एक कविता – मोनी गोपाल ‘तपिश’

 तुम जानना चाहते हो मुझे ?
किस सीमा तक
यह निर्धारित करना है तुम्हे ही
तुमने जाने -अनजाने कितनी बार
सोचा है मुझे !
कितनी उलझन होती है
किसी को सम्पूर्ण पाते हुए भी
अधूरा जानने पर !
लोग बताते हैं तुम्हे
जाने कितनी ऐसी बातें
मेरे व्यक्तित्व की जो तुम्हे मिली हैं
केवल सुनने को,देखने जानने को नहीं !
सच यह है कि मैं केवल अभिनेता हूँ
बोल सकता हूँ केवल संवाद
जिनमे अभिनय की गंध स्वाभाविक है
और तुम ?
तुम कलाकार हो
आडम्बरयुक्त बातों को भी
सहजता से कह जाना
कि आभास तक न हो आडम्बर का
विशेषता है तम्हारी
कभी टटोलो सवयं को
मुझे न कुरेद कर
आवश्यक है इस के लिए
तुम्हारे कलाकार की मौत !
तुम पाओगे
मेरे संवाद
बदल गए हैं अपनत्व में
तुम देखोगे
जितना तुम जानते हो मुझे
शायद मैं भी नहीं जनता उतना सवयं को ! 

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