1 जून 2014

साहित्यम् - वर्ष 1 - अङ्क 5 - जून' 2014

सम्पादकीय

परसों यानि 30 मई 2014 को दिल्ली में मौसम का सब से तेज़ तापमान रिकार्ड होने के बाद वो आँधी चली कि उस की ख़बरें मुम्बई में भी साहित्यिक अंदाज़ में सुनने को मिलीं। कुछ रसिक मिजाज़ लोग गिरती-पड़ती चीज़ों के साथ ही साथ उड़ती चीज़ों का भी ज़िक्र कर रहे थे। जन-जीवन बहुत ही अस्त-व्यस्त हुआ, मगर क्या करें कुदरत पर किस का ज़ोर चला है भाई?

पिछला अङ्क पढ़ने के साथ ही हमारे एक वरिष्ठ साथी ने सन्देश दिया कि आप के सम्पादकीय में राजनीतिक चर्चा है इसलिये भविष्य में उन तक अङ्क न पहुँचाया जाये। मुझे नहीं लगता कि सर्वज्ञात समूह विशेष की तर्ज़ पर यह अन्तर्जालीय पत्रिका किसी वर्ग विशेष का समर्थन या विरोध करती है, फिर भी अग्रज की बात मान ली।

तमाम अनुमानों को झुठलाते हुये मोदी [बीजेपी नहीं] को अपार सफलता मिली और उन के शुरुआती दौर के चन्द फ़ैसले इस बात की गवाही दे रहे हैं कि मोदी जी पब्लिक से किये गये वायदों से मुकरने का जोख़िम नहीं उठायेंगे। मुझे नहीं लगता इतना भर लिखने से किसी को सर्वज्ञात समूह विशेष की तर्ज़ पर मोदी का अनुगामी मान लिया जाये।

दिन-ब-दिन तकनीक के बढ़ते उपयोग और नौजवानों की बढ़ती सहभागिता अच्छे परिणाम दिखला रही है। चार साल पहले जब फ़ेसबुक और फिर ब्लॉगर के मार्फ़त मैं ने अन्तरराष्ट्रीय अन्तर्जालीय साहित्यिक प्रासाद की चौखट पर क़दम रखे थे, तब दूर-दूर तक इस बात का अंदाज़ा नहीं था कि इतने कम समय में इतने अधिक लोगों से जुड़ जाऊँगा। मगर यह सच अब हम सब के सामने है। अन्तर्जालीय प्रवृत्तियों को लगातार कोसने की बजाय हमें उन का सदुपयोग करने के बारे में सोचना ही श्रेयस्कर होगा। साथ ही किसी भी अन्य क्षेत्र की तरह साहित्य में भी नौजवानों को परिश्रम करने की आदत डलवाने की ज़रूरत है। कभी-कभार सुनने में आता है कि उस्ताज़ लोग अपने-अपने शागिर्दों [पट्ठों] को ग़ज़ल-गीत-कविता वग़ैरह लिख कर दे देते हैं। यह प्रवृत्ति भले ही कितनी भी सदियों से क्यूँ न चली आ रही हो, मुझे तर्क-संगत कभी भी नहीं लगी। मेहनत-मशक़्क़त से बेहतर और कोई डगर हो ही नहीं सकती।

शेयर बाज़ार चढ़ रहा है, सोना गिर रहा है, प्रॉपर्टी वाले भी सहमे-सहमे हुये हैं। आने वाले महीनों में हमारे सामने कई अनपेक्षित परिस्थितियाँ उपस्थित होने की सम्भावनाएँ हैं। उमीद करता हूँ कि जन-साधारण को ज़ोर का हो या धीरे का, किसी भी तरह का झटका झेलना न पड़े।

इस अङ्क से साहित्यम के कुछ साथियों ने विभाग विशेष का उत्तरदायित्व आपस में बाँट लिया है। उन सभी साथियो के नाम और मोबाइल नम्बर शुरुआत में दिये गए हैं। कुछ अन्य भाषा-बोलियों से भी साथियों के सहयोग की दरकार है। हम सभी अवैतनिक स्वयं-सेवी हैं। पिछले दो-तीन हफ़्तों से लगातार सफ़र में होने के कारण इस अङ्क को बहुत ही कम समय दे पाया हूँ। भाषाई स्तर पर वाक्यों / शब्दों / अक्षरों को फिलहाल अपेक्षित समय नहीं दे पा रहा हूँ, परन्तु जल्द ही इस दिशा में पहल करनी होगी। अच्छे साहित्य को अधिकतम साहित्य-रसिकों तक पहुँचाने के क्रम में साहित्यम्’ का अगला अङ्क आप के सामने प्रस्तुत है। पढ़ियेगाअन्य परिचित साहित्य-रसिकों को भी जोड़िएगा और आप के बहुमूल्य विचारों से अवश्य ही अवगत कराइयेगा। आप की राय बिना सङ्कोच के हम तक पहुँचाने की कृपा करें। 

आपका अपना
नवीन सी. चतुर्वेदी, 01 जून 2014

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साहित्यम्
अन्तरजालीय पत्रिका /   सङ्कलक
वर्ष 1 - अङ्क 5 - जून 2014

विवेचना 
मयङ्क अवस्थी - 07897716173

छन्द विभाग
आ. सञ्जीव वर्मा 'सलिल' - 9425183144

व्यंग्य विभाग
कमलेश पाण्डेय - 9868380502

कहानी विभाग
सोनी किशोर सिंह - 8108110152

राजस्थानी विभाग 
राजेन्द्र स्वर्णकार - 9314682626

भोजपुरी विभाग 
इरशाद खान सिकन्दर - 9818354784

अवधी विभाग 
धर्मेन्द्र कुमार सज्जन - 9418004272

विविध सहायता 
मोहनान्शु रचित - 9457520433
ऋता शेखर मधु


सम्पादन 
नवीन सी. चतुर्वेदी - 9967024593 


अनुक्रमाणिका










कहानी - उजास – मञ्जरी शुक्ल


रेत  के कणों  को समेटने  में  एक उम्र  गुज़र  गई और जिन चमकीले  कणों  से मैंने  अपने हाथ सजाये  वे तो  बड़े  ही निष्ठुर  निकले। चमकते हुए मेरी हथेली से न जाने कहाँ  चले गए? मैं लहरों के बीच डूबती-उतराती सब जगह जाकर देख आई परन्तु मेरे हाथ कुछ न लगा। भीगे कपड़ों में गीले आँसुओं से तर-ब-तर मैं किसी तरह बाहर  आ गई।  दूर कहीं सूरज की लालिमा आधे आकाश  को अपने आगोश में लेने को बेताब थी। सफ़ेद बादलों का एक उजला टुकड़ा उसके आगोश से फिसला चला जा रहा था, मानों वह इतनी जल्दी नींद की गोद में नहीं जाना चाहता हो। देखते ही देखते लालिमा ने अपने हाथ फैलाये और उस छोटे से नटखट बादल के टुकड़े को जो बहुत शैतानी से बड़ी  देर से लुका छुपी खेल रहा था अपने पास सटा  लिया। इतने पासकि  नन्हा सा बादल इतना विराट सानिध्य पाकर एक कोने में दुबक गया। डूबते सूरज ने गर्व भरी मुस्कान से चारों ओर  देखा कि हर शय सिन्दूरी हो चुकी थी मानों अब यह सोने की बेला का सङ्केत था।

सूरज को  पता नहीं क्या हुआ कि उसने अचानक ही नदी के दूसरी और डुबकी लगा ली। मैं जो  किनारे पर बैठी कुदरत के इस तमाशे को बहुत  गौर से देख रही थी अचानक समझ ही नहीं पाई कि इतना विशाल सूरज जिसके बगैर जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है वो भी जल समाधि ले सकता हैं। मैंने देखा कि मैं  भी नदी की तेज धारा में धीरे-धीरे आगे बढ़ रही हूँ, परन्तु अचानक सँभल नहीं पाती और सन्तुलन खोकर पानी में गिर पड़ती हूँ। मैं  डूबते हुए सोच रही हूँ  कि मुझे  तो तैरना भी नहीं आता परन्तु जैसे ही  डूबने लगती हूँ  और मेरा दम घुटने लगता हैं तो  अचानक मेरी आँख हड़बड़ाकर खुल गई और माथे का पसीना पोंछते ही मैंने  सोचा कि आज जीवन में  पहली बार इस बात को इतनी गहराई से समझ पाई कि क्यों मैं हजारों सूर्योदय देखने के बाद भी समझ  नहीं पाई कि सूरज डूबता भी है और जब डूबता हैं तो उसको रात में कोई नहीं याद करता ईदुनिया नींद के आगोश में जाने से  पहले इस बात पर खुश होती है कि चाँद अपनी सफ़ेद खूबसूरत और नाजुक सी चाँदनी लेकर सितारों के साथ आएगा और सपनों की सुहानी दुनिया में ले जाएगा जहाँ उन्हें दिन भर के तमाम दर्द तकलीफों और कष्टों से कुछ समय के मुक्ति मिल जायेगी। क्या कभी किसी ने ये नहीं  सोचा कि जो सूरज अस्त हो गया है अगर वो कभी  ना निकले तो क्या होगा ....पर इन सब बातों को सोचने की कहाँकिसके पास फुर्सत हैं ,मेरे   पास भी कहाँ  थी ...पति ससुर और सास की सेवा करते करते कब मेरे  जीवन के बारह वर्ष बीत गए पता ही नहीं चला। कोल्हू का बैल भी इतना क्या घूमता होगा जितना मेरी सास ने मुझे वैध और हकीमों के दरवाज़ों पर घुमाया हैईकितनी बार मैंने दबे स्वर में  कहना चाहा  कि  एक बार अपने लड़के का तो डाक्टरी चेकअप  करवा लो पर बात  जुबान से निकलने से पहले ही जैसे किसी ने मेरा  तालू नोंचकर  फ़ेंक दिया हो। और यही सब सोचते हुए मैं  बरामदे में बैठे अपने ससुर के पास उन्हें चाय देने गई जो अर्ध विशिप्त  थे और सब उनको पागल पागल कहकर चिढ़ाते  थे। मैंने  मोहल्ले की औरतों  से सुना था कि मेरी सास ने ही जमीन जायजाद पाने के लालच में  अपने पति को कोई जड़ी बूटी खिला कर उनका दिमाग ख़राब कर दिया था और उसके बाद वो राजरानी की तरह सब पर हुकुम चलाती रहती थी। मैं  जानती थी कि  ससुर से कहने का कोई फायदा नहीं होगा पता नही वो मेरी बात समझेंगे भी या नहीं और सबसे बड़ा संकोच मुझे अपनी भावनाए उनके सामने बताने से हो रहा था पर पति के सामने तो उसका मुहं  खुल  ही नहीं सकता था और अचानक मेरा ध्यान  अपने जले  हुए निशानों  पर गया जो मेरे पति ने लोहे का चिमटा  गर्म करके मेरे ऊपर दागा था। मेरी सास को किसी ने बता दिया था कि मुझ पर किसी ने टोना टोटका करवा दिया है जिसके कारण मेरे बच्चे नहीं हो रहे है और हर मंगलवार मुझे अगर गर्म लोहे के चिमटे से मेरा पति दागेगा तो बहुत ही जल्दी उनके वंश को बढ़ाने वाला उनकी गोद में किलकारियाँ मारेगा। आज भी सोच कर मैं  थर्रा जाती हूँ कि मवेशियों के भी जब गर्म सरियाँ  दागा जाता हैं तो उन्हें भी वहाँ  से भागने की आज़ादी होती है और कुछ लोग उन्हें पकड़कर रखते है मैंने  तो अपने गाँव में देखा भी था कि कोई नशीली वस्तु  खिलाने के बाद वो चुपचाप खड़े अपने नर्म मुलायम शरीर से अपनी खाल नुचवाया करते थे पर मैं तो उन सभी  जानवरों से भी बदतर हूँ ,क्योंकि मेरी सास दरवाजे पर बैठ जाती थी और तेज आवाज़ में  भजन लगा देती और  ये देखकर चौके के अन्दर खड़ा राच्छस  जैसा मेरा पति मुझे धमकी देते हुए कहता  कि  अगर हिली या भागी तो मिटटी का तेल डालकर ऐसा जलाऊंगा कि तू पूस सा धू धू जलने लगेगी। जब चिमटा आग में गर्म हो रहा होता तो मन ही मन मैं सारे देवी देवताओं को पुकारती पर कभी मुझे कोई भी इस नरक से निकालने के लिए कभी ना आता।  चिमटे के  गर्म होकर लाल होने पर मेरा  पति  मुझसे  कहता कि हाथ आगे कर ...और मैं फूट फूटकर रोती  हुई अपनी पत्ते से थरथराती हुई देह के साथ हाथ आगे कर देती पर इसके बाद क्या होता मुझे कुछ पता नहीं चल पाता क्योंकि मैं  चीख के साथ दर्द के मारे बेहोश हो जाती और ये सुनकर मेरी सास बाहर बैठी गप्प लड़ाती  औरतों  को प्रसाद बांटना शुरू कर देती। मैंने  अपनी सास के सामने ही कई बार जान देने की कोशिश की पर हमेशा उन्होंने  जी तोड़ कोशिश हर बार  मुझे  बचा लिया। एक दिन मैंने चीखते हुए पूछा - क्यों नहीं मर जाने देते हो मुझे तुम लोग। अगर मैं जानवरों से भी गई बीती हूँ  तो मुझे तिल तिल करके क्यों मार रहे हो ?"  अरे ...ऐसे कैसे मर जाने दे तुझे ?पता हैं आजकल काम वाली बाइयों के कितने नखरे हैं कितनी मोटी  पगार लेती हैतब भी पूरा काम नहीं करती। फिर कुछ सोचते हुए बोली तू भी उनकी तरह चोरी छुपे चौके में  खाती पीती जरुर होगी वरना इतनी मुस्तंडी   कैसे होती जा रही हैं जब अपने बाप के घर से आई थी तब तो छिपकली जैसी दुबली पतली थी फिर अपने निठल्ले बेटे की तरफ मुहँ करके मेरी ओर तिरछी नज़रे करके देखते हुए बोली-" सुन तू मुझे  नहीं कल नहीं बल्कि आज ही एक जाली वाली अलमारी लाकर दे दे ताकि दूध और दही मैं जरा ताले में रखना शुरू कर दू। क्या ज़माना आ गया हैं मुझ बूढी की हड्डियों में तो सिर्फ दो लीटर दूध ही पहुँच रहा हैं और बाकी पता नहीं ये कितना गटक जाती होगी" अपमान और शर्म से मेरी   आँखों से आँसूं बहते हुए मेरे गाल तक आ गए और मैं जान ही नहीं पाई । मैंने अपने पति की ओर देखा कि शायद वो कहे कि जब घर में ही दो लीटर दूध आता हैं और वो एक कप चाय तक को तरस जाती हैं तो दूध  पीने का तो सपने में भी नहीं सोच सकती पर कुछ भी कहने और सुनने का कोई अर्थ नहीं था। ये तो एक ऐसी काल कोठरी थी जिसमे उसे आखिरी  साँस तक रहना  था और मरने के बाद ही अगर कही सुख होता होगा तो उसकी अनुभूति उसे तभी मिलेगी। तभी बाहर से भड़ाक  की आवाज़ आई। सास और पति के साथ मैं भी हडबडाकर आँगन की ओर भागी। देखा तो मेरे  ससुर जमीन पर पड़े कराह रहे थे और उनके सर पर एक बड़ा सा गुमड   निकल आया था ईमैं  घबराकर उन्हें उठाने के लिए भागी पर अकेले उन्हें नहीं उठा पाने के कारण  मदद के लिए अपनी सास और बेटे की तरफ देखा। पति में शायद बाबूजी के कुछ संस्कार आ गए थे इसलिए वो उसकी ओर बढ़ा पर  माँ  ने तुरंत उसका हाथ पकड़ लिया और पान चबाती हुई बोली-"अन्दर चल मेरे साथमैं समझी थी कि बच्चे कही आँगन में पड़ी चारपाई लेकर तो नहीं भाग रहे है। ये गिरना पड़ना तो सब चलता ही रहता है। " और ये कहकर वो अपने उस दब्बू और कायर बेटे का हाथ पकड़ कर अन्दर की ओर चली गई। मेरा  रोम रोम गुस्से के मारे जल उठा पर मैं  कर ही क्या सकती थी ईमैंने बाबूजी की ओर देखा तो उनकी आँखों से आँसूं  बह रहे थे। मैंने अपनी रुलाई रोकते हुए उनके आँसूं पोंछे  और उन्ही को हिम्मत देते हुए किसी तरह से ले जाकर उनके बिस्तर पर लेटाया। करीब एक महिना लगा बाबूजी को उस दर्द से उबरने में ...शायद उनके माथे की चोट तो ठीक हो गई थी पर जब वो जमीन पर टूटी हुई सुराही के पानी में गीले पड़े हुए थे और उनकी पत्नी और बेटा घ्रणा    से मुहं फेरकर चल   दिए थेवो घाव तो उनकी म्रत्यु   तक हरा ही रहेगा ।   मैंने तो लाचार जमीन पर गिरे बाबूजी की आँखों में उस वक़्त भी डर  साफ़ देखा था जब माँ उन्हें घूर रही थी। वो बेचारे कोहनी से रिसते  हुए  खून को छुपाने की असफल कोशिश कर रहे थे क्योंकि माँ का बार बार सफ़ेद चमकते हुए  संगमरमर की फर्श की ओर देखना इस बात का संकेत था कि उनके खून से फर्श लाल हो रही है। पर मुझे और बाबूजी दोनों को ही सर्कस के जानवर बना दिया गया था जो अपने रिंग मास्टर के इशारे पर ही काम करता  हैं चाहे रो कर करे या फिर नकली मुस्कान होंठो पर चिपकाकर ईखैर अब दिन थे तो बीतने ही थे। कभी कभी सोचती हूँ  कि विधाता भी बहुत बड़ा जादूगर हैं उसने सबके दिमाग में ये भ्रम बैठा रखा हैं कि प्रत्येक मनुष्य अमर है इसलिए आदमी कब्रिस्तान से लौटते हुए भी अपने बाप की  जमीन जायदाद और बेंक अकाउंट के बारे में चिंता करता आता हैं वरना अपने ही हाथ से अपने जन्मदाता का सर फोड़ने के बाद उसको आग के हवाले कर कोई पैसे के बारे मैं सोच भी कैसे सकता हैं।  पर यही भूल भुलैया ही तो सबको बहला रही हैं वरना मेरे ससुर के साथ जो मेरी सास कर रही है वो सपने   में भी  कभी न करती।

जब भी मैं जरा सी भी गलती करती तो मेरी सास तुरंत मेरे पति की दूसरी शादी की बात करती पर मेरे दिल में ख़ुशी की यह उम्मीद ज्यादा देर तक नहीं  रहती क्योंकि मेरी सास की दुष्टता  के किस्से दूर दूर तक मशहूर हो चुके थे और लड़की तो क्या कोई कानी चिरैया तक इस घर में ब्याहने को तैयार नहीं था। मेरा इस अनंत ओर छोर वाले संसार में  ईश्वर के अलावा देखने और सुनने वाला कोई नहीं था इसलिए मैं घंटो  अपने घर के मंदिर में बैठकर रोती रहती थी। पर उस  दिन मेरे सब्र की हद पार हो गई जब मेरी सास ने घर में एक अनुष्ठान रखा और जिसमें किसी साधू को बुलवाया ईजटाधारी साधू के तन पर ढेर सारी भभूत और साधू की आँखों मैं वासना के लाल डोरे देखते ही में समझ गई थी कि अब मेरे  बाँझ होने से भी ज्यादा कुछ अनिष्ट इस घर में होने जा रहा हैं।

उस की  लाल लाल गांजे और अफीम के नशे से लाल हुई भयानक आँखें मुझे अन्दर तक भेद रही थी। डर के मारे में सिहर उठी और मेरे रोएँ खड़े हो गए। मैं कुछ कहू इससे पहले ही मेरी सास बोली -" जा इनको कमरे में ले जा और तेरी सूनी  गोद को भरने के लिए एक पूजा रखी हैं वरना तुझ जैसी बाँझ के मनहूस क़दमों से ही मेरा पति पागल हो गया। मैंने आँसूं भरी नज़रों से अपने ससुर की ओर देखा जो बड़ी ही बेबसी से मुझे देख रहे थे। इतना घिनौना इलज़ाम भी ये औरत मुझ पर लगा सकती हैं इसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी ।

पर अभी बहुत कुछ ऐसा होना बाकी था जो कल्पना से परे था।   सास के पीछे पीछे दुम  हिलाता उनका पालतू बेटा भी सर झुकाकर  खड़ा हो गया। कमरे में  पूजा की कोई तैयारी नहीं देखकर मैं जैसे ही बाहर  जाने को हुई उस लम्बे चौड़े साधू ने मेरा रास्ता रोक लिया।  मैं कुछ कहू इससे पहले मेरे सास कमरे के बहार जाते हुए  बोली-"मैं जरा भजन चलाकर  आँगन में बैठने जा रही हूँ।   आ जाउंगी दोपहर तक वापस। तब तक जैसा साधू बाबा कहे वैसा ही करना आखिर तुझ जैसी निपूती को लेकर कब तक अपने घर के अन्न से भरे बोरे ठुसाउंगी 

मैंने आशा भरी नज़रों से अपने पति की ओर देखा जो मेरी नज़रों का सामना ना करते हुए मेरी सास के पीछे जाकर छुप गया। मैंने मन ही मन अपने कायर पति को धिक्कारते  हुए सोचा कि किस मनहूस घडी में पंडित के कहने पर इस लचर से आदमी ने मेरी रक्षा करने के वचन दिए थे। तभी मेरी सास मेरी तरफ इशारा करते हुए उस साधू से बोली-"  अरे,पूरा मोहल्ला जानता है कि मेरी बहु सारे जहाँ में कटी पतंग सी डोलती रहती है। कभी इसकी छत  पर तो कभी उसकी देहलीज  पर। ये तो आपके सामने बड़ी सती सावित्री बनने का ढोंग कर रही है। इसके बाल पकड़ कर खींचों और इसे कमरे के अन्दर बंद कर दो। '

अपने ऊपर इतना गन्दा इल्ज़ाम सुनकर मैं फूट फूट कर रोने लगी ईसारा मोहल्ला जानता था कि मैंने कभी घर के बाहर पैर भी नहीं निकाला था। जब मैं इन लोगों की मार खाकर रोती और चिल्लाती थी तब भी अपने आपको बचाने के लिए मैंने कभी किसी कंधे का सहारा नहीं लिया। साधू ये सुनकर बड़ी ही ध्रष्टता   से मुस्कुराया और अपनी भारी आवाज़ में बोला -" इसमें इस बेचारी की गलती नहीं हैं इसकी माँ भी ऐसी ही होगी जिसने सारे जीवन गुलछर्रे  उड़ाए होगे तो लड़की को कहाँ  सँभालने की फुर्सत मिलती "

मेरा सर्वांग गुस्से से तिलमिला उठा और मेरी आखों के आगे मेरी विधवा माँ का उदास चेहरा आ गया जिन्होंने विवाह के मात्र दो वर्ष बाद ही अपने अपने पति को खो देने के बाद चिलचिलाती धूप और बरसते पानी में घर-घर जाकर पापड़ और बड़ी  बेचकर हम भाई बहन को इतना शिक्षित करके विवाह कराया ।

मुझे अपने आप पर शर्म होने लगी। एक तरफ मेरी अनपढ़  माँ थी जिसने अपने नाजुक कन्धों पर घर की सारी जिम्मेदारियों का बोझ अकेले दम पर सारे समाज को मुहँ तोड़ जवाब देते हुए निभाया और दूसरी तरफ मैं हूँ  एमए उत्तीर्ण करने के बाद भी इस मरियल से आदमी से रोज पिट रही हूँ  जिसमे ना ईमान हैं और ना धर्म ।  इस क्रूर आदमी से दिन रात  दया की भीख माँग रही हूँ । तभी मेरी तन्द्रा अपनी सास की कर्कश आवाज़ से टूटी जो अपनी झुकी हुई कमर को लाठी के सहारे पकड़े हुए खड़ी थी। वो मेरी माँ के चरित्र पर लांछन  लगाते हुए जोर जोर से चीख रही थी। वो जितने अपशब्द मेरी माँ को कह रही थी उतना  ही भावनात्मक साहस पता नहीं मेरे अन्दर कहाँ से आ रहा था। और जैसे ही साधू मेरी सास की रजामंदी पाकर मेरी ओर बढ़ा  मैंने बिजली की गति से सास के हाथ से डंडा लिया जिससे वो हड़बड़ाकर नीचे गिर पड़ी और ताबड़तोड़ मैंने उस साधू पर उसी डंडे से प्रहार करना शुरू कर दिया। बारह वर्षो का दुःख और दर्द जैसे लावा बनकर मेरे अन्दर बह रहा था और आज वो पूरी तरह से इन पापियों को अपने साथ बहा ले जाना चाहता था। जब साधू लहुलुहान हो गया तो मैंने जलती हुई नज़रों से अपने पति और सास की ओर देखा जो डर के मारे  थर थर काँप रहे थे।  

मैं कुछ कहूँ इससे पहले ही मेरी सास बोली-" तू ही तो मेरी इकलौती बहू हैंक्या अपनी माँ पर तू हाथ उठाएगी। ये ले आज से ये सारा घर तू ही संभालेगी और ये कहते हुए उन्होंने चाभियों का गुच्छा कांपते हाथों से मेरे हाथ में थमा दिया ।

अपने हाथों में पड़े फफोलो ओर नीले दागों को देखकर अन्दर से लगा की ये दोनों भी मेरी मार के पूरे हकदार हैं पर बचपन में ही माँ के दिए हुए संस्कार एक बार फिर आगे आ गए और मैंने ईश्वर से ही उन्हेंदंड देने को कहा क्योंकि उसका किया हुआ न्याय बिलकुल सही और सटीक होगा। मैंने तिरछी नज़रों से अपने पति की ओर देखा जो हमेशा की तरह एक कोने में दुबका खड़ा था। मैं उन कायरों को उस ढोंगी साधू के साथ छोड़कर एक फीकी मुस्कान के साथ चाभियों का गुच्छा घुमाती हुई चल दी अपने ससुर को किसी अच्छे  डॉक्टर के पास ले  जाने के लिए.....    


मञ्जरी शुक्ल  इलाहाबाद 
9616797138 

व्यंग्य - अकबर का लिप-लाक – आलोक पुराणिक


इतिहास के पुनर्लेखन की जरुरत पड़नेवाली है। नयी पीढ़ी इतिहास को अपने तरीके से  गढ़ रही हैटीवी देखकरटीवी सीरियलों के बारे में पढ़कर। दो टीन-एजर बालिकाओं की बात कुछ यूं सुनी-

वाऊअकबर, यू नो, जोधा से लिप-लाक करनेवाला है। सुपर्ब किस देखने को मिलेंगे।
रीयलीअकबर इस सो कूल ना।

अकबरदि ग्रेटऐसा पुरानी पीढ़ी ने पढ़ा है । अकबरदि कूलयह नयी पीढ़ी समझ रही है। ग्रेट से बन्दा कूल हो जाता हैएक जनरेशन के फासले में। टीवी भी इस दौरान ग्रेट से कूल हो गया है। मेरी चिन्ताएँ दूसरी हैंलिप-लाकवाले अकबर अगर हिट हो गये,  तो कोई सीरियल निर्माता सन्नी लियोनी को ला सकते हैं अकबर की किसी रानी के रुप में। सन्नीजी सिर्फ लिप पे ना रुकेंगी!!!!!!!!!!!!! अकबर के साथ ये क्या हो रहा है।

औरङ्गज़ेब पर कोई टीवी सीरियल बनाने में किसी की दिलचस्पी ना होगीक्योंकि औरङ्गज़ेब को अपने पिता शाहजहाँ को आगरा के लाल किले में लाक करते हुए दिखाया जा सकता है। पर औरङ्गज़ेब का कैरेक्टर लिप-लाक दिखाने के लिए उपयुक्त नहीं है। लिप-लाक ना होसिंपल लाक होतो सीरियल के प्रमोशन में दिक्कत आती है। सीरियल का प्रमोशन ना हो पायेतो फिर सीरियल बनाने का फायदा क्या। 

सीरियल क्या फिल्म बनाने का भी क्या फायदा।  के. आसिफ की शाहकार फिल्म मुगले आजम अगर आज बनी होतीतो सुपर-पर्सनल्टी के धनी अकबर पृथ्वीराज कपूर कामेडी नाइट्स विद कपिल के साथ मुगले आजम का प्रमोशन कर रहे होते। कपिल कहते -महाबली अकबर जरा वो वाला डायलाग तो बोलकर सुनाओपब्लिक को। और मधुबाला-प्यार किया तो डरना क्या-ये डांस गुत्थी या  चुटकी  के साथ करके दिखाइये ना। महाबली अकबर महाराणा प्रताप से जीतकर आतेपर कपिल की डिमांड के आगे हार जाते।

टीवी के आगे बड़े-बड़े महाबली लिप-लाक करने लगते हैं।

खैर मसला यह है कि अकबर के खाते में सुलहकुलभाईचाराफतेहपुर सीकरी भी हैपर ना ना ना ना सारा अकबर सिर्फ लिप-लाक पर फोकस हो रहा है। बल्कि जोधा अकबर सीरियल देखकर इतिहास समझने वाले बच्चों के मन में सवाल उठेगाभई रानियों की पालिटिक्स में इतना टाइम खर्च करनेवाले अकबर को बाकी के काम के लिए टाइम कब मिलता होगा। कब तो उन्होने फतेहपुरसीकरी बनवायी होगी। कब उन्होने गुजरात फतह किया होगा। अकबर इस कदर बेगमों में बिजी रहते हैंकैसे और क्या किया होगा। बच्चे कहीं ये ना समझें कि इतिहास जो लिखा गया हैवह सारा का सारा झूठ है। असल में तो अकबर बेगमों में ही बिजी रहते थे।

जोधा अकबर देखकर अकबर को कूल कहनेवाली बालिकाएं इतिहास की छात्राएं नहीं थींअकबर के पूरे योगदान को वह कैसे समझ पायेंगीयह चिंता मुझे रहती है। पर चिंता करने से क्या होता है। टीवी जो दिखायेगाउसके पार कुछ समझाना बहुतै मुश्किल हो  गया है।

इधर कई टीन-एजर समझने लगे हैं कि देश की हर समस्या का हल आमिर खान के पास है। आमिर खानजी बहुत मेहनत से सहज भाषा में तमाम महत्वपूर्ण मुद्दों को सामने रख रहे हैं। पर आमिर खान समाजशास्त्री नहीं हैं। आमिर खान कूड़े के ढेर के संभावित प्रयोगों के विशेषज्ञ भी नहीं हैं। बच्चे उनसे ऐसी अपेक्षाएं पाल सकते हैं। हर समस्या का हल आमिर खान के पास नहीं हैऐसा समझाना इन दिनों बहुत मुश्किल है। आमिर खान हर समस्या हल कर सकते हैंऐसी उम्मीद ठीक नहीं है। पर मेरे ठीक मानने या ना मानने से क्या होता है। टीवी को लगता हैतो ठीक ही है। एक टीवी चैनल में मैंने देखा कि भारत की रक्षात्मक तैयारियों पर एक पेनल-डिस्कशन में आमिर खान को  बुलाये जाने की बात चल रही थी। मैंने निवेदन किया-आमिर खान डिफेंस के एक्सपर्ट नहीं हैं। एक बंदे ने कहा-एक्सपर्ट तो वो कूड़े के भी नहीं थेपर उस पर एक कार्यक्रम कर गये ना। कूड़ा कौन देखता हैआमिर खान को देखा जाता है।

उफ्फ अकबर को कौन देखता हैसाहबअकबर का लिप-लाक देखा जाता है। देखियेदेखिये और अकबर को उसके किस के लिए याद कीजिये।

आलोक पुराणिक
मोबाइल-9810018799


व्यंग्य - भगवान के भी बस की नहीं नेतागीरी – अनुज खरे

 

घोर कलयुग है। चुनाव सिर पर है। फुल चिल्लपों मची है। अवतार लेने का बखत आ चुका है- भगवान मुस्कुराए। मुस्कुराहट कम हुई तो चिंता सताने लगी-कौनसा अवतार लें। भगवान जब चिंतित होते हैं तो चंहुओर खलबली मच जाती है। देवता हिल जाते हैं। चूंकि इंद्र के पास एडिशनल जिम्मेदारी है सो उसका सिंहासन डोलता है। वैसे सिंहासन किसी का भी हो डोलना ही उसका मुख्य धंधा है। चुनावी दिनों में डोलने का काफी काम निकल आता है।

तो अवतार की घड़ी है। चिंता बड़ी है। बात यहीं अड़ी है किस रूप में अवतरित हो जावैं। भगवान ने त्रिकालदर्शी वाला मॉनीटर ऑन किया। जनता का उद्धार करें! देश का भी कल्याण करें! नेता बन जावैं! वैसे भी जनता ऊपर की तरफ ही निगाहें लगाए है। भगवान ने खुद को संयत किया। घबराहट है लेकिन इनकार नहीं किया जा सकता है। पीछे नहीं हटा जा सकता है। तय रहा नेता रूप में ही अवतरित होंगे। अब भगवान ने अवतार की बेसिक क्वालीफिकेशन पर गौर करना शुरू किया। पार्टी लगेगी। विचारधारा रखनी पड़ेगी। मेनीफेस्टो में वादे होंगे। पहले ही मुद्दे पर भगवान द्वन्द में डूब गए। पार्टी कौनसी हो।

ईश्वर किसी पार्टी में कैसे हो सकते हैं। भरोसेमंद परंपरा रही है। ईश्वर न्यूट्रल रहेंगेहर तरह की पार्टीबाजी से बचेंगे। इलेक्शन तो ईश्वरत्व के लिए ही चुनौती दिख रहा है। फिर विचारधारा! तो हमेशा से सर्वहारा के उत्थान की रही है। लेकिन सर्वहारा की बात करने पर कहीं लेफ्टिस्ट मानकर किसी खांचे में न डाल दिया जाए। और विश्वकल्याण तो हजारों सालों से खुदाई मेनीफेस्टो रहा है इसमें क्या चेंज होगा भला! लेकिन अगले ही पल भगवान फिर चिंता में डूब गए। इस मेनीफेस्टो से मानवजाति तो एड्रेस हो रही हैजातियां एड्रेस नहीं हो पाएंगी। उसे एड्रेस किए बिना तो इस देश में खुद खुदा भी चुनाव नहीं जीत सकता है। ईश्वर व्यावहारिक हैं जानते हैं विकट स्थिति है। लेकिन है तो है।

एकाएक उन्हें नारे की भी याद हो आई। चुनाव में खड़े होंगे तो कोई सॉलिड सा नारा भी तो लगेगा। `अबकी बारीहरि-हरि...जांचा-परखा-खरा सा नारा उन्हें कुछ जमा भी। लेकिन लगा चुनावी मौसम में कोई अपने बाप पर भी भरोसा नहीं करता है फिरनारा पॉपुलर बना पाएगा।

बाकी चुनावी जरूरतों पर विचार किया तो लगा चमत्कारी की आदी जनता को कुछ आलौकिक दिखा दिया जाए तो काम बन सकता है। फिर याद आयाचमत्कारों से जनता का पिंड छुड़ाना ही तो उद्देश्य है। कहीं चमत्कार दिखा भी दिए तो अपनी निश्चित ही शिकायत हो जाएगी। आयोग कार्रवाई कर देगा। चुनाव लड़ने के ही अयोग्य हो जाएंगे। हाय राम! भगवान विपदा में डूबे भक्तों का कल्याण नहीं कर सकते हैं। अवतार ही उद्देश्य की पूर्ति नहीं कर पा रहा है।

भगवान ने हे! ईश्वर वाली मुद्रा में अपने हाथ ऊपर उठा दिए। ऊपर से सबसे दागी उम्मीदवार का चुनावी पैम्फलेट हाथों में आ गिरा- सच्चे-ईमानदार को चुनिए। दुखियों का कल्याण जिसका मिशन- देश चलाने का जिसमें विजन हो। धोखा मत खाइएऐसे एकमात्र उम्मीदवार के निशान पर बटन दबाइए।

भगवान समझ गए वे भगवान हो सकते हैंनेतागिरी उनके बस की बात नहीं है। तबसेभक्त हर पांच बरस में उम्मीद लगाते हैं बेचारों को पता नहीं है भगवान कभी नेता के रूप में अवतरित नहीं होने वाले..!
अनुज खरे
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