30 नवंबर 2014

हम वही नादाँ हैं जो ख़्वाबों को धरकर ताक पर - नवीन

हम वही नादाँ हैं जो ख़्वाबों को धरकर ताक पर।
जागते ही रोज़ रख देता है ख़ुद को चाक पर॥

दिल वो दरिया है जिसे मौसम भी करता है तबाह। 
क्यों धरें इल्ज़ाम केवल हरकते-नापाक पर

हम तो उस के ज़ह्न1 की उरयानियों2 पर मर मिटे।
दाद अगरचे3 दे रहे हैं जिस्म और पौशाक पर॥

हम बख़ूबी जानते हैं बस हमारे जाते ही।
कैसे-कैसे गुल खिलेंगे इस बदन की ख़ाक पर॥

और कब तक आप ख़ुद से दूर रक्खेंगे हमें।
अब हमारे घर बनेंगे आप के अफ़लाक4 पर॥

बात और ब्यौहार ही से जान सकते हैं इसे।
इल्म की इमला लिखी जाती नहीं पौशाक पर॥

उन के ही रू5, आब6 की ख़ातिर तरसते हैं 'नवीन'
ग़ौर फ़रमाते नहीं जो ज़ह्न की ख़ूराक पर॥


1 मस्तिष्क, सोच 2 नग्नता, स्पष्टता, खुलापन 3 हालाँकि 4 आसमानों 5 मुख, चेहरे 6 कान्ति, चमक 

:- नवीन सी. चतुर्वेदी 


बहरे रमल मुसम्मन महज़ूफ़
फ़ाइलातुन  फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
2122 2122 2122 212

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