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कुछ भी नहीं है बाकी बाज़ार चल रहा है - सालिम सलीम



कुछ भी नहीं है बाकी बाज़ार चल रहा है
ये कारोबारे-दुनिया बेकार चल रहा है

वो जो ज़मीं पे कब से एक पाँव पे खड़ा था
सुनते हैं आसमाँ के उस पार चल रहा है

कुछ मुज़्महिल सा मैं भी रहता हूँ अपने अन्दर
वो भी कई दिनों से बीमार चल रहा है

शोरीदगी हमारी ऐसे तो कम न होगी
देखो वो हो के कितना तैयार चल रहा है

तुम आओ तो कुछ उस की मिट्टी इधर-उधर हो
अब तक तो दिल का रसता हमवार चल रहा है

मुज़्महिल – थका-माँदा, शोरीदगी – जुनून,  हमवार – सपाट, सीधा, चिकना, बिना ऊबड़-खाबड़ वाला

सालिम सलीम
9540601028



बहरे मज़ारिअ मुसम्मन मक्फ़ूफ़ मक्फ़ूफ़
मुख़न्नक मक़्सूर
मफ़ऊलु फ़ाइलातुन मफ़ऊलु फ़ाइलातुन
221 2122 221 2122


दालान में कभी-कभी छत पर खड़ा हूँ मैं - सालिम सलीम

दालान में कभी-कभी छत पर खड़ा हूँ मैं
सायों के इंतिज़ार में शब भर खड़ा हूँ मैं

क्या हो गया कि बैठ गयी ख़ाक भी मेरी
क्या बात है कि अपने ही ऊपर खड़ा हूँ मैं

फैला हुआ है सामने सहरा-ए-बेकनार
आँखों में अपनी ले के समुन्दर खड़ा हूँ मैं
सहरा – रेगिस्तान, कनार – [समुद्र का] किनारा

सन्नाटा मेरे चारों तरफ़ है बिछा हुआ
बस दिल की धड़कनों को पकड़ कर खड़ा हूँ मैं

सोया हुआ है मुझ में कोई शख़्स आज रात
लगता है अपने जिस्म से बाहर खड़ा हूँ मैं

इक हाथ में है आईना-ए-ज़ात-ओ-कायनात
इक हाथ में लिये हुये पत्थर खड़ा हूँ मैं 


बहरे मज़ारिअ मुसमन अख़रब मकफूफ़ मकफूफ़ महज़ूफ़
मफ़ऊलु फ़ाइलातु  मुफ़ाईलु फ़ाइलुन

 221 2121 1221 212