1 जून 2020

वे लौट रहे हैं - शैलेश सिंह


वे लौट रहे हैं, इस बार खाली हाथ
उनकी जेबों में महज गांव का पता है
और मर चुके पिता का नाम।

उनकी आंखें सूनी हैं, जैसे  छीन ले कोई
मार कर दो थप्पड़
वे थप्पड़ और ठोकर खाकर लौट रहे हैं।

उनका लौटना हर बार से अलग है।

इस बार नहीं है कोई सामान
मसलन पत्नी का पिटारा
नहीं है माई के लिए लुग्गा
और भाई के लिए लमका छाता।

उनका लौटना, उनका नहीं है
वे तो लौटने के लिए गए ही नहीं थे
वे तो  बसना चाहते थे बीराने देस में

वे लौट रहे हैं ठीक उसी तरह
जैसे  लौटता है हारी  हुई पलटन  का सिपाही
वे लौट रहे हैं, जैसे खूंखार बाघ से बचकर भागती हुई लौटती है हिरनी
वे लौट रहे हैं, जैसे लौटे थे  चित्रकूट से भरत
वे लौट रहे हैं, अपनी खौफनाक यादों के साथ
वे लौट रहे हैं, जैसे लौटते हैं  अंतिम संस्कार के बाद परिजन
वे लौट रहे हैं, कभी वापस न आने की झूठी शपथ के साथ
वे लौट रहे हैं, जैसे लौटते हैं नदी जल के लिए हाथी
वे लौट रहे हैं, जैसे लौटा था पूस की रात का हलकू
वे लौट रहे हैं जैसे लौटते हैं प्रवासी पक्षी

उनका लौटना इतिहास में लौटना  नहीं है
उनका लौटना इतिहास को बदलना भी है
उनका इस तरह आना असंभव  को संभव बनाना था

वैसे वे हर बार असंभव को संभव बनाते रहे हैं।
// इति   //
शैलेश सिंह

इस सन्नाटे शहर में - शैलेश सिंह



हम किस शहर में रह रहे हैं!,
शहर जो अब नहीं रहा कहीं से भी शहर
अपने उद्दात्त व भव्य सौन्दर्य को अर्थहीन करता
यह  सन्नाटे और खौफ़  का आलम  कैसे तारी हो गया!,
एक सियाह चादर फैल गई सबकी छतों, खिड़कियों और दरवाजों पर
भयानक आवाजें गूंजती रहती हैं अक्सर यहां की सड़कों पर
जबकि आलम यह था कि लोग अपनी ही आवाज़ को सुनने को तरसते थे
इतना शोर कि बहरे होने का अंदेशा हमेशा बना रहता था।

भेड़ियाधसान से शायद ही यह शहर कभी मुक्त हुआ हो
याकि होना चाहा हो,
भीड़ ही जिसकी शिनाख्त हो, भीड़ ही जिसकी मौसकी हो
और भीड़ ही जिसकी कभी न गायब होनेवाली रूह हो
यकायक जाने कहां चले गए सब?

सड़कें जिन्हें देखने की हसरत  लिए
लोग चले आते थे दुनिया के हर आबाद और नायाब  गांव व शहर से
जहां चलना हमेशा मौत से टकराने के मानिंद
ख़ौफज़दा होता था।

जहां परिन्दों, कुत्तों और मवेशियों का आना लगभग वर्जित था।

जहां हवाओं तक को जद्दोजेहद करनी पड़ती थी
जहां आसमान की नीलिमा खो गई थी
जहां लदे रहते थे हर सिम्त लोग
जहां कौवों और कोयलों में लोगों ने फर्क करना कभी मुनासिब नहीं समझा
याकि उन्हें फुर्सत ही कहां थी, अपने से बाहर झांकने की

जहां हव्वा की  प्यारी संतानें अपने हसीन सपनों के साथ इस शहर में  दाखिल होती थीं
और सप्ताह के दूसरे इतवार तक  वे भूल जातीं थीं अपनी मादरी जुबान
और समुद्र की लहरों के साथ तरंगें लेने लगतीं थीं ।

वह परदेसी इस शहर से कभी जुदा होना नहीं चाहता था,
अचानक ऐसी बिपदा , ऐसा कुदरत का क़हर, ऐसी बीमारी ऐसी गाढ़ी महामारी
कि कभी किसी भी फितरत से    क़ैद होनेवाला शहर
अपनी मोसकी की रव में मुत्लिबा रहनेवाला यह शहर
सन्नाटे की सांय- सांय -- भांय- भांय में विलीन हो गया।

सड़कें अब परिंदों की सैरगाह  में तब्दील चुकीं हैं
गोया ये कभी सड़कें थीं ही नहीं

कुत्ते खोजते रहते हैं आदम की औलादों को
जो  सरे-आम देखते- देखते गायब हो गए।

कभी - कभी जेठ की दुपहरी में अस्पताल की गाड़ी
दौड़ती है अपने सायरन की खौफ़नाक आवाजों के साथ।

एक आदमी खिड़की से देखता है
और कहता है-- हम इक्कीसवीं सदी के मोहन- जोदारों में आ गए हैं।

यहां निरीह चेहरे बंद आंखें लिए खड़े हैं।

यह शहर कहीं भूल तो नहीं गया अपनी रफ़्तार?

रफ़्तार और तेज रफ्तार जिसका वजूद था।

वह कैसे पस्त हो गया एक न दिखाई देनेवाले अणुजीव से।

हे समुद्र के शहर तुम लौटो अपनी पूरी रफ्तार के साथ,

अपने लोगों के साथ।
अपनी भीड़ के साथ
अपनी रूह के साथ,
अपनी अहर्निश  गति के साथ
अपने वर्तमान  में तुम लौटो,

ताकि लौट सकें जीवन,
ताकि लौट सकें आदम - हौव्वा की संतानें
जिनके हाथ संवारें तुम्हारा और अपना भविष्य
यह  विज्ञापन नहीं , कविता नहीं ,एक गुहार है विज्ञान से,
समुद्र से,
नदियों से
आसमान से
और उन कभी न दिखनेवाले तारों से
//इति//

शैलेश सिंह