नमस्कार
वर्तमान आयोजन की समापन
पोस्ट में आप सभी का सहृदय स्वागत है। जिन लोगों ने मञ्च की मर्यादा को बनाये रखते
हुये रचनाधर्मियों का निरन्तर उत्साह-वर्धन किया उन सभी का विशेष आभार।
दरअसल हमारे
घर जब कोई पहलेपहल आता है तो हमारा फर्ज़ बनता है कि न सिर्फ़ हम उस का तहेदिल से ख़ैरमक़्दम
करें बल्कि उस पहली भेंट में हम उस आगन्तुक यानि अपने गेस्ट को ही वरीयता दें, उस
पर अपने आप को या अपनी पोजीशन को या अपनी विद्वत्ता [?] को न थोपें। यही बात मञ्च के सन्दर्भ में भी लागू होती है, परन्तु
सच्चे गुणी लोग ही इस बात को जानते हैं। तो दोस्तो पिछली पोस्ट से इस समापन पोस्ट के
बीच के गेप के दो कारण रहे – पहला तो यह कि हमारे धर्मेन्द्र भाई के घर कुछ समय पूर्व
पुत्र-रत्न का आगमन हुआ है सो वह दोहों के लिये कम समय निकाल पाये ठीक वैसे ही जैसे
साल भर न पढ़ने वाला विद्यार्थी एक्जाम आने पर एक दम से हड़बड़ा कर उठ बैठता है और पढ़ाई
करने जुट जाता है, वैसे ही; और दूसरा पिछले
दिनों मेरी व्यस्तता। ख़ैर अब हम दौनों समापन पोस्ट के साथ आप के दरबार में उपस्थित
हैं। पहले दोहों को पढ़ते हैं :-
हर लो सारे पुण्य
पर, यह ‘वर’ दो भगवान
“बिटिया के मुख पे
रहे,
जीवन भर मुस्कान”
नयन, अधर
से चल रहे, दृष्टि-शब्द के तीर
संयम थर-थर काँपता, भली
करें रघुवीर
आँखों से आँखें
लड़ीं,
हुआ जिगर का खून
मन मूरख बन्दी बना, अजब
प्रेम-कानून
कार्यालय में आ गई, जबसे
गोरी एक
सज धज कर आने लगे, “सन-सत्तावन मेक”
याँ बादल-पर्वत भिड़े, वाँ
पानी-चट्टान
शक्ति प्रदर्शन
में गई,
मजलूमों की जान
उथल-पुथल करता रहा, दुष्ट-कुकर्मी ताप
दोषी कहलाते रहे, पानी,
हिम अरु भाप
विशेष दोहा:
दूध पिलाती मातु से, पति
ने माँगा प्यार
गुस्से में बोली - "तनिक, संयम रख भरतार"
बिटिया वाले पहले दोहे
से ताप वाले आख़िरी दोहे तक धर्मेन्द्र भाई जी ने कमाल किया है भाई कमाल। पर सन-सत्तावन
मेक’ वाले दोहे को पढ़ कर लगता है कि अब इन्हें अपना तख़ल्लुस ‘सज्जन’ से बदल कर कुछ और कर लेना चाहिये। धरम प्रा जी
मुझे इस आयोजन में राजेन्द्र स्वर्णकार जी की कमी बहुत खलती है, आप ने थोड़ा सा ही सही पर उस कमी को पूरा करने का प्रयास किया इस 'सन सत्तावन
मेक' के माध्यम से। राजेन्द्र भाई आप की शिकायत पूरी तरह से दूर नहीं कर पाया हूँ, पर उस रास्ते पर चल तो पड़ा हूँ। हम लोग एक बार फिर से मञ्च के पुराने दिनों को वापस ले आयेंगे, पर यह सब आप सभी के बग़ैर न हो सकेगा।
विशेष दोहा पर धर्मेन्द्र भाई का
प्रयास सार्थक और सटीक है। काव्य में दृश्य उपस्थित हो, वह
दृशय सहज ग्राह्य हो और मानकों का यथा-सम्भव अनुपालन करता हो; तब उसे सटीक के नज़दीक
माना जाता है। मुझे धर्मेन्द्र जी का यह विशेष दोहा सटीक के काफ़ी क़रीब प्रतीत होता है। 'दूध पिलाती मातु' - वात्सल्य रस, 'से पति ने माँगा प्यार' - शृंगार रस और 'गुस्से से बोली, तनिक संयम रख भरतार' - रौद्र रस। सरल शब्दों में कहें तो कवि ने एक ऐसा आसान दृश्य हमारे सम्मुख रख दिया है जो हम लोगों की रोज़-मर्रा की ज़िन्दगी / स्मृति के हिस्से जैसा है और आसानी से हम उसे ग्रहण भी कर पा रहे हैं। विद्वतजन उपरोक्त तीन बातों को ध्यान में रखते हुये अवश्य ही इस विलक्षण दोहे की तह में जा कर मीमांसा करें, पर हाँ छिद्रान्वेषण नहीं..............चूँकि छिद्रान्वेषणों के चलते ही मञ्च के कई पुराने साथी किनारा कर गये हैं। वह ज्ञान जो हम से हमारा आनन्द छीन ले - हमारे किस काम का?? मञ्च ने अब तक किसी को न तो ब्लॉक किया है और न ही कमेण्ट्स को मोडरेट किया है, आशा करता हूँ आगे भी यह सब करने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी।
भाई सौरभ
पाण्डेय जी के सुझाव के अनुसार हम अगली पोस्ट में ‘आलोचना’ और चन्द्र बिन्दु पर चर्चा करेंगे। तब तक आप धरम प्रा जी के दोहों का आनन्द
लीजिये और अपने सुविचारों को व्यक्त कीजिये।
प्रणाम