30 अक्तूबर 2012

SP/2/1/7 इक मुट्ठी भर चाँदनी, इक थाली भर धूप - अश्विनी शर्मा

सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन

लास्ट शुक्रवार से कल तक भाग-दौड़ जारी रही। नेट के विभिन्न प्लेट्फ़ोर्म्स पर तमाम मित्रों ने जन्मदिन की शुभकामनायें भेजीं, सभी का हृदय से आभार। एक दूसरे से भेंट-मुलाक़ात न होने के बावजूद भी हम लोग समान रुचि / विषय होने के कारण कितने क़रीब आ जाते हैं। किसी ज़माने में जो लगाव पुस्तकों को पढ़ कर उन पुस्तकों के लेखकों / कवियों / शायरों से होता था अब कमोबेश वही वर्च्युयल वर्ल्ड में भी होने लगा है। दिल्ली प्रवास के दौरान तमाम मित्रों से मिल कर बहुत अच्छा लगा। आदरणीय तुफ़ैल जी ने अपने नोयडा निवास पर मेरे जन्मदिन 27 अक्तूबर के दिन महफ़िल-ए-शायरी का आयोजन कर के मेरे लिए इस दिन को यादगार दिन बना दिया। बहुत-बहुत आभार बड़े भाई। उस के बाद मथुरा और फिर बेक टु पेवेलियन :)

आइये आज की पोस्ट में पढ़ते हैं भाई श्री अश्विनी शर्मा जी के दोहे। इस बार दोहे बिना सम्पादन के पेश किए जा रहे हैं।

अश्विनी शर्मा

ठेस / टीस
धरती हा-हा कर रही ,जीना हुआ मुहाल
खड़ा सामने आ हुआ,फिर से वही अकाल

26 अक्तूबर 2012

व्यंग्य - ढाई मन सब्जी में एक जोड़ा लोंग - नवीन सी. चतुर्वेदी

आज के आधुनिक भारत की प्रौढ़ होती पीढ़ी अपने अन्तर्मन में प्राचीन भारत के बहुत सारे मीठे-चुलबुले संस्मरण सँजोये हुये है। ऐसा ही कुछ आज अचानक याद आ गया है। प्राचीन भारत में buffet system से पहले ज़मीन पर पत्तल डाल कर जिमाने का रिवाज़ हुआ करता था। खाना बनाने का काम भी किसी केटरर को ठेके पर न दे कर घर-परिवार-समाज के कुछ वरिष्ठ-स्पेश्यलिस्ट लोगों के हाथों में रहता था। हलवाई को बुलवा कर उससे बाक़ायदा अपने निर्देशन में अधिकतर पूड़ी-कचौड़ी तथा कुछ मिठाई नमकीन वग़ैरह बनावाई जाती थीं। परन्तु कुछ स्पेशल मिठाई और ख़ास कर पतली सब्जी [जिसे कुछ हलक़ों में आलू का झोल भी कहा जाता है] घर-परिवार-समाज के उक्त स्पेश्यलिस्ट के ज़िम्मे ही रहता था। काफ़ी सारे लोग आलू छिलवाने जैसे कामों में भी जुटे रहते थे।

हमारे बगीची-मुहल्लों में ऐसे कार्यक्रम अमूमन होते ही रहते थे। हम भी अपने बाप-काका के साथ हाथ बँटाने जाया करते थे। उन दिनों ही एक विशेष व्यक्तित्व से साक्षात्कार हुआ था। क़द ऊँट के आधे से अधिक परन्तु पौने से पक्का कम, गर्दन कमर से तक़रीबन साढ़े तीन चार इंच आगे, कंधे तराजू को हराने पर आमादा, बाजुएँ पानीपत के गर्व को ढ़ोती हुईं और वाणी ने तो जैसे सदियों का अनुभव संसार को देने का टेण्डर अपने नाम करवा रखा हो। हर बात की जानकारी, उन से अधिक हुशियार कोई भी नहीं। आप श्री तो आप श्री ही थे।

पड़ौस में शादी थी। दोपहर का खाना खा कर हम आलू छिलवाने के लिए पहुँचे। हलवाई पूड़ियाँ तल रहा था। बेलनहारियाँ लोकगीत की धुनों को गुनगुनाते हुये पूड़ियाँ बेल रही थीं। आप श्री एक बेलनहारी के पीछे कुछ देर तक खड़े-खड़े उस के आगे पड़े चकले पर बिलती पूड़ियों को निहारते रहे, जैसे कि अंकेक्षण [Audit] कर रहे हों। तपाक से बोल पड़े 

"ये क्या छोटी-छोटी पूड़ियाँ बेल रही हो? ज़रा बड़ी-बड़ी बेलो, पत्तल पर पूड़ी रखें तो पत्तल भरी हुई दिखनी चाहिये"। 

बेलनहारी ने धुन को अर्ध-विराम देते हुये स्वीकारोक्ति में गर्दन हिलाई और पूड़ी को बड़ा आकार देने लगी। क़रीब पाँच मिनट बाद आप श्री दूसरी बेलनहारी की ऑडिट करने लगे - बोले - 

 "ये क्या हपाड़ा-हपाड़ा पूड़ियाँ बेल रही हो, पूरी पत्तल पर पूड़ियाँ ही रखनी हैं क्या, ज़रा छोटी-छोटी बेलो"। 

क्या करती बेचारी - गर्दन हिला दी, मगर वो पहली वाली सोचने लगी कि अब उसे बड़ी पूड़ियाँ बेलनी हैं या छोटी!!!!!!!!

आप श्री ने तमाकू रगड़ा, फटका लगाया, दो-तीन बार पिच्च किया और अब की मर्तबा हलवाई के कढ़ाव के पास जा कर अंकेक्षण करने लगे। खस्ता कचौड़ियाँ बड़ी ही धीमी-धीमी आँच में सिकती हैं तब जा कर भुरभुरी बनती हैं। हलवाई कचौड़ियों को तल रहा था और बेलनहारियों से हास-परिहास भी कर रहा था। आप श्री को न जाने क्या सूझा - बड़े ही गौर से पूरे कढ़ाव के बीचोंबीच से एक कचौड़ी को ढूँढ कर उसे दिखाते हुये बोले 

"क्यों बे! बातें ही करेगा या खस्ता ढ़ंग से सेकेगा? देख वो कचौड़ी अब तक कच्ची है"। 

कॉलगेट स्माइल को प्रोमोट करते हलवाई के होंठ और दाँत तुरंत ही अधोगति को प्राप्त हुये। "जी बाबूजी अबई करूँ"। आप श्री की बॉडी लेंगवेज़ ओलिम्पिक विजेता का अनुसरण करने लगी।

अंकेक्षण दौरा अब बढ़ा सब्जी [आलू-झोल] के कढ़ाव की तरफ़। पुराने ब्याह-शादियों में पतली सब्जी का ख़ासा महत्व हुआ करता था। हमारे मुहल्ले के सब्जी विशेषज्ञ सब्जी बना रहे थे। आप श्री ने तख़्त [भट्टी के पास तख़्त रख कर उस पर सब्जी बनाने वाला बैठता था] और भट्टी की कुछ परिक्रमाएँ लगाईं, कढ़ाव का विधिवत चार-पाँच बार अवलोकन किया, सब्जी विशेषज्ञ का चेहरा भी हर बार देखते हुये। वो बेचारा सोच रहा था अब उस से क्या कहा जाएगा! थोड़ी देर बाद बोले - 

"कितनी सब्जी बनानी है?" 

उस ने कहा - ढाई मन [100 kg]। 

इस के बाद कितने आलू लिए? कितना पानी डाला? कौन-कौन से और कितने-कितने मसाले डाले? पूछने के बाद ये भी पूछा कि कौन सा मसाला किस मसाले के डालने के बाद डाला और किस तरह डाला। हर बात का संतोषजनक उत्तर मिला। हुंह। पर आप श्री को तसल्ली न हुई। सीधे भण्डार [जहाँ खाना बन रहा होता था वहीं एक जगह सुनिश्चित की जाती थी जहाँ खाने संबन्धित सभी कच्ची सामग्रियाँ रखी जाती थीं] में गए और वहाँ से हाथ में कुछ उठा कर ले आए। फिर खल-मूसल ढूँढा। फिर उस खल मूसल में एक जोड़ा लोंग [दो लोंग] डाल कर कूटीं और उन का बुक्का ढाई मन सब्जी वाले कढ़ाव में डाल दिया !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

सब के सब अवाक,,,,,,,,,,,,,,,,पर क्या कहें। आप श्री उस भरे हुए कढ़ाव की सब्ज़ी में दो चार ग्राम लौंग का पावडर डाल कर खिसक लिए और उनके जाते ही एक बुजुर्ग बोले " जस्ट इग्नोर इट, यह मेन्युफेक्चरिंग डिफेक्ट का मामला है " । उनका इतना कहना था कि हम सभी ज़ोर-ज़ोर के ठहाके मार कर हँसने लगे । 

25 अक्तूबर 2012

SP/2/1/6 आज भोर का स्वप्न है, हुई गरीबी दूर - धर्मेन्द्र कुमार 'सज्जन'

सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन
एक कहानी सुनने में आती है - एक चित्रकार ने सुंदर सी तस्वीर बना कर नगर चौक में रखी और उस पर लिख दिया कि भाई जिसे भी इस तस्वीर में कमी दिखे वह व्यक्ति उस कमी पर सर्कल बना दे। अगले दिन क्या देखता है कि तस्वीर पर सर्कल ही सर्कल। बड़ा ही हताश हुआ, पर हिम्मत नहीं हारी। फिर से तस्वीर बनाई, फिर से नगर चौक पर रखी, पर अब के लिखा जिस भी व्यक्ति को इस तस्वीर में कमी दिखे, उसे सुधार दे। ग़ज़ब हो गया भाई। किसी को नाक छोटी लगी तो उस ने स्केच से नीचे की तरफ खींच दी, किसी को ओंठ छोटे लगे तो उस ने स्केच से ऊपर-नींचे-लेफ्ट-राइट खींचते हुये बड़े कर दिये। आप अनुमान लगा सकते हैं कि क्या हालत हुई होगी उस तस्वीर की! शायद उसे लिखना चाहिए था कि जिस भी व्यक्ति को ये तस्वीर कमतर लगे, ख़ुद अपनी तरफ़ से बेहतर और त्रुटि-विहीन तस्वीर पेश करे। सही है न? ख़ैर। 

कल संजय मिश्रा हबीब जी ने हर बिन्दु पर तीन-तीन दोहे लिख कर भेजे हैं। निस्संदेह अच्छा काम है फिर भी मंच ने उन से निवेदन किया है कि 2-3 दिन का ब्रेक ले कर फिर से इन दोहों का पोस्ट मारटम ख़ुद कर के देखें। धर्मेन्द्र कुमार सज्जन इस प्रक्रिया से आलरेडी गुजर चुके हैं। आइये आगे बढ़ते हैं धर्मेन्द्र कुमार सज्जन जी के दोहों के साथ।

23 अक्तूबर 2012

SP/2/1/5 कोचिंग सेंटर खोल ले, सिखला भ्रष्टाचार - महेंद्र वर्मा

सभी साहित्य-रसिकों का सादर अभिवादन
पिछले दिनों बहुत कुछ हो गया। दो बातें सब से ज़ियादा खटकीं [सिर्फ़ अपनी बात कहना चाहता हूँ, यह विमर्श का विषय नहीं] पहली तो यह कि उत्तम दोहे जिन से रचवाए गये - हम उन के श्रम और अच्छाइयों पर जितनी चर्चा कर रहे हैं उस से कभी-कभी सौ गुना ज़ियादा चर्चा ऐसे व्यक्तियों / दोहों की कमियों या फिर अपने पाण्डित्य-प्रदर्शन हेतु कर रहे हैं। कोई-कोई तो बस हवलदार की तरह से सीटी बजा कर ही हट गया। दूसरी बात ये कि - यदि बदली हुई परिस्थितियों से पुराने साथी आहत हैं तो पीछे क्यों हो मेरे भाई, आओ मिल कर 'ठीक' करते हैं :)। विचार-विमर्श ज़ारी रहेंगे, टिप्पणियों को मोडरेट करने की इच्छा नहीं है, परंतु साथ ही हम सभी को 'दाल में कितना नमक' वाली बात को समझना भी ज़रूरी है।

21 अक्तूबर 2012

अपनों से अपनी सी. . . - आ. संजीव वर्मा 'सलिल'

अभिन्न नवीन जी!

वन्दे मातरम।


आपके इस सारस्वत अनुष्ठान हेतु साधुवाद। आप और आप जैसे अपने अभिन्न मित्रों से अपनी सी बात पूरे अपनेपन से करना चाहता हूँ। जिन्हें न रुचे वे इसे भूल जाएँ यह उनके लिए नहीं है।

विषय केन्द्रित-संयमित टिप्पणी:

आप बार-बार उपस्थिति का आग्रह कर रहे हैं और मैं आग्रह की रक्षा नहीं कर पा रहा क्योंकि जानता हूँ कि रचना में दोष इंगित करते ही दो मनोवृत्तियों से सामना करना होता है। एक वह जो काव्यशास्त्र के नियमों को सर्वोपरि मानकर शुद्धता की बात करती है, दूसरी वह जो नियमों की सुविधा या अधूरी जानकारी के आधार पर जाने-अनजाने अदेखी करने की अभ्यस्त है। अब तक जिसे सही मानती रही उसे अचानक गलत बताया जाना सहज ही नहीं पचा पाती। एक तीसरी मनोवृत्ति अपना पांडित्य प्रमाणित करने की जिद में नियमों को जानते हुए भी किसी न किसी प्रकार उसकी काट तर्क या कुतर्क से करती है और सही को न स्वीकारने की कसम खाए रहती है। यह भी होता है कि एक रचनाकार कभी एक, कभी दूसरी, कभी तीसरी मनोवृत्ति से प्रभावित होकर मत व्यक्त करता है। इस प्रक्रिया में स्पष्ट बात करनेवाला अंततः अनावश्यक कटुता का शिकार बनता है। अयाचित और पूर्वाग्रहित टिप्पणियों के कारण पूर्व में सहयोगी रहे कुछ रचनाकार अब तक जुड़ नहीं सके हैं। सारगर्भित विषय केन्द्रित-संयमित टिप्पणी का सदा स्वागत है।

श्रेष्ठ प्रस्तुति:

रचनाकार की श्रेष्ठ रचनाएँ ही सामने आएं और अनावश्यक वाद-विवाद भी न हो इस हेतु बेहतर है कि दोषपूर्ण

19 अक्तूबर 2012

SP/2/1/4 कितने स्याने हो गये, सारस और सियार - साधना वैद

सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन


जहाँ एक ओर अच्छे-अच्छे दोहे पढ़ने को मिल रहे हैं, वहीं दूसरी ओर मंच के सहभागियों तथा अन्य पाठकों द्वारा विचार-विमर्श के माध्यम से एक अद्भुत कार्यशाला का दृश्य भी उपस्थित हो रहा है। पिछली पोस्ट में हमने कुंतल-कुंडल के बहाने से कुछ और बारीकियों को समझा। यदि सुधार के सुझाव [मसलन ये दोहा यूँ नहीं यूँ कहा जाये] भी सामने आ सकें तो और भी अच्छा हो। विविध रंगों में रँगे भावना-प्रधान दोहों को पढ़ कर मन बहुत प्रसन्न हो रहा है। ताज़्ज़ुब भी हो रहा है कि अल्प-ज्ञात / अज्ञात रचनाधर्मियों की तरफ़ से आ रहे हैं ऐसे उत्कृष्ट और नये दोहे। ख़ुशी का यह मौक़ा देने के लिये सभी सहयोगियों / सहभागियों का बहुत-बहुत आभार। आइये आज की पोस्ट में पढ़ते हैं आ. साधना वैद जी के दोहे:-

17 अक्तूबर 2012

तेरी उलफ़त का मेरी रूह पे चस्पाँ होना - नवीन

तेरी उलफ़त का मेरी रूह पे चस्पाँ होना
जैसे तपते हुये सहरा का गुलिस्ताँ होना

जिस के हाथों के तलबगार हों अहसान-ओ-करम
उस की तक़दीर में होता है सुलेमाँ होना

वो भी इन्सान बना तब ये ख़ला, खल्क़ हुआ
यूँ समझ आया "बड़ी बात है इनसाँ होना"

ऐसे बच्चे ही बुलंदी पे मिले हैं अक्सर
जिन को रास आया बुजुर्गों का निगहबाँ होना

खुद को दफ़नाते हैं तब जा के उभरती है ग़ज़ल
दोस्त आसाँ नहीं - आलम का निगहबाँ होना

:- नवीन सी. चतुर्वेदी 


फाएलातुन फ़एलातुन फ़एलातुन फालुन 
बहरे रमल मुसम्मन मखबून मुसक्कन
2122 1122 1122 22

SP2/1/3 बेटा सेवा में जुटा , बहू दबाती पाँव - अरुण कुमार निगम

सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन
पितृ-पक्ष समाप्त होते ही गाजों-बाजों के साथ माँ दुर्गा का आगमन हो चुका है। पर्वों का पर्याय, उत्सव प्रधान देश भारत उत्सव-काल में प्रवेश कर चुका है। पहले नवरात्रि, फिर दशहरा, फिर शरद पूर्णिमा, धनतेरस, दिवाली, विजया दशमी और लाइन लगा कर न जाने कितने पर्व, अलग अलग प्रदेश में अलग अलग पर्व। इस उत्सव-पर्व की सकल जगत को शुभकामनाएँ।

13 अक्तूबर 2012

SP/2/1/2 नदी हुई नव-यौवना, बूढ़ा पुल बेचैन - म. न. नरहरि


!!सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन!!

यत्र-तत्र विचरण करते जलधरों [बादलों] को एक दूसरे के समीप ला कर, अपने गुण-धर्म का सदुपयोग करते हुये उन बादलों में घर्षण उत्पन्न कर के जन-जीवन के लिए मूसलाधार बरसात उपलब्ध करवाती है पवन। इस ब्लॉग का भी यही प्रयास रहा है कि तमाम विद्वानों / विदुषियों को एक बिन्दु पर एकत्र कर के उन के अगाध परिश्रम के द्वारा अर्जित ज्ञान व अनुभव को आने वाली पीढ़ियों के हितार्थ उपलब्ध करवाना। वर्तमान श्रंखला वक्रोक्ति-विरोधाभास पर चर्चा ज़ारी रखे हुये है, मुखर होते स्वरों की पहिचान पर बतिया रही है; ऐसे में मंच कुछ और दोहों को ले कर सफ़र को आगे बढ़ाने का यत्न करता है। आज की पोस्ट में हम पढ़ते हैं मुंबई निवासी वरिष्ठ साहित्यसेवी आदरणीय श्री म. न. नरहरि [नरहरि अमरोहवी] जी के दोहे:-

ठेस;
मूरख मैं साबित हुआ, फक्कड़ मिला ख़िताब
घाटा सब मैंने भरा, ऐसे हुआ हिसाब

वक्रोक्ति एवं विरोधाभास अलंकार - आ. संजीव वर्मा 'सलिल'

सुधि जनों!
वन्दे मातरम।

वक्रोक्ति और विरोधाभास अलंकारों पर कुछ जानकारी नीचे है। समस्या पूर्ती में प्राप्त दोहों में कहाँ कौन सा अलंकार है, खोजिए। कोइ शंका हो तो अवश्य पूछें।

वक्रोक्ति अलंकार-
जब किसी व्यक्ति के एक अर्थ में कहे गये शब्द या वाक्य का कोई दूसरा व्यक्ति जान-बूझकर दूसरा अर्थ कल्पित करे तब वक्रोक्ति अलंकार होता है। इस दूसरे अर्थ की कल्पना श्लेष या काकु द्वारा संभव होती है। वक्रोक्ति के 2 प्रकार 1. श्लेष वक्रोक्ति तथा 2. काकु वक्रोक्ति हैं।

11 अक्तूबर 2012

दोहा छंद वाली समस्या पूर्ति - शंका समाधान

नमस्कार

दोहा शब्द कानों में पड़ते ही जो दोहे हमारी स्मृतियों से झाँकते हैं वो अमूमन ये या इस प्रकार के होते हैं

कबिरा खड़ा बजार में, माँगे सब की ख़ैर
नहिं काहू सों दोसती, ना काहू सों बैर

रहिमन धागा प्रेम का, मत तोरो चटकाय
टूटे पे फिर ना जुरे, जुरे गाँठ पर जाय

SP2/1/1 कितने सीधे श्याम जी, यथा जलेबी रूप - डा. श्याम गुप्त

।।सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन।।

एक ज़माना हुआ करता था जब टेलीविज़न परिवार के सभी सदस्यों को एक जगह एकत्र करने का पर्याय बन गया था। अब तो गेजेट्स की मेहरबानी ये है कि जितने मुंड, उतने टी. वी. सेट्स / गेजेट्स हों तो भी अचरज नहीं। कभी-कभार ही मौक़े बनते हैं जब परिवार के सभी सदस्य एक ही प्रोग्राम एक साथ देखते हों। कल ऐसा ही एक मौक़ा बना जब शाम को टी. वी. पर आमिर ख़ान वाली 'तारे ज़मीन पर' फिल्म आ रही थी। उस फिल्म के केंद्र में जो बच्चा ईशान है उस के पिता आमिर खान के पास अपने बेटे की बीमारी से संबन्धित कुछ सामग्री [इंटरनेट पर से उन के नहीं उन की पत्नी द्वारा जुटाई गई] ले कर पहुँचते हैं और बड़े ही दम्भ के साथ ये जताते भी हैं कि कोई ये न समझे कि उन्हें [ईशान के माँ-बाप को] अपने बच्चे की कोई फ़िक्र नहीं है। इस पर आमिर खान वाला किरदार क्या कहता और करता है, अमूमन सभी को पता होना तो चाहिये, न हो तो मेरी प्रार्थना है एक बार यह फिल्म देख ही लें, टाइम खोटी हरगिज न होगा। आप सोच रहे होंगे कि मैं ये सब क्यूँ लिख रहा हूँ? कारण है ये सब लिखने का! काव्य-परिचर्चा या कवि-सम्मेलन या कवि गोष्ठी के नाम पर जो कुछ सुनने / देखने को मिल रहा है, मुँह में कड़वाहट भरने के लिये पर्याप्त है। इतना ही नहीं, ऐसे प्रयासों को ले कर जो दावे किये जाते हैं, वो भी खुलेआम मंचों से पूरी तरह से उघड़े हो कर, क्षमा करना मित्रो, इस 'तारे ज़मीन पर' वाले ईशान के पिता के वक्तव्य की तरह ही लगते हैं। ख़ैर, समय अपना काम करेगा, हम और आप अपना काम करते हैं।

10 अक्तूबर 2012

तीन दिए, तेरह गिने, लिखे तिरासी नाम - डा. विष्णु विराट

पानी में पानी नहीं , नहीं अन्न में अन्न
मन्न मन्न जोरौ तऊ, देह न लागौ कन्न १

मोहि न भावै लीक कछु, मोहि नहीं आधार
मैं मेरी मंजिल भयौ, मैं मेरौ निरधार २

स्यार लोमड़ी जुरि गए, गीदड़ मारें डींग
कवि 'विराट' ऊगन लगे , खरगोसन कै सींग ३

तीन दिए, तेरह गिने, लिखे तिरासी नाम
बड़े जोर सौं ह्वै रहे, राहत काम तमाम ४

भौजी कें लल्ला भयौ, नौमों, नंदकिशोर
भैया कालू राम के, टूटन लागे जोर ५

राम चरन कौ भानजौ, लायौ चीज़ चुराय
अम्मा आँखन में रिसै, आँचर लेय दुराय ६

रम्मा कौ छोरा भयौ, ऐसौ बी. ए. पास
दाँत भींच कै खेत की, दिनभर काटै घास ७

करै दुबइ में नौकरी, दुलहन बड़ी उदास
गोनौ करि कें भजि गए, लाला लछमन दास ८

फिर मेघा बरसन लगे, नद-नारे गहरान
बाढ़ पहारन पै चढ़ी, हलकन लागे प्रान ९

सास बहू कौं संग लै, गई ठकुर के द्वार
किरपा, मालिक नें करी, करि कें बंद किबार १०

रामबहोरी नें कियौ, ऐसौ कन्यादान
छोरी बारह बर्स की , साठ बरस कौ ज्वान ११

हरित-हँसी में दुरि रही, रक्त-रंग सौगात
हम, बँगला की हद्द पे, हैं मेंहदी के पात १२
डा. विष्णु विराट

इन दोहों को उपलब्ध करवाने के लिये शेखर चतुर्वेदी का सहृदय आभार

9 अक्तूबर 2012

चन्द अशआर - नवीन

कुछ ऐसे झूम कर बरसे तुम्हारे प्यार के बादल
कि दिल की झील से हर ओर झरने फूट कर निकले

शिकायत तो नहीं कोई मगर अफसोस इतना है
मुहब्बत सामने थी और हम दुनिया में उलझे थे

फासला इस क़दर जुरुरी था
उसकी जुल्फ़ों को ही छुआ मैंने

तसल्ली की रिहाइश आजकल वैसे भी मुश्किल है
तुम्हारे दिल में रहने के लिए कुछ ग़म भी सह लेंगे

न ये इलज़ाम पहला है, न ये तौहीन पहली है
बस इतना फ़र्क है इस बार वो भी कटघरे में हैं

5 अक्तूबर 2012

'सुता-सदन' पति का सदन - डा. शंकर लाल 'सुधाकर'

होनी तो मिटहै नहीं, अनहोनी ना होय
होनीं मेंटत शम्भु-यम , अनहोनी नित होय|१

कृष्ण-कृष्ण रटती रहै, रसना रस कों लेय
ता सों निर्बल ना बनौ, नाम मनोबल देय २

जा घर में मैया नहीं , वह घर साँच मसान
बेटा लेटा जहँ नहीं, भूत करें अस्थान ३

माता तौ घर सौं गई, पिता करे नहिं प्यार
ऐसे दीन अनाथ कौ , ईश्वर ही आधार ४

पिता भवन ना सोहती , सुता सहज अति काल
'सुता-सदन', पति का सदन, रहै तहाँ तिहुं काल ५

कामी, रोगी, आतुरी, अथवा हो भयभीत
बुद्धि भ्रमित इनकी कही , करें न इनसौं प्रीत ६


इन दोहों को उपलब्ध करवाने के लिए आप के पोते शेखर चतुर्वेदी का सहृदय आभार

हम में से अधिकांश के अग्रजों ने दोहों या अन्य छंदों की रचनाएँ की हैं। यदि आप चाहें तो उन के उत्कृष्ट छंद, परिचय व फोटोग्राफ हम तक पहुंचाने की कृपा करें। रुचिकर छंदों को वातायन में शामिल किया जायेगा।

3 अक्तूबर 2012

सौंपी जिसे दुकान, वही तिजोरी ले उड़ा - नवीन


नमस्कार

जैसा कि आप सभी को ज्ञात है कि समस्या-पूर्ति आयोजन के दौरान जिस छन्द पर कार्यशाला चल रही होती है, मैं वह छन्द नहीं लिखता या फिर पोस्ट तो हरगिज़ नहीं करता। हालाँकि घनाक्षरी छंद वाले आयोजन की बहु भाषा-बोली वाली पोस्ट के लिये मेरे द्वारा गुजराती और मराठी भाषा में प्रस्तुत किये गये घनाक्षरी छन्द इस का अपवाद भी हैं। वर्तमान आयोजन के लिये जब तक आप लोग अपने दोहों के परिमार्जन में व्यस्त हैं, मैं कुछ सोरठे प्रस्तुत करने की अनुमति चाहता हूँ। आप को पूर्ण अधिकार है इन सोरठों की समीक्षा का। जहाँ भी आप को त्रुटि दिखाई पड़े, सुधार हेतु उपयुक्त सुझाव के साथ मेरा मार्गदर्शन करने की कृपा करें।


ठेस:-
हम ही थे नादान, क्या बतलाएँ आप को
सौंपी जिसे दुकान, वही तिजोरी ले उड़ा