बन गया
तिश्नालबी की जो निशानी एक दिन
ज़ुल्म की
आँखों में भी लाया वो पानी एक दिन
ख़ुश्क लहजा तल्ख़
जुमले और बलन्दी का नशा
पस्तियाँ
दिखला न दे ये लन्तरानी एक दिन
जैसे मिट्टी
के खिलौने अब नहीं मिलते कहीं
ख़त्म हो
जाएँगी लोरी और कहानी एक दिन
ऐसे जज़्बे
जो पस-ए-मिजगाँ मचलते रह गये
आँसुओं ने
कर दी उन की तर्जुमानी एक दिन
अपनी हर
ख़्वाहिश को तुम पामाल कर के चुप रहे
बन न जाये
रोग ऐसी बेज़ुबानी एक दिन
ख़त्म कर के
हर निशानी ये तहय्या कर लिया
हम भुला
देंगे सभी यादें पुरानी एक दिन
बा-रहा
अञ्जाम से यूँ बा-ख़बर उस ने किया
दार पर चढ़वा
न दे ये हक़-बयानी एक दिन
सोचते हैं
तेरे अपने बस तेरे हक़ में ‘शेफ़ा’
दूर कर ले
अपनी सारी बदगुमानी एक दिन
‘शेफ़ा’ कजगाँवी
बहुत बहुत शुक्रिया नवीन जी
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंयह गज़ल मै कम से कम १० बार पढ़ चूका हूँ , बहुत उम्दा ग़ज़ल है शेफ़ा जी .......
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