20 मार्च 2011

होली के छन्द - नवीन

सभी साहित्य रसिकों का पुन: सादर अभिवादन और होली की शुभकामनाएँ

मन मलङ्ग, हुलसै हिया, दूर होंय दुख-दर्द|
सावन तिरिया झूमती, फागुन फडकै मर्द|

कहे सुने का बुरा न मानो ये होली का महीना है

पर्वों के गुलिस्तान "हिन्दुस्तान" में हर दिन कोई न कोई पर्व मनता ही रहता है| फिलहाल होली के पर्व ने माहौल को रंगीन बनाया हुआ है| पिछली बार की तरह इस बार भी होली के कुछ रंगों [दोहे, कवित्त, सवैया] के साथ आपके सामने उपस्थित हूँ|

नोक-झोङ्क भरी बातचीत – 1 [दोहे]

नायक:-
नीले, पीले, बेञ्जनी; हरे, गुलाबी लाल|
इन्द्र-धनुष के बाप हैं, गोरी तेरे गाल||

नायिका:-
रङ्गों की परवा न कर, देख दिलों दे हाल|
मैं भी लालम लाल हूँ, तू भी लालम लाल||

नायक:-
होली का त्यौहार है, कर न इसे बेरङ्ग|
साफ़ी को कस के पकड़, आ छनवा ले भङ्ग||

नायिका:-
होली के त्यौहार का, जमा हुआ है रङ्ग|
छन आएगी बाद में, घुट तो जाए भङ्ग||


नोक झोंक भरी बातचीत - २

नायक:-
गोरे गोरे गालन पे मलिहों गुलाल लाल,
कोरन में सजनी अबीर भर डारिहों|

सारी रँग दैहों सारी, मार पिचकारी, प्यारी,
अङ्ग-अङ्ग रँग जाय, ऐसें पिचकारिहों|

अँगिया, चुनर, नीबी, सुपरि भिगोय डारों,
जो तू रूठ जैहै, हौलें-हौलें पुचकारिहों|

अब कें फगुनवा में कहें दैहों छाती ठोक,
राज़ी सों नहीं तौ जोरदारी कर डारिहों||
[घनाक्षरी]

नायिका [अ]:-
फूले फूले गाल मेरे पिचकाय डारे और
अङ्गन में रङ्गन की जङ्ग सी लगाय दई

अँगिया कों छोड़ तू तौ सारी हू न रँग पायौ
अच्छे-खासे जोबन की कुगत बनाय दई

बड़ी-बड़ी बातें करीं, सपने दिखाये ढेर
शेर जहाँ बिठानौ हो बकरी बिठाय दई

नेङ्क हाथ लगते ही फूट गयी पिचकारी
ख़ैर ही मनाय तेरी इज्ज़त बचाय दई
[घनाक्षरी]

नायिका [ब]:-
पिय गाल बजाबन बन्द करौ, अरु ढीली करौ हठधर्म की डोरी
ढप-ढ़ोल-मृदङ्ग बजाए घने, झनकाउ अबै हिय-झाँझर मोरी
अधरामृत रङ्गन सों लबरेज़ तकौ तौ कबू यै निगाह निगोरी
इक फाग की राह कहा तकनी, तुमें बारहों मास खिलावहुं होरी
[सुन्दरी सवैया]


साँवरे ने होरी में बावरी सी कर डारी

नैनन सों बात कही चितचोर छलिया नें,
मुसकाय, उकसाय - बोल कें - सुकुमारी|
कमल-गुलाबन सी उपमा दईं तमाम,
माखन-मिसरी-मीठी-मादक-मनोहारी|
होरी कौ निमंत्रण पठायौ ललिता के संग,
खोर साँकरी गई इकल्ली, मो मती मारी|
देख कें अकेली मोय, प्रेम रंग में डुबोय,
साँवरे ने होरी में बावरी सी कर डारी||
[कवित्त]

साँची ही सुनी है बीर महिमा महन्तन की

इत कूँ बसन्त बीत्यौ, उत कूँ बौरायौ कन्त
सन्त भूल्यौ सन्तई कूँ मन्तर पढ्यौ भारी

पाय कें इकन्त मो सूँ बोल्यौ रति-कन्त कीट
खूब है गढ़न्त तेरे अङ्गन की हो प्यारी

तदनन्तर ह्वै गयौ मतिवन्त – रति वन्त
करि कें अनन्त यत्न बावरी कर डारी

साँची ही सुनी है बीर महिमा महन्तन की
साल भर ब्रह्मचारी, फागुन में लाचारी
[कवित्त]

लट्ठ खाय गोरिन सों घर लौट आमें हैं

महीना पच्चीस दिन दूध-घी उड़ामें और  
जाय कें अखाडें दण्ड-बैठक लगामें हैं|
 
मूछन पे ताव दै कें जङ्घन पे ताल दै कें
नुक्कड़-अथाँइन पे गाल हू बजामें हैं|
 
पिछले बरस बारौ बदलौ चुकामनौ है,
पूछ मत कैसी-कैसी योजना बनामें हैं|
 
लेकिन बिचारे बीर बरसाने पौंचते ही,
लट्ठ खाय गोरिन सों घर लौट आमें हैं||
[घनाक्षरी]


खुशियों का स्वागत करे, हर आँगन हर द्वार|

कुछ ऐसा हो इस बरस, होली का त्यौहार||

दूसरी समस्या पूर्ति - दोहा - शेषधर तिवारी, राकेश तिवारी [१३-१४]


सभी साहित्य रसिकों का पुन:सादर अभिवादन और धूल [रंग वाली होली] की शुभकामनाएँ

इस बार हम एक नहीं दो दो तिवारी बन्धुओं के दोहे पढ़ते हैं|


SheshDhar Tiwari

जली होलिका प्रे की, भस्म हुए संस्कार|
नफरत के रंगों रँगा, होली का त्यौहार||

मर्यादा सूली चढी, स्वार्थ सिद्धि ही धर्म|
होली में स्वाहा हुए, दया प्रीति सत्कर्म||

रहे कभी
संयुक्त अब, एकल हैं परिवार|
होली में भी अब कहाँ, जुड़ते हैं घर चार||

तन रंगे क्या होत है, मन रंगे तो जान|
राधा के कानन पड़े, बस मुरली की तान||

गालों पे लाली चढी, होठ गुलाबी होत|
कान्हा तुमने कौन विधि, रंग दियो है पोत||

जदुराई के अंग लगि, राधा सिमटत जात|
ज्यूँ लजात है हाँथ लगि, छुई मुई के पात||

मन मलीन, काया कलुष,
वाणी विष, उर घात|
इनसे बच कर जो मिले, वह जीवन सौगात||

इन्द्र धनुष सा ही रहे, जीवन ये सतरंग|
बिगड़े तो फिर फिर बने, मित्र रहें जो संग||

कान्हा के जब भी बढ़ें, हस्त कलश की ओर|
इत उत देखे राधिका, चले कोऊ जोर||

कान्हा गैया थन पकरि, जो मुह दीनी धार|
राधा अंखियाँ मीचती, करती मातु पुकार|१०|

जसुमति देखें ओट ते, लीला हरि की जान|
नैनन को शीतल रन, कानन कीन्ही दान|११|

राधा के तन जो पडी, धवल प्रीति की धार|
सभी मनाते कह इसे, होली का
त्यौहा|१२|
:- शेषधर तिवारी

विविध रंगों से रँगे इंद्रधनुषी दोहे हैं ये| सामजिक सरोकार, गाय के तन से सीधा दूध का पीना, कलश वाला दोहावाह तिवारी जी वाह| आज के दिन को और भी रंगीन कर दिया आपके दोहों ने| ख़ासकर संयुक्त और एकलपरिवार वाले दोहे ने तो विशेष रूप से प्रभावित किया है|

Rakesh Tewari

ऋतु आई ऐसी भली, हवा बसै रसधार|
शीत ऋतू चलती भई, आइ वसंत बहार|१|

बगियन झूलै मंजरी, फूल चढाए चाप|
विजयशाल ठनकन लगे, मदन चलें चुपचाप|२|

ठंडाई माथे चढी, चढ़े नैन रतनार|
विचरें दूजे लोक में, बिसरा यह संसार|३|

हरसिँगार-टेसू मिला, रंग किये तैयार|
उनमें मिले गुलाब जल, होली का त्यौहार|४|

लाल गुलाबी बैंगनी, उडै अबीर गुलाल|
भीगे हैं सब रंग में, अधर हो गए लाल|५|

बहुतै दिन रूठे रहे, पाले मन में रार|
रंग-राग में धुल गई, सारी अबकी बार|६|

तन-मन तर भए रंग में, उस होली में यार|
परब बरस गाढे परत, पहले से चटकार|७|

होली में फिर दिख गई, तेरी छवि इक बार|
अंतर्मन झंकृत हुआ, झन झन करते तार|८|

सारा आलम रंगमय, छोट-बूढ़ नर-नार|
जग से न्यारा एक है, होली का त्यौहार|९|

अजीब इत्तेफ़ाक है इस समस्या पूर्ति के पहले चक्र में पधारी निर्मला जी ने जीवन में पहली बार दोहे लिखे हैं| बकौल पंकज सुबीर - उन के लिए भी यह पहला ही मौका है| और अब राकेश भाई के अनुसार वो भी पहली बार ही दोहे लिख रहे हैं| इस से बड़ी खुशी की बात और क्या होगी| आप लोगों का छन्दों के प्रति रुझान देखते हुए लगता है कि आयोजन सही दिशा में जा रहा है| राकेश भाई आप ने वाकई गजब के दोहे लिखे हैं| बहुत बहुत बधाई|

19 मार्च 2011

दूसरी समस्या पूर्ति - दोहा - मयंक अवस्थी, रविकान्‍त पाण्‍डेय, शेखर चतुर्वेदी [१०-११-१२]

सभी साहित्य रसिकों का पुन: सादर अभिवादन और होली की शुभकामनाएँ

दोहा छन्‍द पर आधारित दूसरी समस्या पूर्ति के पाँचवे सत्र में आप सभी का सहृदय स्वागत है|

Mayank Awasthi

रंग-भंग-हुड़दंग सँग, हास-रास-श्रिंगार|
क्या-क्या ले कर आ गया, होली का त्यौहार|१|

सब के रँग में रँग सभी, गये इस तरह डूब|
आज विविधता में हमें, दिखी एकता खूब|२|

तेरे रँग में रँग गया, आज अंग प्रत्यंग|
और पृथकता घुल गई, अपनेपन के संग|३|

भाई मयंक अवस्थी जी ने चौपाई छन्‍द पर आधारित पहली समस्या पूर्ति में भी मनभावन चौपाइयाँ प्रस्तुत की थीं और इस बार भी उन्होने अपनी कलम की जादूगरी से हमें मंत्र मुग्ध कर दिया है| ग़ज़ल में महारत रखने वाले मयंक भाई की छन्‍दों पर पकड़ उन के ज्ञान और अनुभव का जीता जागता उदाहरण है|


होली में रितुराज ने किया धरा को तंग|
अंग-अंग पर मल दिया धानी-धानी रंग|१|

नदी पार था चूमता, सूर्य धरा के गाल|
लहरों ने टोका तभी, हुआ शर्म से लाल|२|

सरसों ने पहना दिया, पीत पुष्प परिधान|
धरती दुल्हन सी सजी, कोयल गाये गान|३|

बने प्रीत खुद गोपिका, मन हो नंद-कुमार|
उर-अंतर प्रतिक्षण मने, होली का त्यौहार|४|

फागुन आया, प्रीत की, रिमझिम पड़े फ़ुहार|
नस-नस में उठने लगा, दिव्य प्रेम का ज्वार|5|

'पी' सम्मुख हैं सुंदरी, कर ले पूरन काज|
कंठहार-सी लग गले, छोड़ जगत की लाज|6|

रविकान्‍त जी ने तो होली की जो अद्भुत छटा दिखलाई है हमें, उस की जितनी तारीफ की जाए, कम ही है| प्रकृति की होली के इस बेशक़ीमती नज़ारे ने इस मंच को और भी अधिक गरिमा प्रदान की है| दिल से यही आवाज़ आ रही है दोस्त कि माँ शारदा आप पर सदा मेहरबान रहें|



भंग रंग आनंद मय, होली का त्यौहार|
ब्रज भूमि की देखिये, आनंद छटा अपार|१|

सन्मुख राजाधिराज के, ढप ढोलक की थाप|
रंगों में मन डूब के, कर मन हरि का जाप|२|

ब्रजवासिन के संग में, नटवर नन्द किशोर|
भक्ति प्रेम का अमिट रँग, बरस रहा चहुँ ओर|३|

मन के कलुष मिटाय के, जीवन कर साकार|
बड़े भाग्य से आत है, होली सा त्यौहार|४|


इस सत्र के तीसरे कवि हैं शेखर चतुर्वेदी| शेखर भाई आपने मथुरा की द्वारिकाधीश [राजाधिराज] जी के साक्षात दर्शन करा दिए| छन्‍द साहित्य के प्रति आप का रुझान इस बार भी प्रभावित करने में सक्षम रहा है| इन के जैसे और भी कवियों / कवियत्रियों को इस मंच से जुड़ना चाहिए|

अगली पोस्ट में मिलेगे कुछ और कवियों के साथ| तब तक आप इन दोहों के रंगों में सराबोर हो कर होली का आनंद लीजिए और अपने टिप्पणी रूपी पुष्पों की वर्षा कीजिए||

आप सभी को रंगों के इस महापर्व की ढेरों बधाइयाँ|

खुशियों का स्वागत करे, हर आँगन हर द्वार|
कुछ ऐसा हो इस बरस, होली का त्यौहार||

18 मार्च 2011

कोई लेखक किसी भी क़ौम का चेहरा नहीं होता - नवीन

हमें एक दूसरे से गर गिला शिक़वा नहीं होता
तो अंग्रेजों ने हम को इस क़दर बाँटा नहीं होता



नयों को हौसला भी दो, न ढूँढो ख़ामियाँ केवल
बड़े शाइर का भी हर इक बयाँ आला नहीं होता



हज़ारों साल पहले CCTV आ गई होती
अगर शकुनी युधिष्ठिर से जुआ खेला नहीं होता



अदब से पेश आना चाहिए साहित्य में सबको
कोई लेखक किसी भी क़ौम का चेहरा नहीं होता



ज़रा समझो कि 'कॉरपोरेट' भी कहने लगा है अब
गृहस्थी से जुड़ा इन्सान लापरवा' नहीं होता

17 मार्च 2011

दूसरी समस्या पूर्ति - दोहा - पंकज सुबीर [९]

सभी साहित्य रसिकों का पुन: सादर भिवादन और होली की अग्रिम शुभकामनाएँ

आज के इस सत्र में सिर्फ़ एक ही कवि को पढ़ेंगे हम लोग| इनका परिचय देना सूर्य को दिया दिखाने के समान होगा| वो क्या हैं, सभी जानते हैं, और उन्होने क्या भेजा है आइए अब पढ़ते हैं उसे|



1
बरसाने बरसन लगी, नौ मन केसर धार ।
ब्रज मंडल में आ गया, होली का त्‍यौहार ।।

2
लाल हरी नीली हुई, नखरैली गुलनार ।
रंग-रँगीली कर गया, होली का त्‍यौहार ।।

3
आंखों में महुआ भरा, सांसों में मकरंद ।
साजन दोहे सा लगे, गोरी लगती छंद ।।

4
कस के डस के जीत ली, रँग रसिया ने रार ।
होली ही हिम्‍मत हुई, होली ही हथियार ।।

5
हो ली, हो ली, हो ही ली, होनी थी जो बात ।
हौले से हँसली हँसी, कल फागुन की रात ।।

6
होली पे घर आ गया, साजणियो भरतार ।
कंचन काया की कली, किलक हुई कचनार ।।

7
केसरिया बालम लगा, हँस गोरी के अंग
गोरी तो केसर हुई, साँवरिया बेरंग ।।

8
देह गुलाबी कर गया, फागुन का उपहार ।
साँवरिया बेशर्म है, भली करे करतार ।।

9
बिरहन को याद आ रहा, साजन का भुजपाश।
अगन लगाये देह में, बन में खिला पलाश ।।

10
साँवरिया रँगरेज ने, की रँगरेजी खूब ।
फागुन की रैना हुई, रँग में डूबम डूब।।

11
सतरंगी सी देह पर, चूनर है पचरंग ।
तन में बजती बाँसुरी, मन में बजे मृदंग ।।

12
जवाकुसुम के फूल से, डोरे पड़ गये नैन ।
सुर्खी है बतला रही, मनवा है बेचैन ।।

13
बरजोरी कर लिख गया, प्रीत रंग से छंद ।
ऊपर से रूठी दिखे, अंदर है आनंद ।।

14
होली में अबके हुआ, बड़ा अजूबा काम ।
साँवरिया गोरा हुआ, गोरी हो गई श्‍याम ।।

15
कंचन घट केशर घुली, चंदन डाली गंध ।
आ जाये जो साँवरा, हो जाये आनंद ।।

16
घर से निकली साँवरी, देख देख चहुँ ओर ।
चुपके रंग लगा गया, इक छैला बरजोर ।।

17
बरजोरी कान्‍हा करे, राधा भागी जाय ।
बृजमंडल में डोलता, फागुन है गन्नाय ।।

18
होरी में इत उत लगी, दो अधरन की छाप ।
सखियाँ छेड़ें घेर कर, किसका है ये पाप ।।

19
कैसो रँग डारो पिया, सगरी हो गई लाल ।
किस नदिया में धोऊँ अब, जाऊँ अब किस ताल ।।

20
फागुन है सर पर चढ़ा, तिस पर दूजी भाँग ।
उस पे ढोलक भी बजे, धिक धा धा, धिक ताँग ।।

21
हौले हौले रँग पिया, कोमल कोमल गात ।
काहे की जल्‍दी तुझे, दूर अभी परभात ।।

22
फगुआ की मस्‍ती चढ़ी, मनुआ हुआ मलंग ।
तीन चीज़ हैं सूझतीं, रंग, भंग और चंग ।।

वाह वाह पंकज भाई वाह वाह वाह|
एक नहीं दो नहीं तीन नहीं चार नहीं पूरे के पूरे २२ रंगों में सजे २२ दोहे| वो भी एक से बढ़ कर एक| कविता, आलेख, कहानी वग़ैरह तो पढ़ी थीं आपकी और आज आप के दोहे भी पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ| मैं तो निशब्द हूँ आप की कलम की इस कारीगरी पर| आपकी लेखनी का शत-शत अभिनन्दन| आपने इस मंच से जुड़ कर इस साहित्यिक प्रयास को और भी गति प्रदान कर दी है| आगे भी आप के साहित्यिक सहयोग के मुंतज़िर रहेंगे हम|

होली - धर्मयुग - १९७५ - दुष्यंत कुमार और धर्मवीर भारती जी के बीच का ग़जलिया पत्राचार

सभी साहित्य रसिकों का पुन: सादर अभिवादन और होली की अग्रिम शुभकामनाएँ

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दुष्यंत जी के लिए समर्पित मेरा एक शेर:-

ज़हेनसीब हमारे फ़लक का नूर था वो||
[पूरी ग़ज़ल पढ़ने के लिये शेर पर क्लिक करें]
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माहौल अब होली मय हो चुका है हर जगह| तो आइए हम भी कुछ होली की ठिठोली टाइप बात आप से साझा करते हैं| ये बात उन दिनों की है जब पत्राचार भी ग़ज़ल के माध्यम से होता था| तत्कालीन धर्मयुग संपादक श्री धर्मवीर भारती जी को दुष्यंत कुमार जी ने क्या लिखा और फिर धर्मवीर जी ने उस का उसी अंदाज में क्या जवाब भिजवाया, आप खुद देखिएगा:-

दुष्यंत कुमार टू धर्मयुग संपादक

पत्थर नहीं हैं आप तो पसीजिए हुज़ूर|
संपादकी का हक़ तो अदा कीजिए हुज़ूर|१|

अब ज़िन्दगी के साथ ज़माना बदल गया|
पारिश्रमिक भी थोड़ा बदल दीजिए हुज़ूर|२|

कल मैक़दे में चेक दिखाया था आपका|
वे हँस के बोले इससे ज़हर पीजिए हुज़ूर|३|

शायर को सौ रुपए तो मिलें जब गज़ल छपे|
हम ज़िन्दा रहें ऐसी जुगत कीजिए हुज़ूर|४|

लो हक़ की बात की तो उखड़ने लगे हैं आप|
शी! होंठ सिल के बैठ गये ,लीजिए हुजूर|५|


धर्मयुग सम्पादक टू दुष्यंत कुमार
[धर्म वीर भारती का उत्तर बकलम दुष्यंत कुमार्]


जब आपका गज़ल में हमें ख़त मिला हुज़ूर|
पढ़ते ही यक-ब-यक ये कलेजा हिला हुज़ूर|१|

ये "धर्मयुग" हमारा नहीं सबका पत्र है|
हम घर के आदमी हैं हमीं से गिला हुज़ूर|२|

भोपाल इतना महँगा शहर तो नहीं कोई|
महँगी का बाँधते हैं हवा में किला हुज़ूर|३|

पारिश्रमिक का क्या है बढा देंगे एक दिन|
पर तर्क आपका है बहुत पिलपिला हुज़ूर|४|

शायर को भूख ने ही किया है यहाँ अज़ीम|
हम तो जमा रहे थे यही सिलसिला हुज़ूर|५|



[ये दोनों ही गज़लें धर्मयुग के होली अंक 1975 में प्रकाशित हुयी थीं।]
:- साभार भाई श्री वीरेन्द्र जैन जी के ब्लॉग से

11 मार्च 2011

बरसाने की लठामार होली

महीना पच्चीस दिन दूध-घी उड़ामें और  
जाय कें अखाडें दण्ड-बैठक लगामें हैं|
 
मूछन पे ताव दै कें जङ्घन पे ताल दै कें
नुक्कड़-अथाँइन पे गाल हू बजामें हैं|
 
पिछले बरस बारौ बदलौ चुकामनौ है,
पूछ मत कैसी-कैसी योजना बनामें हैं|
 
लेकिन बिचारे बीर बरसाने पौंचते ही,
लट्ठ खाय गोपिन सों घर लौट आमें हैं||

होली पर भारतेन्दु हरिशचंद्र जी की ग़ज़ल और गजेंद्र सोलंकी जी के कवित्त

सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन

पिछले दिनों वातायान के इस अंक के लिए हिन्दी साहित्य जगत के पितामह श्री भारतेन्दु हरीशचंद्र जी के होली पर कुछ छन्‍द ढूँढ रहा था और मिल गयी यह ग़ज़ल| इसे मैने बीबीसी की वेबसाइट से लिया है| पढ़ते वक्त लगा कहीं कहीं कुछ टाइपिंग मिस्टेक्स हैं, इसलिए फिर से सर्च मारा| सभी जगह यह ग़ज़ल इसी रूप में मिली| मैने अपनी तरफ से कुछ शब्द इस में कोष्टक में रखते हुए जोड़े हैं ताकि पूरी ग़ज़ल को पढ़ने का आनंद आ सके| पता नहीं कि परम श्रद्धेय स्व. भारतेन्दु जी ने मूल रूप से इन्हीं शब्दों को लिया था या किन्हीं और शब्दों को| यदि इस में कोई भूल हो तो उस के लिए मैं क्षमा प्रार्थी हूँ|



गले मुझको लगा लो ए [मेरे] दिलदार होली में|
बुझे दिल की लगी भी तो ए [मेरे] यार होली में.|१|

नहीं यह है गुलाले सुर्ख़ उड़ता हर जगह प्यारे|
ये आशिक ही है उमड़ी आहें आतिशबार होली में.|२|

गुलाबी गाल पर कुछ रंग मुझको भी जमाने दो|
मनाने दो मुझे भी जानेमन त्यौहार होली में|३|

है रंगत जाफ़रानी रुख़ अबीरी [कुमकुमें] कुछ हैं|
बने हो ख़ुद ही होली [तुम] तो ए दिलदार होली में|४|

रसा गर जामे-मय ग़ैरों को देते हो तो मुझको भी|
नशीली आँख दिखला कर करो सरशार होली में|५|
:- भारतेन्दु हरिशचंद्र


जब मैं कुछ और छन्‍द ढूँढ रहा था तो अलंकरणों से युक्त बड़े ही नायाब छन्‍द मिले भाई गजेंद्र सोलंकी जी के| दिल्ली निवासी गजेंद्र भाई स्थापित कवि और एक सफल मंच संचालक हैं| आइए पढ़ते हैं उन के घनाक्षरी कवित्तों को|

सुनो मेरे मीत, राष्ट्र- भावना के गीत और,
प्रीति की प्रतीति लेके आया तव धाम जी|

आपके अतीत के ही सन्सकार वाली रीत,
पावन सी प्रीत लेके आया तव धाम जी|

गई अब बीत ठिठुरन ॠतु शीत की रे,
टेसू रंग पीत लेके आया तव धाम जी|

हो रहा प्रतीत, होगी प्रेम की ही जीत भैया,
होली के ये गीत लेके आया तव धाम जी||


यौवन पे है उमंग औ’ वसंत की तरंग,
मद भरे रंग ले निराली होली आई रे|

दिलदार संग-संग झूमते हैं पी के भंग,
भीगे अंग-अंग मतवाली होली आई रे|

उठती उचंग तन हो रहा मलंग आज,
देख सभी हुए दंग आली होली आई रे|

मचा हुड़दंग पिचकारियों की छिड़ी जंग,
प्रेम के प्रसंग रसवाली होली आई रे||


देवरों ने रंग डाले भाभियों के प्रिय अंग,
देवरानियों की ससुराली होली आयी रे|

जीजाओं के हाथों में गुलाल, सालियों के किये-
गाल लाल-लाल, जो रँगीली होली आई रे|

युवा बने ग्वाल बाल, बालाएं ग्वालिन बनीं,
लगे मानो बरसाने वाली होली आयी रे|

साठ साल वालों के भी दिल हैं जवान आज,
सब के गालों पे छायी लाली होली आई रे||
:- गजेंद्र सोलंकी

10 मार्च 2011

दूसरी समस्या पूर्ति - दोहा - देवमणि पाण्‍डेय, अम्‍बरीष श्रीवास्तव, रूप चंद्र शास्त्री 'मयंक और कंचन बनारसी [५-६-७-८]

सभी साहित्य रसिकों का पुन: सादर अभिवादन

दोहा छन् पर आधारित दूसरी समस्या पूर्ति के तीसरे चक्र में आप सभी का सहृदय स्वागत है| इस बार हम पढ़ेंगे चार ४ रचनाधर्मियों को| इन से आप लोग पहले भी मिल चुके हैं| समस्या पूर्ति के पहले अंक को शुरू करते वक्त जो कुछ शंकाएँ माइंड में थीं अब निर्मूल होने लगीं हैं| काफ़ी सारे लोग हैं जो आज भी छन्दों से सिर्फ़ प्रेम करते हैं बल्कि उन पर प्रस्तुतियां देने के लिए भी आगे बढ़ कर रहे हैं| आदरणीया निर्मला कपिला जी ने तो नई पीढ़ी के लिए एक अनोखा एक्जाम्पल ही प्रस्तुत कर दिया है|


सरसों फूली खेत में, पागल हुई बयार|
मौसम पर यूँ छा गया, होली का त्यौहार||

होली के त्यौहार में, मिला पिया का संग|
गुलमोहर सा खिल गया, गोरी का हर अंग||

होली के त्यौहार में, बरसे रंग-गुलाल|
आँखों से बातें हुईं, सुर्ख हुए हैं गाल||

:-देव मणि पाण्डेय
मुंबई आय कर कार्यालय में कार्य रत भाई देव मणि पाण्डेय जी जाने माने कवि / शायर और मंच संचालक हैं|




नये वस्त्र तरु को मिलें, चलती मस्त बयार|
जग को उल्लासित करे, होली का त्यौहार||

चंचल नयना मदभरे, पुरवा बाँटे प्यार|
संग चलूँगी साजना, गोरी कहे पुकार||

भंग नशे में नाचते, सारे बीच बजार|
हुरियारों को भा गया, होली का त्यौहार||

ढोल सड़क पर बज रही, सबमें प्यार दुलार|
भस्म करे सब दुश्मनी, होली का त्यौहार||

गुझिया मीठी रसभरी, बनें स्वाद अनुसार|
नये नये पकवान सा, होली का त्यौहार||

आमंत्रित है आप सब, सारा घर परिवार|
मित्र मंडली साथ ही, होली का त्यौहार||

होली के त्यौहार की, महिमा अपरम्पार|
सभी दिलों को जोड़ दे, होली का त्यौहार||

हमें नये रँग में रँगे, होली का त्यौहार|
फूले फले सदाचरण, हे प्रभुजी आभार||

अम्‍बरिष भाई पहली बार समस्या पूर्ति में शामिल हो रहे हैं| मैने इन के सवैया पढ़े हैं, बहुत ही मनोहारी सवैया लिखते हैं ये|




फागुन में नीके लगें, छीँटें अरू बौछार|
सुख देने फिर गया, होली का त्यौहार||

शीत विदा होने लगा, चली बसन्त बयार|
प्यार बाँटने गया, होली का त्यौहार||

पाना चाहो मान तो, करो मधुर व्यवहार|
सीख सिखाता है यही, होली का त्यौहार||

रंगों के इस पर्व का, यह ही है उपहार|
मेल कराने गया, होली का त्यौहार||

भंग डालो रंग में, वृथा ठानो रार|
भेद-भाव को मेंटता, होली का त्यौहार||
:- रूप चंद्र शास्त्री मयंक

छन्‍द शास्त्र को ले कर आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी और रूप चंद्र शास्त्री 'मयंक' जी का योगदान अविस्मरणीय रहेगा साहित्य जगत में| ये दोनो ही अग्रज इस मंच पर अपने ज्ञान और अनुभव को बाँटने के लिए सदा ही उद्यत रहते हैं| अपने अर्जित ज्ञान और अनुभव को नई पीढ़ी को सौपने के इन के प्रयोजन के लए शत-शत नमन|




निज मन की कालुष्यता, का कर लो उपचार|
अपना सा ही पाओगे, तुम सारा संसार||

पिचकारी से प्यार की, कर कर के वौछार|
काम क्रोध मद लोभ को, होली में दो जार||

कंचन सब से मांगता , छोटा सा उपहार|
ऐसा बन्धु मनाइए , होली का त्यौहार||
:- कंचन बनारसी

उमा शंकर चतुर्वेदी उर्फ कंचन बनारसी जी इस मंच पर की पहली समस्या पूर्ति के पहले प्रस्तुति कर्त्ता हैं| आप की बेलाग और सीधी सपाट भाषा सहज ही आकर्षित करती है| बरास्ते रोला, कुण्‍डलिया जब यह मंच घनाक्षरी और सवैया पर पहुँचेगा तब तो कमाल ही करेंगे कंचन बनारसी जी|


होली के रंग में राबोर इन सरस्वती पुत्रों का बारम्बा अभिनन्दन|

अगले हफ्ते इस समस्या पूर्ति का समापन करेंगे| आप सभी से पुन: विनम्र निवेदन है कि जल्द से जल्द अपने अपने दोहे navincchaturvedi@gmail.com पर भेजने की कृपा करें| इस समस्या पूर्ति की जानकारी वाली लिंक एक बार फिर रेडी रिफरेंस के लिए:- समस्या पूर्ति: दूसरी समस्या पूर्ति - दोहा - घोषणा|

एक और निवेदन -तीसरी समस्या पूर्ति का छंद है - "रोला"
तो सभी जानकार लोगों से सविनय अनुरोध है कि अपने-अपने आलेख यथा शीघ्र भेजने की कृपा करें|