजारिश करता हूं, मुझे इस वक्त काम की बहुत जरूरत है, तनख्वाह जो चाहे वो देना आप,  लेकिन मैं काम में कोई शिकायत नहीं आने दूंगा। ठीक है, तुम हमारे अखबार के दफ्तर चले जाओ, वहां दिनेश जी होंगे। मैं उनसे कह देता हूं, अखबार का नाम है महाराज टायम्स और दफ्तर नेताजी रोड पर है।

बहुत-बहुत धन्यवाद साहेब।

मनोहर ने गुप्ता जी के कहे अनुसार ही किया और जाकर दिनेश जी से मिला, जो कि अखबार का मुख्य संपादक था। तुमने पहले किसी अखबार में काम किया है। नहीं सर,  बस अपना ही काम किया है। मतलब सिर्फ शादियों में ही काम किया है, गुप्ता साहिब भी ना जाने क्यूं प्रोफेशनल लोगों को छोड़कर अनाड़ियों को भर्ती कर लेते हैं,  बाद में परेशानी मुझे ही होती है। अच्छा ये बताओ तुम्हारे पास मोटर साइकिल है।

नहीं सर।

दिनेश ने अपने फोटो जर्नलिस्ट, महेश को बुलाया और उससे कहा कि शहर में एक नए रेस्तरां का उद्घाटन हो रहा है वहां चला जाए और साथ में मनोहर को भी ले जाए। उसने मनोहर से कह दिया कि जब तक वो काम नहीं सीख लेता तक तक उसे महेश के नीचे ही काम करना होगा और जब वो काम को समझ लेगा तो उसे एक अलग डिजिटल कैमरा मिल जाएगा। महेश उसे अपनी मोटरसाइकिल पर ले गया और रास्ते में उसके बारे में भी सब समझ गया और उसे अपने बारे में भी अच्छे से समझा दिया। उसने इशारे में कह दिया कि मनोहर को यदि अखबार में काम करना है तो उसी को अपना गुरु मानकर चलना होगा। हालात का शिकार मनोहर तो कुछ भी मानने को तैयार था फिर मनोहर के अहम को स्वीकार करना तो कुछ बड़ा या कठिन काम नहीं था।

वो दोनों रेस्तरां पहुंच गए, उनके पहुंचते ही उनका स्वागत ढेर सारे व्यंजनों से किया गया। महेश ने मनोहर को इशारा किया और खुद भी खाना शुरू कर दिया। दो दिन से भूख सह रहे मनोहर के लिए तो ये ईश्वर के वरदान से कम नहीं था, शादियों के सीजन के बाद पहली बार उसने इतना लजीज खाना खाया था, खाते समय उसे ख्याल आ रहा था कि काश वो इसमें से कुछ अपनी बीवी और बेटी के लिए भी ले जा सकता। उसके बाद महेश ने फंक्शन के फोटो खींचे और वो दोनों वहां से जाने लगे, तभी आयोजकों ने उन दोनों की ओर दो पैकेट बढ़ा दिए।
अरे इसकी क्या जरूरत है सर, महेश बोला।

क्या बात करते हैं जनाब, आप हमारा इतना ख्याल रखते हैं, उसके आगे यह तुच्छ भेंट क्या मायने रखती है।

महेश ने पैकेट ले लिया और मनोहर से भी लेने को कहा।

बाहर निकलते ही उसने मनोहर से कहा कि अब वो इस पैकेट को लेकर सीधे अपने घर चला जाए और दो घंटे के अंदर वापिस दफ्तर आ जाए तब तक वो भी आ जाएगा और बाकी का काम उसे वहीं समझाएगा।

मनोहर ने जब घर पहुंचकर पैकेट खेाला तो उसमें फास्ट फूड और कुछ चाकलेट था। वो सब देखते ही उसे बहुत खुशी हुई उसने लक्ष्मी से कहा कि वो और छोटी मिलकर खा लें और छोटी को चाकलेट देते हुए प्यार जताया। रेस्तरां में हुई खातिर और सम्मान से मनोहर बहुत खुश था। अब महेश के साथ रहकर उसने काम को सीख भी लिया और समझ भी लिया। महेश दिन भर उसे अपने साथ रखता और शाम को कंप्यूटर पर खींचे हुए फोटो को एडिट करना भी सिखाता था। फिर एक महीने बाद मनोहर को भी कम्पनी की तरफ से एक कैमरा मिल गया। अब उसे महेश से अलग अकेले ही काम पर भेजा जाता था, उसकी दोस्ती अब दूसरे अखबार वाले फोटो जर्नलिस्ट से भी हो गई। रंजीत उसका खास दोस्त बन गया, वो दोनों एक-दूसरे की बहुत मदद करते थे, उनमें से एक से अगर कोई स्पॉट छूट जाता था तो दूसरा उसे अपनी खींची हुई फोटो भेज देता था। अक्सर वे दोनों फोन पर ही तय कर लेते थे कि जहां उनमें से एक जा रहा होगा, वहां दूसरा नहीं जाएगा और बाद में वे लोग आपस में फोटो बांट लेंगे। मनोहर के पास लैपटॉप और कार्ड रीडर भी थी, इसलिए अब लक्ष्मी और छोटी की जरूरतें भी पूरी कर दिया करता था। धीरे-धीरे वे समाज के वरिष्ठ लोगों के संपर्क में आने लगा। उसके फोन पर जब कभी शहर के किसी बड़े पुलिस के अधिकारी या किसी बड़े नेता का फोन आता था तो बहुत शान से लक्ष्मी को बताता था और कभी-कभी जब शाम को प्रेस क्लब से शराब के कुछ पैग मारकर घर आता था तो अपनी मल्लिका के आगे खुलकर अपनी महानता का बखान करता था।

एक रात जब वो शराब के सुरूर में था तो बिस्तर पर लक्ष्मी को अपनी बाहों में लेकर बोला, जानती है तू किसकी पत्नी है।

हां सब जानती हूं मैं,  अभी शराब का नशा है तो बहुत प्यार आ रहा है, वरना दिन में कभी जो तुम्हे फोन करो तो खाने को आते हो। अरे तू तो मेरी रानी है, यह देख मेरा आई कार्ड, मनोहर लाल फोटो जर्नलिस्ट, महाराज टायम्स, अरे बड़े-बड़े मंत्री इस कार्ड को देखकर सलूट मारते हैं। हां तभी तो मंत्री करोड़ों कमाते हैं और सलामी लेने वाले मुश्किल से तीन हजार ही बचा पाते हैं, लक्ष्मी ने हंसते हुए कहा। तू चिंता क्यूं करती है मेरी जान, हम भी कमाएंगे। और फिर मनोहर उसे चूमते हुए उसके आगोश में खो गया और वो भी मनोहर में लीन हो गई।

उनके हालात में कोई खासा सुधर नहीं हुआ था, हां सिर्फ इतना फर्क पड़ा था कि कुछ खर्चे निकल जाते थे और जान-पहचान बन जाने के कारण कुछ खर्चे बच जाते थे। लेकिन अभी मनोहर की पहचान सिक्के के दूसरे पहलु से नहीं हुई थी। एक दिन वो दिनेश जी के पास गया और उससे इजाजत मांगी कि सीजन के दिन हैं इसलिए उसे दफ्तर के काम के बाद कुछ शादियों के फंक्शन करने दिए जाएं। दिनेश ने साफ इंकार कर दिया और कहा कि उसके ऐसा करने पर उसके और कंपनी दोनों के नाम को धक्का लगेगा। तुम एक फोटो जर्नलिस्ट हो और हमारा अखबार अब इस राज्य का एक जाना-माना नाम बन चुका है, जब तुम्हें लोग शादियों के फोटो खींचते देखेंगे तो क्या नाम रह जाएगा हमारा। दोबारा ऐसी बात सोची भी तो निकाल दिए जाओगे।
वो मायूस चेहरा लेकर दफ्तर से बाहर निकल आया। अखबार को बढ़ता देखकर गुप्ता जी ने फैसला किया कि अब अखबार के आठ पेज और बढ़ा दिए जाएंगे। एक मीटिंग की गई और सबसे काम बढ़ाने को कहा गया, अब ये तय हुआ कि दोनों फोटोग्राफर भी ज्यादा फोटो दिया करेंगे। मनोहर को कम्पनी की तरफ से एक मोटर साइकिल भी दी गई लेकिन अब उसे पूरा दिन दौड़ना पड़ता था, उसकी तनख्वाह का एक अच्छा हिस्सा तो अब पेट्रोल खर्च में ही चला जाता था। एक बार वो दिनेश जी के पास तनख्वाह बढ़ाने की खातिर गया तो दिनेश जी ने फिर उसे खरी-खोटी सुना डाली।

तुम काम क्या करते हो। तुम्हे रखा है यही तुम पर एक बहुत बड़ा एहसान है, अरे वरना जितने फोटो तुम खींचते हो ना, उससे दुगुने और कहीं बेहतर तो मैं यहीं बैठे मंगवा सकता हूं, हजारों एजेंसी वाले तैयार बैठे हैं। फिर हम तुम्हें क्यूं झेलें, पहले अपने काम में क्वालिटी लाओ फिर बात करना आकर।

मनोहर समझ गया था कि वो एक ऐसे अजीब से जाल में फंस चुका है जिसे भेद पाना अब उसके लिए संभव नहीं है। उसे लगा कि यदि वो नौकरी छोड़ता है तो जो लोग उसके एक बार कहने पर उसका काम कर देते हैं वो घास भी नहीं डालेंगे और
अगर काम करता रहता है तो यह सब उसे मानना होगा और मालिकों की गुलामी को चुपचाप सहना भी होगा। उसके पास कोई ऐसी खास काबिलियत या डिग्री डिप्लोमा भी नहीं था कि किसी और अखबार में हाथ पैर मार सके और अगर उसने ऐसा कुछ किया तो ये कंपनी उसे निकालते देर न लगाएगी। क्योंकि शहर में ऐसे हजारों सीजन खींचने वाले फोटोग्राफर थे जो एक बार किसी अखबार में काम करने का मौका ढूंढ रहे थे। शहर में किसी नेता के विवादास्पद बयान के कारण दो समुदायों में दंगे छिड़ गए। मनोहर को भी दिनेश ने फोन कर के कहा कि वो जाकर दंगों और जुलूसों के फोटो खींचकर ले आए। मनोहर अपने दोस्त रंजीत को साथ लेकर निकल गया, उन्होंने दो जगह का फोटो खींचा और शहर के मुख्य चौक पर चले गये क्योंकि वहां सबसे अधिक अफरा-तफरी थी और एक बड़ा जुलूस निकल रहा था, वहां पहुंचकर उन्होंने देखा कि पुलिस भीड़ पर लाठियां भांज रही थी, वे दोनों उस घटना की तस्वीरें खींचने लगे। तभी मौके पर ही खड़े पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी की नजर उन दोनों पर पड़ी, उसने अपने सिपाहियों से कहा कि उन दोनों से कैमरे छीन लें और उनकी भी पिटाई करें। सिपाहियों ने उन दोनों की जमकर पिटाई की, रंजीत के हाथ में मनोहर की उंगलियों में फ्रैक्चर हो गया और इसके अलावा उन्हें सिर पर भी चोटें आई। उन दोनों को इलाज के लिए अस्पताल भर्ती करवाया गया और शहर की बाकी मीडिया ने घटना की निंदा की। मीडिया के दबाव में पुलिस के सर्वोच्च अधिकारी ने उन दोनों के इलाज का खर्चा और मुआवजा दिया लेकिन इस घटना से लक्ष्मी और उसकी बेटी बहुत सहम गए थे उनके अंदर एक असुरक्षा की भावना घर कर गई थी। घटना को हुए एक महीना बीत चुका था, मनोहर घर पर ही आराम कर रहा था, तभी दिनेश जी का फोन आया।

मनोहर बहुत हो गया आराम, अब तो तुम ठीक हो चुके होगे। कल से काम पर वापिस आ जाओ। इतना कहकर उसने फोन काट दिया। लक्ष्मी, जो कि मनोहर के पास ही बैठी थी, बोली, ये उसी मनहूस का फोन है ना, जो इंसान को इंसान नहीं समझता कह दो उससे कि अब तुम ये काम नहीं करोगे। क्या तीन हजार के लिए तुम्हारी जान ले लेंगे ये लोग, एक महीना हो गया तुम्हे बिस्तर पर पड़े हुए कोई मुआ देखने तक नहीं आया। भगवान ना करे कल को तुम्हे कुछ हो गया तो, हम दोनों का क्या होगा और वैसे भी तुम अपना काम कर सकते हो, भले ही पैसे कुछ कम आएं पर जान तो सलामत रहेगी। मनोहर चुपचाप लक्ष्मी की सब बातें सुनता रहा, उस रात उसके दिमाग में यही सब बातें घूमती रहीं।

मनोहर ने लक्ष्मी के जोर देने पर अखबार की नौकरी छोड़ दी और फिर से अपनी फोटोग्राफी की दुकान करने लगा। उसने देखा कि जैसे ही उसकी काम छोड़ने की बात लोगों का पता चली, तो जो लोग उसे दिन-रात फोन करते थे और एसएमएस कर करके उसके मोबाइल को भर देते थे, अब वही लोग उसका फोन उठाना बंद कर चुके थे। जिन वरिष्ठ लोगों के यहां उसे कभी भी जाने की इजाजत थी अब उनके दरबान ही उसे वापिस भेज देते थे। बेटी के स्कूल में उसे कभी भी फीस जमा करवाने की इजाजत थी, उसके लिए कोई अंतिम तिथि नहीं होती थी, क्योंकि वो हमेशा प्रिंसीपल के कहने पर उनके स्कूल के समारोह की फोटो खींचकर अखबार में लगवा देता था लेकिन अब स्कूल की तरफ से उन्हें जल्द फीस जमा करवाने का दबाव था और ऐसा न होने पर उसकी बेटी को निकालने की धमकी भी मिल चुकी थी। उसने सोचा नहीं था कि लोगों का रूख इस तरह बदल जाएगा, जिन लोगों ने उसे खुद पैसे दिए थे वही लोग अब उसे पैसे वापिस करने के लिए फोन करते थे। शहर के एक रेस्तरां के मालिक ने एक बार अपनी ओर से मनोहर के बेटी के जन्मदिन पर पार्टी करवाई थी लेकिन अब वो भी उसके पैसे मांग रहा था। जबकि उस समय उसने कहा था ये मेरी बेटी पहले है और मनोहर की बाद में और अब उसने फोन करके कहा मनोहर मैं शराफत से बोल रहा हूं, सिर्फ रोटी के पैसे दे दो,  हॉल का किराया तो मैं मांग ही नहीं रहा हूं।

लेकिन सेठ आपने तो कहा था, कि सारा खर्चा मेरा होगा।

अरे भाई खर्चे से मेरा मतलब ये नहीं था कि तुम मुफ्त का माल समझ लो, मेरा तो हॉल का किराया ही एक लाख है।

मेरे पास तो एक पैसा भी नहीं है।

तो ठीक है मैं तुम्हारी बेटी को उठाकर ले जाता हूं।
मनोहर चिल्लाने लगा, उसे छोड़ दो सेठ, उसका क्या कसूर है, उसे छोड़ दो...।

अचानक मनोहर की नींद खुली और उसे समझ आया कि वो एक सपना देख रहा था। लक्ष्मी और बच्ची सो रहे थे। वो उठा और बिना नहाये ही  अपना कैमरा उठाया और बाहर आकर मोटरसाइकिल चालू की और निकल पड़ा।