नमस्कार
कमेण्ट देना भी
अपने आप में एक कला है। उस में भी भाई अरुण निगम जी के कमेण्ट तो भाई क्या कहने। मेरी बात
पर विश्वास न हो तो आप शेखर चतुर्वेदी के दोहों पर तथा श्याम जी के दोहों पर दोहों के माध्यम से ही जो अरुण जी ने कमेण्ट दिये हैं उन्हें एक बार पढ़ कर देखिएगा।
साथियो सच ही तो है कि विद्या
रौब-दाब या शानोशौक़त की मुहताज़ नहीं होती, वह तो ढूँढती है योग्य
वाहक को। आदरणीय सिब्बन बैजी जी ऐसे ही साधक हैं। हाथरस के पास के एक गाँव बिजय गढ़
के मूल निवासी सी. बी. सिंह को मुम्बई में भाई आलोक भट्टाचार्य जी ने सिब्बन बैजी
बना दिया। अलग ही टेस्ट की ग़ज़लें और दोहे लिखने वाले सिब्बन बैजी साहब आज इस मञ्च
के चवालीसवें [44] रचनाधर्मी बन कर हमारे बीच उपस्थित हो रहे हैं। आइये पढ़ते हैं
सिब्बन साहब के दोहे :-
जब देखे प्यासे कुएँ, और झुलसती छाँव
रस्ता मेरे गाँव का, लौटा उल्टे पाँव
साहब हमें न चाहिये, इतना महँगा ज्ञान
बदले में जो छीन ले, होठों की मुस्कान
निर्धनता में हो गयी, सारी देह सराय
हरिक बटोही पीर का, बरसों
रह कर जाय
इसी लिये चलता रहा, रस्ता
अपने साथ
हमने छोड़ा ही नहीं, कभी
वक़्त का हाथ
आख़िर क्यूँ मानूँ भला, क़िस्मत से मैं हार
जब तक मेरे पास है, मेहनत
की तलवार
ठोकर लगने पर न दे, पत्थर
को इल्ज़ाम
अंधी दौड़ों का यही, होता
है अंज़ाम
इश्क़, शायरी,
मयकशी, नहीं सभी
का काम
अच्छे-अच्छों के 'म रा', हो जाते
हैं 'रा म'
जाम प्रेम का क्यूँ नहीं, होता चकनाचूर
कुछ हम भी ख़ुद्दार थे, कुछ तुम भी मगरूर
हमने सीखा ही नहीं, कहना – ‘सेठ, हुजूर’
इसीलिए तो सीढ़ियाँ, रहीं
पाँव से दूर
जब से मेरे खेत का, चढ़ा
करेला नीम
खरबूजों को दे रहा, नई-नई
तालीम
जिस ने बाँटे उम्र भर, ईसा-नानक-बुद्ध
उस का ही घर लड़ रहा, तरह तरह के युद्ध
वाह वाह वाह..... जिस ने उम्र भर ईसा मसीह, गुरु नानक और गौतम बुद्ध
प्रणीत प्रेम-अहिंसा और उपकार वाली भावनाओं को लोगों में बाँटा, आज तरह-तरह के युद्धों को झेल रहा है। बढ़िया दोहा है। शुरू से ले कर अन्त
तक एक से बढ़ कर एक दोहा...... क्या बात है, क्या बात है, बहुत ख़ूब... बहुत ख़ूब। साथियो आप सभी इन दोहों का आनन्द लें,
अपने सुविचार प्रस्तुत करें और मैं बढ़ता हूँ अगली पोस्ट की तरफ़।
आप के दोहे navincchaturvedi@gmail.com पर भेजने की
कृपा करें