व्यंग्य
वो एक
पार्टी - कमलेश पाण्डेय
पूरी दुनिया में दावत लेने-देने की बड़ी समृद्ध
परंपरा है। लोग-बाग बात-बात में दावत दे डालते हैं और लेने यानी मांगने की स्थिति
तो कुछ ऐसी है कि दावत बिना बात के भी मांगी जाती है। दावत को हिन्दी में पार्टी
कहा जाता है। वैसे राजनीतिक दल भी अपने आप को पार्टी ही कहते हैं। इतना तो निश्चित
है कि पार्टी बनाने या आयोजित करने कामूल उद्देश्य खाना-पीना है बशर्ते यह
खाना-पीना दूसरों के ख़र्चे पर हो।
कुछ लोग नियमित रूप से अपने आस-पड़ोस में
संभावित पार्टी-दाताओं की खोज में रहते हैं। कहीं खुशी की एक किरण कौंधी नहीं कि
वे जा धमके। बिना पार्टी का वादा लिये वे कभी नहीं लौटते। हमारी कॉलोनी में भी एक
शर्मा परिवार है जिनकी पार्टी मांगने की छापामार शैली से बाक़ी लोग इस कदर आक्रांत
हैं कि मनहूसियत ओढ़े बैठे रहते हैं और ईश्वर से दुआ करते हैं कोई खुशख़बरी भूले से
भी उनकी ज़िन्दगी में न आ टपके।
पार्टियां घर पर भी आयोजित की जाती हैं। मेरी
श्रीमतीजी का तो ये ख़ास शगल है। अक़्सर वो किसी को भी घर बुला लेती हैं और जी-भर के
जीमाती हैं। इस पार्टी के दौरान और बाद भी वे इन तृप्त मेहमानों द्वारा बनाये गये
तारीफ़ों के पुल परखुश-खुश टहलती रहती हैं। पार्टियों की आचार-संहिता में साफ़ लिखा
है कि पार्टी लेने वाले को देनी भी पड़ती है। श्रीमतीजी की इस ख़ब्त के एवज में
दूसरे भी अक्सर हमें पार्टी दे डालते हैं। हमारी पार्टी और बदले में चुकाई गई
पार्टी में कभी-कभी वही फ़र्क होता है जो आकार के संदर्भ में कद्दू और सरसों के
दाने में। श्रीमतीजी का उत्साह आम तौर पर इससे मलिन नहीं होता। पर एक बार वे
पार्टियों की लेन-देन का रिश्ता ऊपर बताये गये शर्मा-परिवारसे जोड़ बैठीं। ज़ाहिर है
पार्टी पहले हमने ही दी। फिर जो हुआ पार्टियों के दर्शन पर हमारे नज़रिये में एक
नया पहलू जोड़ गया। वही प्रसंग पाठकों के लाभार्थ यहां प्रस्तुत है।
ये एक ऐतिहासिक पार्टी थी। श्रीमतीजी अपनी शामत
यानी शर्मा परिवार को शाम की पार्टी यानी डिनर का न्यौता देकर हमेशा की तरह हरक़त
में आ गईं। ऐसे मूड में वो सिवा इसके कि क्या पकेगा औरकितना पकेगा, कुछ भी सोचना, सुनना या बोलना पसंद नहीं करतीं। होते-होते व्यंजनों की फ़ेहरिश्त लंबी और
रंग-बिरंगी होती चली जाती है। इसका भी ध्यान रखती हैं कि अगले दो दिन तक घर में
खाना पकाने की नौबत न आये । आख़िर में परोसा जाने वाला ‘मीठा’ सबसे पहले बनता है और
आठ-दस परिवारों के लिये काफ़ी होता है। उस दिन भी इसी अंदाज़ में तैयारी हुई।
मेहमान कुल ढाई ही थे- मियां-बीबी और एक बच्चा।
शुरुआत तो धीमी रही पर धीरे-धीरे तीनों की जठराग्नि भभकने लगी। हाथों और मुखों के
बीच चल रही गतिविधियां रफ़्तार पकड़ने लगीं तब हमें एहसास हुआ कि अब तक तो सिर्फ़
‘वार्म-अप’ का दौर था। सुरसा देवी की सच्ची भक्त प्रतीत होती मिसेज़ शर्मा ने
तक़रीबन तीस बार दो-दो चम्मच हर व्यंजन को चख-चख कर ही टेबल पर रखे सारे डोंगे
निबटा दिये। तब श्रीमतीजी को अपना ‘रिज़र्व’भी खोलना पड़ा। कड़ाही चढी हुई थी, डोंगे, मर्तबान, पतीले और हांडियों के ढक्कन खुले पड़े थे, मेहमान हमें परोसने की ज़हमत से आज़ाद कर ख़ुद ही
अपने प्लेट भर रहे थे। कचौरियां तो तीनों मुखों में यों समाती जा रही थीं जैसे
आंधियों में पत्ते उड़-उड़ कर किसी कुएं में गिरते जायें। चावल, रायता, पापड़और मिर्च के अचार भी हमारी फटी-फटी आंखों के सामने ही उन तीन हवन
कुंडों में समा गये। मुझे तो ऐसा प्रतीत हुआ जैसे किसी रेगिस्तान से ऊंटों का एक
परिवार हमारे यहां पड़ाव डाले हुये है और किसी लम्बे सफ़र के लिये अपने कूबड़ भर रहा
है। श्रीमतीजी ने बदहवासी में मीठे का पूरा डोंगा ही उनके सामने रख दिया और समूचे
का समूचा अपनी आंखों के सामने ही अदृश्य होता देखते हाथ मलती रहीं। इस पड़ाव पर
श्रीमतीजी के मन में अपने प्लेट और डोंगों को लेकर भी आशंका उठी कि कहीं वोभी न
उदरस्थ कर लिए जायें। पर उन्हें सिर्फ चाटकर छोड़ दिया गया। आख़िर छः घंटों बाद ये
कारवां गुजर गया और हम टेबल पर उड़ता जूठन का ग़ुबार देखते रहे। अगले दो तीन दिन तो
खाना बनाने कीक्या ज़रूरत न पड़ती, श्रीमतीजी के साथ-साथ मुझेभी
बच्चों सहित उसी रात खाना बनाने में जुतना पड़ा।
श्रीमतीजी इस हादसे से जल्दी ही उबर आईं।
उन्हें दावतों की परम्परा पर पूरा भरोसा था सो आश्वस्त थीं कि इसका बदला पार्टी
लेने की बारी के वक़्त चुका लिया जायेगा। अपने स्वभाव के विपरीत वे अक्सर उन्हें
पार्टी देने के लिये टोकने लगीं। शर्मा दंपत्ति पार्टी के देन-पक्ष से बिल्कुल
अनजान थे।ख़बर थी कि आजतक अपने घर में उन्होंने किसी को पानी तक नहीं पिलाया। गज़ब
की एकरूपता थी परिवार के हर सदस्य में- सब एक से खाऊ और एक से ही टरकाऊ। उनके
बच्चे का जन्मदिन गुजरा, शादी की सालगिरह बीती, पर हर बार पूरे एहतियात से याद रख हमारे अग्रिम
बधाईयां देने के बावज़ूद पार्टी देने का इरादा उनके हाव-भाव से कतई नहीं झलका। एक
रोज़ सुबह-सुबह हमारे जासूसों ने हमें ख़बर दी कि उनके यहां कल रात केक कटा है। हमने
तुरन्त एक बड़ा सा गुलदस्ता बनवाया और उनके यहां धावा बोल दिया। वे टालने वाले
पैंतरे देते रहे पर हमने उनके ही पार्टी वसूली के पैंतरों से उन्हें काटा और उनसे
शाम की पार्टी मुकरर्र करवा ही ली। अपने यहां पिछली पार्टी का भोजन-ध्वंस याद
कर-कर के हमने दोपहर के भोजन का त्याग किया। ऊंट वाले कूबड़ तो हमें थे नहीं पर
अपने इकलौटे पेट अपनी औक़ात-भर खाली रखते हुये हम देर शाम उनके यहां पार्टी खाने जा
पहुंचे।
पहुंच तो गये पर रसोई में कोई सुगबुगाहट न देख
पेट की कुलबुलाहट बढ़ने लगी। ये अच्छा हुआ कि पकते हुये स्वादिष्ट खानों की गंध हवा
में न होने से पूरे शबाब पर जागी हुई हमारी भूख ऊंघने लगी। कुछ देर और हुई तो वह
लोट गई और लगभग आख़िरी सांसें ले रही थी कि अचानक कुछ डोंगे और प्लेट हमारे सामने
पेश होकर हमारी भूख में प्राण फूंक गये।
हमारे सामने दो अनोखे व्यंजन न देखे न सुने रखे
थे। एक डोंगे में ऊपर तक पतले कीचड़ सा पानी भरा था। हमने कौतूहलवश उसमें चम्मच
हिलाया तो वहां कुछ ठोस पदार्थ भी होने का अंदेशा हुआ। ज़रा गहरे पैठ कर हमने चम्मच
बाहर निकाला तो वह एक मुर्गे का टुकड़ा निकला। स्थिति को समझकर मैंने मेज़बान से एक
सुझावनुमा निवेदन किया कि इस जलाप्लावित व्यंजन में अगर मुर्गे की बजाय मछलियां
होतीं तो क्या बेहतर नहीं होता। आगे श्रीमतीजी ने, जो अबतक भूख और सदमे से चुप बैठी थीं, कुढ़ते हुये जोड़ा कि आज तक उन्होंने मुर्गों को पानी में डुबकी लगाते नहीं
देखा। मेरे बेटे ने भी लगे हाथों अपने सामान्य ज्ञान की झलक पेश करते हुए कहा कि
कुछ लोग पानी में हाथ डाल कर ज़िंदा मछलियां पकड़ लेते हैं और अफ़सोस ज़ाहिर किया कि
काश हम इस डोंगे में हाथ डाल कर वैसा कर पाते; पर ये तो हो नहीं पायेगा क्योंकि डोंगे में भरे पानी में तो मुर्गे हैं, वो भी ज़िन्दा नहीं। श्रीमतीजी ने तत्काल इस
व्यक्तव्य को सुधारा कि- मुर्गे नहीं मुर्गा कहो, वो भी पूरा नहीं, शायद एक चौथाई। इस मुर्ग-मीन
-विवाद पर शर्माजी ने ये सूचना देकर विराम डाल दिया कि डोंगे में पड़ी वस्तु
वस्तुतः‘चिकन करी’ है इसलिये इसमें ‘फ़िश’ डालने का तो सवाल ही नहीं उठता। इस नई
जानकारी के बाद मैं‘करी’ शब्द की परिभाषा पर चिंतन करने लगा।
टेबल पर पड़े दूसरे डोंगे में रखा पदार्थ भी
हमें चुनौती दे रहा था कि हमें पहचानो तो जानें। उसे व्यंजनों की श्रेणी में शामिल
करने से पहले आश्वस्त हो लेने की ज़रूरत थी। ये एक वर्णसंकर-सी वस्तु थी जिससे कभी
खिचड़ी का भ्रम होता था तो कभी हलवे का। यों लगता था मानो खिचड़ी बनते-बनते हलवा हो
गई हो, या इसका उलटा भी हुआ हो सकता है। इस संभावना से
भी मुकरना ठीक नहीं होगा कि मेज़बान ने खिचड़ी का हलवा नामक कोई व्यंजन ट्राई किया
हो। ये चीज़ देखने में मूलतः श्वेत-श्याम थी, पर बीच-बीच में हरा और लाल रंग भी झलकता था। नन्हें-नन्हें काले कण तो सब
ओर बिखरे थे। संभवतः जीरा, चावल-दाल और सब्ज़ियों की मदद
से इसे बनाया गया था, पर इस क्षण सबका अस्तित्व एक-दूसरे में यों
आत्मसात हो चुका था जैसे आत्मा एक रोज़ परमात्मा में समाहित हो जाती है। हम पेशोपेश में थे कि इसे डोंगे से
प्लेट में कैसे लाया जाये क्योंकि चम्मच की मदद से ऐसा करने की कोशिश में पूरा
डोंगा ही टेबल से उठकर प्लेट की ओर लपका था। तब मेरे बेटे ने इज़ाजत मांगी कि क्या
वो इसमें से ज़रा-सी अपनी फटी किताब की ज़िल्द के लिये ले ले। मैंने दरियादिली से
कहा कि ले सके तो ले ले। इससे पहले कि हम इस पदार्थ की अन्य उपयोगिताओं के बारे
में विचार करते, सीन पर तीसरा तत्व प्रकट हुआ।
इस बार मेज़बान ने हमारी कल्पनाशीलता की उड़ान पर
रोक लगाते हुये एकदम घोषणा कर दी कि ये चीज़-विशेष कचौरी है। हमारे लिये ये और भी
जोख़िम का सामान हुआ क्योंकि हाज़िर की गई चीज़ कचौरियों के लिये निर्धारित मानदंडों
के अनुरूप न तो फूली-फूली थी, न गोल-गोल, न ख़स्ता, बल्कि ग़रीब के पेट-सी सपाट, अंडमान के द्वीपों-सी
छितर-बितर और पत्थरों-सी मज़बूत दिख रही थी। एक का आकार तो ऐसा था मानों एक छिपकली
पकड़ कर बेल दी गई हो। श्रीमतीजी ने आख़िर मुंह खोला, बेशक खाने के लिये नहीं, बल्कि फुसफुसा कर ये बताने
के लिए कि ऐसी कचौरी उस पनियल चिकन करी को ध्यान में रख कर ख़ास बनाई गई है कि
उसमें अगर इसे सुबह तक डुबा कर रखा जाय तो मज़बूत दांत वाले कल ज़रूर खा सकेंगे।
जिस अद्भुत पाक-कला का प्रदर्शन कर इन पदार्थों
का निर्माण किया गया था उसे नमन कर हमने एक तश्तरी में थोड़ा-थोड़ा सब कुछ मिला लिया
और कुछ देर उससे जूझते रहे। पहला निवाला ज्यों ही चम्मच पर चढ़कर मुंह में उतरा गले
से एक चीख-सी निकली। गले ने उसे रास्ता देने से साफ़ इनकार कर दिया था। उधर जीभ जो
थी उस निवाले को बाहर ठेलने में लगी रही जबकि औपचारिकता ने हमारा मुंह बंद कर रखा
था। ख़ुद को सांप कहने में संकोच होते हुये भी हम इसे सांप- छ्छूंदर वाली हालत
कहेंगे क्योंकि गले में अटकी चीज़ उसी पशु-विशेष सी बू लिये थी। जहां तक स्वाद का
सवाल है इस मिश्रण में ज़रूर किसी दूसरी दुनिया का ही होगा, क्योंकि अगले निवाले को उठाने से हाथ ने भी साफ़ मना कर दिया। हम क्षमा-सी
मांगते घर लौट आये। हमारे पीछे एक और डोंगा गुहार लगाता रह गया कि ज़रा हमें भी चख
लो। इस डोंगे में पीले रंग का एक मलीदा-सा भरा था जिसे मेज़बान ने बड़े इसरार से
हमें पेश कर कहा था कि ‘मीठा तो लीजिए!’
पार्टी से लौट कर हमें वही करना पड़ा जो घर पर
शर्मा परिवार को पार्टी देने वाले दिन किया था। दुपहर से सुलगते पेटों को ठंढा
करने के लिये आधी रात को हमने आपस में काम बांट कर खाना पकाया, यानी बेटे ने दौड़-दौड़ कर सामान जुटाया, श्रीमतीजी ने काटा, गूंथा, बेला और पकाया और मैंने दोनों को निर्देश दिये।
खाने की टेबल पर गर्म खाने को हाथ लगाने से पहले हमने ईश्वर को धन्यवाद दिया और
शपथ ली कि पार्टियों के मामले में कभी बदले जैसी बुरी भावना मन में नहीं लायेंगे।
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