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त्रिलोक सिंह ठकुरेला के कुण्डलिया छन्द

 


कविता जीवन सत्व हैकविता है रसधार ।

अलंकार,रस,छंद में, भाव खड़े साकार ।।

भाव खड़े साकार, कल्पना जाग्रत  होती ।

कर देते धनवान, शब्द के उत्तम  मोती । 

'ठकुरेला' कविराय, हरे तम जैसे सविता ।

कविता ऐसी चाहिए, जैसी तेज कृपाण - डा. नटवर नागर

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डा. नटवर नागर 


कविता ऐसी चाहिए, जैसी तेज कृपाण .
अंधकार को चीर कर , दे जन-जन को त्राण .
दे जन-जन को त्राण , फूँकदे शंख क्राँति का .
जागे श्रमिक किसान , मिटे तम सकल भ्राँति का .
'नटवर नागर' कहे , सूुर्य की किरणों जैसी .
मिटे अँधेरी रात , लिखो कवि कविता ऐसी .


डा. नटवर नागर 
9219795519

कुण्डलिया - त्रिलोक सिंह ठकुरेला

चलते  चलते एक  दिन ,तट पर  लगती नाव।
मिल जाता  है सब  उसे , हो जिसके  मन  चाव ।।
हो जिसके मन चाव , कोशिशें सफल  करातीं ।
लगे  रहो अविराम , सभी निधि दौड़ी आतीं ।
'ठकुरेला' कविराय ,आलसी निज  कर  मलते ।
पा लेते  गंतव्य ,  सुधीजन चलते  चलते ।।

कामी भजे शरीर को  , लोभी भजता दाम ।
पर  उसका कल्याण  है , जो भज  लेता राम ।।
जो भज  लेता राम ,दोष निज मन के  हरता ।
सुबह  शाम अविराम , काम परहित के  करता।
'ठकुरेला'  कविराय ,बनें  सच  के  अनुगामी।
सच का बेड़ा पार , तरे  अति  लोभी ,  कामी ।।

नहीं समझता मंदमति , समझाओ सौ  बार ।
मूरख से   पाला  पड़े , चुप   रहने में  सार ।।
चुप  रहने में  सार ,कठिन  इनको समझाना ।
जब भी जिद लें ठान , हारता सकल  ज़माना ।
'ठकुरेला' कविराय , समय  का  डंडा बजता ।
करो  कोशिशें लाख , मंदमति नहीं  समझता ।।

धन  की  है महिमा  अमित , सभी  समेटें अंक ।
पाकर   बौरायें   सभी , राजा  हो  या  रंक ।।
राजा हो या रंक , सभी  इस  धन पर  मरते ।
धन की खातिर लोग , न  जाने  क्या क्या  करते ।
'ठकुरेला' कविराय ,कामना यह  हर जन की ।
जीवन भर बरसात , रहे  उसके घर  धन की  ।।

दुविधा में जीवन कटे ,पास  न  हों  यदि  दाम ।
रूपया पैसे  से  जुटें , घर की चीज  तमाम ।।
घर की चीज तमाम ,दाम ही सब कुछ भैया ।
मेला लगे  उदास , न  हों यदि पास रुपैया ।
'ठकुरेला'  कविराय , दाम से मिलती सुविधा ।
बिना दाम  के  मीत ,जगत  में  सौ सौ दुविधा ।।

उपयोगी हैं साथियो ,जग की चीज तमाम ।
पर  यह दीगर बात है, कब, किससे हो काम ।।
कब , किससे हो काम , जरूरत  जब  पड़ जाये।
किसका क्या उपयोग , समझ में तब ही आये ।
'ठकुरेला' कविराय , जानते   ज्ञानी , योगी ।
कुछ  भी  नहीं असार , जगत  में  सब  उपयोगी ।।

पल पल जीवन जा रहा , कुछ तो कर शुभ काम।
जाना हाथ पसार कर ,  साथ न चले  छदाम ।।
साथ न चले  छदाम , दे  रहे  खुद हो  धोखा ।
चित्रगुप्त   के पास , कर्म   का  लेखा जोखा ।।
'ठकुरेला' कविराय ,छोड़िये सभी कपट , छल ।
काम करो जी नेक , जा रहा जीवन पल पल ।।

यह जीवन  है बाँसुरी ,  खाली खाली मीत ।
श्रम से  इसे  संवारिये , बजे  मधुर  संगीत ।।
बजे  मधुर  संगीत , ख़ुशी से सबको भर  दे ।
थिरकेँ सब  के पाँव , हृदय को झंकृत कर दे ।
'ठकुरेला' कविराय , महकने  लगता तन मन ।
श्रम  के  खिलें  प्रसून , मुस्कराता  यह  जीवन ।।

---   त्रिलोक सिंह ठकुरेला

मो . 09460714267

कुण्डलिया छन्द 


छन्द - कल्पना रामानी

कुण्डलिया छन्द (कल्पना रामानी)

सोने की चिड़िया कभी, कहलाता था देश
नोच-नोच कर लोभ ने, बदल दिया परिवेश।
बदल दिया परिवेश, खलों ने खुलकर लूटा।
भरे विदेशी कोष, देश का ताला टूटा।
हुई इस तरह खूब, सफाई हर कोने की,
ढूँढ रही अब डाल, लुटी चिड़िया सोने की।

पावन धरती देश की, कल तक  थी बेपीर।
कदम कदम थीं रोटियाँ, पग पग पर था नीर।
पग पग पर था नीर, क्षीर की बहतीं नदियाँ,
निर्झर थे गतिमान, रही हैं साक्षी सदियाँ।
सोचें इतनी बात, आज क्यों सूखा सावन?
झेल रही क्यों पीर, देश की धरती पावन।

कोयल सुर में कूकती, छेड़ मधुरतम तान।
कूक कूक कहती यही, मेरा देश महान।
मेरा देश महान, सुनाती है जन जन को,
रोक वनों का नाश, कीजिये रक्षित हमको।
कहनी इतनी बात, अगर वन होंगे ओझल।
कैसे मीठी तान, सुनाएगी फिर कोयल।

सार ललित छंद (कल्पना रामानी)

छन्न पकैया, छन्न पकैया, दिन कैसे ये आए,
देख आधुनिक कविताई को, छंद,गीत मुरझाए

छन्न पकैया, छन्न पकैया, गर्दिश में हैं तारे,
रचना में कुछ भाव हो न हो, वाह, वाह के नारे

छन्नपकैया, छन्नपकैया, घटी काव्य की कीमत
विद्वानों को वोट न मिलते, मूढ़ों को है बहुमत

छन्नपकैया छन्नपकैया भ्रमित हुआ हैं लखकर
सुंदरतम की छाप लगी है, हर कविता संग्रह पर

छन्न पकैया, छन्न पकैया, कविता किसे पढ़ाएँ,
पाठक भी अब यही सोचते कुछ लिख कवि कहलाएँ

छन्न पकैया, छन्न पकैया, रचें किसलिए कविता,
रचना चाहे ‘खास’ न छपती, छपते ‘खास’ रचयिता

छन्न पकैया, छन्न पकैया, अब जो ‘तुलसी’ होते,

देख तपस्या भंग छंद की, सौ-सौ आँसू रोते।

बस एक शब्द के अन्तर से दो छन्द - गोपाल कृष्ण भट्ट 'आकुल'

भोजन भजन बनाइये, दिनचर्या अविराम।
योग, मनन चिंतन करे, बदन नयन अभिराम।
बदन नयन अभिराम, संतुलित भोजन करिए।
घूमो सुबहो शाम,मनन अरु चिंतन करिए।
कह ‘आकुल’ कविराय, भजन से भागे जो जन।
ना पाये संतोष, करे कैसा भी भोजन।

'भजन' के स्‍थान पर 'भ्रमण' से स्‍वरुप देखें-

भोजन भ्रमण बनाइये, दिनचर्या अविराम।
योग, मनन चिंतन करे, बदन नयन अभिराम।
बदन नयन अभिराम, संतुलित भोजन करिए।
घूमो सुबहो शाम, मनन अरु चिंतन करिए।
कह ‘आकुल’ कविराय, भ्रमण से भागे जो जन।

रुग्ण वृद्ध हो शीघ्र, करे कैसा भी भोजन।

खोया-खोया चाँद भी - फणीन्द्र कुमार ‘भगत’

खोया-खोया चाँद भी, गया रूठकर आज |
तारा टूटे तार का, कहाँ बजाता साज ||
कहाँ बजाता साज, घने घुप अँधियारे में,
या खुद रोता आज, चाँद के चौबारे में,
जागा सारी रात, नहीं वह तारा सोया,
गया रूठ जब प्यार, चाँद सा खोया-खोया ||


~ फणीन्द्र कुमार ‘भगत’

SP/2/3/9 इनको रखो सँभाल, पर्स में यादों के तुम - धर्मेन्द्र कुमार सज्जन

नमस्कार

गणतन्त्र दिवस की शुभ-कामनाएँ। वर्तमान आयोजन की समापन पोस्ट में सभी साहित्यानुरागियों का सहृदय स्वागत है। वर्तमान आयोजन में अब तक 14 रचनाधर्मियों के छन्द पढे जा चुके हैं। छन्द आधारित समस्या-पूर्ति आयोजन में 15 लोगों के डिफरेंट फ्लेवर वाले स्तरीय छन्द पढ़ना एक सुखद अनुभव है। आज की पोस्ट में हम पढ़ेंगे भाई धर्मेन्द्र कुमार सज्जन जी के छन्द :-

हम सब मिलजुल कर चले, हिलने लगी ज़मीन
सिंहासन खाली हुये, टूटे गढ़ प्राचीन
टूटे गढ़ प्राचीन, मगर यह लक्ष्य नहीं है
शोषण वाला दैत्य आज भी खड़ा वहीं है
कह ‘सज्जन’ कविराय, नहीं बदला गर ‘सिस्टम’
बिजली, पानी, अन्न, कहाँ से लायेंगे हम

तुम से मिलकर हो गये, स्वप्न सभी साकार
अपने संगम ने रचा, नन्हा सा संसार
नन्हा सा संसार, जहाँ ग़म रहे खुशी से
सुन बच्चों की बात, हवा भी कहे खुशी से
ये पल हैं अनमोल, न होने दो यूँ ही गुम
इनको रखो सँभाल, पर्स में यादों के तुम

‘मैं’ ही ने मुझको रखा, सदा स्वयं में लीन
हो मदान्ध चलता गया, दिखे न मुझको दीन
दिखे न मुझको दीन, दुखी, भूखे, प्यासे जन
सिर्फ़ कमाना और खर्च करना था जीवन
कह ‘सज्जन’ कविराय, मरा मुझमें तिस दिन ‘मैं’
लगा मतलबी और घृणित, मुझको जिस दिन ‘मैं’

धर्मेन्द्र भाई साहित्य की अनेक विधाओं में अपने मुख़्तलिफ़ अंदाज़ के साथ मौजूद हैं। आप की ग़ज़लें हों या आप की कविताएँ या फिर आप के नवगीत, हर विधा में अपनी उपस्थिति का आभास कराते हैं धर्मेन्द्र भाई। “कह ‘सज्जन’ कविराय, नहीं बदला गर ‘सिस्टम’। बिजली, पानी, अन्न, कहाँ से लायेंगे हम” कितनी सच्ची बात है और वह भी कितनी आसानी के साथ, बधाई आप को। ‘”जहाँ ग़म रहे खुशी से” “पर्स में यादों के” “सिर्फ़ कमाना और खर्च करना था जीवन ..... वाह वाह वाह ..... छन्द कब से अपने इस पुरातन फ्लेवर की बाट जोह रहे हैं।

बहुत ही ख़ुशी की बात है कि वर्तमान आयोजन सहज-सरस-सरल और सार्थक वाक्यों / मिसरों की अहमियत बताने और उन के विभिन्न उदाहरण हमारे सामने रखने में क़ामयाब हुआ। इस आयोजन के सभी रचनाधर्मियों को इस क़ामयाबी के लिये बहुत-बहुत बधाई और इच्छित कार्य को परिणाम तक पहुँचाने के लिये बहुत-बहुत आभार।

समय-समय पर विभिन्न विद्वान साथियों / आचार्यों / पुस्तकों / अन्तर्जालीय आलेखों से प्राप्त जानकारियाँ आप सभी के साथ बाँटी हैं और आशा है “सरसुति के भण्डार की बड़ी अपूरब बात। ज्यों-ज्यों खरचौ, त्यों बढ़ै, बिनु खरचें घट जात॥“ वाले सिद्धान्त का अनुसरण करते हुये आप सब लोग भी इन बातों को अन्य व्यक्तियों तक अवश्य पहुँचाएँगे।

वर्तमान आयोजन यहाँ पूर्णता को प्राप्त होता है। धर्मेन्द्र भाई के छन्द आप को कैसे लगे अवश्य ही लिखियेगा।

विशेष निवेदन :- इस पोस्ट के बाद वातायन पर शिव आधारित छंदों, ग़ज़लों, कविताओं, गीतों, आलेखों वग़ैरह का सिलसिला शुरू करने की इच्छा हो रही है। यदि यह विचार आप को पसन्द आवे तो प्रकाशन हेतु सामाग्री  navincchaturvedi@gmail.com पर भेज कर अनुग्रहीत करें।  


नमस्कार....... 

SP2/3/8 दिगम्बर नासवा जी और योगराज प्रभाकर जी के छन्द

नमस्कार

कल क़रीब एक-डेढ़ साल बाद आदरणीय श्री योगराज प्रभाकर जी की आवाज़ सुनाई पड़ी। लम्बी और अत्यधिक पीड़ादायक बीमारी के बाद आप हमारे बीच लौटे हैं। आप के परिवारी जनों के साथ-साथ आप की वापसी हमारे लिये भी सौभाग्य की बात है। सौभाग्य की बात इसलिये कि यह किरदार प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से निरन्तर ही छन्द साहित्य की सेवा में लगा हुआ है। हम आप की स्वस्थ और दीर्घायु की मङ्गल-कामना करते हैं। मैं एक बार फिर से लिखना चाहूँगा कि योगराज भाई जी ने मुझे फेसबुकिया होने से बचाया और आज यह मञ्च जिस मक़ाम पर पहुँचा है उस में भी आप का महत्वपूर्ण योगदान है। मञ्च के निवेदन पर आप ने अपने छन्द भेजे हैं, आइये पहले आप के छंदों को पढ़ते हैं :-

मैं क्या हूँ? बस हूँ सिफ़र, तनहा, बे-औक़ात
साथ मिले गर 'एक' भी, 'नौ' को दे दूँ मात
'नौ' को दे दूँ मात, सिफ़र से दस हो जाऊँ
तुम जो दे दो साथ, किसी गिनती में आऊँ
इसको दोस्त कदापि न समझो विकट समस्या
लाज़िम है यह साथ, वगरना तुम क्या मैं क्या

तुम लय, सुर अरु ताल हो, ख़ुद में हो संगीत
तर्ज़ इधर बेतर्ज़ सी, तुम सुन्दरतम गीत          
तुम सुन्दरतम गीत, बिखेरो छटा बसंती
मैं भटका सा राग, मगर तुम "जै जै वंती"
मैं गरिमा से हीन, मगर हो गरिमामय तुम   
मैं हूँ कर्कश बोल, मृदुल, मनुहारी लय तुम

हम के अन्दर हैं छिपे, हिंदू-मुस्लिम नाम
भीड़ पड़ी जब देश पर, दोनों आए काम
दोनों आए काम, कहाँ से नफ़रत आई
भारत माँ हैरान, लड़ें क्यों दोनों भाई  
अपने झण्डे छोड़, उठायें क़ौमी परचम  
इक माँ की सन्तान, बताएँ दुनिया को हम

सलिल जी की तरह ही योगराज जी के साथ भी भाषा तथा छन्द वग़ैरह के विषय में लम्बी-लम्बी वार्ताएँ होती रही हैं। आप भाषाई चौधराहट के मुखर विरोधी हैं। सिफ़्र [21] को सिफ़र [12] नज़्म करते हैं, वो भी धड़ल्ले के साथ। सिफ़्र यानि शून्य। शून्य को ले कर आप ने जो छन्द कहा है उस पूरे छन्द की हर एक पंक्ति बरबस ही आगे बढ़ते क़दमों को रोकती है।  छंदों में अक्सर ही जो रूखापन दिखाई पड़ने लगा है उस के कुछ कारण हैं मसलन [1] अत्यधिक शास्त्रीयता [2] वाक्यों का स्पष्ट-सरस-सरल न होना [3] सार्थक संदेश की अनुपस्थिति  और [4] हृदय की बजाय मस्तिष्क का अधिक इस्तेमाल।  “तुम जो दे दो साथ, किसी गिनती में आऊँ” और “वगरना तुम क्या मैं क्या” जैसे वाक्य सीधे दिल से निकले हुये वाक्य हैं। गिनती वाले वाक्य में जहाँ हृदय का आर्तनाद है वहीं वगरना वाले वाक्य में सार्थक संदेश भी है। इन ही तत्वों से छन्द, छन्द बनता है।

तुम वाले छन्द को देखिये। मैं कुछ भी नहीं और तुम सब कुछ, यही सब तो कहा जाना है। बस हम लोग कैसे-कैसे इस बात को कहते हैं, वह देखने जैसा होता है। एक-एक शब्द को पढ़ना बड़ा ही सुखद अनुभव है। अरे, इतनी मनुहार सुन कर तो पत्थरों का कलेज़ा भी पिघल जाये। जीते रहिये योगराज जी।

हम वाले छन्द के हम में हिन्दू-मुस्लिमएकता का नारा बुलन्द करने के लिये, 'क़ौमी परचम' यानि 'इन्सानियत का परचम' बुलन्द करने के लिये कवि को सादर प्रणाम। यार, यहाँ आप से जलन होती है, मैं ऐसा क्यूँ नहीं सोच पाया? तुस्सी ग्रेट हो भाई जी। मालिक आप की हज़ारी उम्र करें। जीते रहिये, और यूँ ही ख़ुश होने के मौक़े देते रहिये।

इस पोस्ट के दूसरे छन्दानुरागी हैं भाई दिगम्बर नासवा जी। पिछले आयोजन के दौरान समस्या-पूर्ति मञ्च पर हम उन के दोहे पढ़ चुके हैं। एक छन्द पुष्प के साथ आप इस आयोजन में उपस्थित हो रहे हैं। आइये पढ़ते हैं आप का छन्द :-

'मैं' से 'हम' के बीच में बीते पच्चिस साल
अब क्या बोलूँ, क्या किया, इन सालों ने हाल
इन सालों ने हाल बिगाड़ा भर कर भुस्सा
माँ-बापू नाराज़, बहन-भाई भी गुस्सा
कहे दिगम्बर सास बहू का झगड़ा भारी
इस को सुलझाने में सारी दुनिया हारी

विश्वस्त सूत्रों [ J ] से पता चलता है कि यह छन्द इन का अपना अनुभव नहीं है बल्कि किसी बहुत ही ख़ास मित्र का अनुभव है। भाई हमें भी आप के उस ख़ास मित्र से बेहद हमदर्दी है। और अगर यह आप का अनुभव भी होता तो क्या हुआ, सौ में से कम से कम, एक सौ एक लोगों के साथ ये समस्या है ही। फिर भी दिगम्बर भाई आप ने कमाल किया है भाई और आप को इस कमाल के लिये बहुत-बहुत बधाई। आयोजन में हास्य-रस की कुछ कमी खल रही थी, सो शेखर के बाद आप ने भी इस कमी को भरने में अच्छा योगदान दिया है। कुछ मित्र कहते हैं कि मैं हास्य का विरोधी हूँ, ऐसा नहीं, मैं हास्य का विरोधी नहीं बल्कि चुटकुला-सम्मेलनों / गोष्ठियों को कवि-सम्मेलनों / गोष्ठियों की जगह लेता देख कर दुखी अवश्य हूँ। चुट्कुले सुन कर हँसता हूँ और कविता की बदहाली पर रोता हूँ। 

तो साथियो आप इन छंदों का आनन्द लीजियेगा, अपने बहुमूल्य विचारों से अलङ्कृत कीजियेगा और हम बढ़ते हैं अगली पोस्ट की ओर।

जितने छन्द आये सभी पोस्ट हो चुके हैं। अगर अन्य साथी इस आयोजन से ख़ुद को दूर रखने के निर्णय पर क़ायम रहते हैं तो अगली पोस्ट समापन पोस्ट होगी।


नमस्कार