28 नवंबर 2012

अभी हयात का मतलब समझना बाकी है - नवीन

तवील जंग में शामिल भी टूट सकते हैं
रसद रुकी तो मुजादिल भी टूट सकते हैं

मुसीबतों के फ़साने को दफ़्न रहने दो
कुरेदने से कई दिल भी टूट सकते हैं

घटाओ अब तो बरस जाओ तपते दरिया पर

तपिश बढ़ेगी तो साहिल भी टूट सकते हैं

तमाम ख़ल्क़ में उलफ़त के सिलसिले फैलाओ
इसी मक़ाम पे क़ातिल भी टूट सकते हैं

अभी हयात का मतलब समझना बाकी है
घटा-बढ़ा के तो हासिल भी टूट सकते हैं
तवील जंग - लम्बी लड़ाई
रसद - सेना के लिए सप्लाई किया जाने वाला खाना-पानी, सामान वग़ैरह
मुजादिल - युद्ध लड़ने वाले सिपाही [अरबी शब्द]
ख़ल्क़ - विश्व
हयात का मतलब - जीवन का अर्थ meaning of life
हासिल - उपलब्धि, किसी जोड़-बाकी-गुणा-भाग का परिणाम 

बहरे मुजतस मुसमन मखबून महजूफ  
मुफ़ाएलुन फ़एलातुन मुफ़ाएलुन फालुन
1212 1122 1212 22  

19 नवंबर 2012

मिरी दीवानगी पर वो, हँसा तो - नवीन

मिरी दीवानगी पर वो, हँसा तो
ज़रा सा ही सही लेकिन, खुला तो

अजूबे होते रहते हैं जहाँ में
किसी दिन आसमाँ फट ही पड़ा, तो?

उमीदों का दिया बुझने न देना
जलेगी जाँ अगर दिल बुझ गया, तो

सभी को चाहिये अपना सा कोई
घटेंगे फ़ासले, निस्बत – ‘बढ़ा तो’

सुना है तुमको सब से है मुहब्बत
अगर हमने तुम्हें झुठला दिया, तो?

वो दुनिया भर में भर देंगे उजाले
अगर मग़रिब से कल सूरज उगा – तो

मैं उसको पेश तो कर दूँ जवाहिर
मगर उसकी नज़र में दिल हुआ, तो?

सफ़ीने क्यूँ हटा डाले नदी से?
पुराना पुल अचानक ढह गया, तो?

नहीं कह पाना मुमकिन ही न होगा
“दिया अपना जो उसने वासता, तो”

ग़ज़ल सुनते ही दिल बोला उछल कर
अरे क्या बात है – फिर से ‘सुना तो’


:- नवीन सी. चतुर्वेदी 

आईने शीशे हो गये - नवीन

अफ़साने सच्चे हो गए
तो क्या हम झूठे हो गए

एक बड़ा सा था दालान
अब तो कई कमरे हो गये

सबको अलहदा रहना था
देख लो घर मँहगे हो गए

झरने बन गए तेज़ नदी
राहों में गड्ढे हो गए

अज्म था बढ़ते रहने का
पैदल थे - घोड़े हो गए

हर तिल में दिखता है ताड़
हम कितने बौने हो गए

कहाँ रहे तुम इतने साल
आईने शीशे हो गये

बेटे आ गए काँधों तक
कुछ बोझे हल्के हो गए

दिखते नहीं माँ के आँसू
हम सचमुच अंधे हो गए

गिनने बैठे करम उसके
पोरों में छाले हो गए


:- नवीन सी. चतुर्वेदी 

अगर ये हो कि हरिक दिल में प्यार भर जाये - नवीन

अगर ये हो कि हरिक दिल में प्यार भर जाये
तो क़ायनात घड़ी भर में ही सँवर जाये

किसी की याद मुझे भी उदास कर जाये
कोई तो हो जो मेरे ज़िक्र से सिहर जाये

जो उस को रोज़ ही आना है मेरे ख़्वाबों में
तो मेरी पलकों पे उलफ़त के नक्श धर जाये

किसी भी तरह वो इज़हार तो करे एक बार
नज़र से कह के ज़ुबाँ से भले मुकर जाये

तपिश के दौर ने ‘शबनम की उम्र’ कम कर दी
घटा घिरे तो गुलिस्ताँ निखर-निखर जाये

बहुत ज़ियादा नहीं दूर अब वो सुब्ह ‘नवीन’
फ़क़त ये रात किसी तरह से गुजर जाये

:- नवीन सी. चतुर्वेदी 

नुमाया हो गई हस्ती, अयाँ बेबाकियाँ जो थीं - नवीन

नुमाया हो गई हस्ती, अयाँ बेबाकियाँ जो थीं
बुढ़ापा किस तरह छुपता बदन पे झुर्रियाँ जो थीं

भँवर से बच निकलने की जुगत हम को ही करनी है
बहुत गहरे उतरने में हमें दिलचस्पियाँ जो थीं

तरसते ही रहे हम आप के इकरार की ख़ातिर
मुक़द्दर में हमारे आप की ख़ामोशियाँ जो थीं

दिलों की हमख़याली ही दिलों को पास लाती है
त’अल्लुक़ टूटना ही था, दिलों में दूरियाँ जो थीं

किसी पर तबसरा करने से पहले सोचिये साहब

परिन्दे किस तरह उड़ते बला की आँधियाँ जो थीं

17 नवंबर 2012

हो पूरब की या पश्चिमी रौशनी - नवीन

हो पूरब की या पश्चिमी रौशनी
अँधेरों से लड़ती रही रौशनी

क़तारों से क़तरे उलझते रहे
ज़मानों को मिलती रही रौशनी

इबादत की किश्तें चुकाते रहो
किराये पे है रूह की रौशनी

किसी नूर की छूट है हर चमक
ज़मीं पर भला कब उगी रौशनी

अँधेरों पे दुनिया का दिल आ गया
फ़ना हो गई बावली रौशनी

सितारों पे जा कर करोगे भी क्या
जो हासिल नहीं पास की रौशनी

उजालों में भी सूझता कुछ नहीं
तू रुख़सत हुआ, छिन गई रौशनी

गमकती-चमकती रही राह भर
परी थी वो या संदली रौशनी

वो घर, घर नहीं; वो तो है कहकशाँ
जहाँ तन धरे लाड़ली रौशनी

ये चर्चा बहुत चाँद-तारों में है
मुनव्वर को किस से मिली रौशनी

बहुत जा रहे हो वहाँ आजकल
तो क्या तुम पे भी मर मिटी रौशनी

नवीन सी. चतुर्वेदी

बहरे मुतक़ारिब मुसम्मन मक़्सूर
फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़अल

122 122 122 12

9 नवंबर 2012

दिवाली के दोहों वाली स्पेशल पोस्ट

शुभ-दीपावली
सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन
एवं
प्रकाश पर्व दीपावली की हार्दिक शुभ-कामनाएँ



आज की दिवाली स्पेशल पोस्ट में मंच के सनेहियों के लिये एक विशेष तोहफ़ा है – दिवाली स्पेशल पोस्ट प्रस्तुत कर रहे हैं साहित्यानुरागी भाई श्री मयंक अवस्थी जी। पहले रचनाधर्मियों के दोहे और फिर उन पर मयंक जी की विशिष्ट टिप्पणियाँ, तो आइये आनन्द लेते हैं इस दिवाली पोस्ट का 

मयंक अवस्थी


जैसे इस फोटो में मयंक जी किसी दृश्य को क़ैद करते हुये दिखाई पड़ रहे हैं, बस यही नज़रिया अपनाते हैं आप किसी रचना को पढ़ते वक़्त। उस रचना [कविता-गीत-छन्द और ग़ज़ल भी] की तमाम अच्छाइयों को पाठकों के सामने लाने का शौक़ है आप को। तो आइये शुरुआत करते हैं इस दिवाली पोस्ट की:-

4 नवंबर 2012

SP/2/1/11 धिया जँवाई ले गये, वह उन की सौगात - ऋता शेखर मधु

सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन

औरतें अपनी उम्र नहीं बतातीं पर आ. ऋता जी ने इतना तो बता ही दिया है कि मैं उनसे थोड़ा सा छोटा हूँ यानि वे मेरी 'दीदी सा' हैं - बस इतना काफ़ी है यार:)!

अंतर्जालीय संसार में एक दूसरे से कभी न मिले हम सभी लोग एक-दूसरे के कितने क़रीब आ जाते हैं, फिर दूर भी हो जाते हैं और फिर से कुम्भ के मेले में खोये भाई-बहनों की तरह से मिल भी जाते हैं  - है न मज़े की बात - तो ये मान लिया जाये कि वर्च्युअल संसार मुकम्मल होने लगा है !!!!!!!!!!!!!

संभवत: हरिगीतिका छंद वाले समस्या-पूर्ति आयोजन के दौरान ऋता जी से कम्यूनिकेशन शुरू हुआ था। तब से इन का छंदों के प्रति लगाव देख कर मैं हतप्रभ हूँ। सदैव कुछ करने को तत्पर और हाँ एक बात और कह दूँ कि इन्हें लगता है कि ये वक्रोक्ति वाला दोहा नहीं कह सकतीं - पर इन के ईमेल वार्तालाप पर ग़ौर करूँ तो ये वक्रोक्ति का श्रेष्ठ दोहा लिख सकती हैं। इन के साथ काम करना सुखद अनुभव रहा है, अब तक। ये अपनी तरफ़ से सभी सम्भव प्रयास करती हैं और बेहतर परिणामों के लिये समर्पित भी रहती हैं। हेट्स ऑफ टू हर। आइये अब पढ़ते हैं वर्तमान आयोजन की ग्यारहवीं यानि समापन पोस्ट में मंच की 40 वीं पार्टिसिपेंट यानि ऋता शेखर मधु [दीदी] के दोहे

ऋता शेखर मधु

ठेस-टीस 
धिया, जँवाई ले गये, वह, उन की सौगात
बेटे, बहुओं के हुये, चुप देखें पित-मात

3 नवंबर 2012

SP/2/1/10 नींद चुरा ले ख्वाब जो, उस से कर ले प्यार - संजय मिश्रा 'हबीब'

सभी साहित्यरसिकों का सादर अभिवादन


शायद आप को भी आश्चर्य न होगा क्योंकि आप ने भी अपने बचपन में अपने घर-परिवार-पड़ौस में ऐसे कुछ एक पुरुषों-महिलाओं को अवश्य ही देखा-सुना होगा जो बातों-बातों में ही दोहे गढ़ देते थे। उस से पहले भी अगर ग़ौर करें तो कहा जाता है कि हिंदुस्तान में तोते संस्कृत के श्लोक बोलते थे, जो आदत डलवा दी जाये वो आदत पड़ जाती है। दोहे हमारी धमनियों में हैं बस अन्तर सिर्फ़ इतना ही है कि हम [आज के इंसान] उपदेशक या विदूषक या निंदक मात्र हो कर रह गए हैं। कोमल भावनाओं को कैसे पहिचाना जाये इस का पैमाना हम से विलग हो गया है। तकलीफ़ होती क्या है अस्ल में, दरअस्ल हमें पता ही नहीं है। छुट-पुट झटकों को भी बड़ी दुर्घटना की तरह परोसते माध्यमों को दोष देने की बजाय बेहतर है कि हम ख़ुद ही आत्म-चिन्तन करें। समस्या-पूर्ति मंच के दूसरे चक्र के पहले आयोजन का उद्देश्य यही था और अब तो इसे अगले आयोजनों में आगे बढ़ाना [सब की सहमति के साथ] और भी ज़ियादा जुरुरी लग रहा है।

वर्तमान आयोजन की 10 वीं पोस्ट में पढ़ते हैं मंच के 39वें सहभागी संजय मिश्रा 'हबीब' के शानदार दोहे:- 

संजय मिश्रा 'हबीब'

ठेस-टीस
मैया सपने कातती, तकली बन नौ माह
बिटवा दिखला दे उसे, वृद्धाश्रम की राह

2 नवंबर 2012

SP/2/1/9 हित-चिन्तक बन कर हमें, लूट रही सरकार - सत्यनारायण सिंह

सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन

शायद आप सभी ने भी नोट किया होगा कि समस्या पूर्ति के दूसरे चक्र से पहले इस मंच के सहभागियों की संख्या थी 33, इस पोस्ट तथा आने वाली दो पोस्ट्स को जोड़ लें तो कुल सहभागी हो जाएँगे 40। इस आयोजन की आ चुकीं प्लस ये वाली तथा आने वाली दो पोस्ट्स के साथ टोटल पोस्ट्स होंगी 11 जिन में 7 नए सहभागी हैं - यानि पुराने 33 में से 4 ही लौट पाये...................... ख़ैर...................  

आयोजन के अगले तथा मंच के 38 वें सहभागी हैं भाई सत्यनारायण सिंह जी। तो आइये पढ़ते हैं सत्यनारायण जी के दोहे।


सत्य नारायण सिंह

ठेस-टीस
मुँह पर ताला, मन व्यथित, नयनन अँसुअन धार
हित-चिन्तक बन कर हमें, लूट रही सरकार

1 नवंबर 2012

SP/2/1/8 इम्तहान की कापियाँ, गैया गई चबाय - उमाशंकर मिश्रा

सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन

दिवाली पर्व का असर टिप्पणियों पर भी दिखने लगा है, लोगबाग काफ़ी मशरुफ़ हैं - कुछ मित्र घर-दफ़्तर के काम में और कुछ मेरे जैसे फेसबुकिया तामझाम में:)। का करें भाई ये फेसबुकिया भूत हमें भी बहुत नचा चुका है बल्कि पूरी तरह से छोड़ा तो अब भी नहीं है। 

इस पोस्ट के बाद जो तीन और पोस्ट आनी हैं उन में हैं संजय मिश्रा 'हबीब', ऋता शेखर मधु और सत्यनारायण सिंह। इन के अलावा यदि मुझसे किसी के दोहे छूट रहे हों तो बताने की कृपा करें, चूँकि इस आयोजन के तुरन्त बाद दिवाली स्पेशल पोस्ट पर काम शुरू हो जायेगा।

भाई अरुण निगम के मार्फ़त दुर्ग छत्तीसगढ़ निवासी उमाशंकर मिश्रा जी पहली बार मंच से जुड़ रहे हैं। आप का सहृदय स्वागत है उमाशंकर जी। आइये पढ़ते हैं आप के भेजे दोहों को- 


उमाशंकर मिश्रा

ठेस / टीस
जिन की ख़ातिर मैं मरा, मिले उन्हीं से शूल
चन्दन अपने पास रख, मुझ को दिये बबूल

आश्चर्य
संसद में पारित हुई, कुछ ऐसी तरक़ीब
दौलत अपनी बाँट के, नेता हुए ग़रीब