जब
से तुम परदेश बसे हो –
रजनी
मोरवाल
जब से तुम
परदेश बसे
स्वप्न सभी
वीरान हो गये
जब से तुम
परदेश बसे हो
परख लिया
बैरी दुनिया को
दुःख में
संगी कब कोई है
बरसों से
बिरहा की बदली
सुधियों के
आँगन रोई है,
रिश्ते भी
अनजान हो गए
जब से तुम
परदेश बसे हो
भीगा मन
रो-रोकर बाँधे
पोर-पोर
टूटन की डोरी,
सावन को
दिखलाई है मैंने
तन की सब
सीमाएँ कोरी,
संवेदन सुनसान
हो गये
जब से तुम
परदेश बसे हो
साँस-साँस
पर नाम लिखा है
धड़कन भी
नीलम हुई है,
सिहरन की
बाँहें अलसाईं
देखो अब तो
शाम हुई है,
दर्द स्वयं
पहचान हो गये
जब से तुम
परदेश बसे हो
रिश्तों की मधुशाला – रजनी मोरवाल
कैसे मन का
दीप जलाऊँ
खुशियाँ पर
जाले हैं,
रिश्तों के
द्वारे पर कब से
पड़े हुए
ताले हैं
सोने के
पिंजरे में पालूँ
मोती रोज
चुगाऊँ,
साँसों की
वीणा में गाकर
प्यारा गीत
सुनाऊँ
रिश्तों के
पंछी ने आखिर
डेरे कब
डाले हैं
कितना चाहूँ
और सहेजूँ
सपनों से
नाजुक हैं,
जन्मों की
चाहत से परखूँ
आँसू से
भावुक हैं
रिश्तों के
मधुशाला में तो
दृग- जल के
प्याले हैं
पर्वत -सी
ऊँचाई इनमें
नदियों से
आकुलता,
झीलों- सी
गहराई इनमें
सागर-सी
व्याकुलता
रिश्तों की
पीड़ाओं के पग
छाले ही
छाले हैं
मो.
09824160612
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