नज़्म - ऐ
शरीफ़ इन्सानो - साहिर लुधियानवी
खून अपना हो या पराया हो
नस्ल-ए-आदम का ख़ून है आख़िर,
जंग मशरिक़ में हो या मग़रिब में,
अमन-ए-आलम का ख़ून है आख़िर !
बम घरों पर गिरे कि सरहद पर ,
रूह-ए-तामीर जख्म खाती है !
खेत अपने जले कि औरों के ,
ज़ीस्त फ़ाकों से तिलमिलाती है !
टैंक आगे बढे कि पीछे हटे,
कोख धरती की बांझ होती है !
फ़तह का जश्न हो कि हार का सोग,
ज़िंदगी मय्यतों पे रोंती है !
जंग तो खुद ही एक मसलआ है
जंग क्या मसलों का हल देगी ?
आग और ख़ून आज बख्शेगी
भूख और एहतयाज कल देगी !
इसलिए ऐ शरीफ़ इंसानों ,
जंग टलती रहे तो बेहतर है !
आप और हम सभी के आंगन में,
शमा जलती रहे तो बेहतर है
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