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चार ग़ज़लें - अजीत शर्मा 'आकाश'

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ये तय है कि जलने से न बच पाओगे तुम भी ।
शोलों को हवा दोगे, तो पछताओगे तुम भी ।

पत्थर की तरह लोग ज़माने में मिलेंगे
शीशे की तरह टूट के रह जाओगे तुम भी ।

बाज़ार में ईमान को तुम बेच तो आये
आईना जो देखोगे तो शरमाओगे तुम भी ।

मंज़िल की तरफ़ शाम ढले चल तो पड़े हो
रस्ता वो ख़तरनाक है, लुट जाओगे तुम भी ।

रावण की तरह हश्र न हो जाए तुम्हारा
सीता को छलोगे तो सज़ा पाओगे तुम भी ।

बहरे हजज़ मुसमन अख़रब
मक्फ़ूफ मक्फ़ूफ मक्फ़ूफ महज़ूफ़
मफ़ऊलु मुफ़ाईलु मुफ़ाईलु फ़ऊलुन
221 1221 1221 122

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बाग़ों की रौनक़ ख़तरे में, हरियाली ख़तरे में है ।
कुछ तो सोचो, पेड़ों की डाली-डाली ख़तरे में है ।

जाने कैसे दिन आयें, अब जाने कैसा दौर आये
कहते हैं अख़बार वतन की खुशहाली ख़तरे में है ।

धीरे-धीरे जाग रही है मुद्दत से सोयी जनता
तुमने धोखे से जो सत्ता हथिया ली, ख़तरे में है ।

लाखों नंगे-भूखों से अपने भोजन की रक्षा कर
चांदी की चम्मच और सोने की थाली ख़तरे में है ।

मज़हब के मारों से हमको बचकर रहना है आकाश
ख़तरे में है ईद-मुहर्रम, दीवाली ख़तरे में है ।

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आंखों का हर ख़्वाब सुनहरा तेरे नाम ।
अब जीवन का लमहा-लमहा तेरे नाम ।

मुरझायी पंखुड़ियां मेरा सरमाया
ताज़ा फूलों का गुलदस्ता तेरे नाम ।

गहरे अंधेरे मुझको रास आ जायेंगे
जुगनू, तारे, सूरज-चन्दा तेरे नाम ।

तेरे होठों की सुर्ख़ी बढ़ती जाए
मेरे ख़ूं का क़तरा-क़तरा तेरे नाम ।

ख़ारों पे मेरा हक़ क़ायम रहने दे
पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा तेरे नाम ।

*****

मन्दिरों में, मस्जिदों में पायी जाती है अफ़ीम ।
आदमी का ख़ून सड़कों पर बहाती है अफ़ीम ।

राम मन्दिर जानती है, या कि मस्जिद बाबरी
आदमी का मोल कब पहचान पाती है अफ़ीम ।

आपसी सद्भाव जलकर ख़ाक हो जाता है दोस्त
आग नफ़रत की हरेक जानिब लगाती है है अफ़ीम ।

धर्म, ईश्वर के अलावा और कुछ दिखता नहीं
यों दिमाग़ो-दिल पे इन्सानों के छाती है अफ़ीम ।

बिछ गयी लाशें ही लाशें, शहर ख़ूं से धुल गया
फिर भी कहते हो कि इक अनमोल थाती है अफ़ीम ।

है कोई सच्चा मुसलमां, और कोई रामभक्त
देखिये आकाशक्या-क्या गुल खिलाती है अफ़ीम ।

बहरे रमल मुसम्मन महज़ूफ़
फ़ाइलातुन  फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
2122 2122 2122 212


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अजीत शर्मा 'आकाश' 
098380 78756

शम्म कुछ पल झिलमिलायी झिलमिला कर बुझ गयी - नवीन

शम्म कुछ पल झिलमिलायी झिलमिला कर बुझ गयी ।
ज़िन्दगानी मुस्कुरायी मुस्कुरा कर बुझ गयी ॥

माँ तुम्हारी शान में गर यह नहीं तो क्या कहें।
एक शख़्सीयत१ हमें जलना सिखा कर बुझ गयी॥

हम ने भी चाहा कि दुनिया को बदल देंगे मगर।
इक तमन्ना थी जो दिल में लौ लगा कर बुझ गयी॥

मुफ़लिसी२ की जोत हाये तूने ये क्या कर दिया।
क्यों अमीरे-शह्र३ की बातों में आ कर बुझ गयी॥

हम ने गंगा-घाट पर देखा ये नज़्ज़ारा ‘नवीन’।
तेज़-लौ पत्तल के दोने को जला कर बुझ गयी॥

१ व्यक्तित्व, किरदार २ ग़रीबी ३ नगरसेठ, धन दौलत वाला

नवीन सी. चतुर्वेदी
बहरे रमल मुसम्मन महज़ूफ़
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मन मुताबिक़ इस तरह कुछ भी नहीं कहते ‘नवीन’

मन मुताबिक़ इस तरह कुछ भी नहीं कहते ‘नवीन’।
पोर भर की डोर को रस्सी नहीं कहते ‘नवीन’॥
हास और परिहास बढ कर बन रहा है अट्टहास ।
इस विनाशक तत्व को मस्ती नहीं कहते ‘नवीन’॥
इस लिये ही तो हमारी बेटियाँ खतरे में हैं।
छेड़ने वालों को हम कुछ भी नहीं कहते ‘नवीन’॥
किस तरह कोई करेगा इस ज़माने का इलाज।
लोग बीमारी को बीमारी नहीं कहते ‘नवीन’॥
हम वली* हैं हम कलन्दर कोई हम जैसा नहीं ।
और सब कहते हैं बस तुम ही नहीं कहते ‘नवीन’॥
*
महान सन्त
अब तखल्लुस* में तुम अपना नाम जड़ना छोड़ दो।
दूसरे की शर्ट को अपनी नहीं कहते ‘नवीन’॥
*
शायर का उपनाम / छप्प

नवीन सी. चतुर्वेदी
बहरे रमल मुसम्मन महज़ूफ़
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आ गये आगोश में कुछ देर शर्माने के बाद - नवीन

आ गये आगोश में कुछ देर शर्माने के बाद।
रहमतें बरसा रहे हैं कह्र बरपाने के बाद॥
इश्क़ ने आख़िर अँधेरों को दरस दिखला दिया।
रोज़ शम्एँ जल रही हैं शाम ढल जाने के बाद॥
गर समन्दर की नज़र से देखिये तो जानिये।
किर्चियों में बँट गया है चाँद बह जाने के बाद॥
हाय उन लमहात की नादानियों को क्या कहें।
कुछ नज़र आता नहीं जब कुछ नज़र आने के बाद॥
उफ़ वो होठों पर सजे बोसों की झीनी बारिशें।
तर-ब-तर कर के हमें अश्क़ों से नहलाने के बाद॥
यक-ब-यक रुकना हमारे हाथ में है ही नहीं।
यक-ब-यक मोती रुकें कैसे बिखर जाने के बाद॥
तब कहीं कुछ-कुछ ख़ज़ानों के इशारे खुल सके।
दूजा तहखाना खुला जब पहले तहखाने के बाद॥
तब तो शायद ही कोई सच के क़सीदे काढ़ता।
भूख मिट जाती अगर झूठी क़सम खाने के बाद ॥
और कब तक किस के सर से अपने सर को फोड़िये।
जब सिराना हो चुका मशहूर सिरहाने के बाद॥
क्या पता कल आप ख़ुद परवाना बन जायें ‘नवीन’।
और दिया बन जायँ हम जल-जल के मर जाने के बाद॥

नवीन सी. चतुर्वेदी

बहरे रमल मुसम्मन महज़ूफ़
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फिर विचारों पर सियासी रंग गहराने लगे, - अशोक रावत

फिर विचारों पर सियासी रंग गहराने लगे,
फिर छतों पर लाल-पीले ध्व ज नज़र आने लगे.

रंग पिछले इश्तलहारों के अभी उतरे नहीं,
फिर फ़सीलों पर नये नारे लिखे जाने लगे.

अंत में ख़ामोश होकर रह गए अख़बार भी,
साजि़शों में रहबरों के नाम जब आने लगे.

आज अपनी ही गली में से गुज़रते डर लगा,
आज अपने ही शहर के लोग अनजाने लगे.

जान पाए तब ही कोई पास में मारा गया,
जब पुलिसवाले उठाकर लाश ले जाने लगे.

हो गईं वीरान सड़कें और कर्फ़्यू लग गया,
फिर शहर के आसमॉं पर गिद्ध मॅंडराने लगे.

अशोक रावत

बारहा निकला मैं इस रस्ते से, बस ठहरा न था - इस्मत ज़ैदी शेफ़ा

बारहा निकला मैं इस रस्ते से, बस ठहरा न था
सच ये है कि आप ने भी तो कभी रोका न था

उन की कोशिश राएगाँ हो जाएगी सोचा न था
मैं कहीं अंदर से टूटा तो मगर बिखरा न था

मुन्तज़िर रहती ज़मीं कब तक, बिल-आख़िर फट गई
बादलों का एक भी टुकड़ा यहाँ बरसा न था

उस के फूलों के एवज़, मैं ने उसे काँटे दिये
पूरा सच हो या न हो , इल्ज़ाम ये झूठा न था

मैं गुलिस्तानों के गुल बूटों से वाबस्ता रहा
ख़ार ओ ख़स से भी मगर रिश्ता मेरा टूटा न था

हम सवाल ए ज़ीस्त सुलझाने की कोशिश में रहे
मस’अला ये इस क़दर उलझा कि फिर सुलझा न था

ऐ ’ शेफ़ा’ क्योंकर ये फ़र्क़ आया इबादतगाह में

ये जगह वो थी जहाँ कोई बड़ा - छोटा न था

इस्मत ज़ैदी 'शेफ़ा'

दौरिबे बारेन के पिछबाड़ें दुलत्ती दै दई - नवीन

दौरिबे बारेन के  पिछबाड़ें दुलत्ती दै दई
रेंगबे बारेन कूँ मैराथन की ट्रॉफ़ी दै दई

बोट तौ दै आये हम पे लग रह्यौ ऐ ऐसौ कछ
देबतन नें जैसें महिसासुर कूँ बेटी दै दई

मैंने म्हों जा ताईं खोल्यौ ताकि पीड़ा कह सकूँ
बा री दुनिया तैनें मो कूँ फिर सूँ रोटी दै दई

सब कूँ ऊपर बारौ फल-बल  सोच कें ई देतु ऐ
मन्मथन कूँ मन दये मस्तन कूँ मस्ती दै दई

जन्म लीनौ जा कुआँ में बाई में मर जाते हम
सुक्रिया ऐ दोस्त जो हाथन में रस्सी दै दई

[भाषा धर्म के अधिकतम निकट रहते हुये उपरोक्त गजल का भावार्थ]

दै दई - दे दी, बारेन कों - वालों को 

दौड़ने वालों के पिछवाड़े दुलत्ती दै दई
रेंगने वालों को मैराथन की ट्रॉफ़ी दै दई

जैसे ही पेटी में डाला वोट – कुछ ऐसा लगा
देवता लोगों ने  महिसासुर को बेटी दै दई

इसलिये मुँह खोला मैं ने ताकि पीड़ा कह सकूँ
वा[ह] री दुनिया तू ने मुझ को फिर से रोटी दै दई

सब को ऊपर वाला फल-बल  बख़्शता है सोच कर
मन्मथों को मन दये मस्तों को मस्ती दै दई

तन धरा था जिस कुएँ मैं उस में ही मर जाते हम

शुक्रिया ऐ दोस्त जो हाथों में रस्सी दै दई

:- नवीन सी. चतुर्वेदी

बहरे रमल मुसम्मन महज़ूफ़ 
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खसबुअन के बासतें खुद धूप गूगर ह्वै गए- नवीन

नया काम
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खसबुअन के बासतें खुद धूप गूगर ह्वै गए।
देख दुनिया हम हू अब तेरे बरब्बर ह्वै गए॥

अब न कोऊ चौंतरा लीपै न छींके टाँगत्वै।
कैसे-कैसे घर हते, सब ईंट-पत्थर ह्वै गए॥

एक बेरी साँच में घनश्याम नें बोल्यौ हो झूठ।
तब सों ही ऊधौ हमारे द्रग समन्दर ह्वै गए॥

जैसें तैसें आदमीयत कौ हुनर सीख्यौ मगर।
बन्दरन के राज में हम फिर सूँ बन्दर ह्वै गए॥

ऐसी अदभुत बागबानी कौन सों सीखे 'नवीन'।
ऐसे-ऐसे गुल खिलाए खेत बंजर ह्वै गए॥









लोमड़िन के राज में हम फिर सूँ बन्दर ह्वै गए
ऐसे-ऐसे गुल खिलाए खेत ऊसर ह्वै गए

अब न कोऊ चौंतरा लीपै न छींके टाँगत्वै
कैसे-कैसे घर हतेसब ईंट-पत्थर ह्वै गए

जो हते जल्दी में बे सगरे तो बन बैठे कपूर
जो ठहरनौ चाहुंत्वे बे धूप-गूगर ह्वै गए

लोग खुद सूँ आमें, खामें फिर हमें गरियातु ऊ एँ
देख दुनिया हम हू अब तेरे बरब्बर ह्वै गए

एक बेरी साँच में घनश्याम नें बोल्यौ हो झूठ
तब सूँ ही ऊधौ हमारे द्रग समन्दर ह्वै गए








लोमड़िन के राज में हम फिर से बन्दर हो गए
ऐसे-ऐसे गुल खिलाए खेत ऊसर हो गए

अब न कोई चौंतरा [चबूतरा] लीपे न छींका ही धरे
कैसे-कैसे घर थे सारे ईंट-पत्थर हो गए

जो जो थे जल्दी में वो सारे तो बन बैठे कपूर
और ठहरना था जिन्हें वे धूप-गूगर हो गए

लोग ख़ुद आते हैं खा कर कोसते भी हमें
देख दुनिया हम भी अब तेरे बराबर हो गए

सच में बस एक बार ही घनश्याम ने बोला था झूठ

तब ही से ऊधौ हमारे द्रग समन्दर हो गए

:- नवीन सी. चतुर्वेदी

बहरे रमल मुसम्मन महज़ूफ़ 
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2122 2122 2122 212 

चैत की गरमी में सावन की घटाएँ ढूँढना - नवीन

चैत की गरमी में सावन की घटाएँ ढूँढना
उफ़ ये पागलपन हसीनों में वफ़ाएँ ढूँढना

इस को नादानी कहूँ या फिर मेरी दीवानगी
ज़र्रे-ज़र्रे में मुहब्बत की अदाएँ ढूँढना

इस से बढ़कर और क्या होगी मुहब्बत की मिसाल
उस की नासमझी में भी अपनी ख़ताएँ ढूँढना

वह्म चुक जाते हैं तब जा कर उभरते हैं यक़ीन
इब्तिदाएँ चाहिये तो इन्तिहाएँ ढूँढना

शायरी का इल्म आ जाये तो फिर उस में 'नवीन'
बाइबिल - क़ुरआन - वेदों की ऋचाएँ ढूँढना

बहरे रमल मुसम्मन महजूफ़
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:- नवीन सी. चतुर्वेदी 

जो समंदर है, उसे दरिया समझ बैठे थे हम - नवीन

मुहतरम फ़िराक़ गोरखपुरी साहब की ज़मीन “कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हम” पर एक कोशिश

होश में थे फिर भी जाने क्या समझ बैठे थे हम । 
बादलों को नूर का चेहरा समझ बैठे थे हम ।। 

किस के सर पर ठीकरा फोड़ें अब इस भटकाव का । 
दूर की हर चीज़ को आला समझ बैठे थे हम ।। 

हाल ये होना ही था तालीम और तहज़ीब का । 
लग्ज़िशों को रक़्स का हिस्सा समझ बैठे थे हम ।। 

जिस में कुछ अच्छा दिखा उस के क़सीदे पढ़ दिये । 
एरे-गैरों को भी अल्लामा समझ बैठे थे हम ।। 

जो भी कुछ सामान है तन में समाता है ‘नवीन’ । 
जो समंदर है, उसे दरिया समझ बैठे थे हम ।। 

तालीम – शिक्षातहज़ीब – संस्कारलग्जिश – फिसलना / रपटना , रक़्स – नृत्य, क़सीदे – गुणगानअल्लामा – [बड़ा] विद्वान,

:- नवीन सी. चतुर्वेदी

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बहरे रमल मुसमन महजूफ

दो ग़ज़लें - वीनस केसरी

उलझनों में गुम हुआ फिरता है दर-दर आइना ।
झूठ को लेकिन लगे है अब भी ख़ंजर आइना ।।

शाम तक खुद को सलामत पा के अब हैरान है।
पत्थरों के शह्र में घूमा था दिन भर आइना ।।

ग़मज़दा हैं, ख़ौफ़ में हैं, हुस्न की सब देवियाँ।

जिस के दिल में प्यार है, सीना उसी का चाक है - नवीन


जिसके दिल में प्यार है, सीना उसी का चाक है।
वरना तो माहौल काफ़ी ख़ुशगवार-ओ-पाक है॥


हमने अपने पाँव से काँटा निकाला है फ़क़त।
राह रुसवा हो गई, ये बात हैरतनाक है॥


सौ थपेड़े झेल कर भी बढ़ रहा है दम-ब-दम।
आदमी बहरे-फ़ना का अव्वली तैराक है॥


शौक़ से फिर छेड़ देना जंग लेकिन एक बार।
देख तो लें घर में कितने रोज़ की ख़ूराक है॥


क़ायदा बनने से पहले तोड़ना तय हो गया।
सारा सब तो दिख रहा है कैसी ये पोशाक है॥