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हो सके तो ये ज़मीं-आसमाँ.....यकजा कर दे - सालिम शुजा अंसारी

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सालिम शुजा अंसारी

हो सके तो ये ज़मीं-आसमाँ.....यकजा कर दे
या मुझे उसका बना.........या उसे मेरा कर दे

मुद्दतों बाद.......वो उभरा है.....मिरी यादों में
आज की रात..... ऐ दुनिया मुझे तन्हा कर दे

जब भी जी चाहे मैं दीदार करूँ ख़ुद अपना
ए मिरी रूह......मेरे जिस्म को हुजरा कर दे

एक मुद्दत से अँधेरों की हैं...आदी.......आँखें
ये भी मुमकिन है कि सूरज मुझे अन्धा कर दे

प्यास बख़्शी है..तो फिर सब्र को चट्टान बना
और फिर..रेत के सेहराओं को दरिया कर दे

सर उठाता हूँ तो.......सर से मिरे टकराता है
एक बालिश्त.......कोई आसमाँ ऊँचा कर दे

दब न जाये...कहीं अहसान के नीचे ये ज़मीर
हो न कुछ यूँ.....कि मुझे ज़िन्दगी मुर्दा कर दे

नोच..तहरीर से अल्फ़ाज़ के ख़ुशरंग लिबास
ऐ हक़ीक़त......मिरे अहसास को नंगा कर दे

मेरे काँधों से ....मिरा सर ही उतारे "सालिम"
कोई तो हो...जो मिरा बोझ ये हलका कर दे


सालिम शुजा अंसारी
9837659083

बहरे रमल मुसम्मन मख़बून महज़ूफ़
फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन

2122 1122 1122 22

जो वफ़ादार हों उन को ही वफ़ादार मिलें - नवीन

जो वफ़ादार हों उन को ही वफ़ादार मिलें।
हम गुनहगार हैं हम को तो गुनहगार मिलें॥
आख़िरश वक़्त ने हम से भी कहलवा ही दिया।
हम भी सामान हैं हम को भी ख़रीदार मिलें॥
हम फ़रिश्तों की रिहाइश में न रह पायेंगे।
वे जो इस पार मिले हैं वही उस पार मिलें॥
जिन की बानी में दवाओं का असर हो मौजूद।
ऐ ख़ुदा ऐसे मसीहाओं को बीमार मिलें॥
देख अपनों से निगह फेरना अच्छा नहीं है।
अब तो उलफ़त के तरफ़दारों को दरबार मिलें॥
मुद्दतें हो गईं बरसात झमाझम न हुई।
अब तो अँखियों के मरुस्थल को मददगार मिलें॥
रोटियाँ बाँटने वालों से गुजारिश है ‘नवीन’।
ऐसा कुछ कीजै कि मज़दूरों को रुजगार मिलें॥

नवीन सी. चतुर्वेदी

बहरे रमल मुसम्मन मख़बून महज़ूफ़
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गिरही-ग़ज़ल

गिरही-ग़ज़ल:-
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मयंक भाई को जानने वाले जानते हैं कि कमेण्ट्स में फिलबदी शेर कहने के अलावा दीगर शोरा हजरात की पूरी की पूरी ग़ज़ल के सानी मिसरों (second line) को गिरह करते हुये (adding new first line over the original second line and ensuring this does not present parody) एक नयी ग़ज़ल पेश करना मयंक जी का बड़ा ही प्यारा शगल है। कई मरतबा इन्होंने मुझ से भी ऐसा करने के लिये कहा। संकोचवश मैं ऐसा कभी कर ही नहीं पाया। मगर इस बार गिरही-ग़ज़ल कहने की कोशिश की है। मुझे लगता ऐसी ग़ज़लों को शायद गिरही-ग़ज़ल ही कहा जाता होगा। तो हजरात! मेरी तरफ़ से पेश है यह गिरही-ग़ज़ल जिस में मयंक भाई साब की ग़ज़ल के सानी मिसरों को गिरह किया गया है:-
बोझ उलफ़त का उठा ही नहीं दम भर हम से।
इल्म की आख़िरी मंज़िल न हुई सर हमसे॥
हम तो साहिल प ख़मोशी से खड़े रहते हैं।
दौड़ कर ख़ुद ही लिपटते हैं समुन्दर हमसे॥
आप को भी तो सताइश* की तमन्ना होगी।
पूछता है बड़ी हसरत से सुख़नवर हमसे॥
*
प्रशंसा, तारीफ़
हम को जब उस से बिछुड़ना ही नहीं है तो फिर।
तुम ही बतलाओ जुदा होगा वो क्योंकर हमसे॥
कैसे बन्दे थे कि मजनूँ प उछाले पत्थर।
हम तो चाहें भी तो उठता नहीं पत्थर हमसे॥
वो भी क्या दिन थे कि पहलू में सहर* होती थी।
अब तो रखते हैं सनम ख़ुद को बचाकर हमसे॥
*
सुबह
आप की धूप को हर-सम्त* बिखरना ही नहीं।
आओ ले जाओ मियाँ अपनी धरोहर हमसे॥
*
हर ओर
जब से पूछा है – कमी क्या थी – तभी से ही बस।
मुँह चुराता है हमारा ही मुक़द्दर हमसे॥
मन में आया सो ग़ज़ल हम ने गिरह कर दी ‘नवीन’।
(
जो भी) अब जो कहना हो वो कह लीजिये (जी भर) प्रियवर हमसे॥
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मयंक भाईसाब की ओरिजिनल ग़ज़ल:-
आशना हो न सके प्यार के आखर* हमसे
इल्म की आखिरी मंज़िल न हुई सर हमसे
हम तो साहिल हैं कहीं चल के नहीं जाते हैं
दौड कर खुद ही लिपटते हैं समन्दर हमसे
आप अश्कों की ज़ुबाँ कुछ तो समझते होंगे
पूछता है बडी हसरत से सुखनवर हमसे
दर्द सीने से लगाये हैं हमीं जब दिल का
तुम ही बतलाओ जुदा होगा वो क्योंकर हमसे
हर समरदार शजर खुद ही झुका है इतना
हम तो चाहें भी तो उठता नहीं पत्थर हमसे
हम भी ठोकर से सिला देने लगे ठोकर का
अब तो रखते हैं सनम खुद को बचाकर हमसे
ये हैं जज़बात के टुकडे, ये तुम्हारा ख़ंजर
आओ ले जाओ मियाँ अपनी धरोहर हमसे
मुँह चिढाती है हमें हाय हमारी किस्मत
मुँह चुराता है हमारा ही मुकद्दर हमसे
हम तो अब डूबती कश्ती के मुसाफिर हैं “मयंक”
जो भी कहना हो वो कह लीजिये जीभर हमसे
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नवीन सी. चतुर्वेदी
बहरे रमल मुसम्मन मख़बून महज़ूफ़
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बैद की बाँहों में रह कर भी जो तनहा हो जाऊँ - नवीन

बैद की बाँहों में रह कर भी जो तनहा हो जाऊँ
इस से अच्छा तो यही है कि मैं अच्छा हो जाऊँ
गर्मियाँ ओढ के गरमी के ग़दर देख लिये
अब मेरे हक़ में यही है कि मैं ठण्डा हो जाऊँ
प्रीत के रंग में रँगने को ज़ुरूरी है कि मैं
कृष्ण की मुरली की मानिन्द सुरीला हो जाऊँ
एक अरसा हुआ क़तरे को रवानी न मिली
वक़्त की धार में मिल जाऊँ तो बहता हो जाऊँ
मैं भी क्या ख़ूब हूँ क्या ख़ूब जतन में हूँ मगन
ज़ह्र पीना नहीं और आस है नीला हो जाऊँ
मेरे अन्दर का बशर1 रोज बदल जाता है
मुख़्तलिफ़2 लहजे न अपनाऊँ तो गूँगा हो जाऊँ
1
व्यक्ति 2 अलग-अलग तरह के
जो भी जैसे भी हो अब ये ही तो बाक़ी है ‘नवीन’
या तो बन जाऊँ तमाशा कि तमाशा हो जाऊँ
नवीन सी चतुर्वेदी
बहरे रमल मुसम्मन मख़बून महज़ूफ़
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कभी ख़ुशियों का कभी ग़म का सिरा काटूँ हूँ - नवीन

कभी ख़ुशियों का कभी ग़म का सिरा काटूँ हूँ
उस की ख़ुशियों के लिये अपना गला काटूँ हूँ
उस ने पल भर में फ़राग़त का रिबन काट दिया
मैं तो बस कहता रहा कहता रहा – काटूँ हूँ
सिर्फ़ होता जो गुनहगार तो बच भी जाता
मैं तो कज़दार भी हूँ – सख़्त सज़ा काटूँ हूँ
क्या पता कौन से परबत पे दरस हो उस का
बस इसी धुन में शबोरोज़ हवा काटूँ हूँ
एक भी ज़ख्म छुपाया न गया तुम से ‘नवीन’
हार कर अपने कलेज़े की रिदा काटूँ हूँ
नवीन सी चतुर्वेदी
बहरे रमल मुसम्मन मख़बून महज़ूफ़
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बाल उलझे हुये दाढी भी बढाई हुई है -= मयंक अवस्थी

प्रणाम!

विगत दो वर्षों से साहित्यम का नियमत अद्यतन नहीं हो पा रहा। अंक के स्तर पर काम करने के लिये जिन तत्वों की आवश्यकता होती है वह सम्भव या समेकित [consolidated / Integrated] नहीं हो पा रहे। यदा-कदा रचनाधर्मी भी अद्यतन के विषय में पूछताछ करते रहते हैं। बड़ी ही विचित्र स्थिति है। मन में विचार आ रहा है कि कुछ मित्रों के सुझाव व आग्रह पर आरम्भ किये गये मासिक / त्रैमासिक अंक-स्वरूप को तजते हुए पहले के जब-तब-टाइप-सिस्टम पर वापस लौट चलें J मतलब जब समय उपलब्ध रहे तब वेब-पोर्टल को अपडेट कर दिया जाये। शायद वही ठीक रहेगा।

आइये, भाई मयंक अवस्थी जी की एक शानदार ग़ज़ल पढ़ते हैं।

सादर

बाल उलझे हुये दाढी भी बढाई हुई है
तेरे चेहरे पे घटा हिज्र की छाई हुई है

जैसे आँखों से कोई अश्क़ ढलकता जाये
तेरे कूचे से यूँ आशिक की विदाई हुई है

मैं बगूला था, न होता, वही बेहतर होता
मेरे होने ने मुझे धूल चटाई हुई है

ज़लज़ला आये तो इस घर का बिखरना तय है
जिसकी बुनियाद हवाओं ने हिलाई हुई है

उसने आवाज़ छुपाने का हुनर सीख लिया
उसने आवाज़ में आवाज़ मिलाई हुई है

आपकी सुन के ग़ज़ल इल्म हमें होता है
कल जो अपनी थी वही आज पराई हुई है

मुझ से ख़ुदकुश को भी मजबूर करे जीने पर
एक शै ऐसी मिरी जाँ मे समाई हुई है”

कोई सुलझा न सका इसके मगर पेचोख़म
ज़ुल्फ हस्ती पे अज़ल से तिरी छाई हुई है

मेरी पहचान मिटाई है मेरे अपनो ने
मेरी तस्वीर रकीबों की बनाई हुई है

अब तो तू जैसे नचायेगा मुझे, नाचूँगा
मेरी कश्ती तेरे ग़िर्दाब में आई हुई है

फिर गुले-ज़ख़्म तिरी फस्ल के इम्कान खुले
फिर किसी दिल की तमन्ना से सगाई हुई है

ढूँढ लेती हैं हरिक ऐब मेरी ग़ज़लों में
तेरी आँखों ने मेरी नींद चुराई हुई है

चाँद बस्ती के मकानों पे दिखे है ऐसे
जैसे कन्दील मज़ारों पे लगाई हुई है
:- मयंक अवस्थी ( 8765213905)


बहरे रमल मुसम्मन मख़बून महज़ूफ़
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तुझ को तेरे ही ख़तावार सम्हाले हुये हैं - नवीन

तुझ को तेरे ही ख़तावार सम्हाले हुये हैं
दिल तेरी बज़्म को दिलदार सम्हाले हुये हैं

इश्क़ एक ऐसी अदालत है जिसे जनमों से
उस के अपने ही गुनहगार सम्हाले हुये हैं

जब भी गुलशन से गुजरता हूँ ख़याल आता है
बे-वफ़ाओं को वफ़ादार सम्हाले हुये हैं

तोड़ ही देती अदावत तो न जाने कब का
प्यार के तारों को फ़नकार सम्हाले हुये हैं

बीसियों लोग हैं घर-बार सम्हाले हुये और

बीसियों लोगों को घर-बार सम्हाले हुये हैं

:- नवीन सी. चतुर्वेदी 

बहरे रमल मुसम्मन मख़बून महज़ूफ़
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रम्ज़ की राह की रफ़्तार सम्हाले हुये हैं - नवीन

रम्ज़ की राह की रफ़्तार सम्हाले हुये हैं
वाक़ई आप तो बाज़ार सम्हाले हुये हैं

हम से उठता ही नहीं बोझ पराये ग़म का
हम तो बस अपने ही विस्तार सम्हाले हुये हैं

एक दिन ख़ुद को सजाना है तेरे ज़ख़्मों से
इसलिये सारे अलंकार सम्हाले हुये हैं

आह, अरमान, तलाश और तसल्ली का भरम
अपना सन्सार यही चार सम्हाले हुये हैं

वो सुधर जायें तो शुरूआत सुधरने की हो

अरबों-खरबों को जो दो-चार सम्हाले हुये हैं

:- नवीन सी. चतुर्वेदी 

बहरे रमल मुसम्मन मख़बून महज़ूफ़
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हम अगर चाहें तो बे-बात मचल सकते हैं - नवीन

हम अगर चाहें तो बे-बात मचल सकते हैं
और चाहें तो खिलौनों से बहल सकते हैं

उम्र बस इतनी समझ लीजे कि जब चाहें तब
पार्क में जा के फिसलनी पे फिसल सकते हैं

आप का ज़िक्र है सो बोल रहे हैं, वरना
लफ़्ज़ तो आँखों के रसते भी निकल सकते हैं

थक चुके ज़िस्म तो अब दौड़ लगाने से रहे
हाँ! मगर वक़्त की रफ़्तार बदल सकते हैं

दिल में संयम की अगर बर्फ़ जमा लें तो 'नवीन'

ऐन मुमकिन है कि सूरज को निकल सकते हैं

:- नवीन सी. चतुर्वेदी 

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प्यार का दीप किसी राधा ने बाला होगा - महीपाल

प्यार का दीप किसी राधा ने बाला होगा
दूर मीरा पे गया उस का उजाला होगा

वो महल की हो कथा या कि व्यथा कुटिया की
उन्हीं जल-थल हुई आँखों का हवाला होगा

तुमने कैसे ऐ मुसम्मात फटे आँचल में
दूध और दर्द का सैलाब सँभाला होगा

फट गया होगा हिमालय का कलेज़ा घुट कर
तब किसी हुक ने गङ्गा को निकाला होगा

चाँद का सौदा किया घर में अमावस कर ली
दोस्त! क्या चाँद के टुकड़ों से उजाला होगा

बुत की पायल जो हसीं तुमने तराशी महिपाल
उस में बजने का गुमाँ किस तरह डाला होगा

:- महीपाल

बहरे रमल मुसम्मन मख़बून महज़ूफ़
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