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ज्योति कलश छलके - पण्डित नरेन्द्र शर्मा

ज्योति कलश छलके 
हुए गुलाबी, लाल सुनहरे
रँग दल बादल के
ज्योति कलश छलके

घर आँगन वन उपवन-उपवन
करती ज्योति अमृत के सिञ्चन
मङ्गल घट ढल के 
ज्योति कलश छलके

पात-पात बिरवा हरियाला
धरती का मुख हुआ उजाला
सच सपने कल के 
ज्योति कलश छलके

ऊषा ने आँचल फैलाया
फैली सुख की शीतल छाया
नीचे आँचल के
ज्योति कलश छलके

ज्योति यशोदा धरती मैय्या
नील गगन गोपाल कन्हैय्या
श्यामल छवि झलके 
ज्योति कलश छलके

अम्बर कुमकुम कण बरसाये
फूल पँखुड़ियों पर मुस्काये
बिन्दु तुहिन जल के 
ज्योति कलश छलके


पण्डित नरेन्द्र शर्मा
1913-1989

सम्पर्क - आप की सुपुत्री आ. लावण्या शाह

गङ्गा बहती हो क्यूँ - नरेन्द्र शर्मा

विस्तार है अपार.. प्रजा दोनो पार.. करे हाहाकार...
निशब्द सदा ,ओ गङ्गा तुम, बहती हो क्यूँ ?

नैतिकता नष्ट हुई, मानवता भ्रष्ट हुई,
निर्लज्ज भाव से , बहती हो क्यूँ ?


इतिहास की पुकार, करे हुङ्कार,
ओ गङ्गा की धार, निर्बल जन को, सबल सङ्ग्रामी,
गमग्रोग्रामी,
बनाती नहीँ हो क्यूँ ?


विस्तार है अपार ..प्रजा दोनो पार..करे हाहाकार ...
निशब्द सदा ,ओ गङ्गा तुम, बहती हो क्यूँ ?
नैतिकता नष्ट हुई, मानवता भ्रष्ट हुई,
निर्ल्लज्ज भाव से , बहती हो क्यूँ ?


अनपढ जन, अक्षरहीन, अनगिन जन,
अज्ञ विहिन नेत्र विहिन दिक` मौन हो क्यूँ ?
व्यक्ति रहे , व्यक्ति केन्द्रित, सकल समाज,
व्यक्तित्व रहित, निष्प्राण समाज को तोड़ती नहीं हो क्यूँ ?
ओ गङ्गा की धार, निर्बल जन को, सबल सङ्ग्रामी,
गमग्रोग्रामी,बनाती नहीं हो क्यूँ ?


विस्तार है अपार ..प्रजा दोनो पार..करे हाहाकार ...
निशब्द सदा ,ओ गङ्गा तुम, बहती हो क्यूँ ?


पण्डित नरेन्द्र शर्मा
1913-1989

सम्पर्क - आप की सुपुत्री आ. लावण्या शाह

आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेङ्गे - पण्डित नरेन्द्र शर्मा

आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेङ्गे ?
आज से दो प्रेम योगीअब वियोगी ही रहेङ्गे!
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेङ्गे ?

सत्य हो यदिकल्प की भी कल्पना करधीर बांधूँ,
किन्तु कैसे व्यर्थ की आशा लियेयह योग साधूँ!
जानता हूँअब न हम तुम मिल सकेङ्गे!
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेङ्गे ?

आयेगा मधुमास फिर भीआयेगी श्यामल घटा घिर,
आँख भर कर देख लो अबमैं न आऊँगा कभी फिर!
प्राण तन से बिछुड़ कर कैसे रहेङ्गे!
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेङ्गे ?

अब न रोनाव्यर्थ होगाहर घड़ी आँसू बहाना,
आज से अपने वियोगीहृदय को हँसना-सिखाना,
अब न हँसने के लियेहम तुम मिलेङ्गे !
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेङ्गे ?

आज से हम तुम गिनेङ्गे एक ही नभ के सितारे
दूर होङ्गे पर सदा कोज्यों नदी के दो किनारे
सिन्धुतट पर भी न दो जो मिल सकेङ्गे!
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेङ्गे ?

तट नदी केभग्न उर केदो विभागों के सदृश हैं,
चीर जिनकोविश्व की गति बह रही हैवे विवश है!
आज अथ-इति पर न पथ मेंमिल सकेङ्गे!
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेङ्गे ?

यदि मुझे उस पार का भी मिलन का विश्वास होता,
सच कहूँगामैं नहीं असहाय या निरुपाय होता,
किन्तु क्या अब स्वप्न में भी मिल सकेङ्गे?
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेङ्गे ?

आज तक किस का हुआ सच स्वप्नजिसने स्वप्न देखा?
कल्पना के मृदुल कर से मिटी किसकी भाग्यरेखा?
अब कहाँ सम्भव कि हम फिर मिल सकेङ्गे!
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेङ्गे ?

आह! अन्तिम रात वहबैठी रहीं तुम पास मेरे,
शीश काँधे पर धरेघन कुन्तलों से गात घेरे,
क्षीण स्वर में था कहा, "अब कब मिलेङ्गे ?"
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेङ्गे ?

"कब मिलेङ्गे "पूछ्ता मैंविश्व से जब विरह कातर,
"कब मिलेङ्गे "गूँजते प्रतिध्वनि-निनादित व्योम सागर,
"कब मिलेङ्गे " - प्रश्न ; उत्तर  - "कब मिलेङ्गे "!
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेङ्गे ?


पण्डित नरेन्द्र शर्मा 
1913-1989
सम्पर्क - आप की सुपुत्री आ. लावण्या शाह 

जय जयति भारत भारती - पण्डित नरेन्द्र शर्मा

जय जयति भारत भारती!
अकलङ्क श्वेत सरोज पर वह
ज्योति देह विराजती!

नभ नील वीणा स्वरमयी
रविचन्द्र दो ज्योतिर्कलश
है गूँज गङ्गा ज्ञान की
अनुगूँज में शाश्वत सुयश
हर बार हर झङ्कार में
आलोक नृत्य निखारती
जय जयति भारत भारती!

हो देश की भू उर्वरा
हर शब्द ज्योतिर्कण बने
वरदान दो माँ भारती
जो अग्नि भी चन्दन बने
शत नयन दीपक बाल
भारत भूमि करती आरती
जय जयति भारत भारती!


पण्डित नरेन्द्र शर्मा
1913-1989

सम्पर्क - आप की सुपुत्री आ. लावण्या शाह

हर लिया क्यों शैशव नादान - पण्डित नरेन्द्र शर्मा

शुद्ध सलिल सा मेरा जीवन,
दुग्ध फेन-सा था अमूल्य मन,

तृष्णा का सन्सार नहीं था,
उर रहस्य का भार नहीं था,
स्नेह-सखा था, नन्दन कानन
था क्रीडास्थल मेरा पावन;
भोलापन भूषण आनन का
इन्दु वही जीवन-प्राङ्गण का
हाय! कहाँ वह लीन हो गया
विधु मेरा छविमान?
हर लिया क्यों शैशव नादान?


निर्झर-सा स्वछन्द विहग-सा,
शुभ्र शरद के स्वच्छ दिवस-सा,
अधरों पर स्वप्निल-सस्मित-सा,
हिम पर क्रीड़ित स्वर्ण-रश्मि-सा,
मेरा शैशव! मधुर बालपन!
बादल-सा मृदु-मन कोमल-तन।
हा अप्राप्य-धन! स्वर्ग-स्वर्ण-कन
कौन ले गया नल-पट खग बन?
कहाँ अलक्षित लोक बसाया?
किस नभ में अनजान!
हर लिया क्यों शैशव नादान?


जग में जब अस्तित्व नहीं था,
जीवन जब था मलयानिल-सा
अति लघु पुष्प, वायु पर, पर-सा,
स्वार्थ-रहित के अरमानों-सा,
चिन्ता-द्वेष-रहित-वन-पशु-सा
ज्ञान-शून्य क्रीड़ामय मन था,
स्वर्गिक, स्वप्निल जीवन-क्रीड़ा
छीन ले गया दे उर-पीड़ा
कपटी कनक-काम-मृग बन कर
किस मग हा! अनजान?
हर लिया क्यों शैशव नादान?


पण्डित नरेन्द्र शर्मा
1913-1989

सम्पर्क - आप की सुपुत्री आ. लावण्या शाह

भरे जङ्गल के बीचोंबीच - पण्डित नरेन्द्र शर्मा

भरे जङ्गल के बीचों-बीच, 

न कोई आया गया जहाँ,

चलो हम दोनों चलें वहाँ।

जहाँ दिन भर महुआ पर झूल, 
रात को चू पड़ते हैं फूल,
बाँस के झुरमुट में चुपचाप, 
जहाँ सोये नदियों के कूल;
  
हरे जङ्गल के बीचों-बीच,
न कोई आया गया जहाँ,
चलो हम दोनों चलें वहाँ।
विहग-मृग का ही जहाँ निवास, 
जहाँ अपने धरती आकाश,
प्रकृति का हो हर कोई दास,
न हो पर इसका कुछ आभास,
  
खरे जङ्गल के के बीचो बीच, 
न कोई आया गया जहाँ,
चलो हम दोनों चलें वहाँ।


पण्डित नरेन्द्र शर्मा 
1913-1989
सम्पर्क - आप की सुपुत्री आ. लावण्या शाह 

मधु के दिन मेरे गए बीत - पण्डित नरेन्द्र शर्मा

मधु के दिन मेरे गए बीत!

मैँने भी मधु के गीत रचे,
मेरे मन की मधुशाला मेँ
यदि होँ मेरे कुछ गीत बचे,
तो उन गीतोँ के कारण ही,
कुछ और निभा ले प्रीत-रीत!
मधु के दिन मेरे गए बीत!


मधु कहाँ, यहाँ गङ्गा-जल है!
प्रभु के चरणोँ मे रखने को,
जीवन का पका हुआ फल है!
मन हार चुका मधुसदन को,
मैँ भूल चुका मधु-भरे गीत!
मधु के दिन मेरे गए बीत!


वह गुपचुप प्रेम-भरीँ बातेँ,
यह मुरझाया मन भूल चुका
वन-कुञ्जोँ की गुञ्जित रातेँ 
मधु-कलषोँ के छलकाने की
हो गई , मधुर-बेला व्यतीत!
मधु के दिन मेरे गए बीत!

पण्डित नरेन्द्र शर्मा
1913-1989

सम्पर्क - आप की सुपुत्री आ. लावण्या शाह