28 नवंबर 2013

घर की अँखियान कौ सुरमा जो हते - नवीन

घर की अँखियान कौ सुरमा जो हते
दब कें रहनौ परौ दद्दा जो हते

बिन दिनन खूब ई मस्ती लूटी
हम सबन्ह के लिएँ बच्चा जो हते

आप के बिन कछू नीकौ न लगे
टोंट से लगतु एँ सीसा जो हते

चन्द बदरन नें हमें ढाँक दयो
और का करते चँदरमा जो हते

पेड़ तौ काट कें म्हाँ रोप दयौ
किन्तु जा पेड़ के पत्ता जो हते

पैठ पाए न महल के भीतर 
बिप्र-छत्री और बनिया जो हते

देख सिच्छा कौ चमत्कार ‘नवीन’
ठाठ सूँ रहतु एँ मंगा जो हते

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[भाषा धर्म के अधिकतम निकट रहते हुये उपरोक्त गजल का भावार्थ]

घर की, हम, आँखों का सुरमा जो थे 
दब के रहना पड़ा दद्दा जो थे 

उन दिनों खूब ही मस्ती लूटी
हम सभी के लिये बच्चा जो थे 

आप के बिन ज़रा अच्छा न लगे
टोंट से लगते हैं शीशा जो थे

चन्द अब्रों [बादलों] नें हमें ढँक डाला
और क्या करते जी, चन्दा जो थे

पेड़ तौ काट कें वाँ रोप दिया
किन्तु इस पेड़ के पत्ता जो थे

पैठ पाए न महल के भीतर 
बिप्र-छत्री और बनिया जो थे

देख शिक्षा का चमत्कार ‘नवीन’
ठाठ से रहते हैं मङ्गा जो थे



:- नवीन सी. चतुर्वेदी

बहरे रमल मुसद्दस मख़बून मुसककन
फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन

2122 1122 22

26 नवंबर 2013

एक लाइन में आउते बालक - नवीन

एक लाइन में आउते बालक
एक लाइन में जाउते बालक

धूर-मट्टी उड़ाउते बालक
मैल मन कौ मिटाउते बालक

लौट सहरन सूँ आउते बालक
जोत की लौ बचाउते बालक

बन सकतु ऐ नसीब धरती पै
देख पढ़ते-पढाउते बालक

रूस बैठी गरूर की गुम्बद
गुलगुली सूँ मनाउते बालक

किस्न बन कें जसोदा मैया कूँ
ता-ता थैया नचाउते बालक

कितनी टीचर कितेक रिस्तेदार
सब की सब सूँ निभाउते बालक

घर की दुर्गत हजम न कर पाये
हँस कें पत्थर पचाउते बालक

और एक दिन असान्त ह्वे ई गये
सोर कब लौं मचाउते बालक


[भाषा धर्म के अधिकतम निकट रहते हुये भावार्थ-गजल ]
आउते - आते हुये, जाउते - जाते हुये - इस तरह से क्रिया शब्दों को पढ़ने की कृपा करें। 
अन्तिम शेर के मचाउते को 'कब तक शोर मचाते' के अभिप्राय के साथ पढ़ें।


एक लाइन में आउते बालक
एक लाइन में जाउते बालक

धूर-मट्टी उड़ाउते बालक
मैल मन कौ मिटाउते बालक

लौट शहरों से आउते बालक
जोत की लौ बचाउते बालक

बन सके है नसीब धरती पर
देख, पढ़ते-पढाउते बालक

रूठ बैठी गरूर की गुम्बद
गुलगुली से मनाउते बालक

किस्न बन के जसोदा मैया को
ता-ता थैया नचाउते बालक

कितनी टीचर कितेक [कितने सारे] रिस्तेदार
सब की सब से निभाउते बालक

घर की दुर्गत हजम न कर पाये
हँस के पत्थर पचाउते बालक

और एक दिन असान्त हो ही गये
सोर कब तक मचाउते [मचाते] बालक


:- नवीन सी. चतुर्वेदी

24 नवंबर 2013

चन्द अशआर - मुज़फ़्फ़र हनफ़ी

जनाब मुज़फ़्फ़र हनफ़ी साहब को सब से पहले पढ़ा था लफ़्ज़ के किसी पुराने अङ्क में। उस के बाद दोबारा भी लफ़्ज़ पर ही पढ़ा। इस के बाद फेसबुक पर आप के साहबज़ादे फ़ीरोज़ साहब ने हनफ़ी साहब के कई अशआर पढ़वाये और मेरी इल्तिज़ा पर हनफ़ी साहब की किताब मुझे कोरियर से भेजी।

अक्सर लोग कहते हैं कि साहित्य को समर्पित इस ब्लॉग का नाम मैंने ठाले-बैठे क्यूँ रखा है? भाई जब कारोबार और घर-परिवार से समय बचता और मैं ठाला बैठा होता हूँ तब इस ब्लॉग का काम कर रहा होता हूँ, इसीलिए ही इस ब्लॉग का नाम ठाले-बैठे रखा है। कई दिनों से कारोबारी व्यस्तताओं के अलावा, उस्ताज़ मुहतरम तुफ़ैल साहब के हुक़्म पर ब्रजभाषा गजलों पर काम कर रहा था [ब्रजभाषा गजलें पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें] तो हनफ़ी साहब की किताब के बारे में लिखने में टाइम लगा, जिस के लिये मैं हनफ़ी साहब और फ़ीरोज़ भाई दौनों से मुआफ़ी का तलबगार हूँ।

यह सोच कर बड़ा ही ताज़्ज़ुब होता है कि हमारी और हमारे बाद की नस्ल को मुनव्वर राणा साहब का ‘हमारे घर के बर्तनों पे आई एस आई लिक्खा है’ तथा राहत इंदौरी साहब का ‘हमारे ताज़ अजायबघरों में रक्खे हैं’ तो याद हैं मगर हनफ़ी साहब के ऐसे-ऐसे अशआर याद नहीं हैं :-

ख़ुदा करे तेरी इन्सानियत न हो नापैद
ज़माना मोम को फ़ौलाद करने वाला है

कुछ लोगों का तेज़ाब छिड़कना मेरे ऊपर
हाकिम को मेरी चीख सुनाई नहीं देना

ये जो कुछ लोग ख़मीदा [झुके हुये] हैं कमानों की तरह
आसमानों को झुकाने के लिये आये थे

बगूले की मसनद पे बैठे हैं हम
सफ़र में नहीं हैं, सफ़र में भी हैं

नहीं तो सारी नई बस्तियों की ख़ैर नहीं
उसी डगर पे पुरानी नदी को बहाने दो

डेरा है दुनिया भर के आसेबों [भूतों] का
मैं बेचारा समझा था घर मेरा है

उन पेड़ों के फल मत खाना जिनको तुम ने ही बोया हो
जिन पर हों अहसान तुम्हारे उन से आशाएँ कम रखना

सब की आवाज़ में आवाज़ मिला दी अपनी
इस तरह आपने पहिचान मिटा दी अपनी

लोग शुहरत के लिये जान दिया करते हैं
और इक हम हैं कि मिट्टी भी उड़ा दी अपनी

हज़ारों मुश्किलें हैं दोसतों से दूर रहने में
मगर इक फ़ायदा है पीठ पर ख़ंजर नहीं लगता

पत्थर-पत्थर पर लिक्खा है
सारे शीशमहल छन-छन भर

वो हाथों हाथ लेना डाकिये को राह में बढ़ कर
लिफ़ाफ़ा चूम लेना फिर उसे पढ़ कर जला देना

ग़र्क़ [डूबना] होने से ज़ियादा ग़म हुआ इस बात का
ये नहीं मालूम हम को डूबना है किसलिये

हनफ़ी साहब की जो किताब इस नाचीज़ तक पहुँची है उस के सिर्फ़ एक बटा पाँच यानि महज़ 20% पन्नों से उठाए गए अशआर ही आप तक पहुँचा रहा हूँ ताकि शायरेदौर के बारे में जानने की उत्सुकता के साथ-साथ बाकी अशआर का मज़ा आप किताब पढ़ कर ले सकें। मुमकिन है फ़ीरोज़ साहब के पास हनफ़ी साहब की कोई ई-बुक भी हो। 

मैं ख़ुशक़िस्मत हूँ कि मैं ने हनफ़ी साहब से बात की, अगर आप भी इस एहसास से लुत्फ़-अनदोज़ होना चाहते हैं तो फ़ौरन हनफ़ी साहब का फोन नंबर नोट कीजिएगा:-

जनाब मुज़फ़्फ़र हनफ़ी साहब का नंबर – 99 110 67 200
हनफ़ी साहब के साहबज़ादे [पुत्र] - फ़ीरोज़ भाई का नंबर – 9717788387

यह पोस्ट आप तक पहुँची उस में फ़ीरोज़ भाई का भी हाथ है तो उन्हें भी शुक्रिया अदा करना बनता है भाई, थेङ्क्यु वेरी मच फ़ीरोज़ भाई। प्रणाम हनफ़ी साहब।  

23 नवंबर 2013

दौरिबे बारेन के पिछबाड़ें दुलत्ती दै दई - नवीन

दौरिबे बारेन के  पिछबाड़ें दुलत्ती दै दई
रेंगबे बारेन कूँ मैराथन की ट्रॉफ़ी दै दई

बोट तौ दै आये हम पे लग रह्यौ ऐ ऐसौ कछ
देबतन नें जैसें महिसासुर कूँ बेटी दै दई

मैंने म्हों जा ताईं खोल्यौ ताकि पीड़ा कह सकूँ
बा री दुनिया तैनें मो कूँ फिर सूँ रोटी दै दई

सब कूँ ऊपर बारौ फल-बल  सोच कें ई देतु ऐ
मन्मथन कूँ मन दये मस्तन कूँ मस्ती दै दई

जन्म लीनौ जा कुआँ में बाई में मर जाते हम
सुक्रिया ऐ दोस्त जो हाथन में रस्सी दै दई

[भाषा धर्म के अधिकतम निकट रहते हुये उपरोक्त गजल का भावार्थ]

दै दई - दे दी, बारेन कों - वालों को 

दौड़ने वालों के पिछवाड़े दुलत्ती दै दई
रेंगने वालों को मैराथन की ट्रॉफ़ी दै दई

जैसे ही पेटी में डाला वोट – कुछ ऐसा लगा
देवता लोगों ने  महिसासुर को बेटी दै दई

इसलिये मुँह खोला मैं ने ताकि पीड़ा कह सकूँ
वा[ह] री दुनिया तू ने मुझ को फिर से रोटी दै दई

सब को ऊपर वाला फल-बल  बख़्शता है सोच कर
मन्मथों को मन दये मस्तों को मस्ती दै दई

तन धरा था जिस कुएँ मैं उस में ही मर जाते हम

शुक्रिया ऐ दोस्त जो हाथों में रस्सी दै दई

:- नवीन सी. चतुर्वेदी

बहरे रमल मुसम्मन महज़ूफ़ 
फ़ाएलातुन फ़ाएलातुन फ़ाएलातुन फ़ाएलुन
2122 2122 2122 212 

19 नवंबर 2013

लौट आमंगे सब सफर बारे - नवीन

लौट आमंगे सब सफर बारे
हाँ ‘नवीन’ आप के सहर बारे

आँख बारेन कूँ लाज आबतु ऐ
देखत्वें ख्वाब जब नजर बारे

नेंकु तौ देख तेरे सर्मुख ई
का-का करत्वें तिहारे घर बारे

एक कौने में धर दयौ तो कूँ
खूब चोखे तिहारे घर बारे

रात अम्मा सूँ बोलत्वे बापू
आमत्वें स्वप्न मो कूँ डर बारे

खूब ढूँढे, मिले न सहरन में
संगी-साथी नदी-नहर बारे

जहर पी कें सिखायौ बा नें हमें
बोल जिन बोलियो जहर बारे


[भाषा धर्म के अधिकतम निकट रहते हुये उपरोक्त गजल का भावार्थ]

लौट आएँगे सब सफ़र वाले
हाँ ‘नवीन’ आप के नगर वाले

आँख वालों को लाज आती है
ख़्वाब जब देखें हैं नज़र वाले

नेंक [ज़रा] तो देख तेरे सामने ही
क्या-क्या करते हैं तेरे घर वाले

एक कोने में धर दिया तुझ को
खूब चोखे [अच्छे] हैं तेरे घर वाले

रात अम्मा से कहते थे बापू
आते हैं स्वप्न मुझको डर वाले

खूब ढूँढेमिले न शहरों में
संगी-साथी नदी-नहर वाले

ज़ह्र पी के सिखाया उसने हमें
बोल मत बोलना ज़हर वाले


:- नवीन सी. चतुर्वेदी

बहरे खफ़ीफ मुसद्दस मख़बून
फ़ाइलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन

2122 1212 22

हमारी गैल में रपटन मचायबे बारे - नवीन

हमारी गैल में रपटन मचायबे बारे
तनौ ई रहियो हमन कूँ  गिरायबे बारे

बस एक दिन के लिएँ मौन-ब्रत कूँ रख कें देख
मेरी जबान पे तारौ लगायबे बारे

जनम-जनम तोहि अपनेन कौ संग-साथ मिले
हमारे गाम सूँ हम कूँ हटायबे बारे

हमारे लाल तिहारे कछू भी नाँइ नें का
हमारे ‘नाज में कंकर मिलायबे बारे

हमें जराय कें अपनी हबस कूँ सांत न कर
पलक-पलक सूँ नदिन कूँ बहायबे बारे


[भाषा धर्म के अधिकतम निकट रहते हुये उपरोक्त गजल का भावार्थ]

हमारी राह फिसलनी बनाने वाले तू
तना ही रहना हमन को गिराने वाले तू

बस एक दिन के लिये मौन व्रत को रख कर देख
मेरी ज़बान पे ताला लगाने वाले तू

जनम-जनम सदा अपनों के सङ्ग-साथ रहे
हमारे गाँव से हमको हटाने वाले तू


हमारे बच्चे तेरे कुछ नहीं हैं क्या – कह तो
हमारे [अ] नाज में कङ्कड़ मिलाने वाले तू

हमें जला के स्वयं की हवस को शान्त न कर

तमाम पलकों से नदियाँ नित बहाने वाले तू


:- नवीन सी. चतुर्वेदी 

बहरे मुजतस मुसमन मख़बून महज़ूफ
मुफ़ाइलुन फ़इलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन
1212 1122 1212 22  

कमल, गुलाब, जुही, गुलमुहर बचात भए - नवीन

कमल, गुलाब, जुही, गुलमुहर बचात भए
महक रयौ ऊँ महकते नगर बचात भए

सरद की रात में चन्दा के घर चली पूनम
अधर, अधर पे धरैगी अधर बचात भए

सरल समझियो न बा कूँ घनी चपल है बौ
नजर में सब कूँ रखतु ऐ नजर बचात भए

तू अपने आप कूँ इतनौ समझ न खबसूरत
बौ मेरे संग हू नाची, मगर बचात भए

जे खण्डहर नहीं जे तौ धनी एँ महलन के
बिखर रए एँ जो बच्चन के घर बचात भए

जो छंद-बंध सूँ डरत्वें बे देख लेंइ खुदइ
मैं कह रहयौ हूँ गजल कूँ बहर बचात भए

चमन कूँ देख कें मालिन के म्हों सूँ यों निकस्यौ
कटैगी सगरी उमरिया सजर बचात भए


[भाषा धर्म के अधिकतम निकट रहते हुये भावार्थ-गजल]


कमलगुलाबजुहीगुलमुहर बचाते हुये
महक रहा हूँ महकते नगर बचाते हुये

शरद की रात में चन्दा के घर चली पूनम
अधरअधर पे धरेगी अधर बचाते हुये

सरल समझना न उस को बहुत चपल है वह
नज़र में रखती है सबको नज़र बचाते हुये

तू अपने आप को इतना भी ख़ूब-रू न समझ
वो मेरे साथ भी नाचीमगर बचाते हुये

ये खण्डहर नहीं ये तो धनी हैं महलों के
बिखर रहे हैं जो बच्चों के घर बचाते हुये

जो छंद-बंध से डटे हैं ख़ुद ही देख लें वो
मैं कह रहा हूँ ग़ज़ल को बहर बचाते हुये

चमन को देखा तो बरबस ही बोल उठे माली

तमाम उम्र कटेगी शजर बचाते हुये



:- नवीन सी. चतुर्वेदी

बहरे मुजतस मुसमन मख़बून महज़ूफ
मुफ़ाइलुन फ़इलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन

1212 1122 1212 22  

मीठे बोलन कूँ सदाचार समझ लेमतु एँ - नवीन

मीठे बोलन कूँ सदाचार समझ लेमतु एँ
लोग टीलेन कूँ कुहसार समझ लेमतु एँ

दूर अम्बर में कोऊ आँख लहू रोमतु ऐ
हम हिंयाँ बा कूँ चमत्कार समझ लेमतु एँ

कोऊ  बप्पार सूँ भेजतु ऐ बिचारन की फौज
हम हिंयाँ खुद कूँ कलाकार समझ लेमतु एँ

पैलें हर बात पे हम लोग झगर परतु हते
अब तौ बस रार कौ इसरार समझ लेमतु एँ

भूल कें हू कबू पैंजनिया कूँ पाजेब न बोल
सब की झनकार कूँ फनकार समझ लेमतु एँ

एक हू मौकौ गँबायौ न जखम दैबे कौ
आउ अब संग में उपचार समझ लेमतु एँ 

अपनी बातन कौ बतंगड़ न बनाऔ भैया
सार एक पल में समझदार समझ लेमतु एँ


मानकों के अधिकतम निकट रहते हुये भावार्थ-गजल

मीठे बोलों को सदाचार समझ लेते हैं
लोग टीलोंको भी कुहसार समझ लेते हैं

दूर अम्बर में चश्म लहू रोटी है
हम यहाँ उस को चमत्कार समझ लेते हैं

कोई उस पार से आता है तसव्वुर ले कर
हम यहाँ ख़ुद को कलाकार समझ लेते हैं

पहले हर बात पे हम लोग झगड़ पड़ते थे
अब तो बस रार का इसरार समझ लेते हैं

भूल के भी कभी पैंजनिया को पाजेब न बोल
किस की झनकार है फ़नकार समझ लेते हैं

एक दूजे को बहुत घाव दिये हैं हम ने

आओ अब साथ में उपचार समझ लेते हैं 



:- नवीन सी. चतुर्वेदी
बहरे रमल मुसम्मन मख़बून महज़ूफ़
फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन
2122 1122 1122 22
ब्रजभाषा गजल

18 नवंबर 2013

ख़ुद अपनी नाक के नीचें धुआँ करते नहीं देखा - नवीन

ख़ुद अपनी नाक के नीचे धुआँ करते नहीं देखा।
किसी पागल को ये कारेज़ियाँ1 करते नहीं देखा॥



बिना सिर-पैर की बातें बयाँ करते नहीं देखा।
ग़रीबों को ज़मीं का आसमाँ करते नहीं देखा॥



न जाने रोज़ कितनी बार परबत लाँघते होंगे।
परिन्दों को मगर ख़ुद पर गुमाँ करते नहीं देखा॥



कोई आलिम भले ही कतरनें कर डाले दरिया की।
किसी नादाँ को तो यों धज्जियाँ करते नहीं देखा॥





शराफ़त-बाज़ ही तकते हैं छुप-छुप कर हसीनों को।
किसी दीवाने को ये चोरियाँ करते नहीं देखा॥



कोई इनसान ही डोनेट कर सकता है अंगों को।
फ़रिश्तों को तो ऐसी नेकियाँ करते नहीं देखा॥

1 बेकार का काम




सरगम की धुन गढ़वे बारे साज हबा में उड़ रए एँ - नवीन

सरगम की धुन गढ़वे बारे साज हबा में उड़ रए एँ
पगडण्डिन पे चलबे बारे मिजाज हबा में उड़ रए एँ

रात अँधेरी, नील-गगन, चलते भए बादर, तेज हबा
बच्चा बोले पानी बारे जहाज हबा में उड़ रए एँ

दूर अकास में ल्हौरे-ल्हौरे तारेन की पंगत कूँ देख
ऐसौ लागत है जैसें पुखराज हबा में उड़ रए एँ

सच्ची बात तौ जे है पानी जैसौ बहनौ हो, लेकिन   
माफी दीजो भैया सगरे समाज हबा में उड़ रए एँ

मन में आयौ माखनचोर कूँ माखन-मिसरी भोग धरूँ
बा दिन सूँ ही यार अनाज और प्याज हबा में उड़ रए एँ

और कहाँ टिकते भैया जी सब की काया सब के मन
महारानी धरती पे हैं महाराज हबा में उड़ रए एँ

अब तक के सगरे राजा-महाराजा आय कें देखौ खुद
प्रेम सबन कौ है सरताज और ताज हबा में उड़ रए एँ



:- नवीन सी. चतुर्वेदी


मानकों के अधिकतम निकट रहते हुये भावार्थ ग़ज़ल


सरगम की धुन गढ़ने वाले साज हवा में उड़ रए हैं
पगडण्डी पर चलने वाले मिजाज हवा में उड़ रए हैं

रात-अँधेरीनील-गगनचलते हुये बादल, तेज़-हवा
बच्चे बोले - पानी वाले जहाज हवा में उड़ रए हैं

दूर आकाश में छोटे-छोटे तारों की पंगत को देख
ऐसा लगता है  जैसे - पुखराज हवा में उड़ रए हैं

सच्ची बात तो ये है पानी जैसा बहना थालेकिन   
माफ़ी देना भाई, सारे समाज हवा में उड़ रए हैं

मन में आया माखनचोर को माखन-मिसरी भोग धरूँ
उस दिन ही से यार अनाज और प्याज हवा में उड़ रए हैं

और कहाँ टिकते भैया जी सब की काया सब के मन
महारानी धरती पर हैं, महाराज हवा में उड़ रए हैं

अब तक के सारे राजा-महाराजा आओ, आ कर देखो ख़ुद

प्रेम सभी का है सरताज और ताज हवा में उड़ रए हैं