आज के आधुनिक भारत की प्रौढ़ होती पीढ़ी अपने अन्तर्मन में प्राचीन भारत के बहुत सारे मीठे-चुलबुले संस्मरण सँजोये हुये है। ऐसा ही कुछ आज अचानक याद आ गया है। प्राचीन भारत में buffet system से पहले ज़मीन पर पत्तल डाल कर जिमाने का रिवाज़ हुआ करता था। खाना बनाने का काम भी किसी केटरर को ठेके पर न दे कर घर-परिवार-समाज के कुछ वरिष्ठ-स्पेश्यलिस्ट लोगों के हाथों में रहता था। हलवाई को बुलवा कर उससे बाक़ायदा अपने निर्देशन में अधिकतर पूड़ी-कचौड़ी तथा कुछ मिठाई नमकीन वग़ैरह बनावाई जाती थीं। परन्तु कुछ स्पेशल मिठाई और ख़ास कर पतली सब्जी [जिसे कुछ हलक़ों में आलू का झोल भी कहा जाता है] घर-परिवार-समाज के उक्त स्पेश्यलिस्ट के ज़िम्मे ही रहता था। काफ़ी सारे लोग आलू छिलवाने जैसे कामों में भी जुटे रहते थे।
हमारे बगीची-मुहल्लों में ऐसे कार्यक्रम अमूमन होते ही रहते थे। हम भी अपने बाप-काका के साथ हाथ बँटाने जाया करते थे। उन दिनों ही एक विशेष व्यक्तित्व से साक्षात्कार हुआ था। क़द ऊँट के आधे से अधिक परन्तु पौने से पक्का कम, गर्दन कमर से तक़रीबन साढ़े तीन चार इंच आगे, कंधे तराजू को हराने पर आमादा, बाजुएँ पानीपत के गर्व को ढ़ोती हुईं और वाणी ने तो जैसे सदियों का अनुभव संसार को देने का टेण्डर अपने नाम करवा रखा हो। हर बात की जानकारी, उन से अधिक हुशियार कोई भी नहीं। आप श्री तो आप श्री ही थे।
पड़ौस में शादी थी। दोपहर का खाना खा कर हम आलू छिलवाने के लिए पहुँचे। हलवाई पूड़ियाँ तल रहा था। बेलनहारियाँ लोकगीत की धुनों को गुनगुनाते हुये पूड़ियाँ बेल रही थीं। आप श्री एक बेलनहारी के पीछे कुछ देर तक खड़े-खड़े उस के आगे पड़े चकले पर बिलती पूड़ियों को निहारते रहे, जैसे कि अंकेक्षण [Audit] कर रहे हों। तपाक से बोल पड़े
"ये क्या छोटी-छोटी पूड़ियाँ बेल रही हो? ज़रा बड़ी-बड़ी बेलो, पत्तल पर पूड़ी रखें तो पत्तल भरी हुई दिखनी चाहिये"।
बेलनहारी ने धुन को अर्ध-विराम देते हुये स्वीकारोक्ति में गर्दन हिलाई और पूड़ी को बड़ा आकार देने लगी। क़रीब पाँच मिनट बाद आप श्री दूसरी बेलनहारी की ऑडिट करने लगे - बोले -
"ये क्या हपाड़ा-हपाड़ा पूड़ियाँ बेल रही हो, पूरी पत्तल पर पूड़ियाँ ही रखनी हैं क्या, ज़रा छोटी-छोटी बेलो"।
क्या करती बेचारी - गर्दन हिला दी, मगर वो पहली वाली सोचने लगी कि अब उसे बड़ी पूड़ियाँ बेलनी हैं या छोटी!!!!!!!!
आप श्री ने तमाकू रगड़ा, फटका लगाया, दो-तीन बार पिच्च किया और अब की मर्तबा हलवाई के कढ़ाव के पास जा कर अंकेक्षण करने लगे। खस्ता कचौड़ियाँ बड़ी ही धीमी-धीमी आँच में सिकती हैं तब जा कर भुरभुरी बनती हैं। हलवाई कचौड़ियों को तल रहा था और बेलनहारियों से हास-परिहास भी कर रहा था। आप श्री को न जाने क्या सूझा - बड़े ही गौर से पूरे कढ़ाव के बीचोंबीच से एक कचौड़ी को ढूँढ कर उसे दिखाते हुये बोले
"क्यों बे! बातें ही करेगा या खस्ता ढ़ंग से सेकेगा? देख वो कचौड़ी अब तक कच्ची है"।
कॉलगेट स्माइल को प्रोमोट करते हलवाई के होंठ और दाँत तुरंत ही अधोगति को प्राप्त हुये। "जी बाबूजी अबई करूँ"। आप श्री की बॉडी लेंगवेज़ ओलिम्पिक विजेता का अनुसरण करने लगी।
अंकेक्षण दौरा अब बढ़ा सब्जी [आलू-झोल] के कढ़ाव की तरफ़। पुराने ब्याह-शादियों में पतली सब्जी का ख़ासा महत्व हुआ करता था। हमारे मुहल्ले के सब्जी विशेषज्ञ सब्जी बना रहे थे। आप श्री ने तख़्त [भट्टी के पास तख़्त रख कर उस पर सब्जी बनाने वाला बैठता था] और भट्टी की कुछ परिक्रमाएँ लगाईं, कढ़ाव का विधिवत चार-पाँच बार अवलोकन किया, सब्जी विशेषज्ञ का चेहरा भी हर बार देखते हुये। वो बेचारा सोच रहा था अब उस से क्या कहा जाएगा! थोड़ी देर बाद बोले -
"कितनी सब्जी बनानी है?"
उस ने कहा - ढाई मन [100 kg]।
इस के बाद कितने आलू लिए? कितना पानी डाला? कौन-कौन से और कितने-कितने मसाले डाले? पूछने के बाद ये भी पूछा कि कौन सा मसाला किस मसाले के डालने के बाद डाला और किस तरह डाला। हर बात का संतोषजनक उत्तर मिला। हुंह। पर आप श्री को तसल्ली न हुई। सीधे भण्डार [जहाँ खाना बन रहा होता था वहीं एक जगह सुनिश्चित की जाती थी जहाँ खाने संबन्धित सभी कच्ची सामग्रियाँ रखी जाती थीं] में गए और वहाँ से हाथ में कुछ उठा कर ले आए। फिर खल-मूसल ढूँढा। फिर उस खल मूसल में एक जोड़ा लोंग [दो लोंग] डाल कर कूटीं और उन का बुक्का ढाई मन सब्जी वाले कढ़ाव में डाल दिया !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
सब के सब अवाक,,,,,,,,,,,,,,,,पर क्या कहें। आप श्री उस भरे हुए कढ़ाव की सब्ज़ी में दो चार ग्राम लौंग का पावडर डाल कर खिसक लिए और उनके जाते ही एक बुजुर्ग बोले " जस्ट इग्नोर इट, यह मेन्युफेक्चरिंग डिफेक्ट का मामला है " । उनका इतना कहना था कि हम सभी ज़ोर-ज़ोर के ठहाके मार कर हँसने लगे ।