प्रणाम!
विगत दो वर्षों से साहित्यम का नियमत अद्यतन नहीं हो पा रहा। अंक के स्तर पर काम
करने के लिये जिन तत्वों की आवश्यकता होती है वह सम्भव या समेकित [consolidated / Integrated] नहीं हो पा रहे। यदा-कदा रचनाधर्मी भी
अद्यतन के विषय में पूछताछ करते रहते हैं। बड़ी ही विचित्र स्थिति है। मन में विचार
आ रहा है कि कुछ मित्रों के सुझाव व आग्रह पर आरम्भ किये गये मासिक / त्रैमासिक अंक-स्वरूप
को तजते हुए पहले के जब-तब-टाइप-सिस्टम पर वापस लौट चलें J मतलब जब समय उपलब्ध रहे तब वेब-पोर्टल को अपडेट कर दिया जाये। शायद वही ठीक रहेगा।
आइये, भाई मयंक अवस्थी जी की एक शानदार ग़ज़ल पढ़ते हैं।
सादर
बाल उलझे हुये दाढी भी बढाई हुई है
तेरे चेहरे पे घटा हिज्र की छाई हुई है
जैसे आँखों से कोई अश्क़ ढलकता जाये
तेरे कूचे से यूँ आशिक की विदाई हुई है
मैं बगूला था, न होता, वही बेहतर होता
मेरे होने ने मुझे धूल चटाई हुई है
ज़लज़ला आये तो इस घर का बिखरना तय है
जिसकी बुनियाद हवाओं ने हिलाई हुई है
उसने आवाज़ छुपाने का हुनर सीख लिया
उसने आवाज़ में आवाज़ मिलाई हुई है
आपकी सुन के ग़ज़ल इल्म हमें होता है
कल जो अपनी थी वही आज पराई हुई है
मुझ से ख़ुदकुश को भी मजबूर करे जीने पर
“एक शै ऐसी मिरी जाँ मे समाई हुई है”
कोई सुलझा न सका इसके मगर पेचोख़म
ज़ुल्फ हस्ती पे अज़ल से तिरी छाई हुई है
मेरी पहचान मिटाई है मेरे अपनो ने
मेरी तस्वीर रकीबों की बनाई हुई है
अब तो तू जैसे नचायेगा मुझे, नाचूँगा
मेरी कश्ती तेरे ग़िर्दाब में आई हुई है
फिर गुले-ज़ख़्म तिरी फस्ल के इम्कान खुले
फिर किसी दिल की तमन्ना से सगाई हुई है
ढूँढ लेती हैं हरिक ऐब मेरी ग़ज़लों में
तेरी आँखों ने मेरी नींद चुराई हुई है
चाँद बस्ती के मकानों पे दिखे है ऐसे
जैसे कन्दील मज़ारों पे लगाई हुई है
:- मयंक अवस्थी ( 8765213905)
बहरे रमल मुसम्मन मख़बून
महज़ूफ़
फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन
फ़ेलुन
2122 1122 1122 22