कुण्डलिया छन्द
(कल्पना रामानी)
सोने की
चिड़िया कभी,
कहलाता था देश
नोच-नोच कर
लोभ ने,
बदल दिया परिवेश।
बदल दिया
परिवेश,
खलों ने खुलकर लूटा।
भरे विदेशी
कोष, देश का ताला टूटा।
हुई इस तरह
खूब, सफाई हर कोने की,
ढूँढ रही अब
डाल, लुटी चिड़िया सोने की।
पावन धरती
देश की,
कल तक थी बेपीर।
कदम कदम थीं
रोटियाँ,
पग पग पर था नीर।
पग पग पर था
नीर, क्षीर की बहतीं नदियाँ,
निर्झर थे
गतिमान,
रही हैं साक्षी सदियाँ।
सोचें इतनी
बात, आज क्यों सूखा सावन?
झेल रही
क्यों पीर,
देश की धरती पावन।
कोयल सुर
में कूकती,
छेड़ मधुरतम तान।
कूक कूक
कहती यही,
मेरा देश महान।
मेरा देश
महान, सुनाती है जन जन को,
रोक वनों का
नाश, कीजिये रक्षित हमको।
कहनी इतनी
बात, अगर वन होंगे ओझल।
कैसे मीठी
तान, सुनाएगी फिर कोयल।
सार ललित
छंद (कल्पना रामानी)
छन्न पकैया, छन्न
पकैया, दिन कैसे ये आए,
देख आधुनिक
कविताई को,
छंद,गीत मुरझाए
छन्न पकैया, छन्न
पकैया, गर्दिश में हैं तारे,
रचना में
कुछ भाव हो न हो,
वाह, वाह के नारे
छन्नपकैया, छन्नपकैया,
घटी काव्य की कीमत
विद्वानों
को वोट न मिलते,
मूढ़ों को है बहुमत
छन्नपकैया छन्नपकैया
भ्रमित हुआ हैं लखकर
सुंदरतम की
छाप लगी है,
हर कविता संग्रह पर
छन्न पकैया, छन्न
पकैया, कविता किसे पढ़ाएँ,
पाठक भी अब
यही सोचते कुछ लिख कवि कहलाएँ
छन्न पकैया, छन्न
पकैया, रचें किसलिए कविता,
रचना चाहे
‘खास’ न छपती,
छपते ‘खास’ रचयिता
छन्न पकैया, छन्न
पकैया, अब जो ‘तुलसी’ होते,
देख तपस्या
भंग छंद की,
सौ-सौ आँसू रोते।
सत्य वचन
जवाब देंहटाएंसत्य वचन
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