ब्रज-गजल
- नवीन सी. चतुर्वेदी
अँधेरी रैन में जब दीप जगमगावतु एँ
अमा कूँ बैठें ई बैठें घुमेर आमतु एँ
अबन के दूध सूँ मक्खन की आस का करनी
दही बिलोइ कें मठ्ठा ई चीर पामतु एँ
अब उन के ताईं लड़कपन कहाँ सूँ लामें हम
जो पढते-पढते कुटम्बन के बोझ उठामतु एँ
हमारे गाम ई हम कूँ सहेजत्वें साहब
सहर तौ हम कूँ सपत्तौ ई लील जामतु एँ
सिपाहियन की बहुरियन कौ दीप-दान अजब
पिया के नेह में हिरदेन कूँ जरामतु एँ
तरस गए एँ तकत बाट चित्रकूट के घाट
न राम आमें न भगतन की तिस बुझामतु एँ
भावार्थ :
अँधेरी रात में जब दीप जगमगाते
हैँ
अमा [अमावस] को बैठे ही बैठे
चक्कर आते हैं
आज कल के दूध से मक्खन की आस
क्या करनी
दही बिलो कर मठ्ठा ही चीर पाते
हैं
अब उन के वासते बचपन कहाँ से
लाएँ हम
जो पढते-पढते कुटम्बों के बोझ
उठाते हैं
हमारे गाँव ही हम को सहेजते हैं
जनाब
शहर तो हम को समूचा ही लील [निगल]
जाते हैं
सिपाहियों की बहुरियों [पत्नियों]
का दीप-दान अजब
पिया के नेह में अपना जिगर [जलाते]
जलाती हैं
[नेह प्रेम / तेल]
तरस गये हैं तकत बाट चित्रकूट
के घाट
न राम आते न भगतों की तिस बुझाते
हैं
पहला
ब्रज-गजल संग्रह “पुखराज हबा में उड़ रए एँ“
प्रेस में है। जल्द ही आप के हाथों में होगा। दुआओं की दरख़्वास्त। साहित्यानुरागियों का
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