गुढ़ी पड़वा लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
गुढ़ी पड़वा लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

संकलन - गुढ़ी पड़वा / सम्वतसर / नव-वर्ष के दोहे

बौर बौर है रसभरी,
ठौर-ठौर उत्कर्ष।
इसका मतलब आ गया,
नैसर्गिक-नव-वर्ष।।

मनुष्य महज एक सामाजिक प्राणी ही नहीं वरन बड़ा ही विलक्षण एवं मेधावी धावक है। जब भी मानव सभ्यता ने पहली साँस ली होगी, अवचेतन ने तुरंत भाँप लिया होगा कि बहुत लम्बे तक जाना है। इस यात्रा की गणना वग़ैरह सुचारु रूप से उपलब्ध रहे इसलिए दिन-घड़ी-वर्ष वग़ैरह का निर्धारण हुआ और यह सफ़र उबाऊ न हो जाये इसलिए पर्वों की स्थापना हुई। पर्व आज भी विभिन्न स्वरूपों में हमारे बीच विद्यमान हैं। होली-दिवाली-ईद-क्रिसमस जैसे तमाम त्यौहारों के अलावा कुछ और भी छोटे-मोटे पर्व हम सभी व्यक्तिगत स्तर पर मनाते रहते हैं, यथा - आज के दिन हमने घर लिया, आज के दिन हमारा बच्चा पहली बार बोला, आज के दिन पहली बार मिले वग़ैरह....  वग़ैरह.... । वर्षों का निर्धारण हो गया तो उन की गणना सुचारु रूप से विधिवत चलती रहे इस लिये नव-वर्ष मनाने की प्रथा शुरू हुई होगी जो कि विभिन्न स्थानकों / मान्यताओं के अनुसार आज भी जारी है। इस बार हमने सोचा क्यूँ न विक्रम संवत / नव-वर्ष / गुढ़ी पड़वा को केंद्र में रख कर एक आयोजन रखा जाये। होली के दोहे, दिवाली के दोहे के बाद नव-वर्ष के दोहे वाले आयोजन की नींव इस प्रकार रखी गयी। एक महत्वपूर्ण आलेख भी पोस्ट किया गया। दोहों को ले कर इस बार लोगों में उत्साह बहुत कम दिखने में आया है, सब के अपने-अपने कारण हो सकते हैं, ख़ैर..... । इस आयोजन में भी छन्द संदर्भित सम्पादन की बजाय पर्व को वरीयता दी गई है और सभी से विनम्र निवेदन है कि इन दोहों का पर्व के आनंद के रूप में ही रसपान करने की कृपा करें। हालाँकि सीनियर्स / जानकार इन दोहा संबन्धित त्रुटियों पर संबन्धित दोहाकार का ई-मेल के द्वारा ध्यानाकर्षण कर सकते हैं। यदि संबन्धित दोहाकार को आपत्ति न हो तो वह चर्चा यहाँ भी की जा सकती है ताकि अन्य व्यक्ति भी लाभान्वित हो सकें। सारांश में बस इतना ही कहना है कि उक्त 'ज्ञानवर्धक चर्चा' पर्व के आनंद पर भारी न पड़ जाये। तो आइये पढ़ते हैं हम सब के चहेते भाई आ. मयंक अवस्थी जी की टिप्पणियों के आलोक में नव-वर्ष आधारित दोहे 

============================

नव-वर्ष दोहा संकलन : प्रस्तुति : साहित्यानुरागी भाई श्री मयंक अवस्थी जी 


नवीन जी सदैव ही कुछ नवीन करने के लिये प्रयासरत रहते हैं, यही उनकी पहचान भी है। वो साधुवाद तथा प्रशंसा दोनो के हकदार है क्योंकि उनकी नशिस्त स्तरीय भी होती है, युगबोध के समस्त आयाम समेटे रहती है तथा प्रयोगवाद के लिये इसमे बड़ी गुंजाइश होती है। नवीन जी के आह्वान पर जो रचनाधर्मी अपनी रचनाओं से इन आयोजनों में शिरकत करते हैं वो ही इन आयोजनों के स्तम्भ भी हैं – पिछले तथा इस दोहा आयोजन में बेहद सशक्त स्रजन से हमारा साक्षात्कार हुआ।

डा. श्याम गुप्त

सृष्टि रचयिता ने किया, सृष्टि सृजन प्रारम्भ
चैत्र  शुक्ल  प्रतिपदा से, संवत्सर  आरम्भ

ऋतु बसंत  मदमा रही, पीताम्बर को ओढ़
हरियाली  साड़ी पहन,  धरती हुई विभोर

स्वर्ण थाल सा नव, प्रथम, सूर्योदय मन भाय
धवल  चांदनी  चैत की, चांदी सी बिखराय

फूले फले नयी फसल, नवल अन्न  सरसाय
सनातनी  नव-वर्ष  यह, प्रकृति-नटी हरषाय

शुभ शुचि सुन्दर सुखद ऋतु, आता यह शुभ वर्ष
धूम -धाम  से  मनाएं ,  भारतीय  नव-वर्ष

पाश्चात्य  नववर्ष  को, सब त्यागें श्रीमान
भारतीय  नववर्ष  हित, अब छेड़ें अभियान


श्याम जी के समर्थ कलम के हम अरसे से शाहिद रहे हैं –इस बार भी उनका प्रभावी और समर्थ सृजन इन दोहों के रूप में हमारे सम्मुख है। पहला दोहा बहुत मोहक है अपनी संस्कृति और अपनी मान्यतायेँ सर्वोपरि हैं –इस आत्मगौरव से ओतप्रोत है ये दोहा। दूसरे तीसरे और चौथे दोहे में श्याम जी वासंती क्षणो को जी रहे हैं पाँचवें में आह्वान है और उल्लास है तथा अंतिम में मश्वरा है –ये एक सुसंस्कृत और परिष्कृत भारतीय मानस की अभिलाषा और उद्गार हैं –उनके कलम को नमन !!!!



सौरभ पाण्डेय

वेला भावोदय शुभम्, तजें द्वेष आलस्य
संवत्सर नव कामना, भक्ति तुष्टि तापस्य

सार्थक यदि साधन सुलभ तथा सत्य आराध्य
शक्ति-ओज प्राकट्य हित जिष्णु भाव शुभ-साध्य

नव संवत की प्रतिपदा, प्रखर सनातन तथ्य
विक्रम वंशज के लिए, मुखर ऐक्य ध्रुव-सत्य

दही, बेल, मट्ठा, कढ़ी, सहिजन, गुड़, सतुआन
धूप, हवा, अमराइयाँ, चैत-रात की तान

थकते पाँव बिवाइयाँ, राह विकट मुँहजोर
पोर-पोर पुलका रही, लेकिन फिरसे भोर


सौरभ जी ने पाँच विविध रंगों से इस विषय को रंजित किया है – एक-एक शब्द इस साहित्यकार के बारे में उनके पाण्डित्य के बारे में तथा उनके कलम के सामर्थ्य के बारे में कुछ न कुछ अवश्य बता रहा है – आओ आलस का त्याग करो – परमात्मा के विभव से परिचित हो – परम्परा से जुड़ो – सात्विक आहार को नियमित करो और परिश्रम की प्रच्छन्न शक्ति को समझो – वाह !! बहुत बहुत दाद आपको !!!



ऋता शेखर मधु

चैत्र शुक्ल की प्रतिपदा, मिले जगत को प्राण
नवसंवत्सर आज है, हरषित हुए कृषाण
कृषाण - किसान के अर्थ में लिया गया है 

जिमें केशरी भात अरु, बोलें मीठे बोल
गुड़ी पड़वा कहे हमें, मिलें सदा दिल खोल


ऋता जी ने अत्यल्प शब्दों में इस पर्व को सहज  ही बाँध दिया है –भाषा और अभिव्यक्ति पर उनका अधिकार है ही – उनको नमन !!



साधना वैद

मंगलमय हो आपका, गुड़ि पड़वा का पर्व,
विक्रम सम्वत् का करें, स्वागत सभी सगर्व

चैत्र शुक्ल की प्रतिपदा, कर अम्बे का ध्यान,
जीवन निर्मल हो तेरा, पा ले यह वरदान

विक्रम सम्वत् दौड़ता, सरपट घोड़ा चाल
बाकी सबको छोड़ता, पीछे छप्पन साल

नीम पत्र गुड़ पुष्प का, करते वितरण आज
ध्वज फहराते गोधि का, गुडि पड़वा के काज

भारत के हर प्रांत में, हर जन में उल्लास ,
मना रहे नव वर्ष सब, भर मन में विश्वास


साधना जी का मै पुराना प्रशंसक हूँ उनके दोहे पढने की जिज्ञासा बहुत बार इण्टरनेट पर मुझे सर्च भी करवा चुकी है – ये पाँच दोहे सहज सुन्दर प्रवाहमय और बोधगम्य हैं और झरने जैसे स्वस्फूर्त और गतिमान हैं –ये दोहे भी हैं और शुभकामनायें भी –साधना जी का अभिवादन !!



अरुण कुमार निगम

ब्रम्हाजी ने  सृष्टि  रच , दिया  हमें  संसार
संवत्सर पर विष्णु ने, लिया  मत्स्य अवतार

चैत्र - शुक्ल की प्रतिप्रदा , सूर्योदय के साथ
हुआ जन्म इस सृष्टि का, चलो नवायें माथ

कोमल कोंपल नीम की, लें मिश्री के संग
रोग व्याधियाँ फिर कभी, नहीं करेंगी तंग

नवल-पुष्प नव-कोपलें, नव-जीवन नव-हर्ष
नया-अन्न ले आ गया , नव-संवत्सर वर्ष


अरुण कुमार निगम जी के दोहे पढ कर चित्त हर्षित हुआ –दो दोहे परम्परा पर और दो पृकृति के आलोक में शुभकामनाओं के सन्देश के रूप में उन्होंने कहे हैं –जो कि सशक्त हैं –उनके साहित्यकार के पास विविधता भी है और कशिश भी – ज़दीदियत भी है और शिल्प भी –बहुत बहुत आभार इन चार दोहों के लिये अरुण जी!!



पूर्णिमा वर्मन

दिशा दिशा में दीप रख द्वारे बंदनवार
नया साल खुशियाँ भरे जीवन हो गुलनार

पिछला संवत चल दिया अपनी लाठी टेक
चैत्र कहे शुभकामना नया साल हो नेक


पूर्णिमा जी ने अपनी व्यस्तता से समय निकाल कर  हमारा मन रखा और दो खूबसूरत दोहे कहे !!! गुलनार पर दोहा बाँधना कवि की सामर्थ्य है और दूसरा दोहा भी कथ्य और शिल्प की दृष्टि से विशेष है – पूर्णिमा जी  !! बहुत बहुत आभार इस सहयोग के लिये !!!



राजेन्द्र स्वर्णकार

नव संवत् का रवि नवल, दे स्नेहिल संस्पर्श
पल प्रतिपल हो हर्षमय, पथ पथ पर उत्कर्ष

चैत्र शुक्ल शुभ प्रतिपदा, लाए शुभ संदेश
संवत् मंगलमय ! रहे नित नव सुख उन्मेष

मधु मंगल शुभ कामना, नव संवत्सर आज
हर शिव वांछा पूर्ण हो हर अभीष्ट हर काज

नव संवत्सर पर मिलें शुभ सुरभित संकेत
स्वजन सुखी संतुष्ट हों, नंदित नित्य निकेत

जीव स्वस्थ संपन्न हों, हों आनंदविभोर
मुस्काती हैं रश्मियां, नव संवत् की भोर

हर्ष व्याप्त हो हर दिशा, ना हो कहीं विषाद
हृदय हृदय सौहार्द हो, ना हों कलह विवाद

हे नव संवत् !  है हमें तुमसे  इतनी आस
जन जन का अब से बढ़े आपस में विश्वास


राजेन्द्र स्वर्णकार—जी के बगैर न तो यहाँ  कोई आयोजन सम्पूर्ण होता है और न उनके बगैर कोई आयोजन अच्छा लगता है ---इस पटल पर वो अपने उद्दाम और प्रचंड संवेग के साथ मौजूद हैं –यह कलम जितना चलता है उतना ही अपने सम्मोहन में बाँधता चलता है –किस दोहे की कितनी प्रशंसा की जाय, कम होगी !!! प्रांजल भाषा, उत्कृष्ट शिल्प, वेगमयी काव्य-ऊर्जा और सर्वग्राही भावभूमि –और एक सम्पूर्ण कवि के पास क्या हो सकता है –सरस्वती माँ  का वरदान तो उन पर है ही लेकिन अपने समर्पण से भी उन्होंने साहित्य में गौरव प्राप्त किया है दूसरी बात कि साहित्य को गौरवान्वित भी किया है – मेरी सभी पाठकों से गुज़ारिश है कि उनको बार-बार पढें



डॉ० प्राची सिंह

नवसंवत शुभ आगमन , सृष्टि सृजन त्यौहार
मनस चरित उत्थान ही , मानवता शृंगार

सृष्टि सृजन शुचि पर्व यह, शुभ मुहूर्त नक्षत्र
नाद सनातन रीति का , गूँज उठे सर्वत्र

पुरुषोत्तम श्री राम का, नीर क्षीर सु-विवेक
चैत्र शुक्ल मंगल दिवस, हुआ राज्य अभिषेक

और अंत में प्राची जी आपको नमन !! आपने तयौहार, श्रंगार, नक्षत्र, सर्वत्र, सु-विवेक और अभिषेक जैसे शब्दो पर जो कमाल के दोहे बाँधे हैं उनके लिये मैं आपका आभारी हूँ और अंतिम दोहे ने भगवान राम के बारे में एक बेहद महत्वपूर्ण जानकारी भी दी है –यानी ये तिथि दीगर कारणो से भी शुभ है यानी शुभ्र है।




सभी मोती सुन्दर और भव्य हैं –लेकिन धागे यानी नवीन के बगैर चर्चा अधूरा रहेगा !! नवीन जी आप हैं इस माला के धागे –लेकिन आप अपने दोहे लेकर कहाँ भागे !! आपके दोहे कहाँ  है??!! –हा हा हा हा !! बहरकैफ़ बहुत बहुत मुबारक इस आयोजन के लिये ---- मेरे पास जी भर कर लिखने का समय नहीं है –तुमसे भी दिलफरेब हैं गम रोज़गार के –सभी को नव-वर्ष / गुडी पडवा की असीमित शुभकामनायें –मयंक



============================

विक्रम संवत आधारित नव-वर्ष की अनेक शुभकामनाओं सहित - आप का अपना - नवीन सी. चतुर्वेदी

भारतीय नव वर्ष -- नव-संवत्सर या गुड़ी पड़वा या युगाब्द - डा. श्याम गुप्त

        
चैत्र मास के शुक्ल पक्ष के प्रथम दिवस पर लगभग ..1 अरब, 96 करोड़... वर्ष (1 अरब, 95 करोड़, 58 लाख, 85 हजार, 125 )  पहले इसी दिन के सूर्योदय से ब्रह्माजी ने सृष्टि की शुरुआत का दिन तय किया, इसलिए इसे प्रतिपदा कहा गया अर्थात प्रथम पग या पद ... पहली तिथि यह गणना भारतीय ज्योतिष-विज्ञान के द्वारा निर्मित है। आधुनिक वैज्ञानिक भी अब सृष्टि की उत्पत्ति का समय एक अरब वर्ष से अधिक बता रहे है। इस दिन आदि-शक्ति के आदेश पर  ब्रह्मा जी ने सूर्योदय होने पर सबसे पहले चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को सृष्टि की संरचना शुरू की इसलिए इसको सृष्टि का प्रथम दिवस भी कहते हैं। इस दिन को 'नव संवत्सर' या 'नव संवत' के नाम से भी जाना जाता है| सूर्य को वत्स कहा गया है ..आदित्य ..आदि-शक्ति, आदि-प्रकृति अदिति का वत्स; प्रथम आदित्य ...प्रथम सूर्योदय से ही नव वर्ष प्रारम्भ माना गया जो चक्रीय व्यवस्था से प्रतिवर्ष उसी प्रकार नववर्ष का प्रारम्भ करेगा ...अतः संवत्सर कहा गया...
     
              चैत्रे मासि जगत् ब्रह्म ससर्ज प्रथमे हनि 
                  
शुक्ल पक्षे समग्रे तु तदा सूर्योदये सति॥ 



            चैत्र मास की शुक्ल प्रतिपदा को गुड़ी पड़वा या वर्ष प्रतिपदा या उगादि (युगादि) कहा जाता हैं, इस दिन हिन्दू-नववर्ष का आरम्भ होता है। गुड़ी का अर्थ विजय पताका होती है।युग और आदि शब्दों की संधि से बना है युगादि   आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में उगादि और महाराष्ट्र में यह पर्व ग़ुड़ी पड़वा के रूप में मनाया जाता है। विक्रमादित्य द्वारा शकों पर प्राप्त विजय तथा शालिवाहन द्वारा उन्हें भारत से बाहर निकालने पर इसी दिन आनंदोत्सव मनाया गया इसी विजय के कारण प्रतिपदा को घर-घर परध्वज पताकाएं तथागुढि़यां लगाई जाती है   गुड़ी का मूल ...संस्कृत के गूर्दः से माना गया है जिसका अर्थ... चिह्न, प्रतीक या पताका ....पतंग....आदि-   कन्नड़ में कोडु जिसका मतलब है चोटी, ऊंचाई, शिखर, पताका  आदि मराठी में भी कोडि का अर्थ है शिखर, पताका। हिन्दी-पंजाबी में गुड़ी का एक अर्थ पतंग भी होता है। आसमान में ऊंचाई पर फहराने की वजह से इससे भी पताका का आशय स्थापित होता है।

            भारत भर के सभी प्रान्तों में यह नव-वर्ष विभिन्न नामों से मनाया जाता है जो दिशा स्थानानुसार सदैव मार्च-अप्रेल के माह में ही पड़ता है | गुड़ी पड़वा, होला मोहल्ला, युगादि, विशु, वैशाखी, कश्मीरी नवरेह, उगाडी, चेटीचंड, चित्रैय तिरुविजा आदि सभी की तिथि इस नव संवत्सर के आसपास ही आती है।

       चैत्र शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा वसन्त ऋतु में आती है। शरद ऋतु के प्रस्थान ग्रीष्म के आगमन से पूर्व वसंत अपने चरम पर होता है। इस ऋतु में सम्पूर्ण सृष्टि में सुन्दर छटा बिखर जाती है। चंद्रमा चित्रा नक्षत्र में होकर शुक्ल प्रतिपदा के दिन से बढ़ना शुरू करता है तभी से हिंदू नववर्ष की शुरुआत मानी गई है।  ठिठुरती ठंड मे पड़ने वाला ईसाई नववर्ष पहली जनवरी से भारतवंशियों का कोई सम्बन्ध नही है   फसल पकने का प्रारंभ यानि किसान की मेहनत का फल मिलने का भी यही समय होता है।
            विक्रमी सम्वत् का सम्बन्ध सारे विश्व की प्रकृति, खगोल सिध्दांत ब्रह्माण्ड के ग्रहों नक्षत्रों से है। इसलिए भारतीय काल गणना पंथ निरपेक्ष होने के साथ सृष्टि की रचना सनातन राष्ट्र भारत की गौरवशाली परम्पराओं को दर्शाती है  ब्रह्माण्ड के सबसे पुरातन ग्रंथ वेदों में  नव संवत् यानि संवत्सरों का वर्णन  विस्तार से दिया गया है। यही पृथ्वी का सनातन नव-वर्ष है |