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3 ग़ज़लें इरशाद खान सिकन्दर


रूह से तोड़के सबने बदन से जोड़ दिया

रिश्ता-ए-इश्क़ के धागे को धन से जोड़ दिया

है मिरा काम मुहब्बत की पैरवी करना

जबसे इक चाँद ने मुझको किरन से जोड़ दिया

मैं उसे ओढ़के फिरता था दश्त भर लोगो

क्यों मिरा जिस्म किसी पैरहन से जोड़ दिया

वक़्त ने तोड़ दिया था मगर तअज्जुब है

आपने दिल को मिरे इक छुअन से जोड़ दिया

मेरी ग़ज़लों ने मुहब्बत की नींव रक्खी है

बेवतन जो था उसे भी वतन से जोड़ दिया

शह्र के लोगों को ये बात नागवार लगी

गाँव का दर्द भी हमने सुख़न से जोड़ दिया

अब तो लाज़िम है सियासत के कुछ हुनर सीखें

शाह ने हमको भी इक अंजुमन से जोड़ दिया





कल रात पूरी रात तिरी याद आई है
जानाँ ये मेरे इश्क़ की पहली कमाई है


मैं इन दिनों हूँ हिज्र की लज़्ज़त में मुब्तला
इक उम्र काम करके ये तनख़्वाह पाई है


हाज़िर हूँ अपने दिल की मैं खाता-बही के साथ
ये मैं हूँ और ले ये तिरी पाई-पाई है


ख़ारिज सिरे से कर दिया सबकी दलील को
जब भी चलाई इश्क़ ने अपनी चलाई है 

तकिये का हाल देखके लगता है रातभर
सब आँसुओं ने ख़्वाब की बरसी मनाई है


जबसे सुना कि इश्क़ तिजारत मुफ़ीद है
हमने भी दिल दिमाग़ की पूँजी लगाई है


शाइस्तगी बनी ही मिरे ख़ानदान से
लहजे में ये मिठास बुज़ुर्गों से आई है


इक पल भी इस जहान से निभनी मुहाल थी
हमने किसी के इश्क़ में जग से निभाई है


तस्वीर का ये रुख भी सिकन्दहै क्या अजब

जब रंग उड़ गया तो ग़ज़ल रंग लाई है

बहरे मज़ारिअ मुसमन अख़रब मकफूफ़ मकफूफ़ महज़ूफ़
मफ़ऊलु फ़ाइलातु  मुफ़ाईलु फ़ाइलुन
 221 2121 1221 212 



तेरे अल्फ़ाज़ के पत्थर मिरे सीने पे लगे
मेरे अहसास के टुकड़े मिरे चेहरे पे लगे


हमने उनको भी कलेजे से लगा रक्खा है
संग जो भी हमें महबूब के सजदे पे लगे

इतना सुनने से तो अच्छा था कि मर ही जाता
मेरी आवाज़ पे पहरे तिरे कहने पे लगे


मैं तिरे इश्क़ में ऐसा हूँ तो ऐसा ही सही
लगे इलज़ाम अगर तौर तरीक़े पे लगे


इश्क़ ने तेरी बहाली की बिना रक्खी है
देखियो! कोई न धब्बा तिरे ओहदे पे लगे


इससे पहले तो ज़मीं थी, वो फ़लक था, दिल था
ये तो दीवार से हम आपके आने पे लगे


क्या नज़ारा था गले आज लगे वो ऐसे
जैसे जुमला कोई आकर किसी जुमले पे लगे


वो तो हम थे जो कभी आह क्या उफ़ तक भी न की
जब कि सब तीर तिरे सीधे कलेजे पे लगे


टस से मस भी जो हुआ मैं तो सिकंदरकैसा

लाख कैंची मिरे मज़बूत इरादे पे लगे
बहरे रमल मुसम्मन मख़बून महज़ूफ़
फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन
2122 1122 1122 22

:- इरशाद खान सिकन्दर 
– 9818354784

भर दुपहरी में कहा करता है साया मुझ से - नवीन

क़ितआ…………………………………


सोच बदलूँ तो बदल जाता है सारा मञ्ज़र
हो न हो द्रोण को अनुराग बहुत था मुझ से

बख़्शनी थी उन्हें दुनिया को नयी तर्ज़े-हुनर

शायद इस वास्ते माँगा हो अँगूठा मुझ से


भर दुपहरी में कहा करता है साया मुझ से
धूप से तङ्ग हूँ कुछ देर लिपट जा मुझ से

आज की रात मुझे पेश करोगे किस को
शाम ढलते ही ख़मोशी ने ये पूछा मुझ से

तेरे काम आ के इसे चैन मिलेगा शायद
आ मेरी जान! मेरी जान को ले जा मुझ से

पहले मामूल की मानिन्द झगड़ते थे हम
अबतो कुछ भी नहीं कहती मिरी बहना मुझ से

किस से मिलते हो कहाँ जाते हो क्या करते हो
काश ये पूछते रहते मिरे पापा मुझ से

मैं न हाकिम, न हुकूमत, न हवाला, न हुजूम
क्यों सवालात किया करती है दुनिया मुझ से

वहशतों ने जहाँ वहमों की वकालत की थी
पूछते रहते हैं लम्हे वो ठिकाना मुझ से

देना होगा तुझे एक-एक ज़माने का हिसाब
वहशते-इश्क़ तू आइन्द: उलझना मुझ से

चुलबुले शेर हसीनों की तरह होते हैं
और हसीनाओं को रखना नहीं रिश्ता मुझ से


बहरे रमल मुसम्मन मख़बून महज़ूफ़

फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन
2122 1122 1122 22

:- नवीन सी.चतुर्वेदी

काम आना हो तभी काम नहीं आते हैं - नवीन

काम आना हो तभी काम नहीं आते हैं
धूप के पाँव दिसम्बर में उखड़ जाते हैं

धूल-मिट्टी की तरह हम भी कोई ख़ास नहीं
बस, हवा-पानी की सुहबत में सँवर जाते हैं

वो जो कुछ भी नहीं उस को तो लुटाते हैं सब
और जो सब-कुछ है, उसे बाँट नहीं पाते हैं

सारा दिन सुस्त पड़ी रहती है ग़म की हिरनी
शाम ढलते ही मगर पङ्ख निकल आते हैं

शह्र थोड़े ही बदलते हैं किसी का चेहरा
आदमी ख़ुद ही यहाँ आ के बदल जाते हैं


नवीन सी. चतुर्वेदी

बहरे रमल मुसम्मन मख़बून महज़ूफ़
फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन
2122 1122 1122 22


मेरे मौला की इनायत के सबब पहुँचा है - नवीन

मेरे मौला की इनायत के सबब पहुँचा है
ज़र्रा-ज़र्रा यहाँ रहमत के सबब पहुँचा है
मौला - स्वामी / मालिक / प्रभु, इनायत - कृपा, के सबब - के कारण से

कोई सञ्जोग नहीं है ये अनासिर का सफ़र
याँ हरिक शख़्स इबादत के सबब पहुँचा है
अनासिर का सफ़र - पञ्च-भूत की यात्रा, यानि पृथ्वी पर मनुष्य योनि में जन्म

दोस्त-अहबाब हक़ीमों को दुआ देते हैं
जबकि आराम अक़ीदत के सबब पहुँचा है
अक़ीदत - श्रद्धा / विश्वास

न मुहब्बत न अदावत न फ़रागत न विसाल
दिल जुनूँ तक तेरी चाहत के सबब पहुँचा है
फ़रागत - अलग होना / निवृत्ति, विसाल - मिलन, जुनून - उन्माद / पागलपन 

एक तो ज़ख्म दिया उस पे यूँ फ़रमाया 'नवीन'
"तीर तुझ तक, तेरी शुहरत के सबब पहुँचा है"

बहरे रमल मुसम्मन मख़बून महज़ूफ़
फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन
2122 1122 1122 22 

दिल में रहता है मगर ख़्वाब हुआ जाता है - आलम खुर्शीद

दिल में रहता है मगर ख़्वाब हुआ जाता है
वो भी अब सूरते-महताब हुआ जाता है

खाक उड़ती है हमेशा मिरे गुलज़ारों में
और सहरा कहीं शादाब हुआ जाता है

बे-सबब हम ने जलाई नहीं कश्ती अपनी
ये समुन्दर भी तो पायाब हुआ जाता है

एक हो जाएंगे शाहाने- ज़माना सारे
इक प्यादा जो ज़फ़रयाब हुआ जाता है

यह किसी आँख से टपका हुआ आँसू तो नहीं
कैसा क़तरा है कि सैलाब हुआ जाता है

कुछ दिए हम ने जलाए थे अँधेरे घर में
कोई तारा कोई महताब हुआ जाता है

चढ़ते दरिया में निकलता नहीं रस्ता आलम !
मेरा लश्कर है कि ग़र्काब हुआ जाता है 

बहरे रमल मुसम्मन मख़बून महज़ूफ़
फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन
2122 1122 1122 22

आलम खुर्शीद

तख्ते-शाही ! तेरी औक़ात बताते हुए लोग - आलम खुर्शीद


तख्ते-शाही ! तेरी औक़ात बताते हुए लोग 

देख ! फिर जम्अ हुए खाक उड़ाते हुए लोग

तोड़ डालेंगे सियासत की खुदाई का भरम
वज्द में आते हुए , नाचते-गाते हुए लोग 

कुछ न कुछ सूरते-हालात बदल डालेंगे 
एक आवाज़ में आवाज़ मिलाते हुए लोग 

कोई तस्वीर किसी रोज़ बना ही लेंगे 
रोज़ पानी पे नये अक्स बनाते हुए लोग 

कितनी हैरत से तका करते हैं चेहरे अपने 
आईना-खाने में जाते हुए, आते हुए लोग 

काश ! ताबीर की राहों से न भटकें आलम 
बुझती आँखों में नये ख़्वाब जगाते हुए लोग



बहरे रमल मुसम्मन मख़बून महज़ूफ़
फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन

2122 1122 1122 22

मिल गये ख़ाक में आदाबेनज़र आने तक - इब्राहीम अश्क़

मिल गये ख़ाक में आदाबेनज़र आने तक
कोई मंज़िल न मिली शह्र से वीराने तक

हम तो ये सोच के बैठे रहे तनहाई में
शम्अ इक रोज़ तो ख़ुद आयेगी परवाने तक

बेख़ुदी दिल पे अजब छाई तेरे आने से
बात भी तुझ से न कर पाये तेरे जाने तक

आख़िरी साँस भी कब इश्क़ से आज़ाद हुई
क़र्ज़ उतरा ही नहीं डूब के मर जाने तक

धीरे-धीरे ही सही शह्र में चर्चा तो हुआ
दुश्मनी आप की पहुँची मेरे याराने तक

हर कोई राहगुजर मिलती है क़दमों से मेरे
सारी दुनिया का सफ़र है तेरे दीवाने तक

बज़्मेजानाँ में ये एजाज़ मिला है किस को
ख़ामुशी मेरी पहुँच जाती है अफ़साने तक

जुस्तजू यार की ले जायेगी अब और कहाँ
आ गये दैरो-हरम छोड़ के मैख़ाने तक

कितने सादा हैं कि फिर भी है भरोसा उन पर
अपने वालों में नज़र आये हैं बेगाने तक


बहरे रमल मुसम्मन मख़बून महज़ूफ़
फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन
2122 1122 1122 22

देखते-देखते अफ़सानों में ढल जाते हैं - नवीन

देखते-देखते अफ़सानों में ढल जाते हैं
दिल की बातों में जो आते हैं, बदल जाते हैं

उस के सीने में कहीं दिल की जगह सिल तो नहीं
चूँकि बच्चे तो बहुत जल्द बहल जाते हैं

ज़िन्दगी चैन से जीने ही नहीं देती है
दिल सँभलता है तो अरमान मचल जाते हैं

अश्क़ आँखों से छलकते नहीं तो क्या करते
दिल सुलगता है तो एहसास पिघल जाते हैं

जिस्म की क़ैद से हम छूटें तो छूटें कैसे
दिल की दहलीज़ पे आते ही फिसल जाते हैं 


बहरे रमल मुसम्मन मख़बून महज़ूफ़
फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन

2122 1122 1122 22

दिल के दरवाज़े तलक बू-ए-वफ़ा आने दे - नवीन

दिल के दरवाज़े तलक बू-ए-वफ़ा आने दे। 
धूल उड़ती है तो उड़ने दे - हवा आने दे॥ 

ज़ख्म ऐसा है कि उम्मीद नहीं बचने की। 
जब तलक साँस हैनज़रों की शिफ़ा आने दे॥ 

मौत! वादा है मेरासाथ चलूँगा तेरे। 
बस ज़रा उस को कलेज़े से लगा आने दे॥ 

वो बहुत जल्द किसी और की हो जायेगी
रोक मत - उस को - सुबूतों को जला आने दे

मैं भी कहता हूँ कि ये उम्र इबादत की है। 
दिल मगर कहता है कुछ और मज़ा आने दे॥ 

:- नवीन सी. चतुर्वेदी

बहरे रमल मुसम्मन मख़बून महज़ूफ़
फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन
2122 1122 1122 22

ख़ुश्क सहराओं की तक़दीर बदल आते हैं - नवीन

ख़ुश्क सहराओं की तक़दीर बदल आते हैं  
आप भी चलिये ज़रा दूर  टहल आते हैं

आप के जाते ही ग़म आ के पसर जाता है
दिल की दीवार से छज्जे भी निकल आते हैं

एक तो बाग़ में जाते नहीं अब के बच्चे
और जाते हैं तो कलियों को मसल आते हैं

सुनते हैं आप के सीने से लगे रहते हैं ग़म
हम भी जाते हैं किसी सोज़ में ढल आते हैं

एक चिड़िया जो चमन से रही कुछ दिन ग़ायब
आज़ तक उस के ख़यालों में महल आते हैं 

: नवीन सी. चतुर्वेदी

बहरे रमल मुसम्मन मख़बून महज़ूफ़
फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन

2122 1122 1122 22

ग़म की ढलवान तक आये तो ख़ुशी तक पहुँचे - नवीन

ग़म की ढलवान तक आये तो ख़ुशी तक पहुँचे
आदमी घाट तक आये तो नदी तक पहुँचे

इश्क़ में दिल के इलाक़े से गुजरती है बहार 
दर्द अहसास तक आये तो नमी तक पहुँचे

उस ने बचपन में परीजान को भेजा था ख़त
ख़त परिस्तान को पाये तो परी तक पहुँचे 

उफ़ ये पहरे हैं कि हैं पिछले जनम के दुश्मन
भँवरा गुलदान तक आये तो कली तक पहुँचे

नींद में किस तरह देखेगा सहर यार मिरा
वह्म के छोर तक आये तो कड़ी तक पहुँचे

किस को फ़ुरसत है जो हर्फ़ो की हरारत समझाय
बात आसानी तक आये तो सभी तक पहुँचे

बैठे-बैठे का सफ़र सिर्फ़ है ख़्वाबों का फ़ितूर
जिस्म दरवाज़े तक आये तो गली तक पहुँचे

:- नवीन सी. चतुर्वेदी

बहरे रमल मुसम्मन मख़बून महज़ूफ़
फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन

2122 1122 1122 22

हसरतें सुनता है और हुक़्म बजा लाता है - नवीन

हसरतें सुनता है और हुक़्म बजा लाता है
बस मेरा दिल ही मेरी बात समझ पाता है

इतनी सी बात ने खा डाले है लाखों जंगल
किसे अल्ला' किसे भगवान कहा जाता है

आज भी काफ़ी ख़ज़ाना है ज़मीं के नीचे
आदमी है कि परेशान हुआ जाता है

अच्छे अच्छों पे बकाया है किराया-ए-सराय
जो भी आता है, ठहरता है, गुजर जाता है

कुछ न कुछ भूल तो हम से भी हुई होगी 'नवीन'
चाँद-सूरज पे गहन यूँ ही नहीं आता है

:- नवीन सी. चतुर्वेदी

बहरे रमल मुसम्मन मख़बून महज़ूफ़
फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन
2122 1122 1122 22

मीठे बोलन कूँ सदाचार समझ लेमतु एँ - नवीन

मीठे बोलन कूँ सदाचार समझ लेमतु एँ
लोग टीलेन कूँ कुहसार समझ लेमतु एँ

दूर अम्बर में कोऊ आँख लहू रोमतु ऐ
हम हिंयाँ बा कूँ चमत्कार समझ लेमतु एँ

कोऊ  बप्पार सूँ भेजतु ऐ बिचारन की फौज
हम हिंयाँ खुद कूँ कलाकार समझ लेमतु एँ

पैलें हर बात पे हम लोग झगर परतु हते
अब तौ बस रार कौ इसरार समझ लेमतु एँ

भूल कें हू कबू पैंजनिया कूँ पाजेब न बोल
सब की झनकार कूँ फनकार समझ लेमतु एँ

एक हू मौकौ गँबायौ न जखम दैबे कौ
आउ अब संग में उपचार समझ लेमतु एँ 

अपनी बातन कौ बतंगड़ न बनाऔ भैया
सार एक पल में समझदार समझ लेमतु एँ


मानकों के अधिकतम निकट रहते हुये भावार्थ-गजल

मीठे बोलों को सदाचार समझ लेते हैं
लोग टीलोंको भी कुहसार समझ लेते हैं

दूर अम्बर में चश्म लहू रोटी है
हम यहाँ उस को चमत्कार समझ लेते हैं

कोई उस पार से आता है तसव्वुर ले कर
हम यहाँ ख़ुद को कलाकार समझ लेते हैं

पहले हर बात पे हम लोग झगड़ पड़ते थे
अब तो बस रार का इसरार समझ लेते हैं

भूल के भी कभी पैंजनिया को पाजेब न बोल
किस की झनकार है फ़नकार समझ लेते हैं

एक दूजे को बहुत घाव दिये हैं हम ने

आओ अब साथ में उपचार समझ लेते हैं 



:- नवीन सी. चतुर्वेदी
बहरे रमल मुसम्मन मख़बून महज़ूफ़
फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन
2122 1122 1122 22
ब्रजभाषा गजल

हो ज़ुरूरी तभी हदपार क़दम रखते हैं - नवीन

हो ज़ुरूरी तभी हदपार क़दम रखते हैं ।
हम समुन्दर हैं किनारों का भरम रखते हैं ।।
 
हम फ़रिश्ते तो नहीं फिर भी जुदा हैं हमलोग ।
फूल से दिल में भी पत्थर के सनम रखते हैं ।। ।
 
एक भी मन का मरज़ मन से निकाला न गया ।
दुश्मनों को भी बड़े ठाठ से हम रखते हैं ॥
 
हम भी शिकवों को रखा करते हैं दिल में लेकिन ।
उम्र इन शोलों की शबनम से भी कम रखते हैं ।।
 
सादा जीवन है मगर उच्च विचारों के साथ ।
टाट के ज़ेब में सोने के क़लम रखते हैं ।।


नवीन सी. चतुर्वेदी


बोल-बचनों को सदाचार समझ लेते हैं - नवीन

बोल-बचनों को सदाचार समझ लेते हैं।
लोग टीलों को भी कुहसार समझ लेते हैं॥

दूर अम्बर में कोई चश्म लहू रोती है।
हम यहाँ उस को चमत्कार समझ लेते हैं॥

कोई उस पार से आता है तसव्वुर ले कर।
हम यहाँ ख़ुद को कलाकार समझ लेते हैं॥

भूल कर भी कभी पैजनियाँ को पाज़ेब न बोल।
किस की झनकार है फ़नकार समझ लेते हैं॥

पहले हर बात पे हम लोग उलझ पड़ते थे।
अब तो बस रार का इसरार समझ लेते हैं॥

एक दूजे को बहुत घाव दिये हैं हमने।
आओ अब साथ में उपचार समझ लेते हैं॥

अपनी बातों का बतंगड़ न बानाएँ साहब।
सार एक पल में समझदार समझ लेते हैं॥

टीला – मिट्टी या रेट की बड़ी छोटी सी पहाड़ीकुहसार – पहाड़ [बहुवचन], चश्म – आँख, तसव्वुर – कल्पना, रार – लड़ाईइसरार – जिद / हठ [लड़ाई की वज़्ह]


फ़ाएलातुन फ़एलातुन फ़एलातुन फ़ालुन. 
बहरे रमल मुसम्मन मख़्बून मुसक्कन. 
2122 1122 1122 22