प्रयास
पिछले कुछ बरसों
से देवनागरी मे ग़ज़ल का जल्वा जिस रफ्तार से बढा है वो अदबी हल्को मे तअज़्ज़ुब और कौतूहल
का विषय है। किसी भी विधा का रचनाधर्मी ग़ज़ल ज़रूर कहना चाह्ता है जिसके कारण स्पष्ट
हैं – ग़ज़ल महज एक ख्याल पर केन्द्रित बयान नहीं देती –ये एक ही माला मे अनेक विचारों
के मोती पिरोने का काम है। इसलिये फार्मेट मे अभिव्यक्ति के बेशुमार आयाम हैं –इसका
दूसरा पहलू ये भी है कि ग़ज़ल कहना आसान नहीं है !! काव्य सृजन की कितनी भी नैसर्गिक
क्षमता आपके पास क्यों न हो गज़ल कहने के लिये आपको मशक्कत करनी ही पडेगी। ख़ैर यहाँ
गज़ल के वैभव की तफ़्सील से व्याख्या करना मकसद नही है। बात जहाँ से शुरूअ हुई है वही
से आगे बढाई जाय –कि देवनागरी लिपि मे गज़ल आज की तारीख़ मे बेहद लोकप्रिय है। जिसका
कारण अगर तलाश किया जाय तो बहुत विवाद नही करना पडेगा।
देवनागरी मे
ग़ज़ल बलबीर सिंह "रंग" ने कही दुष्यंत कुमार ने कही , शबाब
मेरठी ने कही , सूर्यभानु गुप्त ने कही ज़हीर कुरेशी ने कही और
अनेक अनाम लोगों का भी इसमे योगदान रहा –लेकिन इस लिपि में ग़ज़ल का दबदबा तभी काइम हो
सका जब तुफैल साहब ने अपनी पत्रिका रस-रंग आरम्भ की।"रस-रंग" पहले वार्षिक
फिर अर्धवार्षिक प्रकाशित होती थी। अपने पहले ही अंक के साथ ऐसा लगा कि "रस-रंग"
कौमी यकज़हती और सुलहेकुल का एक विशाल मंच है ऐसा लगा कि उर्दू –हिन्दी को संवाद का
एक मजबूत सेतु मिल गया है। दूसरे अंक के बाद ही इस पत्रिका ने अपनी अन्य समकालीन सभी
पत्रिकाओं को मीलों पीछे छोड दिया और खुद अपना मानदण्ड बन गई। बहस इस बात पर नही होती
थी कि कौन पत्रिका ग़ज़ल की सरताज पत्रिका है बहस इस पर होती थी कि रस रंग का फलाँ अंक
सबसे अच्छा है। मोतबर मुकाम पर खडे उर्दू अदीबों को देवनागरी के विशाल पाठक वर्ग तक
रसाई का एक सुनहरा मौका मिला और प्रतिभाशाली और युवा संघर्षशील शाइरों को एक खूबसूरत
लांचिंग प्लेट्फार्म मिला।
लेकिन खुदगर्ज़
और आत्ममुग्ध कथित शाइरों को एक आइना भी मिला। रस-रंग मे प्रकाशित होने की शर्ते बेहद
आसान और बेहद कडी थीं। आसान यूँ कि आपको निजी परिचय की आवश्यकता नही, कडी
इसलिये कि ग़ज़ल को प्रकाशित होने से पूर्व "तुफैल" नामक आइनेखाने से गुज़रना
होता था। इस पत्रिका की लोकप्रियता ऐसी बढी कि सन 2004 से इसे त्रैमासिक कर दिया गया
और इसका नाम "लफ़्ज़" हो गया। लफ़्ज़ के अंक ग़ज़ल के सफर मे मील के पत्थर हैं।"लफ़्ज़"
के बारे में कुछ बाते सर्वमान्य हैं --
देवनागरी लिपि
मे ये ग़ज़ल की एकमात्र पत्रिका है जिसे हिन्दी वाले ही नहीं उर्दू वाले भी उर्दू पत्रिकाओं
से ऊपर रेट करते हैं।
लफ़्ज़ मे प्रकाशित
ग़ज़ल विश्वसनीयता और मेयार की बुलन्दी छपने के साथ ही हासिल कर लेती है।
लफ़्ज़ का सम्पादकीय
बहरे बेकराँ जैसा होता है जिसका वैचारिक पक्ष
ज़बर्दस्त हलचल पैदा करता है।
लफ़्ज़ एक पत्रिका
भर नही ,
एक परचम , एक तरकश , एक आन्दोलन
भी है जिसने समकालीन साहित्यिक जगत के इलीट क्लास को वस्तुत: सम्मोहित कर रखा है।
तुफैल साहब आज
के साहित्यकार की सोई हुई चेतना को जगाना जानते हैं। प्रसंगवश एक बार उन्होने अपने
सम्पादकीय मे एक शेर फिराक़ के नाम से क़्वोट कर दिया –लेकिन अगले अंक मे उन्होने बाखबर
साहित्यकारों के बेखबरी की खासी खबर ली कि "भई !! क्यों आप लोग शेर और शाइर की
निशानदेही करने से चूक गये"। ऐसे साहित्यिक परिहास वो अक्सर करते हैं –लेकिन वो
हर कदम साहित्य की सम्रद्धि के लिये ही उठाते हैं।
इसलिये कोई ताअज़्ज़ुब
नही कि मुज़फ्फर हनफी,
राजेन्द्र नाथ रहबर, मुनव्वर राअना जैसे वरिष्ठ
और प्रतिष्ठित अदीबों ने लफ़्ज़ मे अपने लिये लिखे गये बयानात को लम्बी जद्दोजहद के बाद
अन्तत: स्वीकार किया। लफ़्ज़ मे ग़ज़ल और व्यंग्य आलेख प्रकाशित किये जाते हैं। व्यंग्य
के मामले में पत्रिका बडा दावा नही करती।लेकिन ग़ज़ल के मुआमले मे भी यह पत्रिका बडा
दावा इसलिये नहीं करती कि इसे चुनौती देने वाला कोई है ही नहीं।
जनवरी 2012 से
लफ़्ज़ की वेवसाइट आरम्भ की गई जिसमे गज़लें प्रकाशित की जाती हैं। और तरही मुशायरे आयोजित
किये जाते हैं!! फेसबुक जैसे ख्यातिलब्ध पोर्टलो के मुकाबले भी लफ़्ज़ की तरही नशिस्त
एक विशेष आकर्षण रखती है।लफ़्ज़ के प्रशंसको को इसके पुराने अंक इस वेवसाइट पर उपलब्ध
हैं।
कामना यही है
कि इस पत्रिका का अखण्ड गौरव बना रहे और बढता रहे।
:- मयङ्क अवस्थी
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