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निशाँ पाया,.....न कोई छोर निकला - सालिम शुजा अन्सारी

निशाँ पाया,.....न कोई छोर निकला

मुसाफ़िर क्या पता किस ओर निकला


अपाहिज लोग थे सब कारवाँ में

सितम ये राहबर भी कोर निकला


जिसे समझा था मैं दिल की बग़ावत

महज़..वो धड़कनों का शोर निकला


निवाला बन गया मैं.... ज़िन्दगी का

तुम्हारा ग़म तो आदमख़ोर निकला


दिये भी....लड़ते लड़ते थक चुके हैं

अँधेरा इस ...क़दर घनघोर निकला


हुआ पहले क़दम पर ही शिकस्ता

करूँ क्या हौसला कमज़ोर निकला


सुना ये था, है दुनिया गोल "सालिम"

मगर नक़्शा तो ये चौकोर निकला


सालिम शुजा अन्सारी
9837659083



बहरे हज़ज  मुसद्दस महजूफ़
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन ,

1222 1222 122

हों लाख बरहम हवाएँ लेकिन चिराग़ दिल का बुझा नहीं है - मुमताज़ नाजाँ

हों लाख बरहम हवाएँ लेकिन चिराग़ दिल का बुझा नहीं है

जो तोड़ डाले हमारी हिम्मत जहाँ में ऐसी बला नहीं है
है कौन मक़्तूल कौन मुजरिम, लहू के छींटे बता रहे हैं

ज़माने भर पर है राज़ ज़ाहिर बस एक तुम को पता नहीं है
धरम का लो नाम और उस पर उठाओ फ़ितने कराओ दंगे

अगर ख़ुदा है तुम्हारा वाली तो क्या हमारा ख़ुदा नहीं है?
गुज़र चुके हैं सभी मुसाफ़िर, मकीं कहीं और जा बसे हैं

पड़ी है वीरान दिल की बस्ती कहीं भी कोई सदा नहीं है
ये शाह ए दौरां से जा के कह दो, है हम को मंज़ूर टूट जाना

अना की "मुमताज़" है रिवायत कि सर कहीं भी झुका नहीं है

मुमताज़ नाजाँ
बहरे कामिल मुसम्मन सालिम
मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन
मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन
11212 11212 11212 11212


इसी ख़ातिर तो उसकी आरती हमने उतारी है - मयंक अवस्थी

इसी ख़ातिर तो उसकी आरती हमने उतारी है
ग़ज़ल भी माँ है और उसकी भी शेरों की सवारी है


मुहब्बत धर्म है, हम शायरों का दिल पुजारी है
अभी फ़िरकापरस्तों पर हमारी नस्ल भारी है


सितारे, फूल, जुगनू, चाँद, सूरज हैं हमारे सँग

कोई सरहद नहीं ऐसी अजब दुनिया हमारी है


वो दिल के दर्द की खुश्बू का आलम है कि मत पूछो 

तुम्हारी राह में ये उम्र जन्नत में गुज़ारी है

ये दुनिया क्या सुधारेगी हमें, हम तो हैं दीवाने

हमीं लोगों ने अबतक अक्ल दुनिया की सुधारी है


मयंक अवस्थी

ब्रज-गजल - अबू उभरै तौ है हिय में, गिरा के रूठवे कौ डर - नवीन

ब्रज-गजल - रूठवे कौ डर 
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अबू उभरै तौ है हिय में - गिरा1 के रूठवे कौ डर। 
मगर अब कम भयौ है - शारदा के रूठवे कौ डर॥

सलौने-साँवरे नटखट बिरज में जब सों तू आयौ। 
न जानें काँ गयौ - परमातमा के रूठवे कौ डर॥

सुदामा और कनुआ की कथा सों हम तौ यै सीखे। 
विनय के पद पढावै है - सखा के रूठवे कौ डर॥

कोऊ मानें न मानें वा की मरजी, हम तौ मानें हैं। 
हमें झुकवौ सिखावै है - सभा के रूठवे कौ डर॥

हहा अब तौ ठिठोली सों जमानौ रूठ जावें है। 
कहूँ गायब न कर डारै - ठहाके - रूठवे कौ डर॥

निरे सत्कर्म ही थोड़ें करावै माइ-बाप'न सों। 
कबू छल हू करावै है – सुता2 के रूठवे कौ डर॥

हमें तौ नाँय काऊ 'और' कों तकलीफ है तुम सों। 
डरावै है तुम्हें वा ही 'तथा' के रूठवे कौ डर॥

घनेरे लोग बीस'न बेर कुनबा कों डला कह'तें। 
डरावै है सब'न कों या डला के रूठवे कौ डर॥

'नवीन' इतिहास में हम जाहु नायक सों मिले, वा के। 
मगज में साफ देख्यौ - नायिका के रूठवे कौ डर॥

गिरह कौ शेर:- 
बड़ी मुस्किल सों रसिया रास कों राजी भयौ, लेकिन। 
"लली कौ जीउ धसकावै लला के रूठवे कौ डर"॥

1 वाणी, सरस्वती 2 बेटी


नवीन सी. चतुर्वेदी 

ब्रज-गजल - बिगर बरसात के रहबै, चमन के रूठबे कौ डर - उर्मिला माधव

बिगर बरसात के रहबै, चमन के रूठबे कौ डर
कहूँ जो ब्यार चल बाजी, घट'न के रूठबे कौ डर
खड़े हैं मोर्चा पै रात दिन सैनिक हमारे तईं,
रहै हर दम करेजे में,वतन के रूठबे कौ डर
जमाने भर की चिंता में बिगारैं काम सब अपने,
ऑ जाऊ पै लगौ रहबै,सब'न के रूठबे कौ डर
कब'उ बेटा कौ मुंडन है,कब'उ है ब्याह लाली कौ,
कहूँ नैक'उ कमी रह गई,बहन के रूठबे कौ डर,
अजब दुनिया कौ ढर्रा ऐ,सम्हर कें, सोच कें चलियो.
तनिक भी चूक है गई तौ सजन के रूठबे कौ डर...
उर्मिला माधव...

बहरे हज़ज मुसम्मन सालिम
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
1222 1222 1222 1222


उस में रह कर उस के बाहर झाँकना अच्छा नहीं - नवीन

उस में रह कर उस के बाहर झाँकना अच्छा नहीं। 
दिल-नशीं के दिल को कमतर आँकना अच्छा नहीं॥ 

जिस की आँखों में हमारे ही हमारे ख़ाब हों। 
उस की पलकों पर उदासी टाँकना अच्छा नहीं॥ 

उस की ख़ामोशी को भी सुनना, समझना चाहिये। 
हर घड़ी बस अपनी-अपनी हाँकना अच्छा नहीं॥ 

एक दिन दिल ने कहा जा ढाँक ले अपने गुनाह। 
हम ने सोचा आईनों को ढाँकना अच्छा नहीं॥ 

प्यार तो अमरित है उस के रस का रस लीजै 'नवीन' 
बैद की बूटी समझ कर फाँकना अच्छा नहीं॥

नवीन सी. चतुर्वेदी 

लपेट कर रखे हैं मुख,चढ़ा रखे हैं आवरण - राजकुमार कोरी "राज़"

लपेट कर रखे हैं मुख,चढ़ा रखे हैं आवरण
कमाल कर रहा है लोकतंत्र का वशीकरण
लपेट कर रखे हैं मुख,चढ़ा रखे हैं आवरण
कमाल कर रहा है लोकतंत्र का वशीकरण
दिखावटों में जी रहा है, आजकल का आदमी
लगाव है, न प्रेम है , हृदय में हैं ,समीकरण
बिरादरी के नाम पर, लुटे सभी हैं देख लो
रुला रहा है देश को, ये वोट का ध्रुवीकरण
शहीद हो, लड़े वही, सुधार सब वही करे
हरेक चाहता है बस, महापुरुष का अवतरण
लिखे पढ़े सुजान ये , नशे में डूबते युवा
दशा बड़ी विचित्र है , न सूझता निराकरण
मनोदशा को भाँप कर , लड़े चिराग़ आस में
डरे तिमिर जहाँ उठे ये सूर्य की प्रथम किरण
उजाड़ गुलशनों को भूल आ नई पहल करें
खिले हुए ये पुष्प हैं बहार के उदाहरण।
लहूलुहान वर्दियों ने, वो कहा कि "राज़"बस
ये भाव अब निःशब्द हैं कि रो पड़ी है व्याकरण
राजकुमार कोरी "राज़"

बहरे हज़ज मुसम्मन मक़्बूज़
मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन
1212 1212 1212 1212



चार ग़ज़लें - अजीत शर्मा 'आकाश'

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ये तय है कि जलने से न बच पाओगे तुम भी ।
शोलों को हवा दोगे, तो पछताओगे तुम भी ।

पत्थर की तरह लोग ज़माने में मिलेंगे
शीशे की तरह टूट के रह जाओगे तुम भी ।

बाज़ार में ईमान को तुम बेच तो आये
आईना जो देखोगे तो शरमाओगे तुम भी ।

मंज़िल की तरफ़ शाम ढले चल तो पड़े हो
रस्ता वो ख़तरनाक है, लुट जाओगे तुम भी ।

रावण की तरह हश्र न हो जाए तुम्हारा
सीता को छलोगे तो सज़ा पाओगे तुम भी ।

बहरे हजज़ मुसमन अख़रब
मक्फ़ूफ मक्फ़ूफ मक्फ़ूफ महज़ूफ़
मफ़ऊलु मुफ़ाईलु मुफ़ाईलु फ़ऊलुन
221 1221 1221 122

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बाग़ों की रौनक़ ख़तरे में, हरियाली ख़तरे में है ।
कुछ तो सोचो, पेड़ों की डाली-डाली ख़तरे में है ।

जाने कैसे दिन आयें, अब जाने कैसा दौर आये
कहते हैं अख़बार वतन की खुशहाली ख़तरे में है ।

धीरे-धीरे जाग रही है मुद्दत से सोयी जनता
तुमने धोखे से जो सत्ता हथिया ली, ख़तरे में है ।

लाखों नंगे-भूखों से अपने भोजन की रक्षा कर
चांदी की चम्मच और सोने की थाली ख़तरे में है ।

मज़हब के मारों से हमको बचकर रहना है आकाश
ख़तरे में है ईद-मुहर्रम, दीवाली ख़तरे में है ।

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आंखों का हर ख़्वाब सुनहरा तेरे नाम ।
अब जीवन का लमहा-लमहा तेरे नाम ।

मुरझायी पंखुड़ियां मेरा सरमाया
ताज़ा फूलों का गुलदस्ता तेरे नाम ।

गहरे अंधेरे मुझको रास आ जायेंगे
जुगनू, तारे, सूरज-चन्दा तेरे नाम ।

तेरे होठों की सुर्ख़ी बढ़ती जाए
मेरे ख़ूं का क़तरा-क़तरा तेरे नाम ।

ख़ारों पे मेरा हक़ क़ायम रहने दे
पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा तेरे नाम ।

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मन्दिरों में, मस्जिदों में पायी जाती है अफ़ीम ।
आदमी का ख़ून सड़कों पर बहाती है अफ़ीम ।

राम मन्दिर जानती है, या कि मस्जिद बाबरी
आदमी का मोल कब पहचान पाती है अफ़ीम ।

आपसी सद्भाव जलकर ख़ाक हो जाता है दोस्त
आग नफ़रत की हरेक जानिब लगाती है है अफ़ीम ।

धर्म, ईश्वर के अलावा और कुछ दिखता नहीं
यों दिमाग़ो-दिल पे इन्सानों के छाती है अफ़ीम ।

बिछ गयी लाशें ही लाशें, शहर ख़ूं से धुल गया
फिर भी कहते हो कि इक अनमोल थाती है अफ़ीम ।

है कोई सच्चा मुसलमां, और कोई रामभक्त
देखिये आकाशक्या-क्या गुल खिलाती है अफ़ीम ।

बहरे रमल मुसम्मन महज़ूफ़
फ़ाइलातुन  फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
2122 2122 2122 212


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अजीत शर्मा 'आकाश' 
098380 78756

भैया अपनी ब्रजभासा की हालत अच्छी नाँय - नवीन



भैया! अपनी ब्रजभासा की हालत अच्छी नाँय
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हम खुस हैं लेकिन मैया की हालत अच्छी नाँय। 
कनुप्रिया रवि की तनुजा१ की हालत अच्छी नाँय॥ 

कौन सौ म्हों लै कें मनमोहन के ढिंग जामें हम।
वृन्दा के वन में वृन्दा२ की हालत अच्छी नाँय॥

गोप-गोपिका-गैया-बछरा-हरियाली-परबत।
नटनागर तेरे कुनबा की हालत अच्छी नाँय॥ 

बस इतनौ सन्देस कोऊ कनुआ तक पहुँचाऔ। 
श्याम! कदम्बन की छैंया की हालत अच्छी नाँय॥ 

सूधे-सनेह के मारग सों ऐसे-ऐसे गुजरे। 
मिटौ तौ नाँय मगर रस्ता की हालत अच्छी नाँय॥ 

झूठे-झकमारे लोगन की ऐसी किरपा भई।  
आज सत्यभाषी बट्टा३ की हालत अच्छी नाँय॥ 

जो''नवीन' उपाय है सकें, करने'इ होमंगे। 
भैया! अपनी ब्रजभासा की हालत अच्छी नाँय॥ 

१ यमुना २ वृन्दा यानि तुलसी का वन वृन्दावन ३ दर्पण


नवीन सी चतुर्वेदी 
ब्रज-गजल

फ़लक है सुर्ख़ मगर आफ़ताब काला है - मयंक अवस्थी

Mayank Awasthi's Photo'
मयंक अवस्थी
फ़लक है सुर्ख़ मगर आफ़ताब काला है
अन्धेरा है कि मिरे शहर में उजाला है
चमन मे आज भी किरदार दो ही मिलते हैं 
है एक साँप,तो इक साँप का निवाला है
शबे-सफ़र तो इसी आस पर बितानी है
अजल के मोड़ के आगे बहुत उजाला है.
जहाँ ख़ुलूस ने खायी शिकस्त दुनिया से
वहीं जुनून ने उठ कर मुझे सम्भाला है
उसे यकीन है दरिया पलट के आयेगा 
किनारे बैठ के कंकर जभी उछाला है
वो डस रहा है ये शिकवा करें तो किससे करें 
हमीं ने साँप अगर आस्तीं में पाला है
वही ज़ुबान पे लिपटा है और वही दिल पे 
किसी का नाम मिरी ज़िन्दगी पे छाला है
मै उस जुनून की सरहद पे हूँ जहाँ शायद 
वो फिर से तूर का जलवा दिखाने वाला है
अज़ल अबद की हदो में सिमट गया हूँ मैं 
मेरे मकान के दोनों दरों पे ताला है
मैं खो गया हूँ तेरे ख़्वाब के तअक्कुब में
बस एक जिस्म मेरा आख़िरी हवाला है


मयंक अवस्थी 08765213905


बहरे मुजतस मुसमन मख़बून महज़ूफ
मुफ़ाइलुन फ़इलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन
1212 1122 1212 22