19 अक्तूबर 2018

साहित्यम का कविसम्मेलन - मुशायरा (7 अक्तूबर 2018) - भवन्स केम्पस अंधेरी, मुंबई



7 अक्तूबर 2018 की शाम साहित्यम के लिये एक ख़ुशगवार शाम बन कर आयी। देश के अलग-अलग हिस्सों से अनेकानेक कवियों, शायरों के साथ एक कवि-सम्मेलन मुशायरे का आयोजन किया गया। उम्मीद नहीं की थी कि सरस-साहित्य के इतने सारे पिपासु किसी ऐसी शाम के इंतज़ार में बरसों से मुंतज़िर थे! भवन्स कल्चरल सेण्टर, अन्धेरी और साहित्यम के संयुक्त तत्वावधान में एस पी जैन औडिटोरियम श्रोताओं से खचाखच भरा हुआ था। भवन्स की औडियन्स वैसे भी बहुत ही रसिक और ललित-कलाओं के सुलझे हुए पारखियों की औडियन्स है। सही जगह पर दाद देना और हर एक अच्छी रचना को तालियों की गड़गड़ाहट से नवाज़ना कोई इन लोगों से सीखे। मुम्बई के साहित्यिक कार्यक्रमों में शारदा-वन्दन का चलन अब लगभग ख़त्म सा ही हो गया है। हमने सोचा कि लोग आवें तब तक सरस्वती पूजन कर लें। अब तक कोई 15-20 लोग ही आये थे। हमने माँ शारदे की छवि जी पर माल्यार्पण किया, दीप प्रज्वलन किया, प्रसाद धराया (भारतीय मानयता के अनुसार पूजा के साथ प्रसाद रखना आवश्यक माना गया है। हमने इस ओर पहल करने की कोशिश की) और जैसे ही 'या कुन्देन्दु तुषार हार धवला' का पाठ कर के पलटे तो पता चला कि आधे से अधिक सभागार भर चुका है। भवन्स के श्रोतागण समय के भी बहुत ही पाबन्द हैं।



उस के बाद श्री ललित वर्मा जी का उद्बोधन हुआ। अगर सरस साहित्य का आनंद लेना है तो भवंस जैसे इदारों से जुड़ना और जुड़े रहना अपरिहार्य है। इस के बाद मंच संचालक श्री देवमणि पाण्डेय जी ने माइक सम्हाला। सब से पहले आकिफ़ शुजा फ़िरोजबादी को काव्यपाठ के लिये आमंत्रित किया गया। बतौर कुलदीप सिंह जी (तुम को देखा तो ये ख़याल आया के संगीतकर), आकिफ़ शायद एकमात्र सिक्स पेक एप्स वाले शायर हैं। देखने में हीरो जैसे।

नज़र उट्ठे तो दिन निकले झुके तो शाम हो जाये।
अगर इक पल ठहर जाओ तो रस्ता जाम हो जाये॥



आकिफ़ की इन पंक्तियों पर श्रोताओं ने झूम झूम कर दाद दी। आकिफ़ ने और भी कई मुक्तक पढे और एक गीत भी पढ़ा। इन का गाने का अंदाज़ लोगों को बहुत भाया। इन के बाद मंच पर आये संतोष सिंह।

तुमसे मिलता हूँ तो कुछ देर ख़ुशी रहती है।
फिर बहुत देर तक आँखों में नमी रहती है॥
संतोष सिंह उभरते हुये शायर हैं और देश के अनेक हिस्सों में मुशायरे पढ़ चुके हैं। तहत के साथ साथ तरन्नुम पर भी इनकी अच्छी पकड़ है। श्रोताओं को अपने जादू की गिरफ़्त में लेना इन्हें ब-ख़ूबी आता है। संतोष जी के बाद मंच पर काव्य-पाठ के लिये अलीगढ़ से पधारे मुजीब शहज़र साहब को दावते-सुख़न दी गयी। मुजीब साहब ने आते ही श्रोताओं से सीधा-संवाद स्थापित कर लिया। श्रोताओं ने भी इनके शेरों का भरपूर लुत्फ़ उठाया।

इक सितमगर ने यों बेकस पै सितम तोड़ा है।
जैसे मुंसिफ़ ने सज़ा लिख के क़लम तोड़ा है॥
तोड़ने वाले ख़ुदा तुझको सलामत रक्खे।
तू ने यह दिल नहीं तोड़ा है, हरम तोड़ा है॥
हाथ खाली जो गया है मेरे दरवाज़े से।
उस सवाली ने मेरे घर का भरम तोड़ा है॥

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एक मंझे हुये शायर की यही विशेषता होती है कि उस के लिये हर महफ़िल एक सामान्य महफ़िल होती है। मुजीब भाई ने अपने गीतों और ग़ज़लों से ख़ूब समां बाँधा। मुजीब साहब के बाद मंच पर आये गोकुल (मथुरा) से पधारे श्री मदन मोहन शर्मा 'अरविन्द' जी। आप ने उर्दू और ब्रजगजल दौनों की बानगियाँ प्रस्तुत कीं।

आँसू हू पीने हैं हँसते हू रहनौ है।
यों समझौ पानी में पत्थर तैराने हैं॥

सभी ने दोस्त कह-कह कर लगाया यों गले मुझको।
हज़ारों बारे टकराया कभी शीशा कभी पत्थर।
दवा का तो बहाना था उसे बस ज़ख़्म देने थे।
सितमगर साथ में लाया कभी शीशा कभी पत्थर॥
ब्रजगजल में भी मदनमोहन जी का उल्लेखनीय योगदान है। अब बारी थी गुना के राजकुमार और लगभग सभी के लाडले असलम राशिद की। इन के अशआर जितनी बार भी सुनो नये ही लगते हैं। तिस पर इन का पढ़ने का अंदाज़ तो क्या कहने क्या कहने टाइप है।

हम समझे थे चाँद सितारे बनते हैं।
पर अशकों से सिर्फ़ शरारे बनते हैं।
इक मुद्दत पानी से धरती कटती है।
तब जाकर दरिया के किनारे बनते हैं॥
जब असलम मंच से शेर पढ़ रहे होते हैं तो सभागार मंत्रमुग्ध हो कर बस सुनता रहता है। इस के बाद 10 मिनट का अंतराल रखा गया। अंतराल पूर्ण होते ही श्रोताओं ने बिना देरी किये फ़ौरन लौट कर अपनी-अपनी सीटें हासिल कीं। इस के बाद विमोचन का अत्यंत सामान्य सा और एक छोटा सा सम्मान समारोह भी रखा गया। चूँकि पहला और बड़ा उद्देश्य सरस-साहित्य का रसास्वादन करना था इसलिये उक्त दौनों कार्यक्रम बिना किसी तामझाम और रूटीन फोर्मेलिटीज़ के अंज़ाम दिये गये। सभी सहयोगियों के फुल्ली मेच्योर्ड होने के कारण ही हम ऐसा कर पाये। सभी सहयोगियों का इसलिये भी विशेष आभार व्यक्त करना अनिवार्य है कि उन्हों ने टिपिकल फूलमाला शाल श्रीफल कार्यक्रमों में अधिक रुचि नहीं दरसाई।
ब्रज भाषा में ग़ज़लों के द्वितीय पुष्प स्वरूप पहले साझा संकलन 'ब्रजगजल' का विमोचन आदरणीय ब्रजमोहन चतुर्वेदी [प्रसिद्ध पुश्तैनी चार्टर्ड अकाउंटेंट, इन की कई पीढ़ियाँ CA हैं और इन का नाम लिमका बुक ऑफ रिकार्ड्स में दर्ज़ है], सुनील चतुर्वेदी (IPL मॅच रेफरी), डा. मदनगोपाल एवं अरविन्द मनोहरलाल जी चतुर्वेदी [प्रसिद्ध वित्तीय सलाहकार), श्री पी एल चतुर्वेदी लाल साब [संपादक भायंदर भूमि), श्री अनिल तिवारी (निवासी संपादक हिन्दी सामना) सहित अनेक गणमान्य लोगों की उपस्थिती में सम्पन्न हुआ। सम्मान स्वरूप सभी कवियों / शायरों एवं सहयोगियों को मीमेंटों भेंट किये गये।

मुशायरे के दूसरे सत्र के लिये लोग बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे इसलिये संचालक महोदय ने भी फटाफट देश विदेश में अनेक मुशायरे पढ़ चुकी मशहूर शायरा प्रज्ञा विकास को आवाज़ दी।

इश्क़ क्या है बस इसी एहसास का तो नाम है।
आग का महसूस होना हाथ जल जाने के बाद॥
प्रज्ञा विकास एक ऐसी शायरा हैं जिन्हें श्रोताओं की बहुत अच्छी समझ है। मंच के अनुसार शायरी का इंतख़ाब करती हैं और ख़ूब तालियाँ बटोरती हैं। किसी ख़ूबसूरत शायरा, नामचीन कवि / शायर या तालियाँ बटोर चुके हास्य कवि के बाद काव्यपाठ के लिये मंच पर आना किसी शहादत से कम नहीं होता। यह शहादत नाचीज़ यानि नवीन चतुर्वेदी ने अपने नाम लिखवायी।  शुरुआत ब्रजभाषा से की :-

अमरित की धारा बरसैगी, चैन हिये में आवैगौ।
अपनी बानी बोल कें देखौ, म्हों मीठौ है जावैगौ।
अपने'न सों ही प्यार करौ और अपने'न सों ही रार करौ।
अपने'न में जो मजा मिलैगौ, और कहूँ नाँय आवैगौ॥

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इन पंक्तियों पर श्रोताओं का जो आशीर्वाद मिला वह इन पंक्तियों तक लगातार ख़ाकसार के हिस्से में आता रहा।

पहले तो हमको पंख हवा ने लगा दिये।
और फिर हमारे पीछे फ़साने लगा दिये।
तारे बेचारे ख़ुद भी सहर के हैं मुंतज़िर।
सूरज ने उगते-उगते ज़माने लगा दिये॥
नवीन चतुर्वेदी के बाद दावते-सुख़न दी गयी फ़िरोज़ाबाद से तशरीफ़ लाये जनाब सालिम शुजा अंसारी साहब को।

व्यर्थ कौ चिन्तन, चिरन्तन का करें। 
म्हों ई टेढ़ौ है तौ दरपन का करें॥ 
देह तज डारी तुम्हारे नेह में। 
या सों जादा और अरपन का करें॥ 
ब्रजगजल कों है गरज पच्चीस की। 
चार-छह ‘सालिम’-बिरहमन का करें॥ 

फिर रमा धूनी, कोई आसन लगा।
हो ही जायेगी मुहब्बत, मन लगा।
चाँदनी से सील जायेगा बदन।
जिस्म पर अब धूप का उबटन लगा॥
सालिम साहब के अशआर पर श्रोतागण ने ख़ूब दाद दी। तालियों की गड़गड़ाहट के बीच सालिम भाई ने भी शायरी को फुल्ली एंजॉय किया। ब्रजग्जाल के सफ़र के हमराही भी हैं सालिम भाई। इस के बाद शहरे-मुंबई के वरिष्ठ शायर श्री हस्तिमल हस्ती जी को आवाज़ दी गयी।

प्यार का पहला ख़त लिखने में वक़्त तो लगता है।
नये परिंदों को उड़ने में वक़्त तो लगता है।
जिस्म की बात नहीं थी उन के दिल तक जाना था।
लंबी दूरी तय करने में वक़्त तो लगता है।।
हस्ती जी की यह ग़ज़ल जगजीत सिंह जी ने गायी है। अपने एक अलग तरह के अंदाज़ के लिये मशहूर हस्ती जी ने श्रोताओं से खचाखच भरे हाल में भरपूर तालियाँ बटोरीं। इन के बाद बारी थी स्वयं संचालक देवमणि पाण्डेय जी की।

महक कलियों की, फूलों की हँसी अच्छी नहीं लगती।
मुहब्बत के बिना यह ज़िन्दगी अच्छी नहीं लगती।
कभी तो अब्र बनकर झूमकर निकलो कहीं बरसो।
कि हर मौसम में ये संज़ीदगी अच्छी नहीं लगती॥

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भवन्स के श्रोतागण देवमणि जी से सुपरिचित हैं। अपने चिर-परिचित मनमोहक अंदाज़ में इन्हों ने विविध रचनाओं से ख़ूब रसवृष्टि की। संचालक महोदय के बाद कार्यक्रम के अध्यक्ष श्री सागर त्रिपाठी जी ने मोर्चा सम्हाला। जिस तरह अमिताभ बच्चन जी जब कुली का रोल करते हैं तो एकजेक्ट कुली लगते हैं, शराबी फ़िल्म में टिपिकल शराबी और बागवान में एक सुलझे हुये जुझारू प्रवृत्ति के दंपति, उसी तरह सागर त्रिपाठी जी का भी यही रुतबा है कि वह जिस महफ़िल में जाते हैं वहाँ के श्रोताओं के अनुरूप ख़ुद को ढाल लेते हैं। सुपरस्टार हैं त्रिपाठी जी।

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आयोजक ने सागर त्रिपाठी जी से विशेष रूप से निवेदन किया था कि सभागार में कुछ ऐसे श्रोता भी हैं जो विशेष कर आपको सुनने आये हैं तो आप छंद अवश्य पढ़ें। 

एक बहुत अच्छी महफ़िल सुहानी यादों के साथ अपने अंज़ाम तक पहुँची। कार्यक्रम के बाद कवियों को स्टेज पर ही लोगों ने घेर लिया। समयसीमा का उल्लंघन होने के कारण प्रबंधन से क्षमा याचना की गयी और प्रबंधन ने भी उदारता दिखलाते हुये ‘भविष्य में ऐसा न करने की चेतावनी’ बड़ी ही सा-हृदयता के साथ दी। अदब के आदाब क्या होते हैं यह सभी ने बहुत अच्छी तरह से महसूस किया। पूरे कार्यक्रम की रूपरेखा, नियोजन एवं निष्पादन का दायित्व विनय चतुर्वेदी ने अपने हाथों में रखा और इस दायित्व का पूरी तन्मयता और समर्पण के साथ निर्वाह किया। अमूमन ऐसे कार्यक्रमों से, कवियों को छोड़ दें तो, युवावर्ग नदारद रहता है। परन्तु इस मामले में भी साहित्यम सौभाग्यशाली रहा कि कुछ एक युवक और युवतियाँ भी इस महफ़िल का हिस्सा बने। एक अच्छे प्रयास को भविष्य में फिर से दोहराने का सपना सँजोये, अतृप्त प्यास के साथ, सभी का आभार व्यक्त करते हुये आयोजक अपने घर को लौटे।  

 

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जय श्री कृष्ण
राधे राधे