नाम उस का नहीं फ़साने में,
मैं ही रुसवा हुआ ज़माने में ॥
उन चराग़ों को सौ दुआएँ दो,
ख़ुद जले तुम जिन्हें जलाने में ॥
इक भरम हैं चमन के रंगों-बू ,
है मज़ा तितलियाँ उड़ाने में ॥
जाने किस जाल में फँसे पंछी ,
बच्चे भूखे रहे ठिकाने में ॥
कैसे कह दूँ मकान छोटा है ,
उम्र गुज़री इसे बनाने में ॥
दर्द कब देखा तुम ने गंगा का ,
तुम तो मशगूल थे नहाने में ॥
ताज में वे भी दफ्न हैं 'अभिनव',
हाथ जिनके कटे बनाने में ॥
--- अभिनव अरुण
बहरे खफ़ीफ मुसद्दस मखबून.
फ़ाएलातुन मुफ़ाएलुन फ़ालुन.
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