31 दिसंबर 2012

तुझ से इतने से चमत्कार की दरख़्वास्त है बस - एक चिंतन

न जाने कब से कहा जा रहा था कि 21 दिसंबर 2012 को दुनिया तहस-नहस हो जायेगी। वैसा तो कुछ नहीं हुआ। मगर हाँ, हमारी अस्मिता, हमारी सभ्यता, हमारे संस्कार ज़ुरुर टुकड़ा-टुकड़ा हो गये। दामिनी के प्रसंग को ले कर तमाम हल्कों में अमूमन सब ही अपनी-अपनी राय ज़ाहिर कर रहे हैं। दर्ज़ किए गए मामलात को आधार बनाएँ तो हर 54वें मिनट में एक बलात्कार हो रहा है... इस तरह दर्ज़ न हो पाने वाले केसेस को भी अनुमानित आधार पर यानि दस गुना जोड़ें तो लगभग हर 5 मिनट में एक बलात्कार हो रहा है यानि हर दिन क़रीब-क़रीब 250। आँकड़ों के शोधकर्ता इसे अपने नज़रिये से यानि अरबों की जनसंख्या से जोड़ कर

27 दिसंबर 2012

अमावस रात को अम्बर में ज़ीनत कोई करता नईं - नवीन

अमावस रात को अम्बर में ज़ीनत कोई करता नईं
मेरे हालात पे नज़रेइनायत कोई करता नईं

मैं टूटे दिल को सीने से लगाये क्यूँ भटकता हूँ?
यहाँ टूटे नगीनों की मरम्मत कोई करता नईं

फ़लक पे उड़ने वालो ये नसीहत भूल मत जाना
यहाँ उड़ते परिंदों की हिफ़ाजत कोई करता नईं

मुहब्बत का मुक़दमा जीतना हो तोलड़ो ख़ुद ही
यहाँ दिल जोड़ने वाली वकालत कोई करता नईं

ख़यालो-ख़्वाब पर पहरे ज़बानो-जोश पर बंदिश
परेशाँ हैं सभी लेकिन शिकायत कोई करता नईं

:- नवीन सी. चतुर्वेदी 

बहरे हजज मुसम्मन सालिम
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
1222 1222 1222 1222 

13 दिसंबर 2012

मेरी पहिचान - अनासिर मेरे - नवीन


मेरी पहिचान - अनासिर मेरे
मुझ को ढ़ोते हैं मुसाफ़िर मेरे

इस क़दर बरसे हैं मुझ पर इल्ज़ाम
पानी-पानी हैं मनाज़िर मेरे

अस्ल में सब के दिलों में है कसक
ख़ुद मकीं हों कि मुहाजिर मेरे

अब कहीं जा के मिला दिल को सुकून

मुझ से आगे हैं मुतअख्खिर मेरे

8 दिसंबर 2012

हैं साथ इस खातिर कि दौनों को रवानी चाहिये - नवीन ज

हैं साथ इस खातिर कि दौनों को रवानी चाहिये
पानी को धरती चाहिए धरती को पानी चाहिये



हम चाहते थे आप हम से नफ़रतें करने लगें
सब कुछ भुलाने के लिए कुछ तो निशानी चाहिये



उस पीर को परबत हुए काफ़ी ज़माना हो गया
उस पीर को फिर से नई इक तर्जुमानी चाहिये



हम जीतने के ख़्वाब आँखों में सजायें किस तरह
लश्कर को राजा चाहिए राजा को रानी चाहिये



कुछ भी नहीं ऐसा कि जो उसने हमें बख़्शा नहीं
हाजिर है सब कुछ सामने बस बुद्धिमानी चाहिये



लाजिम है ढूँढें और फिर बरतें सलीक़े से उन्हें
हर लफ्ज़ को हर दौर में अपनी कहानी चाहिये



इस दौर के बच्चे नवाबों से ज़रा भी कम नहीं
इक पीकदानी इन के हाथों में थमानी चाहिये




: नवीन सी. चतुर्वेदी




बहरे रजज मुसम्मन सालिम
2212 2212 2212 2212
मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन

4 दिसंबर 2012

१६ मात्रा वाले ७ छंद - नवीन

सूर तुलसी की तरह ग़ालिब भी मुझको है अज़ीज़
शेर हों या छन्द, हर इक फ़न से मुझ को प्यार है 

जब मैं ग़ज़लें पेश कर रहा होता हूँ तो छन्द प्रेमी सकते में आ जाते हैं और जब छंदों के चरण चाँप रहा होता हूँ तो कुछ और तरह की बातें ही मेरे कानों तक पहुँचने लगती हैं, ये बातें कहने वाले ख़ुद ग़ज़ल या छंद के कितने क़रीब हैं, वो एक अलग मसअला है :)। अपने सनेहियों की ऐसी शंकाओं के समाधान के लिये ही मैंने कभी उक्त शेर कहा था। ख़ैर....... 

वो कहते हैं न कि जब-जब जो-जो होना है तब-तब सो-सो होता है। मेरे छन्द सहकर्मियों को याद होगा -

28 नवंबर 2012

अभी हयात का मतलब समझना बाकी है - नवीन

तवील जंग में शामिल भी टूट सकते हैं
रसद रुकी तो मुजादिल भी टूट सकते हैं

मुसीबतों के फ़साने को दफ़्न रहने दो
कुरेदने से कई दिल भी टूट सकते हैं

घटाओ अब तो बरस जाओ तपते दरिया पर

तपिश बढ़ेगी तो साहिल भी टूट सकते हैं

तमाम ख़ल्क़ में उलफ़त के सिलसिले फैलाओ
इसी मक़ाम पे क़ातिल भी टूट सकते हैं

अभी हयात का मतलब समझना बाकी है
घटा-बढ़ा के तो हासिल भी टूट सकते हैं
तवील जंग - लम्बी लड़ाई
रसद - सेना के लिए सप्लाई किया जाने वाला खाना-पानी, सामान वग़ैरह
मुजादिल - युद्ध लड़ने वाले सिपाही [अरबी शब्द]
ख़ल्क़ - विश्व
हयात का मतलब - जीवन का अर्थ meaning of life
हासिल - उपलब्धि, किसी जोड़-बाकी-गुणा-भाग का परिणाम 

बहरे मुजतस मुसमन मखबून महजूफ  
मुफ़ाएलुन फ़एलातुन मुफ़ाएलुन फालुन
1212 1122 1212 22  

19 नवंबर 2012

मिरी दीवानगी पर वो, हँसा तो - नवीन

मिरी दीवानगी पर वो, हँसा तो
ज़रा सा ही सही लेकिन, खुला तो

अजूबे होते रहते हैं जहाँ में
किसी दिन आसमाँ फट ही पड़ा, तो?

उमीदों का दिया बुझने न देना
जलेगी जाँ अगर दिल बुझ गया, तो

सभी को चाहिये अपना सा कोई
घटेंगे फ़ासले, निस्बत – ‘बढ़ा तो’

सुना है तुमको सब से है मुहब्बत
अगर हमने तुम्हें झुठला दिया, तो?

वो दुनिया भर में भर देंगे उजाले
अगर मग़रिब से कल सूरज उगा – तो

मैं उसको पेश तो कर दूँ जवाहिर
मगर उसकी नज़र में दिल हुआ, तो?

सफ़ीने क्यूँ हटा डाले नदी से?
पुराना पुल अचानक ढह गया, तो?

नहीं कह पाना मुमकिन ही न होगा
“दिया अपना जो उसने वासता, तो”

ग़ज़ल सुनते ही दिल बोला उछल कर
अरे क्या बात है – फिर से ‘सुना तो’


:- नवीन सी. चतुर्वेदी 

आईने शीशे हो गये - नवीन

अफ़साने सच्चे हो गए
तो क्या हम झूठे हो गए

एक बड़ा सा था दालान
अब तो कई कमरे हो गये

सबको अलहदा रहना था
देख लो घर मँहगे हो गए

झरने बन गए तेज़ नदी
राहों में गड्ढे हो गए

अज्म था बढ़ते रहने का
पैदल थे - घोड़े हो गए

हर तिल में दिखता है ताड़
हम कितने बौने हो गए

कहाँ रहे तुम इतने साल
आईने शीशे हो गये

बेटे आ गए काँधों तक
कुछ बोझे हल्के हो गए

दिखते नहीं माँ के आँसू
हम सचमुच अंधे हो गए

गिनने बैठे करम उसके
पोरों में छाले हो गए


:- नवीन सी. चतुर्वेदी 

अगर ये हो कि हरिक दिल में प्यार भर जाये - नवीन

अगर ये हो कि हरिक दिल में प्यार भर जाये
तो क़ायनात घड़ी भर में ही सँवर जाये

किसी की याद मुझे भी उदास कर जाये
कोई तो हो जो मेरे ज़िक्र से सिहर जाये

जो उस को रोज़ ही आना है मेरे ख़्वाबों में
तो मेरी पलकों पे उलफ़त के नक्श धर जाये

किसी भी तरह वो इज़हार तो करे एक बार
नज़र से कह के ज़ुबाँ से भले मुकर जाये

तपिश के दौर ने ‘शबनम की उम्र’ कम कर दी
घटा घिरे तो गुलिस्ताँ निखर-निखर जाये

बहुत ज़ियादा नहीं दूर अब वो सुब्ह ‘नवीन’
फ़क़त ये रात किसी तरह से गुजर जाये

:- नवीन सी. चतुर्वेदी 

नुमाया हो गई हस्ती, अयाँ बेबाकियाँ जो थीं - नवीन

नुमाया हो गई हस्ती, अयाँ बेबाकियाँ जो थीं
बुढ़ापा किस तरह छुपता बदन पे झुर्रियाँ जो थीं

भँवर से बच निकलने की जुगत हम को ही करनी है
बहुत गहरे उतरने में हमें दिलचस्पियाँ जो थीं

तरसते ही रहे हम आप के इकरार की ख़ातिर
मुक़द्दर में हमारे आप की ख़ामोशियाँ जो थीं

दिलों की हमख़याली ही दिलों को पास लाती है
त’अल्लुक़ टूटना ही था, दिलों में दूरियाँ जो थीं

किसी पर तबसरा करने से पहले सोचिये साहब

परिन्दे किस तरह उड़ते बला की आँधियाँ जो थीं

17 नवंबर 2012

हो पूरब की या पश्चिमी रौशनी - नवीन

हो पूरब की या पश्चिमी रौशनी
अँधेरों से लड़ती रही रौशनी

क़तारों से क़तरे उलझते रहे
ज़मानों को मिलती रही रौशनी

इबादत की किश्तें चुकाते रहो
किराये पे है रूह की रौशनी

किसी नूर की छूट है हर चमक
ज़मीं पर भला कब उगी रौशनी

अँधेरों पे दुनिया का दिल आ गया
फ़ना हो गई बावली रौशनी

सितारों पे जा कर करोगे भी क्या
जो हासिल नहीं पास की रौशनी

उजालों में भी सूझता कुछ नहीं
तू रुख़सत हुआ, छिन गई रौशनी

गमकती-चमकती रही राह भर
परी थी वो या संदली रौशनी

वो घर, घर नहीं; वो तो है कहकशाँ
जहाँ तन धरे लाड़ली रौशनी

ये चर्चा बहुत चाँद-तारों में है
मुनव्वर को किस से मिली रौशनी

बहुत जा रहे हो वहाँ आजकल
तो क्या तुम पे भी मर मिटी रौशनी

नवीन सी. चतुर्वेदी

बहरे मुतक़ारिब मुसम्मन मक़्सूर
फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़अल

122 122 122 12

9 नवंबर 2012

दिवाली के दोहों वाली स्पेशल पोस्ट

शुभ-दीपावली
सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन
एवं
प्रकाश पर्व दीपावली की हार्दिक शुभ-कामनाएँ



आज की दिवाली स्पेशल पोस्ट में मंच के सनेहियों के लिये एक विशेष तोहफ़ा है – दिवाली स्पेशल पोस्ट प्रस्तुत कर रहे हैं साहित्यानुरागी भाई श्री मयंक अवस्थी जी। पहले रचनाधर्मियों के दोहे और फिर उन पर मयंक जी की विशिष्ट टिप्पणियाँ, तो आइये आनन्द लेते हैं इस दिवाली पोस्ट का 

मयंक अवस्थी


जैसे इस फोटो में मयंक जी किसी दृश्य को क़ैद करते हुये दिखाई पड़ रहे हैं, बस यही नज़रिया अपनाते हैं आप किसी रचना को पढ़ते वक़्त। उस रचना [कविता-गीत-छन्द और ग़ज़ल भी] की तमाम अच्छाइयों को पाठकों के सामने लाने का शौक़ है आप को। तो आइये शुरुआत करते हैं इस दिवाली पोस्ट की:-

4 नवंबर 2012

SP/2/1/11 धिया जँवाई ले गये, वह उन की सौगात - ऋता शेखर मधु

सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन

औरतें अपनी उम्र नहीं बतातीं पर आ. ऋता जी ने इतना तो बता ही दिया है कि मैं उनसे थोड़ा सा छोटा हूँ यानि वे मेरी 'दीदी सा' हैं - बस इतना काफ़ी है यार:)!

अंतर्जालीय संसार में एक दूसरे से कभी न मिले हम सभी लोग एक-दूसरे के कितने क़रीब आ जाते हैं, फिर दूर भी हो जाते हैं और फिर से कुम्भ के मेले में खोये भाई-बहनों की तरह से मिल भी जाते हैं  - है न मज़े की बात - तो ये मान लिया जाये कि वर्च्युअल संसार मुकम्मल होने लगा है !!!!!!!!!!!!!

संभवत: हरिगीतिका छंद वाले समस्या-पूर्ति आयोजन के दौरान ऋता जी से कम्यूनिकेशन शुरू हुआ था। तब से इन का छंदों के प्रति लगाव देख कर मैं हतप्रभ हूँ। सदैव कुछ करने को तत्पर और हाँ एक बात और कह दूँ कि इन्हें लगता है कि ये वक्रोक्ति वाला दोहा नहीं कह सकतीं - पर इन के ईमेल वार्तालाप पर ग़ौर करूँ तो ये वक्रोक्ति का श्रेष्ठ दोहा लिख सकती हैं। इन के साथ काम करना सुखद अनुभव रहा है, अब तक। ये अपनी तरफ़ से सभी सम्भव प्रयास करती हैं और बेहतर परिणामों के लिये समर्पित भी रहती हैं। हेट्स ऑफ टू हर। आइये अब पढ़ते हैं वर्तमान आयोजन की ग्यारहवीं यानि समापन पोस्ट में मंच की 40 वीं पार्टिसिपेंट यानि ऋता शेखर मधु [दीदी] के दोहे

ऋता शेखर मधु

ठेस-टीस 
धिया, जँवाई ले गये, वह, उन की सौगात
बेटे, बहुओं के हुये, चुप देखें पित-मात

3 नवंबर 2012

SP/2/1/10 नींद चुरा ले ख्वाब जो, उस से कर ले प्यार - संजय मिश्रा 'हबीब'

सभी साहित्यरसिकों का सादर अभिवादन


शायद आप को भी आश्चर्य न होगा क्योंकि आप ने भी अपने बचपन में अपने घर-परिवार-पड़ौस में ऐसे कुछ एक पुरुषों-महिलाओं को अवश्य ही देखा-सुना होगा जो बातों-बातों में ही दोहे गढ़ देते थे। उस से पहले भी अगर ग़ौर करें तो कहा जाता है कि हिंदुस्तान में तोते संस्कृत के श्लोक बोलते थे, जो आदत डलवा दी जाये वो आदत पड़ जाती है। दोहे हमारी धमनियों में हैं बस अन्तर सिर्फ़ इतना ही है कि हम [आज के इंसान] उपदेशक या विदूषक या निंदक मात्र हो कर रह गए हैं। कोमल भावनाओं को कैसे पहिचाना जाये इस का पैमाना हम से विलग हो गया है। तकलीफ़ होती क्या है अस्ल में, दरअस्ल हमें पता ही नहीं है। छुट-पुट झटकों को भी बड़ी दुर्घटना की तरह परोसते माध्यमों को दोष देने की बजाय बेहतर है कि हम ख़ुद ही आत्म-चिन्तन करें। समस्या-पूर्ति मंच के दूसरे चक्र के पहले आयोजन का उद्देश्य यही था और अब तो इसे अगले आयोजनों में आगे बढ़ाना [सब की सहमति के साथ] और भी ज़ियादा जुरुरी लग रहा है।

वर्तमान आयोजन की 10 वीं पोस्ट में पढ़ते हैं मंच के 39वें सहभागी संजय मिश्रा 'हबीब' के शानदार दोहे:- 

संजय मिश्रा 'हबीब'

ठेस-टीस
मैया सपने कातती, तकली बन नौ माह
बिटवा दिखला दे उसे, वृद्धाश्रम की राह

2 नवंबर 2012

SP/2/1/9 हित-चिन्तक बन कर हमें, लूट रही सरकार - सत्यनारायण सिंह

सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन

शायद आप सभी ने भी नोट किया होगा कि समस्या पूर्ति के दूसरे चक्र से पहले इस मंच के सहभागियों की संख्या थी 33, इस पोस्ट तथा आने वाली दो पोस्ट्स को जोड़ लें तो कुल सहभागी हो जाएँगे 40। इस आयोजन की आ चुकीं प्लस ये वाली तथा आने वाली दो पोस्ट्स के साथ टोटल पोस्ट्स होंगी 11 जिन में 7 नए सहभागी हैं - यानि पुराने 33 में से 4 ही लौट पाये...................... ख़ैर...................  

आयोजन के अगले तथा मंच के 38 वें सहभागी हैं भाई सत्यनारायण सिंह जी। तो आइये पढ़ते हैं सत्यनारायण जी के दोहे।


सत्य नारायण सिंह

ठेस-टीस
मुँह पर ताला, मन व्यथित, नयनन अँसुअन धार
हित-चिन्तक बन कर हमें, लूट रही सरकार

1 नवंबर 2012

SP/2/1/8 इम्तहान की कापियाँ, गैया गई चबाय - उमाशंकर मिश्रा

सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन

दिवाली पर्व का असर टिप्पणियों पर भी दिखने लगा है, लोगबाग काफ़ी मशरुफ़ हैं - कुछ मित्र घर-दफ़्तर के काम में और कुछ मेरे जैसे फेसबुकिया तामझाम में:)। का करें भाई ये फेसबुकिया भूत हमें भी बहुत नचा चुका है बल्कि पूरी तरह से छोड़ा तो अब भी नहीं है। 

इस पोस्ट के बाद जो तीन और पोस्ट आनी हैं उन में हैं संजय मिश्रा 'हबीब', ऋता शेखर मधु और सत्यनारायण सिंह। इन के अलावा यदि मुझसे किसी के दोहे छूट रहे हों तो बताने की कृपा करें, चूँकि इस आयोजन के तुरन्त बाद दिवाली स्पेशल पोस्ट पर काम शुरू हो जायेगा।

भाई अरुण निगम के मार्फ़त दुर्ग छत्तीसगढ़ निवासी उमाशंकर मिश्रा जी पहली बार मंच से जुड़ रहे हैं। आप का सहृदय स्वागत है उमाशंकर जी। आइये पढ़ते हैं आप के भेजे दोहों को- 


उमाशंकर मिश्रा

ठेस / टीस
जिन की ख़ातिर मैं मरा, मिले उन्हीं से शूल
चन्दन अपने पास रख, मुझ को दिये बबूल

आश्चर्य
संसद में पारित हुई, कुछ ऐसी तरक़ीब
दौलत अपनी बाँट के, नेता हुए ग़रीब

30 अक्तूबर 2012

SP/2/1/7 इक मुट्ठी भर चाँदनी, इक थाली भर धूप - अश्विनी शर्मा

सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन

लास्ट शुक्रवार से कल तक भाग-दौड़ जारी रही। नेट के विभिन्न प्लेट्फ़ोर्म्स पर तमाम मित्रों ने जन्मदिन की शुभकामनायें भेजीं, सभी का हृदय से आभार। एक दूसरे से भेंट-मुलाक़ात न होने के बावजूद भी हम लोग समान रुचि / विषय होने के कारण कितने क़रीब आ जाते हैं। किसी ज़माने में जो लगाव पुस्तकों को पढ़ कर उन पुस्तकों के लेखकों / कवियों / शायरों से होता था अब कमोबेश वही वर्च्युयल वर्ल्ड में भी होने लगा है। दिल्ली प्रवास के दौरान तमाम मित्रों से मिल कर बहुत अच्छा लगा। आदरणीय तुफ़ैल जी ने अपने नोयडा निवास पर मेरे जन्मदिन 27 अक्तूबर के दिन महफ़िल-ए-शायरी का आयोजन कर के मेरे लिए इस दिन को यादगार दिन बना दिया। बहुत-बहुत आभार बड़े भाई। उस के बाद मथुरा और फिर बेक टु पेवेलियन :)

आइये आज की पोस्ट में पढ़ते हैं भाई श्री अश्विनी शर्मा जी के दोहे। इस बार दोहे बिना सम्पादन के पेश किए जा रहे हैं।

अश्विनी शर्मा

ठेस / टीस
धरती हा-हा कर रही ,जीना हुआ मुहाल
खड़ा सामने आ हुआ,फिर से वही अकाल

26 अक्तूबर 2012

व्यंग्य - ढाई मन सब्जी में एक जोड़ा लोंग - नवीन सी. चतुर्वेदी

आज के आधुनिक भारत की प्रौढ़ होती पीढ़ी अपने अन्तर्मन में प्राचीन भारत के बहुत सारे मीठे-चुलबुले संस्मरण सँजोये हुये है। ऐसा ही कुछ आज अचानक याद आ गया है। प्राचीन भारत में buffet system से पहले ज़मीन पर पत्तल डाल कर जिमाने का रिवाज़ हुआ करता था। खाना बनाने का काम भी किसी केटरर को ठेके पर न दे कर घर-परिवार-समाज के कुछ वरिष्ठ-स्पेश्यलिस्ट लोगों के हाथों में रहता था। हलवाई को बुलवा कर उससे बाक़ायदा अपने निर्देशन में अधिकतर पूड़ी-कचौड़ी तथा कुछ मिठाई नमकीन वग़ैरह बनावाई जाती थीं। परन्तु कुछ स्पेशल मिठाई और ख़ास कर पतली सब्जी [जिसे कुछ हलक़ों में आलू का झोल भी कहा जाता है] घर-परिवार-समाज के उक्त स्पेश्यलिस्ट के ज़िम्मे ही रहता था। काफ़ी सारे लोग आलू छिलवाने जैसे कामों में भी जुटे रहते थे।

हमारे बगीची-मुहल्लों में ऐसे कार्यक्रम अमूमन होते ही रहते थे। हम भी अपने बाप-काका के साथ हाथ बँटाने जाया करते थे। उन दिनों ही एक विशेष व्यक्तित्व से साक्षात्कार हुआ था। क़द ऊँट के आधे से अधिक परन्तु पौने से पक्का कम, गर्दन कमर से तक़रीबन साढ़े तीन चार इंच आगे, कंधे तराजू को हराने पर आमादा, बाजुएँ पानीपत के गर्व को ढ़ोती हुईं और वाणी ने तो जैसे सदियों का अनुभव संसार को देने का टेण्डर अपने नाम करवा रखा हो। हर बात की जानकारी, उन से अधिक हुशियार कोई भी नहीं। आप श्री तो आप श्री ही थे।

पड़ौस में शादी थी। दोपहर का खाना खा कर हम आलू छिलवाने के लिए पहुँचे। हलवाई पूड़ियाँ तल रहा था। बेलनहारियाँ लोकगीत की धुनों को गुनगुनाते हुये पूड़ियाँ बेल रही थीं। आप श्री एक बेलनहारी के पीछे कुछ देर तक खड़े-खड़े उस के आगे पड़े चकले पर बिलती पूड़ियों को निहारते रहे, जैसे कि अंकेक्षण [Audit] कर रहे हों। तपाक से बोल पड़े 

"ये क्या छोटी-छोटी पूड़ियाँ बेल रही हो? ज़रा बड़ी-बड़ी बेलो, पत्तल पर पूड़ी रखें तो पत्तल भरी हुई दिखनी चाहिये"। 

बेलनहारी ने धुन को अर्ध-विराम देते हुये स्वीकारोक्ति में गर्दन हिलाई और पूड़ी को बड़ा आकार देने लगी। क़रीब पाँच मिनट बाद आप श्री दूसरी बेलनहारी की ऑडिट करने लगे - बोले - 

 "ये क्या हपाड़ा-हपाड़ा पूड़ियाँ बेल रही हो, पूरी पत्तल पर पूड़ियाँ ही रखनी हैं क्या, ज़रा छोटी-छोटी बेलो"। 

क्या करती बेचारी - गर्दन हिला दी, मगर वो पहली वाली सोचने लगी कि अब उसे बड़ी पूड़ियाँ बेलनी हैं या छोटी!!!!!!!!

आप श्री ने तमाकू रगड़ा, फटका लगाया, दो-तीन बार पिच्च किया और अब की मर्तबा हलवाई के कढ़ाव के पास जा कर अंकेक्षण करने लगे। खस्ता कचौड़ियाँ बड़ी ही धीमी-धीमी आँच में सिकती हैं तब जा कर भुरभुरी बनती हैं। हलवाई कचौड़ियों को तल रहा था और बेलनहारियों से हास-परिहास भी कर रहा था। आप श्री को न जाने क्या सूझा - बड़े ही गौर से पूरे कढ़ाव के बीचोंबीच से एक कचौड़ी को ढूँढ कर उसे दिखाते हुये बोले 

"क्यों बे! बातें ही करेगा या खस्ता ढ़ंग से सेकेगा? देख वो कचौड़ी अब तक कच्ची है"। 

कॉलगेट स्माइल को प्रोमोट करते हलवाई के होंठ और दाँत तुरंत ही अधोगति को प्राप्त हुये। "जी बाबूजी अबई करूँ"। आप श्री की बॉडी लेंगवेज़ ओलिम्पिक विजेता का अनुसरण करने लगी।

अंकेक्षण दौरा अब बढ़ा सब्जी [आलू-झोल] के कढ़ाव की तरफ़। पुराने ब्याह-शादियों में पतली सब्जी का ख़ासा महत्व हुआ करता था। हमारे मुहल्ले के सब्जी विशेषज्ञ सब्जी बना रहे थे। आप श्री ने तख़्त [भट्टी के पास तख़्त रख कर उस पर सब्जी बनाने वाला बैठता था] और भट्टी की कुछ परिक्रमाएँ लगाईं, कढ़ाव का विधिवत चार-पाँच बार अवलोकन किया, सब्जी विशेषज्ञ का चेहरा भी हर बार देखते हुये। वो बेचारा सोच रहा था अब उस से क्या कहा जाएगा! थोड़ी देर बाद बोले - 

"कितनी सब्जी बनानी है?" 

उस ने कहा - ढाई मन [100 kg]। 

इस के बाद कितने आलू लिए? कितना पानी डाला? कौन-कौन से और कितने-कितने मसाले डाले? पूछने के बाद ये भी पूछा कि कौन सा मसाला किस मसाले के डालने के बाद डाला और किस तरह डाला। हर बात का संतोषजनक उत्तर मिला। हुंह। पर आप श्री को तसल्ली न हुई। सीधे भण्डार [जहाँ खाना बन रहा होता था वहीं एक जगह सुनिश्चित की जाती थी जहाँ खाने संबन्धित सभी कच्ची सामग्रियाँ रखी जाती थीं] में गए और वहाँ से हाथ में कुछ उठा कर ले आए। फिर खल-मूसल ढूँढा। फिर उस खल मूसल में एक जोड़ा लोंग [दो लोंग] डाल कर कूटीं और उन का बुक्का ढाई मन सब्जी वाले कढ़ाव में डाल दिया !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

सब के सब अवाक,,,,,,,,,,,,,,,,पर क्या कहें। आप श्री उस भरे हुए कढ़ाव की सब्ज़ी में दो चार ग्राम लौंग का पावडर डाल कर खिसक लिए और उनके जाते ही एक बुजुर्ग बोले " जस्ट इग्नोर इट, यह मेन्युफेक्चरिंग डिफेक्ट का मामला है " । उनका इतना कहना था कि हम सभी ज़ोर-ज़ोर के ठहाके मार कर हँसने लगे । 

25 अक्तूबर 2012

SP/2/1/6 आज भोर का स्वप्न है, हुई गरीबी दूर - धर्मेन्द्र कुमार 'सज्जन'

सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन
एक कहानी सुनने में आती है - एक चित्रकार ने सुंदर सी तस्वीर बना कर नगर चौक में रखी और उस पर लिख दिया कि भाई जिसे भी इस तस्वीर में कमी दिखे वह व्यक्ति उस कमी पर सर्कल बना दे। अगले दिन क्या देखता है कि तस्वीर पर सर्कल ही सर्कल। बड़ा ही हताश हुआ, पर हिम्मत नहीं हारी। फिर से तस्वीर बनाई, फिर से नगर चौक पर रखी, पर अब के लिखा जिस भी व्यक्ति को इस तस्वीर में कमी दिखे, उसे सुधार दे। ग़ज़ब हो गया भाई। किसी को नाक छोटी लगी तो उस ने स्केच से नीचे की तरफ खींच दी, किसी को ओंठ छोटे लगे तो उस ने स्केच से ऊपर-नींचे-लेफ्ट-राइट खींचते हुये बड़े कर दिये। आप अनुमान लगा सकते हैं कि क्या हालत हुई होगी उस तस्वीर की! शायद उसे लिखना चाहिए था कि जिस भी व्यक्ति को ये तस्वीर कमतर लगे, ख़ुद अपनी तरफ़ से बेहतर और त्रुटि-विहीन तस्वीर पेश करे। सही है न? ख़ैर। 

कल संजय मिश्रा हबीब जी ने हर बिन्दु पर तीन-तीन दोहे लिख कर भेजे हैं। निस्संदेह अच्छा काम है फिर भी मंच ने उन से निवेदन किया है कि 2-3 दिन का ब्रेक ले कर फिर से इन दोहों का पोस्ट मारटम ख़ुद कर के देखें। धर्मेन्द्र कुमार सज्जन इस प्रक्रिया से आलरेडी गुजर चुके हैं। आइये आगे बढ़ते हैं धर्मेन्द्र कुमार सज्जन जी के दोहों के साथ।

23 अक्तूबर 2012

SP/2/1/5 कोचिंग सेंटर खोल ले, सिखला भ्रष्टाचार - महेंद्र वर्मा

सभी साहित्य-रसिकों का सादर अभिवादन
पिछले दिनों बहुत कुछ हो गया। दो बातें सब से ज़ियादा खटकीं [सिर्फ़ अपनी बात कहना चाहता हूँ, यह विमर्श का विषय नहीं] पहली तो यह कि उत्तम दोहे जिन से रचवाए गये - हम उन के श्रम और अच्छाइयों पर जितनी चर्चा कर रहे हैं उस से कभी-कभी सौ गुना ज़ियादा चर्चा ऐसे व्यक्तियों / दोहों की कमियों या फिर अपने पाण्डित्य-प्रदर्शन हेतु कर रहे हैं। कोई-कोई तो बस हवलदार की तरह से सीटी बजा कर ही हट गया। दूसरी बात ये कि - यदि बदली हुई परिस्थितियों से पुराने साथी आहत हैं तो पीछे क्यों हो मेरे भाई, आओ मिल कर 'ठीक' करते हैं :)। विचार-विमर्श ज़ारी रहेंगे, टिप्पणियों को मोडरेट करने की इच्छा नहीं है, परंतु साथ ही हम सभी को 'दाल में कितना नमक' वाली बात को समझना भी ज़रूरी है।

21 अक्तूबर 2012

अपनों से अपनी सी. . . - आ. संजीव वर्मा 'सलिल'

अभिन्न नवीन जी!

वन्दे मातरम।


आपके इस सारस्वत अनुष्ठान हेतु साधुवाद। आप और आप जैसे अपने अभिन्न मित्रों से अपनी सी बात पूरे अपनेपन से करना चाहता हूँ। जिन्हें न रुचे वे इसे भूल जाएँ यह उनके लिए नहीं है।

विषय केन्द्रित-संयमित टिप्पणी:

आप बार-बार उपस्थिति का आग्रह कर रहे हैं और मैं आग्रह की रक्षा नहीं कर पा रहा क्योंकि जानता हूँ कि रचना में दोष इंगित करते ही दो मनोवृत्तियों से सामना करना होता है। एक वह जो काव्यशास्त्र के नियमों को सर्वोपरि मानकर शुद्धता की बात करती है, दूसरी वह जो नियमों की सुविधा या अधूरी जानकारी के आधार पर जाने-अनजाने अदेखी करने की अभ्यस्त है। अब तक जिसे सही मानती रही उसे अचानक गलत बताया जाना सहज ही नहीं पचा पाती। एक तीसरी मनोवृत्ति अपना पांडित्य प्रमाणित करने की जिद में नियमों को जानते हुए भी किसी न किसी प्रकार उसकी काट तर्क या कुतर्क से करती है और सही को न स्वीकारने की कसम खाए रहती है। यह भी होता है कि एक रचनाकार कभी एक, कभी दूसरी, कभी तीसरी मनोवृत्ति से प्रभावित होकर मत व्यक्त करता है। इस प्रक्रिया में स्पष्ट बात करनेवाला अंततः अनावश्यक कटुता का शिकार बनता है। अयाचित और पूर्वाग्रहित टिप्पणियों के कारण पूर्व में सहयोगी रहे कुछ रचनाकार अब तक जुड़ नहीं सके हैं। सारगर्भित विषय केन्द्रित-संयमित टिप्पणी का सदा स्वागत है।

श्रेष्ठ प्रस्तुति:

रचनाकार की श्रेष्ठ रचनाएँ ही सामने आएं और अनावश्यक वाद-विवाद भी न हो इस हेतु बेहतर है कि दोषपूर्ण

19 अक्तूबर 2012

SP/2/1/4 कितने स्याने हो गये, सारस और सियार - साधना वैद

सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन


जहाँ एक ओर अच्छे-अच्छे दोहे पढ़ने को मिल रहे हैं, वहीं दूसरी ओर मंच के सहभागियों तथा अन्य पाठकों द्वारा विचार-विमर्श के माध्यम से एक अद्भुत कार्यशाला का दृश्य भी उपस्थित हो रहा है। पिछली पोस्ट में हमने कुंतल-कुंडल के बहाने से कुछ और बारीकियों को समझा। यदि सुधार के सुझाव [मसलन ये दोहा यूँ नहीं यूँ कहा जाये] भी सामने आ सकें तो और भी अच्छा हो। विविध रंगों में रँगे भावना-प्रधान दोहों को पढ़ कर मन बहुत प्रसन्न हो रहा है। ताज़्ज़ुब भी हो रहा है कि अल्प-ज्ञात / अज्ञात रचनाधर्मियों की तरफ़ से आ रहे हैं ऐसे उत्कृष्ट और नये दोहे। ख़ुशी का यह मौक़ा देने के लिये सभी सहयोगियों / सहभागियों का बहुत-बहुत आभार। आइये आज की पोस्ट में पढ़ते हैं आ. साधना वैद जी के दोहे:-

17 अक्तूबर 2012

तेरी उलफ़त का मेरी रूह पे चस्पाँ होना - नवीन

तेरी उलफ़त का मेरी रूह पे चस्पाँ होना
जैसे तपते हुये सहरा का गुलिस्ताँ होना

जिस के हाथों के तलबगार हों अहसान-ओ-करम
उस की तक़दीर में होता है सुलेमाँ होना

वो भी इन्सान बना तब ये ख़ला, खल्क़ हुआ
यूँ समझ आया "बड़ी बात है इनसाँ होना"

ऐसे बच्चे ही बुलंदी पे मिले हैं अक्सर
जिन को रास आया बुजुर्गों का निगहबाँ होना

खुद को दफ़नाते हैं तब जा के उभरती है ग़ज़ल
दोस्त आसाँ नहीं - आलम का निगहबाँ होना

:- नवीन सी. चतुर्वेदी 


फाएलातुन फ़एलातुन फ़एलातुन फालुन 
बहरे रमल मुसम्मन मखबून मुसक्कन
2122 1122 1122 22

SP2/1/3 बेटा सेवा में जुटा , बहू दबाती पाँव - अरुण कुमार निगम

सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन
पितृ-पक्ष समाप्त होते ही गाजों-बाजों के साथ माँ दुर्गा का आगमन हो चुका है। पर्वों का पर्याय, उत्सव प्रधान देश भारत उत्सव-काल में प्रवेश कर चुका है। पहले नवरात्रि, फिर दशहरा, फिर शरद पूर्णिमा, धनतेरस, दिवाली, विजया दशमी और लाइन लगा कर न जाने कितने पर्व, अलग अलग प्रदेश में अलग अलग पर्व। इस उत्सव-पर्व की सकल जगत को शुभकामनाएँ।

13 अक्तूबर 2012

SP/2/1/2 नदी हुई नव-यौवना, बूढ़ा पुल बेचैन - म. न. नरहरि


!!सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन!!

यत्र-तत्र विचरण करते जलधरों [बादलों] को एक दूसरे के समीप ला कर, अपने गुण-धर्म का सदुपयोग करते हुये उन बादलों में घर्षण उत्पन्न कर के जन-जीवन के लिए मूसलाधार बरसात उपलब्ध करवाती है पवन। इस ब्लॉग का भी यही प्रयास रहा है कि तमाम विद्वानों / विदुषियों को एक बिन्दु पर एकत्र कर के उन के अगाध परिश्रम के द्वारा अर्जित ज्ञान व अनुभव को आने वाली पीढ़ियों के हितार्थ उपलब्ध करवाना। वर्तमान श्रंखला वक्रोक्ति-विरोधाभास पर चर्चा ज़ारी रखे हुये है, मुखर होते स्वरों की पहिचान पर बतिया रही है; ऐसे में मंच कुछ और दोहों को ले कर सफ़र को आगे बढ़ाने का यत्न करता है। आज की पोस्ट में हम पढ़ते हैं मुंबई निवासी वरिष्ठ साहित्यसेवी आदरणीय श्री म. न. नरहरि [नरहरि अमरोहवी] जी के दोहे:-

ठेस;
मूरख मैं साबित हुआ, फक्कड़ मिला ख़िताब
घाटा सब मैंने भरा, ऐसे हुआ हिसाब

वक्रोक्ति एवं विरोधाभास अलंकार - आ. संजीव वर्मा 'सलिल'

सुधि जनों!
वन्दे मातरम।

वक्रोक्ति और विरोधाभास अलंकारों पर कुछ जानकारी नीचे है। समस्या पूर्ती में प्राप्त दोहों में कहाँ कौन सा अलंकार है, खोजिए। कोइ शंका हो तो अवश्य पूछें।

वक्रोक्ति अलंकार-
जब किसी व्यक्ति के एक अर्थ में कहे गये शब्द या वाक्य का कोई दूसरा व्यक्ति जान-बूझकर दूसरा अर्थ कल्पित करे तब वक्रोक्ति अलंकार होता है। इस दूसरे अर्थ की कल्पना श्लेष या काकु द्वारा संभव होती है। वक्रोक्ति के 2 प्रकार 1. श्लेष वक्रोक्ति तथा 2. काकु वक्रोक्ति हैं।