ज़िंदा रहने
की ये तरकीब निकाली मैं ने
अपने होने
की खबर सब से छुपा ली में ने
जब
ज़मीं रेत
की मानिंद सरकती पायी
आसमां थाम लिया जान बचा ली मैं ने
अपने सूरज
की तमाज़त का भरम रखने को
नर्म छाँओं
में कड़ी
धूप मिला ली मैं ने
मरहला कोई
जुदाई का जो दरपेश हुआ
तो तबस्सुम
की रिदा ग़म को उढ़ा ली मैं ने
एक लम्हे को
तेरी सम्त से उट्ठा बादल
और बारिश की सी उम्मीद लगा ली मैं ने
बाद मुद्दत
मुझे नींद आई बड़े चैन की नींद
ख़ाक जब ओढ़
ली जब ख़ाक बिछा ली
जो ‘अलीना’ ने सरे अर्श दुआ भेजी थी
उस की तासीर
यहीं फर्श पे पा ली मैं ने
ख़िज़ां की
ज़र्द सी रंगत बदल भी सकती है
बहार आने की
सूरत निकल भी सकती है
जला के शमअ
अब उठ उठ के देखना छोड़ो
वो
ज़िम्मेदारी से अज़खुद पिघल भी सकती है
है
शर्त सुबह के रस्ते से हो के शाम आये
तो रात उस
को सहर में बदल भी सकती है
ज़रा सम्हल
के जलाना अक़ीदतों के चराग़
भड़क न जाएँ
के मसनद ये जल भी सकती है
अभी तो चाक
पे मिटटी का रक़्स जारी है
अभी कुम्हार
की नीयत बदल भी सकती है
कोई ज़रूरी
नहीं वो ही दिल को शाद करे
‘अलीना’ आप तबीयत बहल भी सकती है
मौसमे गुल
पर खिज़ाँ का ज़ोर चल जाता है क्यों
हर हसीं
मंज़र बहोत जल्दी बदल जाता है क्यों
यूँ अँधेरे में दिखा कर रौशनी की इक झलक
मेरी मुट्ठी
से हर इक जुगनू निकल जाता है क्यों
रौशनी का इक
मुसाफिर थक के घर आता है जब
तो अँधेरा
मेरे सूरज को निगल जाता है क्यों
तेरे लफ़्ज़ों की तपिश से क्यों सुलग उठती है जां
सर्द मेहरी
से भी तेरी दिल ये जल जाता है क्यों
अब के जब
लौटेगा वो ,तो फासला रक्खेंगें हम
ये इरादा उस
के आते ही बदल जाता है क्यों
दूर है सूरज
‘अलीना’ फिर भी उस की धूप से
बर्फ की
चादर में लिपटा तन पिघल जाता है क्यों
साअतें कैसे
गुजारूं शबे तन्हाई की
मैं न बख्शूंगी खतायें मेरे हरजाई की
उस का महबूब
भी इक रोज़ चला जाये कहीं
और मिले उस
को सजा ऐसी शनासाई की
वस्ल के
ख्वाब की ताबीर न मांगी कोई
हिज्र के
दर्द से ज़ख्मों की मसीहाई की
दिल की आवाज़
का दरवाज़ा मुक़फ़्फ़ल कर के
बंद कर दीं
सभी राहें तेरी रुस्वाई की
उजले बादल
पे इशारे से ‘अलीना’ लिक्खा
मेरे मोहसिन
ने मेरी यूँ भी पज़ीराई की
रास्ता पहले
खुद ही बनाया जाता है
फिर उस का
हर नक्श मिटाया जाता है
सुबह सवेरे
आग जला दी जाती है
शाम ढले
सूरज को बुझाया जाता है
पत्ती पत्ती
खूब सुखाई जाती है
और खिज़ां
में उन्हें उड़ाया जाता है
ऊपर वाला
ज़मीं हिला कर कहता है
दुनिया को
ऐसे भी उठाया जाता है
तारीकी से
शब् की हिफाज़त करने को
चाँद को
पहरेदार बनाया जाता है
आखिरी मंज़र
जब आँखों से गुज़र चुके
पहला मंज़र
फिर दोहराया जाता है
तन्हाई के
दश्त से अक्सर घबरा कर
आवाजों का
शहर बनाया जाता है
चाँद ‘अलीना’ आना कानी करता है
तो जुगनू से
काम चलाया जाता है
हवा खुद पर
बहुत इतरा रही है
अभी सावन से
मिलकर आ रही है
उधर मल्हार छेड़ा है घटा ने
ज़मीं भी
चुपके चुपके गा रही है
छुआ यूँ
चाँद ने शब् को के उस की
सियह चादर
उतरती जा रही है
खिजां के खौफ़
से अन्जान पत्ती
बहारों का
तराना गा रही है
अचानक
रास्ते दलदल पे उभरे
ज़मीं
क़दमों में बिछती जा रही है
पसे दीवार
जो ताज़ा हवा थी
दरे
ज़िन्दान से टकरा रही है
किसी ज़ंजीर
में जकड़े बदन की
रिहाई का
संदेसा ला रही है
अलीना इतरत
+91 8882688571
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