अविस्मरणीय काल से मनुष्य की अभिव्यक्ति उस की चेतना और अनुभूति के संयोग अथवा द्वंद से जन्मती हुई, संगीत और कला के विविध रूपों में प्रकट होती रही है। समय, स्थान और सुसंस्कृति अनुरूप इस अभिव्यक्ति का कलेवर बदलता रहा है। जो अभिव्यक्ति मानव अंतस की यथार्थ एवं निष्कलुष गहराइयों को उकेरने में समर्थ होती है वह कालजयी भी होती है। सामवेद की ऋचाएँ निष्कलुष और पवित्र इसीलिये हैं कि वे चेतना के सूक्ष्म धरातलों तक पहुँचती हैं। यही कारण है कि भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि मैं वेदों में सामवेद हूँ।
कोई रचनाधर्मी जब अपनी अनुभूति की पराकाष्ठा पर पहुँचता है तो बहुधा उस की अभिव्यक्ति में वह ईश्वर तत्व आ जाता है जो किसी रचना को देशकाल की परिधि से ऊपर कर देता है। अभिव्यक्ति आयाम खोजती है। छायावादोत्तर हिन्दी काव्यजगत में नवगीत स्वरूप लेने लगा था और समकालीन कविता में इस के वर्चस्व