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अपने सीने से लगा लेंगे मुझे - नवीन

अपने सीने से लगा लेंगे मुझे।
मेरे बच्चे ही सँभालेंगे मुझे।।
खर्च ले वक़्त मुझे कितना भी।
चन्द लमहात बचा लेंगे मुझे।।
बख़्त के पास कहाँ है फुरसत।
ज़ात के हाथ खँगालेंगे मुझे।।
टूट कर गिर भी गये गर अफ़लाक।
भर के बाँहों में उठा लेंगे मुझे।।
आप का घर भी तो मेरा घर है।
आप किस घर से निकालेंगे मुझे।।
हाँ! ‘बदी’ ने ही दिया ‘दीन’ को ‘दी’।
कुछ अँधेरे भी उजालेंगे मुझे।।
:- नवीन सी. चतुर्वेदी

बहरे रमल मुसद्दस मखबून मुसक्कन
फ़ाएलातुन फ़एलातुन फ़ालुन
2122 1122 22

आज का जितना भी हर्जाना है - नवीन

आज का जितना भी हर्जाना है
कल के कल सारा ही भर जाना है
ये जो कलियाँ हैं न! बस खिल जाएँ
फिर तो ख़ुशबूएँ बिखर जाना है
और क्या आब-जनों का मामूल
डूब जाना कि उबर जाना है
ये उदासी तो नहीं हो सकती
ये तो सरसर का ठहर जाना है
हम को गहराई मयस्सर न हुई
हम ने साहिल पे बिखर जाना है
अव्वल-अव्वल हैं उसी के चरचे
आख़िर-आख़िर जो अखर जाना है
क्यों न पहिचानेगी दुनिया हम को
सब ने थोड़े ही मुकर जाना है
नैन लड़ते ही ये तय था एक रोज़
दर्द पलकों पे पसर जाना है
ढल गयी रात वो आये ही नहीं
अब तो नश्शा भी उतर जाना है
जिस पे जो गुजरे मुक़द्दर उस का
मरने वालों ने तो मर जाना है
परसूँ गिद्धेश+ ने भी सोचा था
आज हर हद से गुजर जाना है”
ब्रज-गजल ऐसे न बिदराओ ‘नवीन’
कल को अज़दाद के घर जाना है
नवीन सी. चतुर्वेदी
+ गीधराज सम्पाती जिसने उड़ कर सूर्य तक पहुँचना चाहा था

बहरे रमल मुसद्दस मखबून मुसक्कन 
फ़ाएलातुन फ़एलातुन फ़ालुन 
2122 1122 22



दश्त में ख़ाक़ उड़ा रक्खी है - शकील जमाली

दश्त में ख़ाक उड़ा रखी है
यार ने धाक जमा रखी है

आप समझाइए मायूसी को
हमने उम्मीद लगा रखी है

कौन खता था के मर जाऊंगा
मेज़ पे अब भी दवा रखी है

मुझको दीमक नहीं लग पायेगी
जिस्म को धुप दिखा रखी है

चैन से बैठ के खा सकता हूँ
इतनी इज्ज़त तो कमा रखी है

लडखडाता हूँ मैं कमजोरी से
वो समझता है लगा रखी है

इश्क करने को तो कर सकते हो

ताक पर रस्म-ऐ-वफा रखी है

शकील जमाली

बहरे रमल मुसद्दस मख़बून मुसककन
फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन
2122 1122 22

रहमतें छोड़ के सर के लिये कलगी ले ली - नवीन

रहमतें छोड़ के सर के लिये कलगी ले ली
छोड़ कर मुहरें अरे रे रे इकन्नी ले ली

जिस्म चादर है जिसे उस पे चढ़ाना है हमें
साफ़ करने के लिये दश्त में डुबकी ले ली

माँ के पहलू में जो बेटी ने रखा अपना सर
माँ ने सर चूम के फिर हाथों में कंघी ले ली

उस ने जिस हाथ की जिस उँगली को पहनाई थी रिंग
हम ने उस हाथ की उस उँगली की पुच्ची ले ली

वरना क्या कहते कि कोई भी नहीं अपना यहाँ
यादों में खोये थे सब हमने भी हिचकी ले ली

तंज़ के तौर उसे नाम दिया शह+नाई
उसको अच्छा भी लगा हमने भी चुटकी ले ली

मुद्दआ ये था कि शुरुआत हुई थी कैसे
हम ज़िरह करते रहे उस ने गवाही ले ली

उस की जुल्फों के तले ऊँघती आँखों को मला
और अँगड़ाई ने फिर चाय की चुस्की ले ली

मील दो मील का थोड़ा है मुहब्बत का सफ़र
दूर जाना था ख़यालात की बघ्घी ले ली

जैसे ही नूर का दीदार हुआ आँखों को
जल गईं भुन गईं और पलकों ने झपकी ले ली

हमने ही जीते मुहब्बत के सभी पेच नवीन
हाँ मगर हाथों में जब आप ने चरखी ले ली

:- नवीन सी. चतुर्वेदी 


बहरे रमल मुसम्मन मख़बून महज़ूफ़
फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन

2122 1122 1122 22

घर की अँखियान कौ सुरमा जो हते - नवीन

घर की अँखियान कौ सुरमा जो हते
दब कें रहनौ परौ दद्दा जो हते

बिन दिनन खूब ई मस्ती लूटी
हम सबन्ह के लिएँ बच्चा जो हते

आप के बिन कछू नीकौ न लगे
टोंट से लगतु एँ सीसा जो हते

चन्द बदरन नें हमें ढाँक दयो
और का करते चँदरमा जो हते

पेड़ तौ काट कें म्हाँ रोप दयौ
किन्तु जा पेड़ के पत्ता जो हते

पैठ पाए न महल के भीतर 
बिप्र-छत्री और बनिया जो हते

देख सिच्छा कौ चमत्कार ‘नवीन’
ठाठ सूँ रहतु एँ मंगा जो हते

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[भाषा धर्म के अधिकतम निकट रहते हुये उपरोक्त गजल का भावार्थ]

घर की, हम, आँखों का सुरमा जो थे 
दब के रहना पड़ा दद्दा जो थे 

उन दिनों खूब ही मस्ती लूटी
हम सभी के लिये बच्चा जो थे 

आप के बिन ज़रा अच्छा न लगे
टोंट से लगते हैं शीशा जो थे

चन्द अब्रों [बादलों] नें हमें ढँक डाला
और क्या करते जी, चन्दा जो थे

पेड़ तौ काट कें वाँ रोप दिया
किन्तु इस पेड़ के पत्ता जो थे

पैठ पाए न महल के भीतर 
बिप्र-छत्री और बनिया जो थे

देख शिक्षा का चमत्कार ‘नवीन’
ठाठ से रहते हैं मङ्गा जो थे



:- नवीन सी. चतुर्वेदी

बहरे रमल मुसद्दस मख़बून मुसककन
फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन

2122 1122 22

सनसनीखेज़ हुआ चाहती है - नवीन

सनसनीखेज़ हुआ चाहती है 
तिश्नगी तेज़ हुआ चाहती है 
तिश्नगी - प्यास 

हैरत-अंगेज़ हुआ चाहती है 
आह - ज़रखेज़ हुआ चाहती है 
ज़रखेज़ - उपजाऊ [ज़मीन]

अपनी थोड़ी सी धनक दे भी दे 
रात रँगरेज़ हुआ चाहती है 

आबजू देख तेरे होते हुये 
आग - आमेज़ हुआ चाहती है 
आबजू - झरना-नदी-नहर आदि, आमेज़ - मिलाने वाला 

बस पियाला ही तलबगार नहीं 
मय भी लबरेज़ हुआ चाहती है 
लबरेज़ - लबालब भरा हुआ, लबालब भरना  

रौशनी तुझ से भला क्या परहेज़ 
तू ही परहेज़ हुआ चाहती है 

हम फ़क़ीरी के 'इशक' में पागल 
जीस्त - पर्वेज़ हुआ चाहती है 
जीस्त - ज़िन्दगी, परवेज़ - प्रतिष्ठित, विजेता के सन्दर्भ में 

:- नवीन सी. चतुर्वेदी 

बहरे रमल मुसद्दस मखबून मुसक्कन 
फ़ाएलातुन फ़एलातुन फ़ालुन 

2122 1122 22

सुख चमेली की लड़ी हो जैसे - नवीन

मुहतरम बानी मनचन्दा साहब की ज़मीन ‘आज फिर रोने को जी हो जैसे’ पर एक कोशिश। 
आख़िरी वाले दो अशआर के सानी मिसरे बानी साहब के हैं

सुख चमेली की लड़ी हो जैसे
ग़म कोई सोनजुही हो जैसे

हमने हर पीर समझनी थी यूँ
गर्द, शबनम को मिली हो जैसे

ज़िंदगी इस के सिवा है भी क्या
धूप, सायों से दबी हो जैसे

आस है या कि सफ़र की तालिब
नाव, साहिल पे खड़ी हो जैसे 
सफ़र की तालिब - यात्रा पर जाने की इच्छुक 

सब का कहना है जहाँ और भी हैं
ये जहाँ बालकनी हो जैसे
जहाँ / जहान - संसार

क्या तसल्ली भरी नींद आई है
"
फिर कोई आस बँधी हो जैसे"

हर मुसीबत में उसे याद करूँ
"
आशना एक वही हो जैसे"
आशना - परिचित
  
:- नवीन सी. चतुर्वेदी


बहरे रमल मुसद्दस मखबून मुसक्कन
फाएलातुन फ़एलातुन फालुन

२१२२ ११२२ २२

जब भी सर चढ़ के बहा है दरिया - नवीन

जब भी सर चढ़ के बहा है दरिया
सब की आँखों में चुभा है दरिया

आब को अक़्ल भी होती है जनाब
कृष्ण के पाँव पड़ा है दरिया

ख़ुद-ब-ख़ुद अपनी हिफ़ाज़त करना
राम को लील चुका है दरिया

बेकली से ही उपजता है सुकून
जी! सराबों का सिला है दरिया

बाक़ी दुनिया की तो कह सकता नहीं
मेरी धरती पे ख़ुदा है दरिया

ख़ुद में रखता है अनासिर सारे
एक अजूबा सा ख़ला है दरिया

:- नवीन सी. चतुर्वेदी 

बहरे रमल मुसद्दस मखबून मुसककन
2122 1122 22

फ़ाएलातुन फ़एलातुन फ़ालुन

मेरी पहिचान - अनासिर मेरे - नवीन


मेरी पहिचान - अनासिर मेरे
मुझ को ढ़ोते हैं मुसाफ़िर मेरे

इस क़दर बरसे हैं मुझ पर इल्ज़ाम
पानी-पानी हैं मनाज़िर मेरे

अस्ल में सब के दिलों में है कसक
ख़ुद मकीं हों कि मुहाजिर मेरे

अब कहीं जा के मिला दिल को सुकून

मुझ से आगे हैं मुतअख्खिर मेरे