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अनुष्टुप छंद पर ग़ज़ल - जान है तो जहान है

नया काम 
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युग-युगांत से श्रीमन्, इष्ट ये ही विधान है। 
जीविका ही समस्या है, जीविका ही निदान है॥

दूसरों के लिये सोचे, दूसरों के लिये जिये। 
दूसरों की करे चिंता, जीव वो ही महान है॥ 

हम भी एक योद्धा हैं, आत्म-रक्षा करें न क्यों।
सब यही बताते हैं, जान है तो जहान है॥

सच में धर्म*-धारा का, ध्येय है कितना मलिन्। 
धर्म परोक्ष*-रूपेण:, लाभकारी दुकान है॥  

धर् म - क्


पुराना 
काम  
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युग युगां से यारो, सिर्फ ये ही विधान है।
ज़िंदगी ही समस्या है, ज़िंदगी ही निदान है ।१।

दूसरों के लिए सोचे, दूसरों के लिए जिए।
दूसरों की करे चिंता, आदमी वो महान है ।२।

हम भी यार इंसाँ हैं, आत्म रक्षा करें न क्यूँ।
सब यही बताते हैं, जान है तो जहान है।३।

मज़हबी कहानी को, ठीक से समझो ज़रा।
आपसी मामलों की ये, लाभकारी दुकान है।४।

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इस के आगे का पोर्शन छंद शास्त्र में रूचि रखने वालों के लिए है
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संस्कृत में लिखे गए कुछ अनुष्टुप छंदों के उदाहरण :-

श्री मदभगवद्गीता से:- 
धर्म क्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सव ।
मामका पांडवाश्चैव   किमि कुर्वत संजय।।

ध/र्म/ क्षे/त्रे/ कु/रु/क्षे/त्रे/ स/म/वे/ता/ यु/युत्/स/व ।
मा/म/का/ पां/ड/वाश्/चै/व/   कि/मि/ कु-र/व/त/ सं/ज/य।।

ऋग्वेदांतर्गत श्री सूक्त से:- 
गंधद्वारां दुराधर्शां  नित्य पुष्टां करीषिणीं ।.
ईश्वरीं सर्व भूतानां तामि होप व्हये श्रि/यं।।

गं/ध/द्वा/रां/ दु/रा/ध-र/शां/ नित्/य/ पुष्/टां/ क/री/षि/णीं ।.
ई/श्व/रीं/ सर्/व/ भू/ता/नां/ ता/मि/ हो/प/ व्ह/ये/श्रि/यं।।

पंचतंत्र / मित्रभेद से:-
लोकानुग्रह कर्तारः, प्रवर्धन्ते नरेश्वराः ।
लोकानां संक्षयाच्चैव, क्षयं यान्ति न संशयः ॥ 

लो/का/नु/ग्र/ह/कर/ता/रः/, प्र/वर/धन्/ते/ न/रे/श्व/राः ।
लो/का/नां/ सं/क्ष/याच्/चै/व/, क्ष/यं/ यान्/ति/ न/ सं/श/यः ॥ 

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अनुष्टुप छंद की व्याख्या करता श्लोक :-

श्लोके षष्ठं गुरुर्ज्ञेयं सर्वत्र लघु पञ्चमम् ।
द्विचतुः पादयोर्ह्रस्वं सप्तमं दीर्घमन्ययोः ॥

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अनुष्टुप छंद की सरल व्याख्या / परिभाषा

अनुष्टुप  छन्द
समवृत्त / वर्णिक छन्द
चार पद / चरण
प्रत्येक चरण में आठ वर्ण / अक्षर
पहले और तीसरे चरण में :-
पाँचवा अक्षर लघु
छठा और सातवाँ अक्षर गुरु
दूसरे और चौथे चरण में :-
पाँचवा अक्षर लघु
छठा अक्षर गुरु
सातवाँ अक्षर लघु

या इसे यूँ भी कह सकते हैं:- 
प्रत्येक चरण का ५ वाँ अक्षर लघु, ६ ठा अक्षर गुरु
पहले और तीसरे चरण का ७ वाँ अक्षर गुरु
दूसरे और चौथे चरण का ७ वाँ अक्षर लघु

पहले और तीसरे चरण के पांचवे, छठे और सातवे अक्षर - ल ला ला 
दुसरे और चौथे चरण के पांचवे, छठे और सातवे अक्षर - ल ला ल


चूंकि अनुष्टुप छन्द अधिकतर संस्कृत में ही लिखा गया है, इसलिए तुकांत के बारे में विधान स्वरुप कुछ लिखा हुआ नहीं है| हिंदी में लिखते वक़्त तुकांत यथासंभव लेना श्रेयस्कर है| बहुत से लोगों को इस छंद को रबर छंद का नाम देते सुना तो मन में आया क्यूँ न इस का फिर से अध्ययन किया जाए, और तब पता चला कि हलंत / विसर्ग वगैरह की वज़ह से लोग इसे रबर छंद समझ बैठते हैं - जबकि ये बाक़ायदा वर्ण के अनुसार एक विधिवत छंद है| श्री मद्भगवद्गीता, श्री भागवत, वेद, पुराण, वाल्मीकि रामायण के अतिरिक्त बहुत से स्तोत्र / कवच / अष्टक / स्तुति आदि  इस छंद में ही हैं|



छंद शास्त्र के अनुसार उपरोक्त परिभाषा उपलब्ध है। इस के अनुसार जब मैंने इस छंद पर लिखना शुरू किया तो पाया कि एक नियम और भी या तो है, या फिर होना चाहिए। मैंने हिंदी में अनुष्टुप छन्द लिखते वक़्त महसूस किया कि यदि इस के गाते हुए बोलने की मूल धुन को सहज स्वरुप में जीवित रखना है, तो हर पद का आख़िरी अक्षर भी गुरु /  दीर्घ होना चाहिए| जैसे कि ऊपर 'धर्म क्षेत्रे' वाले छन्द के चौथे पद के अंत के शब्द 'संजय' के अंतिम अक्षर 'य' को बोलते हुए इस 'य' को अतिरिक्त भार देना पड़ता है, यथा - संज-य| ठीक ऐसे ही 'युयुत्सव' बोला जाता है - युयुत्स-व| चूँकि हिंदी में हमें इस तरह बोलने / पढने की आदत नहीं होती, इसलिए मैंने अंतिम अक्षर गुरु लेने का निर्णय लिया है| यदि अन्य व्यक्तियों को भी यह सही लगे तो वह भी ऐसा कर सकते हैं| मैं समझता हूँ हलंत, विसर्ग बनाने या द्विकल [लघु] शब्दों को दीर्घ समान बोलने की बजाय गुरु लेना अधिक श्रेयस्कर है। हाँ यदि उस अंतिम अक्षर को लघु ले कर गुरु समान बोला जाये तो भी सही है, ये होता आया है; परंतु भावी संदर्भों को देखते हुए मुझे तो अब उस अंतिम अक्षर को गुरु की तरह लेना ही सही लग रहा है।

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आदरणीय विद्वतजन 
मैंने अपने मन की बात रखी है, यदि आप भी कोई बात साझा करना चाहते हैं, तो ऐसा करने की कृपा अवश्य करें|
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विकिपीडिया से 
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वाल्मीकि रामायण महाकाव्य की रचना करने के पश्चात आदिकवि कहलाए परन्तु वे एक आदिवासी समुदाय के व्यक्ति थे, वे कोई ब्राह्मण नहीं थे, एक बार महर्षि वाल्मीक एक क्रौंच पक्षी के जोड़े को निहार रहे थे। वह जोड़ा प्रेमालाप में लीन था, तभी उन्होंने देखा कि एक बहेलिये ने कामरत क्रौंच (सारस) पक्षी के जोड़े में से नर पक्षी का वध कर दिया और मादा पक्षी विलाप करने लगी। उसके इस विलाप को सुन कर महर्षि की करुणा जाग उठी और द्रवित अवस्था में उनके मुख से स्वतः ही यह श्लोक फूट पड़ा।
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्॥'
((निषाद)अरे बहेलिये, (यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्) तूने काममोहित मैथुनरत क्रौंच पक्षी को मारा है। जा तुझे कभी भी प्रतिष्ठा की प्राप्ति नहीं (मा प्रतिष्ठा त्वगमः) हो पायेगी)
उपरोक्त छंद अनुष्टुप छंद है