30 मार्च 2014

वर्ष 1 अङ्क 3 अप्रेल' 2014

अक्तूबर 2010 में शुरू हुआ था ठाले-बैठे ब्लॉग, ब्लॉग्स्पॉट पर। इस से पहले यह लाइव डॉट कॉम पर था और उस से भी पहले यह एक स्थानिक साप्ताहिक का नियमित कॉलम हुआ करता था। बरसों से बहुत सारे मित्रों का कहना रहा है कि यह नाम कुछ साहित्यिक नहीं लगता। सो फायनली अब यह ठाले-बैठे ब्लॉग एक विधिवत वेबसाइट के रूप में “साहित्यम् नाम के साथ आप के समक्ष प्रस्तुत है जिस का कि URL है www.saahityam.org/ । सारा पुराना DATA सहेज लिया गया है। आने वाले दिनों में इसे और अधिक परिमार्जित करने का प्रयास किया जायेगा। एक और बात, आदरणीय मयङ्क अवस्थी साहब ने सङ्केत दिया कि इस वेबपेज़ की USP भी स्पष्टतया परिलक्षित होनी चाहिये। यह वेबपेज़ पहले से ही छन्द और ग़ज़ल की सेवा में जुटा हुआ था, बाद में कहानी, कविता, व्यंग्य जोड़े गये । ब्रज-गजल भी पहले से ही मौजूद थी अब अन्य प्रान्तीय भाषा-बोलियों की गजलों को भी हर अङ्क में सम्मिलित किया जायेगा। आशा है यह प्रयास आप को पसन्द आ रहा है। आप के सुझावों की प्रतीक्षा रहती है। 

कहानी

व्यंग्य

कविता / नज़्म

हाइकु

छन्द
गीत / नवगीत

ग़ज़ल

आञ्चलिक भाषा / बोली की गजलें

अन्य
डाइरेक्टरी बराए शुअरा ओ शाइरात (कवियों और कवियित्रियोंकी डाइरेक्टरी)

बौर-बौर में रस भरा, ठौर-ठौर उत्कर्ष।

इस का मतलब आ गया, नैसर्गिक-नव-वर्ष॥ विक्रम-सम्वतसर 2071 / गुढ़ी-पड़वा की हार्दिक शुभ-कामनाएँ। अगले अङ्क के लिये अपनी रचनाएँ navincchaturvedi@gmail.com पर कृपया 15 अप्रेल से भेजने की कृपा करें। 

मलबे की मालकिन – तेजेन्द्र शर्मा

समीर ने यह क्या कह दिया!

एक ज़लज़ला, एक तूफ़ान मेरे दिलो दिमाग़ को लस्त-पस्त कर गया है. मेरे पूरे जीवन की तपस्या जैसे एक क्षण में भंग हो गई है। एक सूखे पत्ते की तरह धराशाई होकर बिखर गई हूँ मैं। क्या समीर मेरे जीवन के लिये इतना महत्वपूर्ण हो गया है कि उसके एक वाक्य ने मेरे पूरे जीवन को खंडित कर दिया है?

फिर मेरा जीवन सिर्फ़ मेरा तो नहीं है। नीलिमा, मेरे जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। नीलिमा को अलग करके, मैं अपने जीवन के बारे में सोच भी कैसे सकती हूं? नीलिमा का जन्म ही तो मेरे वर्तमान का सबसे अहम कारण है। उससे पहले तो मैं अत्याचार सहने की आदी सी हो गई थी। नीलिमा ने ही तो मुझे एक नई शक्ति दी थी। मुझे अहसास करवाया था कि मैं भी एक जीती जागती औरत हूं, कोई राह में पड़ा पत्थर नहीं कि इधर से उधर ठोकरें खाती फिरूं।

एक भाई की चार चिंताएँ और उनमें मैं माता-पिता की चौथी चिंता थी। मुझसे पहले की तीन चिंताओं से मुक्त
होते-होते पिता की कमर टेढ़ी हो चुकी थी। मैं थी कि पढना चाहती थी। चिंता दर चिंता! लड़की यदि अधिक पढ़-लिख गई, तो लड़का कहाँ से मिलेगा! अपनी बिरादरी में तो ज़्यादा पढे-लिखे लड़के ढूंढे से नहीं मिलते।
कहते हैं ढूंढने से तो भगवान भी मिल जाते हैं। परन्तु भगवान के बनाये हुए इंसान ! इंसान न भी मिले तो क्या फ़र्क पड़ता हैजो भी मिले उसी के पल्ले बांध दो। मां-बाप को तो गंगा नहानी है. लाख समझाती रही, मिन्नतें करती रही पर नहीं! पढ़-लिख कर ख़राब होने से कहीं अच्छा है अपना घर बसाओ; पति का ध्यान रखो और बच्चों को पालो. कुछ यूं सा महसूस होने लगा था, जैसे मैं कोई इंसान नहीं हूं, केवल एक मादा शरीर हूं, जिसे किसी भी नर शरीर के खूंटे पर बांध देना है।

बंधना नहीं चाहती थी, ऐसा भी नहीं था. रजत को देखकर मेरे मन में कुछ-कुछ होता था। मन चाहता था उसे खिड़की से देखती रहूं। हम दोनों के घर लगभग आमने-सामने थे। उसकी खिड़कियों का रंग बाहर से नीला था। उसी खिड़क़ी में नीली कमीज़ पहने खड़ा रजतमुझे आकर्षित करने के लिए ज़ोर से चिठकनी बन्द करता था। मैं अपनी खिड़की में खड़े होकर कभी बाल बनाने लगाती तो कभी कुछ गुनगुनाने लगती। हम खिड़कियों के फ़्रेम में जुडे फ़ोटो ही बने रह गये। खिड़कियों से कभी बाहर ही नहीं निकल पाये।

रजत को मेरा खुले बालों में कंघी फिराना बहुत अच्छा लगता था। वैसे, अभी हमारी उम्र ही क्या थी। मैं तो दसवीं में पढ़ रही थी... बचपना! पर बचपन का प्यार क्या कभी भुला पाता है कोई? मैं माता-पिता को रजत के बारे में कभी कुछ बता नहीं पाई थी. रजत ने एक दिन कहा भी था कि उसके कालेज की पढ़ाई के बाद, नौकरी लगते ही हम शादी कर लेंगे. रजत, मुझे प्यार तो करता था, किन्तु मेरी पढ़ाई से उसे भी कोई सरोकार नहीं था। उसने भी कभी अपने मुंह से यह नहीं कहा था कि मेरी पढ़ाई विवाह के बाद भी पूरी हो सकती है। उस समय तो मुझे रजत की यह अदा भी बुरी नहीं लगती थी। उसके लिए तो मैं अपना सर्वस्व, अपना जीवन, होम करने को तैयार थी।

जीवन तो अंततः होम हो ही गया था। माता-पिता के हठ के सामने मेरी एक भी नहीं चल पाई थी। अपने दूर के किसी रिश्तेदार के पुत्र के साथ बांध दिया था मुझे पिताजी ने. अभी तो सत्रह की ही थी कि अमिता से श्रीमती यादव हो गई थी। अभी श्रीमती बनने का शहूर भी तो नहीं सीखा था। रजत की चांदनी बनना और बात थी। परन्तु रामखिलावन यादव के परिवार के तो नियमों तक से वाकिफ़ नहीं थी मैं।

वाक़िफ़ होने में क्या समय लगना था। पहली ही रात को पति के वहशियाना बर्ताव ने सब कुछ समझा दिया था कि अमिता यादव बने रहने के लिए, जीवन भर क्या-क्या सहना पडेग़ा। जैसे एक भेड़िया टूट पड़ा था अपने शिकार पर। निरीह मेमने की तरह बेबस-सी पड़ी थी मैं। पीड़ा की एक तेज़ लहर टांगों को चीरती हुई निकल गई थी। शराब और तंबाकू की महक, उबकाई को दावत दे रही थी। दर्द ने चीख़ को बाहर निकलने को मजबूर कर ही दिया। चीख़ की परवाह किसे थी। चादर लहू से लथपथ हो रही थी। चेहरे पर विजयी मुस्कान लिये वोह! जो मेरा रखवाला था, स्वयं ही मुझे ज़ख्मी और आहत छोडक़र आराम की नींद सो रहा था।

आराम! इस शब्द से अब मेरा सम्बन्ध सदा के लिए टूट चुका था। रामखिलावन यादव के परिवार ने एक दरिद्र परिवार की पुत्री को अपने घर की बहु बनाया था। बहु के लिए आवश्यक था कि वह घर में ग़रीब बैल की तरह जुटी रहती। ग़रीब पिता के घर भी ग़रीब थी, और अमीर ससुराल में भी ग़रीब। नौकरों के घर में होते हुए भी ऐसा क्यों होता था कि मैं स्वयं अपने आपको उन्हीं नौकरों में से एक पाती थी. मैं क्यों अपने आपको उस घर का सदस्य नहीं बना पा रही थी. कुछ यूं सा भी तो लगने लगा था जैसे मैं किसी दूसरे ग्रह से भटककर इस ग्रह में पहुंच गई हूं। इस भटकाव का ख़मियाज़ा भुगत रही थी।

            भटकाव! मेरे पति के जीवन में ऐसा भटकाव क्यों था? इस सवाल का जवाब ढूंढ पाना आसान काम नहीं था. मैं रूप सुन्दरी चाहे ना रही होऊं, परन्तु मुझे एक बार देखकर लड़के दोबारा मुड़कर अवश्य देखते थे. बहुत से लडक़े मुझसे दोस्ती करने को उत्सुक रहते थे. वोह सब केवल उम्र का तकाज़ा था या मैं उन्हें सचमुच अच्छी लगती थी.दर्पण तो आज भी मेरे रूप की गवाही देने से नहीं चूकता. फिर मेरे पति को मुझमें क्या कमी दिखाई देती थी? क्यों वह मुझे छोडक़र किसी भी ऐरी-गैरी के पीछ भागता रहता था. सास को भी इसमें कोई बुराई नहीं दिखाई देती थी. उसे लगता था कि उसका लाडला है ही इतना सुन्दर कि उसे देखकर किसी भी लड़की का उस पर मर मिटना स्वाभाविक ही है.

            स्वाभाविक तो था मेरा उस घर से उब जाना. माता-पिता से निराशा, ससुराल से निराशा, पति से निराशा. इतनी सारी निराशा के बावजूद मैं ज़िन्दा थी. सोती थी, जागती थी, मुस्कुरा भी लेती थी, रोती थी. रोती तो थी ही रोने के अतिरिक्त और कर भी क्या सकती थी. और अब तो रोने के साथ सुबह की उल्टियां भी शामिल हो गई थीं.

            घर की हर चीज़ उल्टी थी. उसके साथ उल्टियां तो हानी ही थीं. मैं मां बनने वाली थी.मां! मां तो मेरी भी बहुत अच्छी है. पर मुझे अपनी मां जैसी मां नहीं बनना था. ढेर से बच्चे पैदा करो और जीवन भर उनकी परवरिश में खटते रहो. कैसा जीवन है यहकभी सोचा करती थी, बस! मुझे एक ही बच्चा चाहिए.बेटा हो या बेटी? इसके बारे में कभी सोचा ही नहीं था. भला मैं अपने बच्चे के लिंग के बारे में क्यों सोचती? क्यों चिंता करती? जिनको करनी है, करें.

            चिंता करने वालों की कमी थी क्या? भला मेरे सोचने या ना सोचने से क्या फ़र्क पडने वाला था.बाकी सभी को चिंता खाये जा रही थी कि बेटा होगा या बेटी.लड़ती होगा तो क्या नाम रखेंगे. उसके ननिहाल से क्या आयेगा. कैसा समारोह मनाया जायेगा. ढोल-ताशों का प्रबन्ध कैसा रहेगा. मुहल्ले भर में मिठाइयां बंटेंगी. जाने क्या-क्या किया जायेगा.

            कुछ नहीं हुआ.कुछ नहीं करना पड़ा. सब उल्टा-पुल्टा हो गया. घर में लक्ष्मी ने अवतार लिया था. लक्ष्मी के पुजारी, यादव परिवार वाले लक्ष्मी के आगमन पर भौंचक रह गये थे. उन्हें यह समझ नहीं आ रहा था, कि यह सब कैसे हो गया. मेरी सास के आंसू वर्षा ॠतु के बरसाती नालों को मात देने में व्यस्त थे.मेरा अपना पति तो पुत्री-जन्म के दो दिन बाद घर लौटा. उसे रेज़गारी कभी पसन्द नहीं आती थी. बड़े-बड़े नोटों से ही उसे लगाव रहता था. लक्ष्मी जी की चिल्लर भला उसे कहां भाने वाली थी. ससुर जी की तो नाक ही कट कई थी.

            अब मेरी सहनशक्ति भी जवाब देने लगी थी. किसी हत्यारे को भी सम्भवतः ऐसा दंड कभी ना दिया गया होगा जो दंड मुझे नीलिमा को इस संसार में लाने के जुर्म में दिया जा रहा था. शरीर की नस-नस में ज़हर भरा जा रहा था.

            ''हरामज़ादी! लौंडी पैदा करके बहुत तीर मारी हो का? का समझती हो अपने आप को! हमरा सामने मुंह चलाती है! ससुरी के सभेई दांत तोडे ड़ाले है ना! तभे ही मारी बात समझेगी - पतुरिया!''

            इतनी बेइज्ज़ती! ऐसा निरादर! सांस लेने के लिए भी मार खानी पडेग़ी? समय आ गया था निर्णय लेने का. परन्तु मैं कौन होती थी निर्णय लेने वाली. मैं तो यादव खानदान की मात्र बहू थी. निर्णय लेना मेरे अधिकार क्षेत्र के बाहर की चीज़ थी. निर्णायकों ने निर्णय ले ही लिया था. मैं.. मैं अब रामखिलावन यादव के परिवार के लिए आवश्यक वस्तु नहीं रह गई थी.कह दिया गया; बहुत आसानी से कह दिया गया, “इस परिवार को तुम्हारी कोई ज़रूरत नहीं.अपनी मनहूस सूरत और उससे भी अधिक मनहूस बेटी को उठाओ और यहां से दफ़ा हो जाओ.”     

दफ़ा तो हो जाती. पर जाती कहां? माता-पिता तो सुनते ही बेहोश हो जाते. बसा बसाया घर त्यागकर उनकी बेटी वापिस आ गई. भाई और बहनों की भी हमदर्दी तो थी परन्तु सभी की मजबूरिया/ थीं. भाई की धर्मपत्नी थी तो बहनें किसी ना किसी की धर्म-पत्नियां थी. हम लोग कितने धार्मिक हो जाते हैं. धर्म के रिश्ते, खून के रिश्तों के मुकाबले कहीं अधिक वज़नदार हो जाते हैं.

            ऐसे में अपने एक पुराने अध्यापक की याद आई थी. अपना बनने के लिए, अपना ना होना कितना आवश्यक होता है. जो अपने होते हैं, वो कितनी आसानी से अपने नहीं रहते. और जो अपने नहीं होते, बिना किसी स्वार्थ के किसी को अपना लेते हैं. ऐसे ही हैं अपने पुरी सर! बिना किसी मतलब के अपना संरक्षण भरा हाथ मेरे सिर पर रख दिया था. उनके संरक्षण का सीधा सा अर्थ था मेरी पढ़ाई का पुनजीर्वित होना. आज भी उनका मार्गदर्शन मेरे जीवन के लिए उतना ही आवश्यक है जितना कि घर से निकाले जाने के बाद, पहले दिन था.

            तब से जीवन का हर दिन ही पहला दिन लगने लगा है. क्या कुछ नहीं बीत गया इतने वर्षों में. समुद्र की गहराई की थाह पा सकना यदि कठिन है, तो जीवन की गहराई की थाह पा सकना तो लगभग् असम्भव है.उसी जीवन की गहराई खोजने में ही सारी ज़िन्दगी ख़र्च होती जा रही है.
         
  अब मुझे आदमी की ज़ात से नफ़रत होने लगी थी.हर आदमी में मुझे केवल नर शरीर ही दिखाई देता था, जो कि किसी भी मादा पर झपटने को तैयार हो. यदि कोई नर शरीर मुझे बस या गाड़ी में छू भी जाता तो एक जुगुप्सा की सी भावना होती थी. पूरे जीवन का बस एक ही केंद्रबिंदु बनकर रह गया था-नीलिमा. नीलिमा को क्या अच्छा लगता है, नीलिमा कैसे नहाती है, कैसे खाती है, कैसे तुतलाती है. नीलिमा का वजूद मेरे ज़िन्दा रहने का एकमात्र कारण था. डरती थी कहीं सूर्य की गरम किरण भी उसके शरीर को छू ना जाये.
 
          गरमी, सर्दी, वर्षा, वसन्त, पतझड-सभी तो नीलिमा के शरीर को छूते गये. नीलिमा की उम्र देखकर याद आया कि मुझे भी अखबार के दफ्तर में काम करते पंद्रह वर्ष से ऊपर हो गये. अपने नाम के साथ यादव लिखना तो मुझे कभी भी अच्छा नहीं लगा था.अब तो जैसे अपना नाम ही भूल गई हूं. एक बार प्रियदर्शिनी के नाम से लिखना शुरू किया तो बस कॉलम दर कॉलम यही नाम मेरे साथ जुडता चला गया. नीलिमा का नाम भी स्कूल में नीलिमा प्रियदर्शिनी ही हो गया था.

            प्रियदर्शिनी के साथ भी कई लोगों ने ज़ुड़ने का प्रयास किया था.शायद किसी ना किसी का प्यार सच्चा भी रहा हो. किन्तु मेरे पास फुरसत ही कहां थी, किसी की भावनाओं को समझने की. हर आदमी को देखकर यादव ही याद आता था. और ऐसा होते ही लगता था कि मेरे साथ-साथ मेरे माहौल की हवा का भी दम घुटने लगा हो.

            माहौल से लड़ पाना कौन सी आसान बात है. अख़बार की दुनियां में अपने आप को खपा पाना तो और भी मुश्किल काम था. यहां हर आदमी अपने आप को फ़न्ने ख़ां समझता है. ग़लती से भी किसी के मुंह से दूसरे की तारीफ़ नही निकलती. तारीफ़ के मामले में कंजूसी, जेब में हाथ डालने में कंजूसी. हर बन्दा दूसरे का गला काटने को तत्पर. सुबह-शाम आसामियां ढूंढने का चक्कर! शाम की दारू का जुगाड़. यह था मेरा माहौल - जहां मुझे अपने आप को ज़िन्दा रखना था.

            ज़िन्दा रहना! जिजीविषा! कितनी अर्थपूर्ण स्थिति! ज़िन्दा तो मां-बाप के घर में भी थी; ज़िन्दा तो यादव के घर में भी थी. फिर ज़िन्दा तो यादव के घर से निकाले जाने के बाद भी थी. ज़िन्दा तो आज भी हूं.पर क्या यह सारी स्थितियां एक जैसी हैं? क्या इन सब स्थितियों को एक ही शब्द ' ज़िन्दा ' वर्णित कर सकता है? क्या घुटे दम सांस लेने को भी ज़िन्दा रहना कहेंगे. क्या इंसान को केवल इसलिए ज़िन्दा मान लिया जाये क्योंकि उसके दिल की धड़कन अभी तक चल रही है?

            नीलिमा सांस लेती थी तो मेरे दिल की धड़कन सुनाई देती थी. बिंदियों वाला लाल फ्रॉक पहने, बालों की पोनी टेल बनाए, सफेद जूते पहने जब नीलिमा दौड़ती हुई मेरी बाहों में आकर लिपट जाती थी, तो जैसे मैं सारी कायनात को अपनी बांहों में समेट लेती थी. जब पहली बार उसने मुझे 'मम्मा' कहा था तो इस शब्द के अर्थ ही मेरे लिए बदल गये थे. आकाश में उड़ते बादल जैसे वर्षा की फुहारों के रूप में इसी शब्द को बार-बार धरती की ओर प्रेषित कर रहे थे.

            वर्षा का भाई सौरभ भी तो मुझे अपने मन की भाषा प्रेषित करने की असफल कोशिश करता रहा. वैसे तो उसकी भावनाएं मुझे समझ आ गई थीं. सम्भवतः मेरी भावनाएं अपनी निद्रा से जाग भी जातीं. पर वर्षा ने उन भावनाओं को अपने गुस्से की बाढ़ में बहा दिया. वह कहने को तो 'मेरी सहेली' थी किंतु यह बरदाश्त नहीं कर पा रही थी कि उसका अपना भाई किसी परित्यक्ता से सम्बन्ध जोड़े. हमारी मित्रता रिश्तों के बोझ तले दब गई थी.

            बोझ तले तो जीने की सारी आकांक्षाए/, अरमान, दबे हुए थे. नीलिमा, इस बीच, उस बोझ से बेखबर, बडी हुई जा रही थी. मेरी चिंता में बढ़ोत्तरी होती जा रही थी. नीलिमा है भी तो सरू की तरह लंबी. सुन्दर भी कितनी है, मरी! एक बार जो उसे देखता है, तो नज़रें ही नहीं हटती. पांच बच्चों का ग्रहण लगने से वहले मेरी मां भी ऐसी ही सुंदर दिखती थी.

            मां! यह शब्द मेरे मुंह से निकले तो एक अर्सा ही बीत गया है. पर नीलिमा के मुंह से यह शब्द सुनकर जैसे मरूस्थल से मेरे दिल में ठण्डी हवा का एक झोंका सा महसूस होता है. अब तो कालेज जाने लगी है. आत्मविश्वास तो कूट-कूट कर भरा है उसमें. उसकी उम्र में जब मैं थी तो उसे गोद में लिये घर से निकाली भी जा चुकी थी.

            हैरानी की बात यह है कि मैं भी नीलिमा को घर से निकालने के बारे में सोचने लगी थी.सोचती थी कि उसे विदा कर दूं, उसके हाथ पीले कर दूं. फिर एकाएक मन में डर सा बैठने लगा था. नीलिमा को पढ़ाई करनी होगी. मेरी तरह उसकी किस्मत किसी यादव के घर से नहीं बंधेगी. उसे किसी अंकल पुरी की सरपरस्ती का मोहताज नहीं होना पडेग़ा.नीलिमा की पढाई में कम से कम मैं स्वयं तो रोडे नहीं ही अटकाऊंगी. नीलिमा को अपने पैरों पर खड़ा होना होगा. जब इतना जीवन बीत ही गया है, तो आज अचानक नीलिमा के विवाह के बारे में सोचना क्या उचित होगा?

            उचित-अनुचित की परवाह किये बिना ही किस्मत हमारी ही बिल्डिंग में समीर को ले आई थी. समीर ने हाल ही में डॉक्टरी की थी. अमरावती से पढ़ाई पूरी करके आया था. पास ही के हस्पताल में 'हाऊस-जॉब' कर रहा था.उससे मुलाकात भी अनायास ही हो गई थी. लिफ़्ट रूक गई थी.काफ़ी शोर सा सुनाई दिया था. बाहर आकर देखा तो लिफ़्ट अटकी पड़ी थी. मेरा तो जीवन ही किसी अटकी हुई लिफ़्ट के समान था. ऊर्जा का अभाव, दिशा विहीन, स्पंदनहीन.

            फिर भी लिफ़्ट में से मैंने ही उसे बाहर निकाला था. यद्यपि लिफ्ट में फँसने का मेरा अपना तो कोई अनुभव नहीं है, परन्तु एक छोटी सी जगह में घुटन का आभास मैं अच्छी तरह महसूस कर सकती हूं. इसीलिए मैंने वाचमैन से अच्छी तरह सीख लिया था, कि लिफ्ट के फंस जाने पर निकलने का रास्ता कैसे बनाते हैं.

            समीर के चेहरे की मासूमियत ने मुझे पहली नज़र में ही आकर्षित कर लिया था. उसके बात करने का ढंग, तहज़ीब किसी को भी प्रभावित करने में सक्षम थे. सम्भवतः लिफ्ट में फ़ंसा होने की शर्म से उबर नहीं पाया था, अभी. घबराहट और बौखलाहट से बना पसीना उसकी कमीज़ को गीला किये हुए था. माथे पर उभरी पसीने की बूंदें अपनी कहानी स्वयं ही सुना रही थीं.

            कहानी तो हर व्यक्ति के जीवन का एक अभिन्न हिस्सा होती हैं. कहानिया/ बनती हैं टूटती हैं. ज़िन्दगी की टूटन, कहानियों की टूटन से कहीं अधिक दर्द पैदा कर जाती है.समीर के जीवन की भी एक कहानी थी. उसके सुखी बचपन की कहानी. पिता के पार्टनर के धोखे की कहानी? हवालात में बन्द पिता की कहानी! माता-पिता की आत्महत्या की कहानी! उसके अकेलेपन की कहानी! इस विकराल दुःख की कहानी के बावजूद डॉक्टर बनने के अपने सपने को साकार करने की कहानी.

            सपने तो मेरे मन में भी जगा गया था समीर! एक बार फिर नीलिमा और समीर को लेकर सपनों के जाल बुनने लगी थी. समीर अब रात का खाना अक्सर हमारे साथ खाने लगा था. परिवार में अचानक एक मर्द के आ जाने से वातावरण अलग सा होने लगा था. नीलिमा समीर से छोटी-छोटी बातों पर झगड़ने लगती थी. समीर का धीर गंभीर चेहरा, नीलिमा की हर बेहूदगी बरदाश्त कर जाता. अगर मैं नीलिमा को डांटती तो नीलिमा की ही तरफ़दारी करता, ''आप क्यों डांटती हैं उसे. बच्ची है अभी.'' मेरा सपना और इंद्रधनुषी हो जाता.

            इंद्रधनुष के सातों रंगों में से अलग-अलग कोई भी मेरा प्रिय नहीं है. पर सातों रंग मिलकर जब सफ़ेद रंग बनता है तो मुझे अपना सा लगने लगता है. 'सैल्फ प्रिंट' की सफ़ेद साडी लिये समीर, मेरे जन्म-दिन पर सुबह-सुबह आ पहुंचा था. बहुत मना करने पर भी मुझे यह उपहार लेना ही पड़ा. और उसी साड़ी क़ो पहनकर हम शाम को चौपाटी की रेत पर खेलते रहे.

            उस शाम मैंने नीलिमा की आंखों में एक विशेष चमक देखी थी. हालांकि नीलिमा अपने चेहरे के भाव आसानी से व्यक्त नहीं होने देती. पर मैं तो उसकी मां हूं. जब वो रूई के फाहे की तरह मुलायम सी गुड़िया थी, तब से उसे देख रही हूं. उसकी आंखों का क्षणिक बदलाव भी भला मेरी नज़र से कैसे बच सकता है. उसका समीर की ओर देखना और पकड़े ज़ाने पर शरमा कर नज़रें झुका लेना.

            दूसरी ओर समीर का धीर गम्भीर चेहरा. सब ठीक है. मुझे ऐसा ही दामाद चाहिए, जो नीलिमा को पति के प्यार के साथ-साथ, पिता होने का अहसास भी करा दे. उन दोनों का समुद्र की लहरों से खेलना देखकर, मैं मन ही मन अंदाज़ लगा रही थी कि जीवन की लहरों से यह दोनों कैसे निबटेंगे.

            पहले तो नीलिमा को पढ़ाई और नाटक के अतिरिक्त और कुछ नहीं भाता था. समीर आकर बैठा रहता था, मुझसे बातें करता रहता था और नीलिमा अपने आप में मस्त रहती थी.फिर धीरे-धीरे उसमें एक बदलाव आया.वो समीर में मगन दिखाई देने लगी थी. रंगमंच के नाटक से कहीं अधिक अनोखा मोड़ उसके अपने जीवन में आ रहा था. घर में पालक-पनीर अक्सर बनने लगा था. चाय की पत्ती की जगह 'टी-बैग' इस्तेमाल होने लगे थे, रात को कॉफ़ी बनने लगी थी, नये फ़िल्मी गीतों को जगजीत सिंह ने परे धकेल दिया था और नीलिमा स्कर्ट और मिडी की जगह सलवार कमीज़ पहनने लगी थी.उसे यह सब करने को मैंने तो नहीं कहा था.
         
  नीलिमा की इन्हीं बातों ने मुझे इतनी हिम्मत दी कि मैं समीर से नीलिमा के बारे में बात कर सकूं . केवल सही समय और सही मौके की तलाश थी. सचमुच के घर बनाने और रेत के घरौंदे बनाने में तो बहुत फ़र्क होता है. रेत के घरों को तेज़ हवाएं उडा ले जाती हैं. समुद्र की तेज़ लहरें उसे बहा ले जाती हैं. मैं भी डर रही थी कहीं मेरे ख़्याली पुलाव भी समुद्री फ़ेन की तरह न साबित हों.

            ख़्याल तो मुझे सीधे रजत के पास ले जाते थे. कहीं मन में यह भी विचार उठ रहे थे कि जो काम मैं और रजत पूरा नहीं कर पाये, वोह काम नीलिमा और समीर शायद सरअंजाम दे पायें. डॉक्टर दामाद के बारे में सोचकर सुख से भीगी जा रही थी.

            सुख के ऐसे ही एक क्षण में समीर से बात शुरू कर बैठी. बाहर हल्की-हल्की बयार चल रही थी जो खिडक़ी के पल्ले से टकराकर घर के अन्दर तक फैलती जा रही थी. सूरज की लालिमा शाम का साथ छोड़ती जा रही थी और रात को दावत दे रही थी. नीलिमा कहकर गई थी कि शाम को घर आने में देर हो जायेगी. ऐसे में समीर घर में दाख़िल हुआ. बडे अधिकार से एक कप चाय की मांग की.मैं अपना कॉलम लिख रही थी. कॉलम छोडक़र किचन में जाना अच्छा लग रहा था.

            चाय बनाकर समीर के सामने रख दी. उसने एक बिस्कुट स्वयं ही उठा लिया था. आराम से चाय में डुबा-डुबाकर खा रहा था अपना बिस्कुट. अपनी पुरानी आदत अपने सामने सजीव देख रही थी. हिम्मत जुटा ही ली, ''समीर, विवाह के बारे में कुछ सोचा है?''

            ''आपके अलावा मेरा है ही कौन जो मेरे विवाह के बारे में सोचे.'' समीर ने दूसरा बिस्कुट उठा लिया था.
            मेरे दिल की धडक़न तेज़ हो गई थी. आख़िर नीलिमा के भविष्य का फ़ैसला होने वाला था. ''नहीं समीर, मेरा मतलब था, क्या तुम खुद शादी के बारे में मन पक्का कर रहे हो?''
            ''जी! सोच तो रहा हू/.''
            ''अपनी होने वाली पत्नी के बारे में कुछ सोचा है तुमने?'' तुम्हें कैसी पत्नी की तलाश है?''
            समीर कुछ क्षणों के लिए सोच में पड़ ग़या. और फिर बोला, ''प्रियदर्शिनी जी, बस कोई अपने जैसी ढूंढ दीजिये.फट से कर लूंगा शादी.''
            मैं हवा मैं तैरने लगी थी. नीलिमा से बढ़कर मेरे जैसी कौन हो सकती थी? जैसे समीर ने मुझे हरी झंडी दिखा दी थी. मेरे सपनों को साकार करने का इशारा दे दिया था. ''समीर, नीलिमा के बारे में तुम्हारी क्या राय है? उससे बढक़र तो मेरे जैसा कोई नहीं होगा. क्या वोह तुम्हारी पत्नी की तस्वीर में रंग भर सकती है?''
            ''जी आपने एकदम सही फ़रमाया कि मैं आजकल सीरियसली शादी के बारे में सोच रहा हूं. पर नीलिमा! नीलिमा तो अभी बच्ची है. उससे शादी के बारे में कैसे सोचा जा सकता है? मैं ... मैं उसे पसन्द करता हूं, प्यार करता हूं, पर शादी के लिए नहीं.मैं उसका बड़ा भाई हो सकता हूं, पिता हो सकता हूं. आपको लगता है, इस दुनियां में नीलिमा सबसे ज़्यादा आप जैसी हो सकती है. मैं ऐसा नहीं मानता. आप जैसी सबसे अधिक आप ख़ुद हो सकती हैं. मैं इस घर में रोज़-रोज़ आता हूं तो आपके लिए. नीलिमा के लिए नहीं. मुझे आपसे अच्छी पत्नी कहीं नहीं मिल सकती. मैं ... मैं आपसे प्यार करता हूं प्रियदर्शिनी!'' समीर एक तूफ़ान की तरह मेरे कानों से टकराया.उसने अपना हाथ मेरे हाथ पर रख दिया था.
           

तूफ़ान ने सारे घर को हिलाकर रख दिया था. मुझे लगा घर की दीवारें ध्वस्त होकर नीचे गिर पड़ी हैं. समीर के शब्द दीवारों के पार खड़ी नीलिमा को आहत कर गये हैं. मैंने अपना हाथ हटा लिया. मैं! नीलिमा की मां, प्रियदर्शिनी... स्वयं उस की सौत! समीर यह तुमने क्या कह दिया? मेरी वर्षों की तपस्या की चूलें हिला दीं. मैंने नज़रें उठाईं तो समीर जा चुका था. मैं टूटी हुई दीवारों का मलबा समेटनी लगी.

जुबान फिसलते ही नेता का कद बढ़ जाता है - यज्ञ शर्मा

एक पुराना कहावत है- चमड़े का जबान है, फिसल जाता है। ये कहावत जरूर कोई नेता ने बनाया होएंगा। नेता का जबान बड़ा चिकना होता है, उसको फिसलने का आदत होता है। खास कर चुनाव का मौसम में। अलग-अलग अंग का फिसलने का अलग-अलग परिणाम होता है। पांव फिसलता है तो आदमी नीचे गिरता है। जबान फिसलता है तो नेता ऊंचा उठ जाता है। पांव फिसलने का बाद आदमी नजर झुका कर कपड़ा झाड़ता है। जबान फिसलने का बाद नेता सिर उठा कर बहस करता है। राजनीति का बहस अकसर बड़ा बेशर्मी से किया जाता है। चूंकि जबान सबसे जास्ती चुनाव का मौसम में फिसलता है, इस कारण अब चुनाव नीति पर टिका रहने का मुद्दा नहीं रह गएला है, नीति का फिसलने का मुद्दा बन गएला है। 
 
जिंदगी में तीन चीज फिसलता है - एक पैर, दूसरा जबान और तीसरा नजर। तीनों का फिसलना अलग-अलग कमजोरी दरसाता है। पैर का फिसलना बताता है कि आदमी लापरवाह है। जबान का फिसलना बताता है आदमी भरोसे वाला नहीं है। और, नजर का फिसलना बताता है आदमी बदचलन है। हिंदुस्तान में राजनीति का चरित्र पर कोई भरोसा नहीं करता। इस कारण, जब नेता का जबान फिसलता है तो किसी को अचरज नहीं होता। कारण, लोग अच्छा तरह से जानता है कि राजनीति में जबान वास्तव में फिसलता नहीं है, फिसलाया जाता है। नेता का जबान सबसे जास्ती किधर फिसलता है? जिधर उसका वोट बैंक होता है। ये राजनीति का सबसे फिसलना जगह होता है। नेता का जबान उधर फिसलता ईच है। लगता है वोट बैंक का दरवाजा पर हमेशा केले का छिलका पड़ा रहता है। अगर नहीं पड़ा होवे, तो नेता ले जाकर डाल देता है। उसके बाद जबान फिसल जाता है। अगर हिंदुस्तान का राजनीति का वास्ते कोई 'लोगो' या प्रतीक चुनना होवे तो वो क्या होएंगा? केला !! केला कायकू? कारण, हिंदुस्तान में डेमोक्रेसी है। डेमोक्रेसी में लोकप्रियता का बड़ा महत्व है। और, केला संसार का सबसे लोकप्रिय फल है। दुनिया में केला सबसे जास्ती खाया जाता है। आपने 'खाया' शब्द पर गौर किया? कुछ लोग मानता है कि खाना हिंदुस्तानी राजनीति का सबसे लोकप्रिय गतिविधि है। आपने 'लोकप्रिय' शब्द पर गौर किया? इसी कारण, हिंदुस्तान का डेमोक्रेसी का वास्ते केला सबसे सही फल है - गूदा मुंह में डालो और छिलका पर जबान फिसलाओ। 

 
चुनाव नारा-काल होता है। चुनाव चिंता-काल होता है। चुनाव असमंजस-काल होता है। चुनाव प्रश्न-काल होता है। चुनाव का टाइम नेता का मन में सबसे बड़ा प्रश्न ये ईच होता है - मैं जीतेंगा या नहीं? और, तब नेता को खयाल आता है कि मेरा सबसे बड़ा सहारा तो मेरा वोट बैंक है। नेता हमेशा ये बात से डरता है कि कहीं वोट बैंक उसका हाथ से फिसल न जावे। नेता का जिंदगी में चुनाव हारने से बड़ा डर कोई और नहीं होता। और, जब नेता डर जाता है तो सबसे पहले अपना जबान को फिसलाता है। जबान को फिसलाने में नेता को कोई परेशानी नहीं होता। परेशानी फकत तब होता है जब कानून उसका जबान फिसलाने पर रोक लगा देता है। नेता को कानून से परेशानी भले ईच होता होवे, लेकिन वो कानून से डरता नहीं है। कारण, कानून नेता को नहीं बनाता, नेता कानून को बनाता है। नेता कानून का बाप होता है। तो, जबान फिसल जाता है। कारण वो चमड़ा का होता है। वो चमड़ा किसका होता है? आप सोच रहा होएंगा - जब जबान नेता का है, तो चमड़ा बी नेता का ईच होएंगा! जी नहीं, जबान नेता का जरूर होता है, पर चमड़ा नेता का नहीं होता। कारण, चमड़ा एक ऐसा चीज है जो किसी को मार कर ईच हासिल किया जा सकता है। अब, किसी को ये बताने का कोई जरूरत नहीं है कि पिछला साठ साल में राजनीति ने ये देश में क्या-क्या मार दिया। वो सबका मरने का सबसे बड़ा कारण है वो चमड़ा का जबान, जिसने डेमोक्रेसी को केला का छिलका पर खड़ा कर दिएला है।

NBT से साभार

दुनिया की रङ्गीनी - दिगम्बर नासवा

दुनिया रङ्गीन दिखे
इसलिए तो नहीं भर लेते रङ्ग आँखों में  

उदास रातों की कुछ उदास यादें
आँसू बन के न उतरें
तो खुद-ब-खुद रङ्गीन हो जाती है दुनिया

दुनिया तब भी रङ्गीन हो जाती है
जब हसीन लम्हों के दरख़्त
जड़ें बनाने लगते हैं 
दिल की कोरी ज़मीन पर
क्योंकि
 उसके साए में उगे रङ्गीन सपने
जगमगाते हैं उम्र भर

सच पूछो तो 
दुनिया तब भी रङ्गीन होती है
जब 
तेरे एहसास के कुछ कतरे लेकर 
फूल फूल डोलती हैं 
रङ्ग-बिरङ्गी तितलियाँ
ओर उनके पीछे भागते 
कुछ मासूम बच्चे
रङ्ग-बिरङ्गे कपड़ों में

पूजा की थाली लिए
गुलाबी साड़ी और आसमानी शाल ओढ़े
तुम भी तो करती हो चहल-कदमी 
रोज़ 
मेरे ज़ेहन में
दुनिया इसलिए भी तो रङ्गीन होती है

आज मन अतुकान्त है - मोहनांशु रचित

आज मन अतुकान्त है
दोहा और रोला की खीञ्चतान में
कुण्डली मार के बैठी हैं उमीदें

तुम्हारी यादों का मौसमी कुहासा
नज़्म की तरह
धीरे-धीरे
मुझे अपने आगोश मेँ ले रहा है

और मैं 

अमृत-ध्वनि छन्द की तरह
अपने ही तानेबाने में फँसा हुआ सा

जीवन के नवगीत में
पिङ्गल के नियमों की
व्यर्थ तलाश करता हुआ सा

तुम्हारे जूडे के लिये
दोहों के चार फूल चुनता हुआ सा
हूँ

ठीक उसी वक्त
तुम न जाने कहाँ से ले आती हो
तीन वल्लरियाँ
हाइकु की
अपने जूड़े मे गुँथवाने के लिए हमेशा की तरह

और अपने हाथों से
तुम्हारे जूड़े में
अपने लाये हुये फूल टाँकने की मेरी इच्छा
किसी क्लिष्ट गूढ पद के अर्थ की तरह
मुझे उलझा जाती है
फिर से

कभी-कभी लगता है
ज़िन्दगी की ग़ज़ल में
तुम मतला हो 
और 
मैं मक्ता
हमेशा एकसाथ
मगर मिलाप कभी नहीं

एकदूजे की ख़ैरियत के लिये भी
हम निर्भर हैं
कभी दल-बदलू काफ़ियों पर
तो कभी अडियल रदीफ़ पर

मैं भी चाहता हूँ
जीवन चौपाई छन्द जैसा मधुर 
और
मनहर कवित्त सा मनोरम हो
लेकिन शायद
हमदोनों देवनागरी के ऐसे गुरु-वर्ण हैं
जो कि प्रतिबध्द हैं 
पञ्चचामर छन्द में क्रमिक आवृत्ति के लिये
यानि हर बार 
हम दौनों के बीच में 
एक लघु का होना अपरिहार्य है

ऐसा लगता है 
शायद विधना ने
हमारा मिलन
उस दिन के लिये फ़िक्स कर दिया है
जिस दिन
छन्दों के फूल
हाइकु की वल्लरियाँ
शेरों की सुगन्ध
और
नज़्मों की नज़ाकत

दूर न होगी कविता और कहानी के कथानक से

बच्ची की आबरू तक महफूज़ अब नहीं है - उर्मिला माधव

छोटी सी दास्ताँ है कह दो तो में सुनाऊँ??!
ग़र हो मुलाहिज़ा तो,आगे इसे बढाऊँ??...!

छोटी से एक बच्ची पैदा हुई ज़मीं पर,
हर सम्त तीरगी थी,न रौशनी कहीं पर,

बूढ़े पडोसी आये बोले कि क्या हुआ है??
रोते से सब लगें हैं क्या कोई मर गया है ??

घर के बुज़ुर्ग बोले न न ये सच नहीं है,
हँसने की अब हमारी औक़ात बस नहीं है

सब चीज़ ठीक ही है, कुछ भी गमीं नहीं है,
कुछ ख़ास भी नहीं है, न-ख़ास भी नहीं है,

दहलीज़ पर हमारी पैदा हुयी है बच्ची,
इतनी बड़ी मुसीबत किसको लगेगी अच्छी??

सकते में थे पडोसी, बोले कि क्या ग़ज़ब है!!
बच्ची के मामले में ये सोच भी अजब है !!

थोडा सा खाँस करके बोले बुज़ुर्ग हँस कर,
हर बात हो रही है इनसानियत से हट कर,

जीने का हक सभीको दुनिया में है बिरादर,
बच्ची हो याकि बच्चा इन्सान सब बराबर

घर के बुज़ुर्ग बोले माथे पे हाथ रख कर,
होता ही क्या है वैसे लफ़्ज़ों से बात ढक कर??

बच्ची की आबरू तक महफूज़ अब नहीं है,
परदे में रहके जीना, जीने का ढब नहीं है... 

अर्द्धनारीश्वर - सङ्गीता स्वरूप गीत

स्त्री - पुरूष
समान रूप से
एक दूसरे के पूरक
सुनते आ रहे हैं
न जाने कब से

लेकिन क्या सच में ही
दोनों में कोई समानता है?

एक के बिना
दूसरा अधूरा है 
फिर भी कई मायनों में
पुरूष पूरे का पूरा है

अर्धांगनी नारी ही कहलाती है
पुरूष बलात
अपना हक जताता है
और नारी अपने मन से
समर्पित भी नही हो पाती है 

नारी भार्या बन
सम्मानित होती है
माँ बन कर
गौरवान्वित होती है
लेकिन जब
परित्यक्ता होती है तो
लोलुप निगाहें बीन्ध डालती हैं
उसकी अस्मिता को

और अगर कोई
बलात्कार से पीड़ित हो तो
सबके लिए घृणित हो जाती है

यहाँ तक कि
ख़ुद का दोष न होते हुए भी
अपनी ही नज़रों से गिर जाती है ।

सामाजिक मूल्यों
खोखले आदर्शों
और थोथे अंधविश्वासों के बीच
नारी न जाने कब से
प्रताडित और शोषित
होती आ रही है

आज नारी को ख़ुद में
बदलाव लाना होगा
उसको संघर्ष के लिए
आगे आना होगा
पुरूष आकर्षण बल से
मुक्त हो
ख़ुद को सक्षम बनाना होगा ।

और फिर एक ऐसे समाज की
रचना होगी
जिसमें नर और नारी की
अलग - अलग नही
बल्कि सम्मिलित संरचना
निखर कर आएगी

और यह कृति
अर्धनारीश्वर कहलाएगी .