30 नवंबर 2014

ग़ज़लें - सूर्यभानु गुप्त

सूर्यभानु गुप्त
9969471516

दिल लगाने की भूल थे पहले
अब जो पत्थर हैं फूल थे पहले

मुद्दतों बाद वो हुआ क़ाइल
हब उसे कब क़ुबूल थे पहले

उस से मिलकर हुए हैं कार-आमद
चाँद तारे फ़ुजूल थे पहले

लोग गिरते नहीं थे नज़रों से
इश्क के कुछ उसूल थे पहले

अन्नदाता हैं अब गुलाबों के
जितने सूखे बबूल थे पहले

आज काँटे हैं उन की शाख़ों पर
जिन दरख़्तों पे फूल थे पहले

दौरे-हाज़िर की ये इनायत है
हम न इतने मलूल थे पहले

झूठे इलज़ाम मान लेते हैं
हम भी शायद रसूल थे पहले

जिनके नामों पे आज रस्ते हैं
वे ही रस्तों की धूल थे पहले





रंज इस का नहीं कि हम टूटे
ये तो अच्छा हुआ भरम टूटे

एक हल्की सी ठेस लगते ही
जैसे कोई गिलास – हम टूटे

आई थी जिस हिसाब से आँधी
उस को सोचो तो पेड़ कम टूटे

कुर्सियों का नहीं कोई मज़हब
दैर ढह जाये या हरम टूटे

लोग चोटें तो पी गये लेकिन
दर्द करते हुये रक़म – टूटे

आईने, आईने रहे, गरचे
साफ़गोई में दम-ब-दम टूटे

शायरी, इश्क़, भूख, ख़ुद्दारी
उम्र भर हम तो हर क़दम टूटे

बाँध टूटा नदी का कुछ ऐसे
जिस तरह से कोई क़सम टूटे

एक अफ़वाह थी सभी रिश्ते
टूटना तय था और हम टूटे

ज़िन्दगी कंघियों में ढाल हमें
तेरी ज़ुल्फ़ों के पेचो-ख़म टूटे

तुझ पे मरते हैं ज़िन्दगी अब भी
झूठ लिक्खें तो ये क़लम टूटे





जिनके अंदर चिराग़ जलते हैं
घर से बाहर वही निकलते हैं

बर्फ़ गिरती है जिन इलाकों में
धूप के कारोबार चलते हैं

जब दरकते हैं पाँव के छाले
तब कहीं रास्ते निकलते हैं

ऐसी काई है अब मकानों पर
धूप के पाँव भी फिसलते हैं

बस्तियों का शिकार होता है
पेड़ जब कुर्सियों में ढलते हैं

खुदरसी उम्र भर भटकती है
लोग इतने पते बदलते हैं

हम तो सूरज हैं सर्द मुल्कों के
मूड होता है तब निकलते हैं





क़ैद इतने बरस रहा है ख़ून
छूटने को तरस रहा है ख़ून

गाँव में एक भी नहीं ओझा
और लोगों को डस रहा है ख़ून

सौ दुखों का सितार हर चेहरा
तार पर तार कस रहा है ख़ून

छतरियाँ तान लें जो पानी हो
आसमाँ से बरस रहा है ख़ून

प्यास से मर रही है ये दुनिया
और पीने को, बस, रहा है ख़ून





अपने घर में ही अजनबी की तरह
मैं सुराही में इक नदी की तरह

एक ग्वाले तलक गया कर्फ़्यू
ले के सड़कों को बन्सरी की तरह

किससे हारा मैं, ये मेरे अन्दर
कौन रहता है ब्रूस ली की तरह

उसकी सोचों में मैं उतरता हूँ
चाँद पर पहले आदमी की तरह

अपनी तनहाइयों में रखता है
मुझको इक शख़्स डायरी की तरह

मैंने उसको छुपा के रक्खा है
ब्लैक आउट में रोशनी की तरह

टूटे बुत रात भर जगाते हैं
सुख परीशां है गज़नवी की तरह

बर्फ़ गिरती है मेरे चेहरे पर
उसकी यादें हैं जनवरी की तरह

वक़्त-सा है अनन्त इक चेहरा
और मैं रेत की घड़ी की तरह






उल्टे सीधे गिरे पड़े हैं पेड़
रात तूफ़ान से लड़े हैं पेड़

कौन आया था किस से बात हुई
आँसुओं की तरह झडे हैं पेड़

बाग़बाँ हो गये लकड़हारे
हाल पूछा तो रो पड़े हैं पेड़

क्या ख़बर इंतिज़ार है किस का
सालहासाल से खड़े हैं पेड़

जिस जगह हैं न टस से मस होंगे
कौन सी बात पर अड़े हैं पेड़

कोंपलें फूल पत्तियाँ देखो
कौन कहता है ये कड़े हैं पेड़

जीत कर कौन इस ज़मीं को गया
परचमों की तरह गड़े हैं पेड़

अपनी दुनिया के लोग लगते हैं
कुछ हैं छोटे तो कुछ बड़े हैं पेड़

उम्र भर रासतों पे रहते हैं
शायरी पर सभी पड़े हैं पेड़

मौत तक दोसती निभाते हैं
आदमी से बहुत बड़े हैं पेड़

अपना चेहरा निहार लें ऋतुएँ
आईनों की तरह जड़े हैं पेड़






इश्क़ की इब्तिदा है ख़ामोशी
आहटों का पता है ख़ामोशी

चाँदनी है, घटा है ख़ामोशी
भीगने का मज़ा है ख़ामोशी

काम आती नहीं कोई छतरी
बारिशों की हवा है ख़ामोशी

इस के क़ाइल हैं आज भी पत्थर
सौ नशे का नशा है ख़ामोशी

कंघियाँ टूटती हैं लफ़्ज़ों की
जोगियों की जटा है ख़ामोशी

इश्क़ की कुण्डली में छुरियाँ हैं
हर छुरी पर लिखा है ख़ामोशी

एक आवाज़ बन गयी चेहरा
कान का आईना है ख़ामोशी

नैन भूले पलक झपकना भी
सोच का केमेरा है ख़ामोशी

भीगती रात की हथेली पर
जैसे रंगे-हिना है ख़ामोशी

पेड़ जिस दिन से बे-लिबास हुये
बर्फ़ का क़हक़हा है ख़ामोशी

घर की एक-एक ईंट रोती है
बेटियों की विदा है ख़ामोशी

रूह तो दी बदन नहीं बख़्शा
किस ख़ता की सज़ा है ख़ामोशी

घर में दुख झेलती हर इक माँ की
आतमा की दुआ है ख़ामोशी

गुफ़्तेगु के सिरे हैं हम दौनों
बीच का फ़ासला है ख़ामोशी

दे गई हर ज़ुबान इस्तीफ़ा
इस क़दर लब-कुशा है ख़ामोशी

बस्तियों की हरिक अदालत में
इक रुका फ़ैसला है ख़ामोशी

रात-दिन भीड़-भाड़, हंगामे
इस सदी की दवा है ख़ामोशी

लफ़्ज़ मत फेंक ग़म के दरिया में
सब से ऊँची दुआ है ख़ामोशी

देवता सब नशे के आदी हैं
और उन का नशा है ख़ामोशी

ख़ुद से लड़ने का हौसला हो अगर
जंग का तज़्रिबा है ख़ामोशी

दोसतो! ख़ुद तलक पहुँचने का
मुख़्तसर रासता है ख़ामोशी

हम तो क़ातिल हैं अपने ख़ुद साहिब
तीन सौ दो दफ़ा है ख़ामोशी

हर मुसाफ़िर का बस ख़ुदा-हाफ़िज़
डाकुओं का ज़िला है ख़ामोशी

ढूँढ ली जिस ने अपनी कस्तूरी
उस हिरण की दिशा है ख़ामोशी

लोग तस्वीर बन गये मर कर
ज़िन्दगी का सिला है ख़ामोशी

कितनी ही बार हम गये-आये
हर जनम की कथा है ख़ामोशी

कैफ़ियत है बयान के बाहर
क्या बताएँ कि क्या है ख़ामोशी

थक के लौट आईं सारी भाषाएँ
लापतों का पता है ख़ामोशी




किस को मन के घाव दिखायें हाल सुनायें जी के
इन्सानों से ज़ियादा  अच्छे पत्थर किसी नदी के

सारी उम्र छुड़ाते गुज़रे महाजनों से - चेहरे
बँधुआ मज़दूरों से अब तो जीवन हुये सभी के

हर काँधे पर अनगिन चेहरे गिनती क्या एक दो की
रावण से भी ज़ियादा चेहरे इस आधुनिक सदी के

हैज़ा, टी. बी.,चेचक से मरती थी पहले दुनिया
मन्दिर, मसजिद, नेता, कुरसी हैं ये रोग अभी के

भूली-बिसरी यादों के ओ जोगी आते रहियो
जी हल्का कर जाते तेरे फेरे कभी-कभी के




हर लम्हा ज़िन्दगी के पसीने से तंग हूँ
मैं भी किसी क़मीज़ के कॉलर का रंग हूँ

मुहरा सियासतों का, मेरा नाम आदमी
मेरा वुजूद क्या है, ख़लाओं की जंग हूँ

रिश्ते गुज़र रहे हैं लिए दिन में बत्तियाँ
मैं आधुनिक सदी की अँधेरी सुरंग हूँ

निकला हूँ इक नदी-सा समन्दर को ढूँढ़ने
कुछ दूर कश्तियों के अभी संग-संग हूँ

माँझा कोई यक़ीन के क़ाबिल नहीं रहा
तनहाइयों के पेड़ से अटकी पतंग हूँ

ये किसका दस्तख़त है, बताए कोई मुझे
मैं अपना नाम लिख के अँगूठे- सा -  दंग हूँ

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