जनाब मुज़फ़्फ़र हनफ़ी साहब को सब से पहले पढ़ा था लफ़्ज़ के किसी पुराने अङ्क में।
उस के बाद दोबारा भी लफ़्ज़ पर ही पढ़ा। इस के बाद फेसबुक पर आप के साहबज़ादे फ़ीरोज़
साहब ने हनफ़ी साहब के कई अशआर पढ़वाये और मेरी इल्तिज़ा पर हनफ़ी साहब की किताब मुझे
कोरियर से भेजी।
अक्सर लोग कहते हैं कि साहित्य को समर्पित इस ब्लॉग का नाम मैंने ठाले-बैठे
क्यूँ रखा है?
भाई जब कारोबार और घर-परिवार से समय बचता और मैं ठाला बैठा
होता हूँ तब इस ब्लॉग का काम कर रहा होता हूँ, इसीलिए ही इस
ब्लॉग का नाम ठाले-बैठे रखा है। कई दिनों से कारोबारी व्यस्तताओं के अलावा, उस्ताज़ मुहतरम तुफ़ैल साहब के हुक़्म पर ब्रजभाषा गजलों पर
काम कर रहा था [ब्रजभाषा गजलें पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें] तो हनफ़ी साहब की
किताब के बारे में लिखने में टाइम लगा, जिस के लिये
मैं हनफ़ी साहब और फ़ीरोज़ भाई दौनों से मुआफ़ी का तलबगार हूँ।
यह सोच कर बड़ा ही ताज़्ज़ुब होता है कि हमारी और हमारे बाद की नस्ल को मुनव्वर राणा साहब का
‘हमारे घर के बर्तनों पे आई एस आई लिक्खा है’ तथा राहत इंदौरी साहब का ‘हमारे ताज़
अजायबघरों में रक्खे हैं’ तो याद हैं मगर हनफ़ी साहब के ऐसे-ऐसे अशआर याद नहीं हैं
:-
ख़ुदा करे तेरी इन्सानियत न हो नापैद
ज़माना मोम को फ़ौलाद करने वाला है
कुछ लोगों का तेज़ाब छिड़कना मेरे ऊपर
हाकिम को मेरी चीख सुनाई नहीं देना
ये जो कुछ लोग ख़मीदा [झुके हुये] हैं कमानों की तरह
आसमानों को झुकाने के लिये आये थे
बगूले की मसनद पे बैठे हैं हम
सफ़र में नहीं हैं,
सफ़र में भी हैं
नहीं तो सारी नई बस्तियों की ख़ैर नहीं
उसी डगर पे पुरानी नदी को बहाने दो
डेरा है दुनिया भर के आसेबों [भूतों] का
मैं बेचारा समझा था घर मेरा है
उन पेड़ों के फल मत खाना जिनको तुम ने ही बोया हो
जिन पर हों अहसान तुम्हारे उन से आशाएँ कम रखना
सब की आवाज़ में आवाज़ मिला दी अपनी
इस तरह आपने पहिचान मिटा दी अपनी
लोग शुहरत के लिये जान दिया करते हैं
और इक हम हैं कि मिट्टी भी उड़ा दी अपनी
हज़ारों मुश्किलें हैं दोसतों से दूर रहने में
मगर इक फ़ायदा है पीठ पर ख़ंजर नहीं लगता
पत्थर-पत्थर पर लिक्खा है
सारे शीशमहल छन-छन भर
वो हाथों हाथ लेना डाकिये को राह में बढ़ कर
लिफ़ाफ़ा चूम लेना फिर उसे पढ़ कर जला देना
ग़र्क़ [डूबना] होने से ज़ियादा ग़म हुआ इस बात का
ये नहीं मालूम हम को डूबना है किसलिये
हनफ़ी साहब की जो किताब इस नाचीज़ तक पहुँची है उस के सिर्फ़ एक बटा पाँच यानि
महज़ 20% पन्नों से उठाए गए अशआर ही आप तक पहुँचा रहा हूँ ताकि शायरेदौर के बारे में जानने की उत्सुकता के साथ-साथ बाकी अशआर का मज़ा आप
किताब पढ़ कर ले सकें। मुमकिन है फ़ीरोज़ साहब के पास हनफ़ी साहब की कोई ई-बुक भी हो।
मैं ख़ुशक़िस्मत हूँ कि मैं ने हनफ़ी साहब से बात की, अगर आप भी इस एहसास से लुत्फ़-अनदोज़ होना चाहते हैं तो फ़ौरन हनफ़ी
साहब का फोन नंबर नोट कीजिएगा:-
जनाब मुज़फ़्फ़र हनफ़ी साहब का नंबर – 99 110 67 200
हनफ़ी साहब के साहबज़ादे [पुत्र] - फ़ीरोज़ भाई का नंबर – 9717788387
यह पोस्ट आप तक पहुँची उस में फ़ीरोज़ भाई का भी हाथ है तो उन्हें भी शुक्रिया
अदा करना बनता है भाई,
थेङ्क्यु वेरी मच फ़ीरोज़ भाई। प्रणाम हनफ़ी साहब।