बहरे रजज मुसम्मन सालिम लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
बहरे रजज मुसम्मन सालिम लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

सब कछ हतै कन्ट्रौल में तौ फिर परेसानी ऐ चौं - नवीन

सब कछ हतै कन्ट्रौल में तौ फिर परेसानी ऐ चौं
सहरन में भिच्चम –भिच्च और गामन में बीरानी ऐ चौं

जा कौ डसयौ कुरुछेत्र पानी माँगत्वै संसार सूँ
अजहूँ खुपड़ियन में बु ई कीड़ा सुलेमानी ऐ चौं

धरती पे तारे लायबे की जिद्द हम नें चौं करी
अब कर दई तौ रात की सत्ता पे हैरानी ऐ चौं

सगरौ सरोबर सोख कें बस बूँद भर बरसातु एँ
बच्चन की मैया-बाप पे इत्ती महरबानी ऐ चौं

सब्दन पे नाहीं भाबनन पे ध्यान धर कें सोचियो
सहरन कौ खिदमतगार गामन कौ हबा-पानी ऐ चौं

: नवीन सी. चतुर्वेदी

बहरे रजज़ मुसम्मन सालिम
मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुनमुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन
2212 2212 2212 2212

सब कुछ है गर कन्ट्रौल में तो फिर परेशानी है क्यों
शहरों में भिच्चम –भिच्च [अत्यधिक भीड़] और गाँवों में वीरानी है क्यों

जिस का डसा कुरुक्षेत्र पानी माँगता है विश्व से
अब भी खुपड़ियों में वही कीड़ा सुलेमानी है क्यों

धरती पे तारे लाने की जिद किसलिए की थी भला
अब कर ही दी तो रात की सत्ता पे हैरानी है क्यों

सारा सरोवर सोख कर बस बूँद भर बरसाते हैं
बच्चों की मैया-बाप पर इतनी महरबानी है क्यों
  
शब्दों को छोड़ो भावनाओं पर ज़रा करिएगा ग़ौर

शहरों का ख़िदमतगार गाँवों का हवा-पानी है क्यों

हैं साथ इस खातिर कि दौनों को रवानी चाहिये - नवीन ज

हैं साथ इस खातिर कि दौनों को रवानी चाहिये
पानी को धरती चाहिए धरती को पानी चाहिये



हम चाहते थे आप हम से नफ़रतें करने लगें
सब कुछ भुलाने के लिए कुछ तो निशानी चाहिये



उस पीर को परबत हुए काफ़ी ज़माना हो गया
उस पीर को फिर से नई इक तर्जुमानी चाहिये



हम जीतने के ख़्वाब आँखों में सजायें किस तरह
लश्कर को राजा चाहिए राजा को रानी चाहिये



कुछ भी नहीं ऐसा कि जो उसने हमें बख़्शा नहीं
हाजिर है सब कुछ सामने बस बुद्धिमानी चाहिये



लाजिम है ढूँढें और फिर बरतें सलीक़े से उन्हें
हर लफ्ज़ को हर दौर में अपनी कहानी चाहिये



इस दौर के बच्चे नवाबों से ज़रा भी कम नहीं
इक पीकदानी इन के हाथों में थमानी चाहिये




: नवीन सी. चतुर्वेदी




बहरे रजज मुसम्मन सालिम
2212 2212 2212 2212
मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन

हिन्दोस्ताँ को जगदगुरु यूँ ही नहीं कहते सभी - नवीन

हर आदमी की होती है अपनी अलग इक एंटिटी|
दुनिया मगर अक्सर समझ पाती न ये रीयेलिटी |१|

हिन्दोस्ताँ को जगदगुरु यूँ ही नहीं कहते सभी|
डायवर्सिटी होते हुए भी है यहाँ पर यूनिटी|२|

गिनती पहाड़ों से भी आगे है गणित का दायरा|
माइनस करे एनीमिटी और प्लस करे ह्यूमेनिटी|३|

ताउम्र जो साहित्य की आराधना करते रहें|
क्यूँ भूल जाती हैं उन्हें सरकार और सोसाइटी|४|

सीखा है जो 'कल' से वही हाजिर किया 'कल' के लिए|
अब आप को करना है तय, कैसी है ये वेराइटी|५|


मुसतफ़इलुन मुसतफ़इलुन मुसतफ़इलुन मुसतफ़इलुन 
2212 2212 2212 2212
बहरे रजज मुसम्मन सालिम

कुछ मुश्किलें, कुछ उलझनें, कुछ खामियाँ भी हैं हुज़ूर - नवीन

कुछ मुश्किलें, कुछ उलझनें, कुछ खामियाँ भी हैं हुज़ूर
आवाज़ है आवाज़ पर ख़ामोशियाँ भी हैं हुज़ूर

अपनी बपौती जान कर, जंगल नहीं काटें कोई
इन जंगलों में, जन्तुओं की बस्तियाँ भी हैं हुज़ूर

जिस सोच ने, तुहफ़े दिये हैं, 'ताज़महलों' से हमें
उस सोच में, "क़ारीगरों की उँगलियाँ" भी हैं हुज़ूर

ये ज़िन्दगी अन्धा कुँआ है, जानते हैं सब 'नवीन'
पर इस कुँए में, हौसलों की रस्सियाँ भी हैं हुज़ूर


बहरे रजज मुसम्मन सालिम 
मुस्तफ़ इलुन x 4 
2212 x 4 

चेहरे बदलने थे मगर बस आइने बदले गये - नवीन

चेहरे बदलने थे मगर बस आइने बदले गये
इनसाँ बदलने थे मगर बस कायदे बदले गये

हर गाँव, हर चौपाल, हर घर का अहाता कह रहा
मंज़िल बदलनी थी मगर बस रासते बदले गये

अब भी गबन, चोरी, छलावे हो रहे हैं रात दिन
तब्दीलियों के नाम पर बस दायरे बदले गये

जिन मामलों के फ़ैसलों के मामले सुलझे नहीं
उन मामलों के फ़ैसलों के फ़ैसले बदले गये



बहरे रजज मुसम्मन सालिम 
मुसतफइलुन मुसतफइलुन मुसतफइलुन मुसतफइलुन 
२२१२ २२१२ २२१२ २२१२