हमेशा
सच
को सच कहा
झूठ
को झूठ
रहा
जहां भी
पूरा
रहा
नहीं
होना था जहां
नहीं
रहा कभी भी.
कोशिश
की निभाने की
जीवन
से
और
रिश्तों से भी
नहीं
रहा अबूझा
जीवन
और रिश्तों में कहीं भी,कभी भी.
सहन
शक्ति में
पूरे
का पूरा गांव था
गांव
में किसान
खेतों
में फसल बन जिया
बैलों
की तरह सौंपता रहा कंधा
हांकते
रहे किसिम किसिम के हलवाहे .
जल
को जल कहा
लोगों
नें मछली सुना
आग
और सूर्य को समझा जीवन स्रोत
लोग
तापते रहे ईंधन की तरह
नींद
और अंधेरों में इंतज़ार किया
सुबह
का. ( जो अभी तक नहीं आई )
जानते
पहचानते हुए भी
चुप
रहा हर बार
लोगों
नें कमजोरी समझी
और
मैंनें शालीनता पर गर्व किया
हारा
ग़ैरों से नहीं
अपनों
नें हराया बार बार .
यही
सब करते करते
जीया
अबतक तमाम उम्र
सोचता
हूँ कि
बीत
जायें और शेष कुछ वर्ष
इसी
तरह यूं हीं
अच्छे, भले,
बुरों में।
( 69वें जन्मदिन की पूर्व संध्या पर )
17
-09-2020
: हृदयेश
मयंक
सम्पादक
– चिंतन दिशा
मुम्बई
के सम्माननीय वरिष्ठ साहित्यकार