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उस में रह कर उस के बाहर झाँकना अच्छा नहीं - नवीन

उस में रह कर उस के बाहर झाँकना अच्छा नहीं। 
दिल-नशीं के दिल को कमतर आँकना अच्छा नहीं॥ 

जिस की आँखों में हमारे ही हमारे ख़ाब हों। 
उस की पलकों पर उदासी टाँकना अच्छा नहीं॥ 

उस की ख़ामोशी को भी सुनना, समझना चाहिये। 
हर घड़ी बस अपनी-अपनी हाँकना अच्छा नहीं॥ 

एक दिन दिल ने कहा जा ढाँक ले अपने गुनाह। 
हम ने सोचा आईनों को ढाँकना अच्छा नहीं॥ 

प्यार तो अमरित है उस के रस का रस लीजै 'नवीन' 
बैद की बूटी समझ कर फाँकना अच्छा नहीं॥

नवीन सी. चतुर्वेदी 

चैन घटता जा रहा है क्या मुसीबत पाल ली - नवीन

चैन घटता जा रहा है क्या मुसीबत पाल ली।
दिल बहुत घबरा रहा है क्या मुसीबत पाल ली॥
दिल लगाया दिल दिया दिल को दिलासे भी दिये।
अब समझ में आ रहा है क्या मुसीबत पाल ली॥
जैसे-जैसे हुस्न की हम उलझनें सुलझा रहे।
इश्क़ उलझता जा रहा है क्या मुसीबत पाल ली॥
आसमानों से भी आगे दर्द जा पहुँचा मगर।
ग़म सिमटता जा रहा है क्या मुसीबत पाल ली॥
पत्ता-पत्ता बूटा-बूटा गोशा-गोशा हर्फ़-हर्फ़।
हर घड़ी दुहरा रहा है क्या मुसीबत पाल ली॥
ऐ ख़ुदा तेरी ख़ुदाई में फ़क़त हम ही नहीं।
सारा आलम गा रहा है क्या मुसीबत पाल ली॥

नवीन सी. चतुर्वेदी
बहरे रमल मुसम्मन महज़ूफ़
फ़ाइलातुन  फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
2122 2122 2122 212


आज के माहौल में भी पारसाई1 देख ली - नवीन

आज के माहौल में भी पारसाई1 देख  ली
हम ने अपने बाप-दादा की कमाई देख ली

आज कोई भी नहीं हम से ज़ियादा ख़ुशनसीब
अपनी आँखों से बिटनिया की बिदाई देख ली

गाँव का रुतबा बिरादर आज भी कुछ कम नहीं
पंचतारा महफ़िलों में चारपाई देख ली

जी हुआ चलिये ज़माने की बुराई देख आएँ
आईने के सामने जा कर बुराई देख ली

फिर कभी इस तर्ह से नाराज़ मत होना ‘नवीन’
एक लमहे में ज़मानों की जुदाई देख ली
1 धार्मिकता, सदाचार
——
एक दिन हम बिन पिये बस लड़खड़ा कर गिर पड़े
चन्द लमहों में ख़ुदाओं की ख़ुदाई देख ली

नवीन सी चतुर्वेदी
बहरे रमल मुसम्मन महज़ूफ़
फ़ाइलातुन  फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
2122 2122 2122 212


हम वही नादाँ हैं जो ख़्वाबों को धरकर ताक पर - नवीन

हम वही नादाँ हैं जो ख़्वाबों को धरकर ताक पर।
जागते ही रोज़ रख देता है ख़ुद को चाक पर॥

दिल वो दरिया है जिसे मौसम भी करता है तबाह। 
क्यों धरें इल्ज़ाम केवल हरकते-नापाक पर

हम तो उस के ज़ह्न1 की उरयानियों2 पर मर मिटे।
दाद अगरचे3 दे रहे हैं जिस्म और पौशाक पर॥

हम बख़ूबी जानते हैं बस हमारे जाते ही।
कैसे-कैसे गुल खिलेंगे इस बदन की ख़ाक पर॥

और कब तक आप ख़ुद से दूर रक्खेंगे हमें।
अब हमारे घर बनेंगे आप के अफ़लाक4 पर॥

बात और ब्यौहार ही से जान सकते हैं इसे।
इल्म की इमला लिखी जाती नहीं पौशाक पर॥

उन के ही रू5, आब6 की ख़ातिर तरसते हैं 'नवीन'
ग़ौर फ़रमाते नहीं जो ज़ह्न की ख़ूराक पर॥


1 मस्तिष्क, सोच 2 नग्नता, स्पष्टता, खुलापन 3 हालाँकि 4 आसमानों 5 मुख, चेहरे 6 कान्ति, चमक 

:- नवीन सी. चतुर्वेदी 


बहरे रमल मुसम्मन महज़ूफ़
फ़ाइलातुन  फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
2122 2122 2122 212