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कविता - ग्रेविटोन - धर्मेन्द्र कुमार सज्जन



यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है
प्रेम का कण
तभी तो ये दोनों मोड़ देते हैं
दिक्काल के धागों से बुनी चादर
कम कर देते हैं समय की गति

इन्हें कैद करके नहीं रख पातीं
स्थान और समय की विमाएँ
ये रिसते रहते हैं

एक ब्रह्मांड से दूसरे ब्रह्मांड में
ले जाते हैं आकर्षण
उन स्थानों तक
जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती

अब तक किये गये सारे प्रयोग
असफल रहे
इन दोनों का कोई प्रत्यक्ष प्रमाण
खोज पाने में
लेकिन
ब्रह्मांड का कण-कण
इनको महसूस करता है
यकीनन
ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण


धर्मेन्द्र कुमार सज्जन

9418004272 

जहाँ न सोचा था कभी, वहीं दिया दिल खोय - धर्मेन्द्र कुमार 'सज्जन'

जहाँ न सोचा था कभी, वहीं दिया दिल खोय
ज्यों मंदिर के द्वार से, जूता चोरी होय

सिक्के यूँ मत फेंकिए, प्रभु पर हे जजमान
सौ का नोट चढ़ाइए, तब होगा कल्यान

फल, गुड़, मेवा, दूध, घी, गए गटक भगवान
फौरन पत्थर हो गए, माँगा जब वरदान

ताजी रोटी सी लगी, हलवाहे को नार
मक्खन जैसी छोकरी, बोला राजकुमार

संविधान शिव सा हुआ, दे देकर वरदान
राह मोहिनी की तकें, हम किस्से सच मान

जो समाज को श्राप है, गोरी को वरदान
ज्यादा अंग गरीब हैं, थोड़े से धनवान

बेटा बोला बाप से, फर्ज करो निज पूर्ण
सब धन मेरे नाम कर, खाओ कायम चूर्ण

ठंढा बिल्कुल व्यर्थ है, जैसे ठंढा सूप
जुबाँ जले उबला पिए, ऐसा तेरा रूप

:- धर्मेन्द्र कुमार सज्जन
9418004272

पुस्तक समीक्षा - ग़ज़ल कहनी पड़ेगी झुग्गियों पर (‘सज्जन’ धर्मेन्द्र) - ज़हीर कुरैशी

अंजुमन प्रकाशन, इलाहाबाद के साहित्य सुलभ संस्करण की आठ काव्य पुस्तकों के लोकापर्ण के अवसर पर दिनांक 22 फ़रवरी, 2014 को मुख्य अतिथि की आसंदी से ग़ज़लकार ज़हीर कुरेशी (भोपाल) का वक्तव्य और पुस्तक समीक्षा

डॉ अख़्तर नज़्मी का एक शे’र है

बात करती हैं किताबें,
पढ़ने वाला कौन है।

न पढ़ने के कारणों पर जब डॉ. नज़्मी से चर्चा हो रही थी तो शायर ने साहित्य की पुस्तकें मँहगी होने को भी एक कारण गिनाया था।

बड़े प्रकाशकों द्वारा प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह या कहानी की पुस्तक का मुल्य 400-500 रूपए से कम नहीं होता। ऐसे में साहित्य का सच्चा पाठक भी दस बार सोचता है। कई बार वह पुस्तक के अधिक मूल्य के कारण मन मसोस कर रह जाता है।

ऐसे बाजारवादी समय में, अंजुमन प्रकाशन, इलाहाबाद की 112 पृष्ठों की कविता की पुस्तक 20 रूपए में उपलब्ध होना मरुस्थल में शीतल झरने की तरह है। वीनस केसरी के इस प्रयास की जितनी भी सराहना की जाय, उतनी कम है। साहित्य सुलभ संस्करण की 8 पुस्तकों के लोकार्पण के अवसर पर मैं उनको ढेरों बधाइयाँ देता हूँ और विमोचित पुस्तकों पर चर्चा शुरू करता हूँ।

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34 वर्षीय युवा ग़ज़लगो ‘सज्जन’ धर्मेन्द्र का ग़ज़ल संग्रह ‘ग़ज़ल कहनी पड़ेगी झुग्गियों पर’ भी पर्याप्त ध्यानाकर्षण करता है। ‘सज्जन’ धर्मेन्द्र की ग़ज़ल यात्रा कोई बहुत लंबी नहीं है, इस संग्रह की ग़ज़लें वर्ष 2011 से वर्ष 2013 के बीच कही गई हैं। ग़ज़लों में भी परोक्ष रूप से उनके रोल मॉडल ग़ज़लकार दुष्यंत कुमार और अदम गोंडवी हैं। उनके अनेक शे’र पढ़ते हुए अनायास अदम गोंडवी की याद आती है। जैसे

प्रियदर्शिनी करें तो उन्हें राजपाट दें,
रधिया करे निकाह तो दंगा कराइए।

गरीबों के लहू से जो महल अपने बनाता है
वही इस देश में मज़लूम लोगों का विधाता है।

ये मेरे देश की संसद या कोई घर है शीशे का,
जो बच्चों के भी पत्थर मारते ही टूट जाता है।

लेकिन ‘सज्जन’ धर्मेन्द्र को इस कोण से देखना भर उनके ग़ज़लगो के साथ अन्याय होगा। जब वे अपनी शैली में शेरों को निकालते हैं तो चकित करते हैं। मसलन

सभी नदियों को पीने का यही अंजाम होता है,
समंदर तृप्ति देने में सदा नाकाम होता है।

नूर सूरज से छीन लेता है,
पेड़ यूँ ही हरा नहीं होता।

अंधविश्वासअशिक्षा यही घर घुसरापन,
है गरीबी इन्हीं पापों की सजा मान भी जा।

अपनी बात’ के अंतर्गत ‘सज्जन’ धर्मेन्द्र एक बड़ी मार्के की बात कहते हैं - जब तक ग़ज़ल का पदार्पण हिन्दी भाषा में हुआ, तब तक हिन्दी की ज्यादातर कविता छंदमुक्त हो चुकी थी। दुष्यंत ने उसी छंदमुक्त और मुक्त-छंद कविता के कोलाहल में ‘साए में धूप’ की अंदर तक छू जाने वाली ग़ज़लों के बिरवे रोपे, जो कालान्तर में हिन्दी ग़ज़लकारों की मुस्तैद पीढ़ियों द्वारा खाद-पानी देने से कद्दावर वृक्षों में तब्दील हुए।

सज्जन’ धर्मेन्द्र की ग़ज़लों में नव्यता बोध के आग्रह के साथ भाव बोध और अनुभूतियों का एक ऐसा समन्वय है, जो शेरों के अर्थ को एक बड़े विस्तार में ध्वनित करता है।

धर्मेन्द्र के यहाँ वज़्न और बह्र की कुछ एक ख़ामियाँ दिखाई पड़ती हैं। उनको तीन वर्ष पुराने ग़ज़लगो होने के नाते नज़रअंदाज करते हुए, मैं उन्हें केवल एक ही सलाह देना चाहूँगा कि वे दुष्यंत और अदम की परंपरा एवं सोच से आगे निकलें।

व्यंग्य कथा : होलिका (पुरानी कथा, नया पाठ) - धर्मेन्द्र कुमार 'सज्जन'

ऐसा व्यंग्य नहीं पढ़ा :) अद्भुत.....
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प्रथमोध्याय : अनुमोदन

यमराज के दरबार में कई युगों से एक मुकदमा लटका हुआ है। कारण है पर्याप्त जानकारी एवं सबूतों का अभाव। यमराज कई बार सोचते हैं कि अपराधिन को नर्क भेजकर जैसे तैसे मामले को निपटा दिया जाय मगर दिक्कत ये है कि उन्हें अपने फैसलों के लिए श्रीभगवान को जवाब देना पड़ता है। एक गलत फैसला और लगा भगवान के नाम पर बट्टा। यूँ ही तो नहीं कहा जाता कि भगवान के घर देर है अंधेर नहीं।
युगों पहले जब मुकदमा आया था तो सभी सबूत एवं गवाह अपराधिन के विरुद्ध थे मगर जब अपराधिन का अचूक लाई डिटेक्टर टेस्टकिया गया तब पता चला कि स्वयं के निर्दोष होने के बारे में वह सच बोल रही थी। मगर लोगों की भावना के विरुद्ध केवल अपराधिन के बयान के आधार पर फैसला सुनाने को यमराज ने ठीक नहीं समझा। आखिर वो इतनी महत्वपूर्ण गद्दी पर इतने युगों से ऐसे ही थोड़े जमे हुए थे।

फिर देवताओं की एक जाँच समिति बनाई गई और मामला उसे सौंप दिया गया। समिति ने सारे सबूतों का दुबारा और भी ज्यादा गहनता से अध्ययन किया तथा सारे गवाहों के दुबारा बयान लिए कि कुछ नया पता चले मगर अंत में वही ढाक के तीन पात। समिति ने अपनी जाँच रिपोर्ट अभी कुछ ही दिन पहले यमराज को सौंपी थी। यमराज ने जब देखा कि अंत में फिर से बॉल उनके ही कोर्ट में आ गई है तो वो कुछ बेचैन हुए। कई रातों तक सोच सोचकर उन्हें नींद नहीं आई। आखिरकार उन्होंने माँ सरस्वती का ध्यान किया और उन्हें एक स्वर्ण-हंस देने का वायदा किया तो एक रात उन्हें उपाय सूझ गया और उस रात वो चैन की नींद सोए।

अगले रोज वो रिपोर्ट लेकर श्री भगवान के पास पहुँचे। श्री भगवान अपने दफ़्तर में दोपहर का भोजन करने के पश्चात झपकी ले रहे थे। उनके पीए ने यमराज को वस्तुस्तिथि से अवगत कराया तो यमराज भी बाहर पड़े सोफे पर अधलेटे से हो गए और धीरे धीरे निद्रा देवी उन्हें अपनी बाहों में भरने की कोशिश करने लगीं। थोड़ी देर बाद चाय माता ने प्रवेश किया तो निद्रा देवी शर्माकर भाग गईं और पीए ने बताया कि श्री भगवान का बुलावा आ गया है। यमराज ने जल्दी जल्दी चाय खत्म की और रिपोर्ट बगल में दबाकर श्री भगवान के पास पहुँचे। चाय की एक चुस्की लेते हुए श्री भगवान बोले, “आओ यमराज बैठो। बताओ कहाँ हस्ताक्षर करना है?”

प्रभो हस्ताक्षर बाद में करवाऊँगा पहले मैंने सोचा कि मामले से आपको अवगत करा दूँ। वो होलिका वाले मामले में मैं सोच रहा हूँ कि अग्नि देव का भी बयान लिया जाय।

क्या बात कर रहे हो, धरती वासियों के किसी भी मामले में देवताओं का बयान हमारे संविधान के विरुद्ध है।

प्रभो मामला नाजुक है। होलिका कहती है वो निर्दोष है और लाई डिटेक्टर टेस्टकहता है वो सच बोल रही है। सारे सबूत और गवाह उसके खिलाफ हैं। उसे नर्क भेजते हैं तो अंधेर करने से दुर्वासा के श्राप के कारण आपको गद्दी छोड़कर इंसान बनना पड़ेगा और अगर स्वर्ग भेजते हैं तो लोग आपके सारे पुराने किस्से कहानियों को शक की निगाह से देखने लगेगें। कालान्तर में वो आपकी पूजा करना बंद भी कर सकते हैं। उस स्थिति में भी बहुमत न होने से आपकी सरकार गिर जाएगी। संकट घनघोर है प्रभो।

तो क्या किया जाय।

संविधान में संशोधन किया जाय और अग्नि देव का बयान दर्ज करवाया जाय। आखिर आग की लपटों के बीच होलिका ने क्या किया ये अग्निदेव से बेहतर और कौन जान सकता है। उनके बयान से सबकुछ स्पष्ट हो जाएगा। वो कभी झूठ नहीं बोलते और उनके बयान पर सभी विश्वास करते हैं। आखिर श्री राम और देवी सीता वाले केस में भी उन्होंने बयान दिया ही था।

वो मामला धरती का था पर एक देवी पर आरोप लगाए गए थे इसलिए वहाँ संविधान संसोधन की आवश्यकता नहीं थी। बहरहाल दूसरा कोई रास्ता भी तो नहीं है आप संविधान संशोधन की नोटशीट ले आइए।

ये लीजिए, यहाँ हस्ताक्षर कर दीजिए।कहकर यमराज ने नोटशीट, जो वो पहले से ही बनाकर ले आए थे, श्रीभगवान के सम्मुख रख दी।

श्रीभगवान ने मुस्कराकर यमराज की तरफ देखा और बोले, “इतने युगों बाद भी तुममें वही धार बाकी है।

द्वितीयोध्याय : अग्निदेव
वातावरण किसी हिंदी फ़िल्म में अदालत के सेट जैसा लग रहा था। यमराज ने आकर जज का आसन ग्रहण किया। अग्निदेव को कटघरे में बुलाया गया। होलिका उनके सामने वाले कटघरे में खड़ी थी।

अग्निदेव को गीता की सौगंध दिलवाने के बाद चित्रगुप्त ने प्रश्न पूछना शुरू किया।उस दिन जब होलिका ने प्रह्लाद को लेकर अग्नि में प्रवेश किया तो उसके बाद और अग्नि के शांत होने तक क्या हुआ इसकी संपूर्ण जानकारी आप अदालत को दीजिए।
प्रश्न सुनकर अग्निदेव के मुखपर दर्द की रेखाएँ उभर आईं और वो फ़्लैशबैक में चले गए।

लकड़ियाँ धू धू करके जल रही थीं, ऊँची ऊँची लपटों की तपिश दूर तक महसूस की जा सकती थी। तभी होलिका ने अग्निरोधी कंबल में स्वयं एवं प्रह्लाद को अच्छी तरह लपेटकर उसमें प्रवेश किया। अग्निदेव सोच में पड़े हुए थे कि भगवान का आदेश है अग्निरोधी कंबल और होलिका दोनों भस्म हो जाने चाहिए और प्रह्लाद का बाल भी बाँका नहीं होना चाहिए। मगर ये कंबल तो बड़ा विशिष्ट है इसको भस्म करने के लिए जितना तापमान चाहिए यदि मैं वहाँ तक गया तो प्रह्लाद का बचना भी नामुमकिन हो जाएगा। धर्मसंकट में पड़े अग्निदेव ने लपटें तेज कर दीं और ताप बढ़ना शुरू हो गया। जैसे ही कंबल ने आग पकड़ी अग्निदेव की आँखों के सामने एक विचित्र घटना घटी। अचानक होलिका कंबल से बाहर आ गई। कुछ ही क्षणों में होलिका जलकर भस्म हो गई। अग्निदेव की आँखें आश्चर्य से फटी रह गईं। बहरहाल अग्निदेव की चिंता दूर हो गई क्योंकि भगवान का आदेश पूरा हो गया था। होलिका और कंबल जल कर राख हो गए थे और प्रह्लाद का बाल भी बाँका नहीं हुआ था।

अग्निदेव से ये अप्रत्याशित बयान सुनकर चित्रगुप्त के मुँह से ये प्रश्न अपने आप निकल गया, “होलिका ने आखिर ऐसा क्यों किया?”
जवाब में होलिका ने जो कुछ कहा उसका लब्बोलुबाब यह है।जब होलिका को हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को भस्म करने का आदेश दिया तो उसने इस बात का विरोध किया। उसने कहा कि जिस बच्चे को उसने अपनी गोद में खिलाया है उसे वह भस्म कैसे कर सकती है। उसने हिरण्यकश्यप को मनाने की बहुत कोशिश की पर अंत में हिरण्यकश्यप ने कहा कि अगर होलिका प्रह्लाद को आग से जिंदा बाहर लाई तो वह अपने हाथों से दोनों का सर काट डालेगा। होलिका रात भर सोचती रही अंत में उसे यही उपाय सूझा कि प्रह्लाद को बचाने का एक ही रास्ता है कि वह स्वयं भस्म हो जाय। हो सकता है कि अपनी बहन के भस्म हो जाने पर हिरण्यकश्यप का दिल पिघल जाय और वह प्रह्लाद को मारने का विचार त्याग दे या कम से कम मुल्तवी ही कर दे। इसलिए उसने प्रह्लाद को बचाने के लिए अपनी जान दे दी। पर हाय रे दैव कि आग की ऊँची लपटों में किसी ने भी उसका यह बलिदान नहीं देखा। यह भी होलिका का दुर्भाग्य रहा कि प्रह्लाद की कथा लिखने वाले सब पुरुष थे। उन्होंने एक बार भी ये नहीं सोचा कि होलिका अपने हाथों कैसे अपने नन्हें से भतीजे को भस्म कर सकती है। वो राक्षसी होने के साथ साथ एक स्त्री भी तो है।

होलिका मे मुँह से ऐसा सुनकर सब आश्चर्यचकित रह गए। चित्रगुप्त का मुँह खुला का खुला रह गया। वही हुआ जिसका डर था यानि सदियों से चली आ रही एक कहानी के बदल जाने का डर। अरबों लोगों के सदियों से कायम झूठे विश्वास के टूट जाने का डर। धर्म के सारे के सारे ढाँचे के चरमरा जाने का डर। धर्म ग्रंथों में स्त्री पर लिखी गई हर कहानी पर उँगली उठने का डर। डर बहुत बड़ा था और अनुभवी चित्रगुप्त ने इस डर को यमराज के चेहरे पर फौरन पढ़ लिया। उसने गोली की तरह अग्निदेव पर ये सवाल दागा, ““जब आपने होलिका को कंबल हटाते देखा तो क्या ये नहीं हो सकता कि होलिका प्रह्लाद को बाहर फेंकने जा रही हो मगर तापमान इतना बढ़ चुका था कि कंबल हटाते ही उसकी आँच से होलिका जल मरी और प्रह्लाद श्री भगवान के प्रताप के कारण सुरक्षित रहा।

अग्निदेव ने कुछ क्षण सोच कर जवाब दिया, “अब होलिका के मन की बात मैं कैसे जान सकता हूँ। आप जो कह रहे हैं वो भी एक विकल्प हो सकता है।

चित्रगुप्त को मसाला मिल चुका था। उन्होंने तुरंत गियर बदला, “मी लार्ड इस बात को नोट किया जाय कि अग्निदेव ने जो कुछ देखा उससे होलिका निर्विवाद रूप से न तो दोषी साबित होती है न ही निर्दोष। अग्निदेव ने जो कुछ देखा वह सब सच है मगर इनके बयान के बाद भी दोनों विकल्प खुले हुए हैं। मौजूद सबूतों और गवाहों से किसी भी निष्कर्ष पर पहुँचना नामुमकिन है। अभी इस मामले में और ज्यादा जानकारी की आवश्यकता है। मैं अदालत से ये भी अनुरोध करूँगा कि होलिका का लाई डिटेक्टर टेस्टअवचेतन अवस्था में करने की अनुमति प्रदान की जाय। ऐसे घाघ अपराधी कई बार सामान्य लाई डिटेक्टर टेस्टको भी मात दे देते हैं।

यमराज ने प्रशंसा भरी निगाहों से चित्रगुप्त को देखा और बोले, “सारे सबूतों और गवाहों के बयान को ध्यान में रखते हुए अदालत इस नतीजे पर पहुँची है कि कोई नतीजा निकाल पाना फिलहाल संभव नहीं है। इसलिए इस मामले को माननीय त्रिदेवों की सर्वोच्च स्तरीय जाँच कमेटी के हवाले किया जाता है। ये कमेटी अग्निदेव के बयान की रोशनी में सामने आए तथ्यों की पुनः जाँच करेगी। अदालत होलिका कालाई डिटेक्टर टेस्टअवचेतन अवस्था में करने की अनुमति प्रदान करती है। मामले की अगली सुनवाई माननीय त्रिदेवों की रिपोर्ट आने के बाद की जाएगी।

होलिका एक गहरी साँस लेकर रह गई, जब देवों की सामान्य सी जाँच कमेटी ने अपनी रिपोर्ट देने में इतने युग लगा दिए तो माननीय त्रिदेवों की जाँच कमेटी की रिपोर्ट तो शायद कयामत के दिन ही आएगी। पर चलो इस बहाने मैं नर्क में जाने से तो बची रहूँगी। सुना है नर्क का संचालन तालिबानियों के हाथ में सौंप दिया गया है।

तृतीयोध्याय : उपसंहार

शाम को श्री भगवान के दफ़्तर में यमराज और चित्रगुप्त बैठे थे। एक भुना हुआ बादाम मुँह में डालकर चाय का एक घूँट भरते हुए यमराज बोले, “चलिए प्रभो अब आपकी कुर्सी को कोई खतरा नहीं है। चित्रगुप्त जी का इतने युगों की वकालत का अनुभव आखिर काम आ ही गया।

फिर यमराज ने चित्रगुप्त को संबोधित करते हुए पूछा, “तुम्हें ये विचार आया कैसे कि इस सुलझे हुए मामले को अनंत काल के लिए लटका देना ही एकमात्र विकल्प है।

चित्रगुप्त के मुखारविंद पर नवोदित अंशुमाली की रक्तिमा छा गई। उन्होंने सर झुकाकर कहा, “प्रभो अब वह समय आ गया है जब हम अपनी इतने युगों की मेहनत से उगाए गए पेड़ का फल खाना शुरू करें। मैं धरती के समाचार पत्र निरंतर पढ़ता रहता हूँ और जिस फैसले से जनता के किसी विशेष वर्ग की भावनाएँ जुड़ी हुई हों उसको अनंत काल तक के लिए लटकाना ही श्रेयस्कर होता है। ये मैंने मानवों से सीखा है।

चित्रगुप्त के श्रीमुख से ऐसे वचन सुनकर श्री भगवान और यमराज के मुख पर हँसी की एक रेखा दौड़ गई। कुछ क्षण चुप रहकर यमराज बोल उठे, “प्रभो मैंने सरस्वती जी को मामला निबट जाने पर एक सोने का हंस देने का वादा किया था। आप तो जानते ही हैं कि हमारे यहाँ दुर्वासा जी के श्राप के कारण धरती की तरह भ्रष्टाचार हो नहीं सकता। इस महीने मेरा हाथ थोड़ा तंग है। कहीं सरस्वती जी रुष्ट न हो जायँ।

श्री भगवान बोले, “ठीक है सरस्वती जी के साथ किसी केस में मार्गदर्शन के लिए आप हमारी एक मीटिंग फ़िक्स कीजिए। उसमें उनको बतौर टोकन ऑफ़ एप्रीसियेशनएक सोने का मोर दे दिया जाएगा।

यमराज पुनः बोले, “प्रभो चित्रगुप्त जी इतने सालों से इतनी निष्ठा पूर्वक काम कर रहे हैं मेरे विचार से अब इन्हें वरिष्ठ वकील का पद देने का समय आ गया है।

आपने तो मेरे मुँह की बात छीन ली, आप संबंधित नोटशील ले आइए मैं अनुमोदित कर दूँगा।
यमराज ने तुरंत एक नोटशीट निकालकर श्रीभगवान के सामने रख दी और श्रीभगवान के नाम की तरफ उँगली उठाकर बोले, “प्रभो यहाँ हस्ताक्षर कर दीजिए।

उधर होलिका को जब यमलोक के कैदखाने की कोठरी की तरफ ले जाया जा रहा था तो एक और लंबित मामले का कैदी, जिससे जनता के वर्ग विशेष की भावनाएँ जुड़ी हुई थीं, मद्दिम सी आवाज में ये गीत गा रहा था।

देख तेरे यमलोक की हालत क्या हो गई इंसान
कितना बदल गया भगवान……….

विज्ञान के आगे चले ये हो कसौटी काव्य की

साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन

पिछला हफ़्ता तो पूरा का पूरा दिवाली के मूड वाला हफ़्ता रहा| रियल लाइफ हो या वर्च्युअल, जहाँ देखो बस दिवाली ही दिवाली| शुभकामनाओं का आदान प्रदान, पटाखे और मिठाइयाँ| उस के बाद भाई दूज, बहनों का स्पेशल त्यौहार| इस सब के चलते हम ने पोस्ट्स को एक बारगी होल्ड पर रखा और इसी दरम्यान अष्ट विनायक दर्शन को निकल लिए|

चौथी समस्या पूर्ति - घनाक्षरी - होंठ जैसे शहद में, पंखुड़ी गुलाब की हो

सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन


घनाक्षरी छन्द पर आयोजित चौथी समस्या पूर्ति के इस सातवें चक्र में भी पढ़ते हैं एक इंजीनियर कवि को| इंजीनियर होने के नाते शब्दों की साज़-सज्जा काफ़ी बेहतरीन किस्म की करते हैं ये| छन्दों के प्राचीन प्रारूप को सम्मान देते हैं और नई-नई बातों को बतियाते हैं| आइए पढ़ते हैं इन के द्वारा भेजे गये छन्द:-





देवरानी मोबाइल, ले कर है घूम रही,
भतीजी ने सूट लिया, दोनों मुझे चाहिये|

सासू जी ने खुलवाया, नया खाता बचत का,
और ज्यादा नहीं मेरा, मुँह खुलवाइये|

ऐश सब कर रहे, हम यहाँ मर रहे,
बोल पड़ा मैं तुरंत, चुप रह जाइये|

सब अपने ही लोग, रहें खुश चाहता मैं,
राजनीति का अखाड़ा, घर न बनाइये||

[एकता कपूर उर्फ छोटे पर्दे की दादी अम्मा और टी. वी. महारानी की इस युग की विशेष
मेहरबानी रूप घर घर की कहानी कैसे कैसे गुल खिला रही है - इस का बहुत ही अच्छा
उदाहरण देखने को मिलता है इस छन्द में| छंदों को जन-मानस से जुडने के लिए
उन की बातें बतियाना बहुत जरूरी है]


आँख जैसे रोशनाई डल-झील में गिरी हो,
गाल जैसे गेरू कुछ दूध में मिलाया है|

केश तेरे लहराते जैसे काली नागिनों को,
काले नागों ने पकड़, अंग से लगाया है|

होंठ जैसे शहद में, पंखुड़ी गुलाब की हो,
पलकों ने बोझ, सारे - जहाँ का उठाया है|

कोई उपमान नहीं, तेरे इस बदन का,
देख तेरी सुंदरता चाँद भी लजाया है||

[रूपक व उपमा जैसे अलंकारों से सुसज्जित इस छन्द की जितनी तारीफ की जाए कम है|
डल-झील, गेरू-दूध के अलावा पलकों ने सारा बोझ वाली बातों के साथ यह घनाक्षरी
किस माने में किसी रोमांटिक ग़ज़ल से कम है भाई? आप ही बोलो...]


सूखा-नाटा बुड्ढा देखो, चला ब्याह करने को,
तन को करार नहीं, मन बेकरार है|

आँख दाँत कमजोर, पाजामा है बिन डोर,
बनियान हर छोर, देखो तार-तार है|

सरकता थोड़ा-थोड़ा, मरियल सा है घोडा,
लगे ज्यों गधा निगोड़ा, गधे पे सवार है|

जयमाल होवे कैसे, सीढ़ी हेतु हैं न पैसे,
बन्नो का बदन जैसे क़ुतुब मीनार है||

[करार-बेकरार, कमजोर-बिन डोर-हर छोर, थोड़ा-घोड़ा-निगोड़ा और कैसे-जैसे शब्द प्रयोगों
के साथ आपने अनुप्रास अलंकार की जो छटा दर्शाई है, भाई वाह| जियो यार जियो]

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और अब बारी है उस छन्द की जिस का मुझे भी बेसब्री से इंतज़ार था| श्लेष अलंकार को लक्ष्य कर के आमंत्रित इस छंद में कवि ने 'नार' शब्द के जो दो अर्थ लिए हैं वो हैं [१] गर्भनाल, और [2] कमलनाल| छन्द क्यों विशेष लगा इस बारे में बाद में, पहले पढ़ते हैं इस छन्द को|


'पोषक' ये खींचती है, तन को ये सींचती है,
द्रव में ये डूबी रहे, किन्तु कभी गले ना|

जोड़ कर रखती है, जच्चा-बच्चा एक साथ,
है महत्वपूर्ण, किन्तु - पड़े कभी गले ना|

जब तक साथ रहे, अंग जैसी बात रहे,
काट कर हटा भी दो, तो भी इसे खले ना|

पहला-पहला प्यार, दोनों पाते हैं इसी से,
'शिशु' हो या हो 'जलज', "नार" बिन चले ना||

[अब देखिये क्या खासियत है इस छन्द की| पहले आप इस पूरे छन्द को (आखिरी चरण
को छोड़ कर) गर्भनाल समझते हुए पढ़िये, आप पाएंगे - कही गई हर बात इसी अर्थ का
प्रतिनिधित्व कर रही है|दूसरी मर्तबा आप इसी छन्द को कमलनाल के बारे में समझते
हुए पढ़िये, आप पाएंगे यह छन्द कमलनाल के ऊपर ही लिखा गया है| यही है जादू
इस विशेष पंक्ति वाले छन्द का| इस प्रस्तुति के पहले वाले छन्द भी श्लेष पर हैं,
पर यह छन्द पूरी तरह से सिर्फ एक शब्द के अर्थों में ही भेद करते हुए श्लेष का
जादू दिखा रहा है| इसके अलावा इस छन्द में एक और चमत्कार है| 'गले ना'
शब्द प्रयोग दो बार है| एक बार उस का अर्थ है 'गर्भनाल / कमलनाल द्रव
में रहते हुए भी गलती नहीं है', और दूसरा अर्थ है 'गले नहीं पड़ती'|
है ना चमत्कार, यमक अलंकार का? इस अद्भुत प्रस्तुति
के लिए धर्मेन्द्र भाई को बहुत बहुत बधाई]

जय हो दोस्तो आप सभी की और अनेकानेक साधुवाद आप लोगों के सतप्रयासों हेतु| धर्मेन्द्र भाई के छंदों का आनंद लीजिये, टिप्पणी अवश्य दीजिएगा| जिन कवि / कवियात्रियों के छन्द अभी प्रकाशित होने बाकी हैं, यदि वो उन में कुछ हेरफेर करना चाहें, तो यथा शीघ्र करें| जिन के छन्द प्रकाशित हो चुके हैं, वो फिर से छन्द न भेजें|

जय माँ शारदे!

दूसरी समस्या पूर्ति - दोहा - आचार्य सलिल जी और धर्मेन्द्र कुमार [३-४]

सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन

पूर्णिमा जी और निर्मला जी के दोहों का आनंद लेने के बाद अब हम पढ़ते हैं दो और सरस्वती पुत्रों को|


आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी को हम लोगों ने पहली समस्या पूर्ति में भी पढ़ा है| अपने ब्लॉग दिव्य नर्मदा के माध्यम से आप अनवरत साहित्य की सेवा कर रहे हैं|

होली हो ली हो रहा, अब तो बंटाधार.
मँहगाई ने लील ली, होली की रस-धार..
*
अन्यायी पर न्याय की, जीत हुई हर बार..
होली यही बता रही, चेत सके सरकार..
*
आम-खास सब एक है, करें सत्य स्वीकार.
दिल के द्वारे पर करें, हँस सबका सत्कार..
*
ससुर-जेठ देवर लगें, करें विहँस सहकार.
हँसी-ठिठोली कर रही, बहू बनी हुरियार..
*
कचरा-कूड़ा दो जला, साफ़ रहे संसार.
दिल से दिल का मेल ही, साँसों का सिंगार..
*
जाति, धर्म, भाषा, वसन, सबके भिन्न विचार.
हँसी-ठहाके एक हैं, नाचो-गाओ यार..
*
यह भागी, उसने पकड़, डाला रंग निहार.
उस पर यह भी हो गयी, बिन बोले बलिहार..
*
नैन लड़े, झुक, उठ, मिले, कर न सके इंकार.
गाल गुलाबी हो गए, नयन शराबी चार..
*
बौरा-गौरा ने किये, तन-मन-प्राण निसार.
द्वैत मिटा अद्वैत वर, जीवन लिया सँवार..
*
रतिपति की गति याद कर, किंशुक है अंगार.
दिल की आग बुझा रहा, खिल-खिल बरसा प्यार..
*
मन्मथ, मन मथ थक गया, छेड़ प्रीत-झंकार.
तन ने नत होकर किया, बंद कामना-द्वार..
*
'सलिल' सकल जग का करे, स्नेह-प्रेम उद्धार.
युगों-युगों मनता रहे, होली का त्यौहार
नैन झुके .........वाह आचार्य जी आपने तो बिहारी जी की याद ताजा करा दी - कहत, नटत, रीझत, खिझत वाली|




दूसरी प्रस्तुति है भाई धर्मेन्द्र कुमार सज्जन की| आपके ब्लॉग "कल्पना लोक'' में हम लोग पहले भी विचरण कर चुके हैं| इस बार की समस्या पूर्ति के विधान का पूर्ण रूपेण पालन करते हुए, एक नया प्रयोग करते हुए उन्होंने एक लघु काव्य नाटिका भेजी है| आप भी पढियेगा|

नायक:
रँगने को बेचैन हैं, तुझको लोग हजार
किसकी किस्मत में लिखा, जाने तेरा प्यार

नायिका:
क्षण भर चढ़ कर जो मिटे, ऐसा रँग बेकार
सात जनम का साथ दे, वही रंग तन मार

नायक:
बदन रँगा ना प्रेम रँग, तो जीवन है भार
कोशिश तो कर तू सखी, खड़े खड़े मत हार

नायिका:
बदन रँगा तो क्या रँगा, मन को रँग दे यार
मौका भी दस्तूर भी, होली का त्यौहार

आचार्य जी तो खैर हैं ही अपनी विद्या के पारंगत विद्वान्| इस बार तो धर्मेन्द्र भाई ने भी अभिनव प्रयोग प्रस्तुत कर हमें चौका दिया है|


अब आप की बारी हैं इन दोहों पर प्रशंसा के पुष्पों की वर्षा करने की| आपके दोहों की प्रतीक्षा है| जानकारी वाली लिंक एक बार फिर रेडी रिफरेंस के लिए:- समस्या पूर्ति: दूसरी समस्या पूर्ति - दोहा - घोषणा|

यूँ ही आँगन में बम नहीं आते

लुटके मंदिर से हम नहीं आते
मयकदे में कदम नहीं आते

कोई बच्चा कहीं कटा होगा
गोश्त यूँ ही नरम नहीं आते

आग दिल में नहीं लगी होती
अश्क इतने गरम नहीं आते

कोइ फिर भूखा सो गया होगा
यूँ ही जलसों में रम नहीं आते

प्रेम में गर यकीं हमें होता
इस जहाँ में धरम नहीं आते

कोई अपना ही बेवफ़ा होगा
यूँ ही आँगन में बम नहीं आते
धर्मेन्द्र कुमार सज्जन का कल्पना लोक


पहली समस्या पूर्ति - चौपाई - धर्मेन्द्र कुमार 'सज्जन' जी [3]

पहली समस्या पूर्ति - चौपाई - धर्मेन्द्र कुमार 'सज्जन' जी

सम्माननीय साहित्य रसिको

आइए आज पढ़ते हैं मित्र धर्मेन्द्र कुमार 'सज्जन' जी को| आप की 'सज्जन की मधुशाला' [http://sajjankimadhushala.blogspot.com] ने काफ़ी प्रभावित किया है| आपका कल्पना लोक {http://dkspoet.blogspot.com] भी काफ़ी रुचिकर है| आइए पढ़ते हैं कि समस्या पूर्ति की पंक्ति 'कितने अच्छे लगते हो तुम' को कितने प्रभावशाली और रोचक ढँग से पिरोया है आपने अपने कथ्य में|

नन्हें मुन्हें हाथों से जब ।
छूते हो मेरा तन मन तब॥
मुझको बेसुध करते हो तुम।
कितने अच्छे लगते हो तुम |१|

रोम रोम पुलकित करते हो।
जीवन में अमृत भरते हो॥
जब जब खुलकर हँसते हो तुम।
कितने अच्छे लगते हो तुम |२|

पकड़ उँगलियाँ धीरे धीरे।
जब जीवन यमुना के तीरे|
'बाल-कृष्ण' से चलते हो तुम।
कितने अच्छे लगते हो तुम।३|

देर से आने वाले साहित्य रसिकों को फिर से बताना चाहूँगा कि:-

समस्या पूर्ति की पंक्ति है : - "कितने अच्छे लगते हो तुम"

छंद है चौपाई
हर चरण में १६ मात्रा

अधिक जानकरी इसी ब्लॉग पर उपलब्ध है|


सभी साहित्य रसिकों का पुन: ध्यनाकर्षण करना चाहूँगा कि मैं स्वयँ यहाँ एक विद्यार्थी हूँ, और इस ब्लॉग पर सभी स्थापित विद्वतजन का सहर्ष स्वागत है उनके अपने-अपने 'ज्ञान और अनुभवों' को हम विद्यार्थियों के बीच बाँटने हेतु| इस आयोजन को गति प्रदान करने हेतु सभी साहित्य सेवियों से सविनय निवेदन है कि अपना अपना यथोचित योगदान अवश्य प्रदान करें| अपनी रचनाएँ navincchaturvedi@gmail.com पर भेजने की कृपा करें|