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होली के छन्द - कहाँ गईं वे मस्तियाँ, कहाँ गई वह मौज़ - नवीन

कहाँ गईं वे मस्तियाँ, कहाँ गई वह मौज़
वे केशर की क्यारियाँ, गोबर वाले हौज़
गोबर वाले हौज़ बीच डुबकी लगवाना
कुर्ते पर पागल वाली तख़्ती लटकाना
याद आ रहा है हम जो करते थे अक्सर
बीच सड़क पर एक रुपैया कील ठोंक कर

होता ही है हर बरस अपना तो ये हाल
जैसे ही फागुन लगे, दिल की बदले चाल
दिल की बदले चाल, हाल कुछ यूँ होता है
लगता है दुनिया मैना अरु दिल तोता है
फागुन में तो भैया ऐसो रंग चढ़े है
भङ्ग पिये बिन भी दुनिया ख़ुश-रङ्ग लगे है

होली के त्यौहार की, बड़ी अनोखी रीत
मुँह काला करते हुये जतलाते हैं प्रीत
जतलाते हैं प्रीत, रंगदारी करते हैं
सात पुश्त की ऐसी की तैसी करते हैं
करते हैं सत्कार गालियों को गा-गा कर
लेकिन सुनने वाले को भी हँसा-हँसा कर

जीजा-साली या कि फिर देवर-भाभी सङ्ग
होली के त्यौहार में, खिलते ही हैं रङ्ग
खिलते ही हैं रङ्ग, अङ्ग-प्रत्यङ्ग भिगो कर
ताई जी हँसती हैं फूफाजी को धो कर
लेकिन तब से अब में इतना अन्तर आया
पहले मन रँगते थे अब रँगते हैं काया

सब के दिल ग़मगीन हैं, बेकल सब संसार
मुमकिन हो तो इस बरस, कुछ ऐसा हो यार
कुछ ऐसा हो यार, प्यार की बगिया महकें
जिन की डाली-डाली पर दिलवाले चहकें
ऐसी अब के साल, साल भर होली खेलें
ख़ुशियों को दुलराएँ, ग़मों को पीछे ठेलें

SP/2/3/9 इनको रखो सँभाल, पर्स में यादों के तुम - धर्मेन्द्र कुमार सज्जन

नमस्कार

गणतन्त्र दिवस की शुभ-कामनाएँ। वर्तमान आयोजन की समापन पोस्ट में सभी साहित्यानुरागियों का सहृदय स्वागत है। वर्तमान आयोजन में अब तक 14 रचनाधर्मियों के छन्द पढे जा चुके हैं। छन्द आधारित समस्या-पूर्ति आयोजन में 15 लोगों के डिफरेंट फ्लेवर वाले स्तरीय छन्द पढ़ना एक सुखद अनुभव है। आज की पोस्ट में हम पढ़ेंगे भाई धर्मेन्द्र कुमार सज्जन जी के छन्द :-

हम सब मिलजुल कर चले, हिलने लगी ज़मीन
सिंहासन खाली हुये, टूटे गढ़ प्राचीन
टूटे गढ़ प्राचीन, मगर यह लक्ष्य नहीं है
शोषण वाला दैत्य आज भी खड़ा वहीं है
कह ‘सज्जन’ कविराय, नहीं बदला गर ‘सिस्टम’
बिजली, पानी, अन्न, कहाँ से लायेंगे हम

तुम से मिलकर हो गये, स्वप्न सभी साकार
अपने संगम ने रचा, नन्हा सा संसार
नन्हा सा संसार, जहाँ ग़म रहे खुशी से
सुन बच्चों की बात, हवा भी कहे खुशी से
ये पल हैं अनमोल, न होने दो यूँ ही गुम
इनको रखो सँभाल, पर्स में यादों के तुम

‘मैं’ ही ने मुझको रखा, सदा स्वयं में लीन
हो मदान्ध चलता गया, दिखे न मुझको दीन
दिखे न मुझको दीन, दुखी, भूखे, प्यासे जन
सिर्फ़ कमाना और खर्च करना था जीवन
कह ‘सज्जन’ कविराय, मरा मुझमें तिस दिन ‘मैं’
लगा मतलबी और घृणित, मुझको जिस दिन ‘मैं’

धर्मेन्द्र भाई साहित्य की अनेक विधाओं में अपने मुख़्तलिफ़ अंदाज़ के साथ मौजूद हैं। आप की ग़ज़लें हों या आप की कविताएँ या फिर आप के नवगीत, हर विधा में अपनी उपस्थिति का आभास कराते हैं धर्मेन्द्र भाई। “कह ‘सज्जन’ कविराय, नहीं बदला गर ‘सिस्टम’। बिजली, पानी, अन्न, कहाँ से लायेंगे हम” कितनी सच्ची बात है और वह भी कितनी आसानी के साथ, बधाई आप को। ‘”जहाँ ग़म रहे खुशी से” “पर्स में यादों के” “सिर्फ़ कमाना और खर्च करना था जीवन ..... वाह वाह वाह ..... छन्द कब से अपने इस पुरातन फ्लेवर की बाट जोह रहे हैं।

बहुत ही ख़ुशी की बात है कि वर्तमान आयोजन सहज-सरस-सरल और सार्थक वाक्यों / मिसरों की अहमियत बताने और उन के विभिन्न उदाहरण हमारे सामने रखने में क़ामयाब हुआ। इस आयोजन के सभी रचनाधर्मियों को इस क़ामयाबी के लिये बहुत-बहुत बधाई और इच्छित कार्य को परिणाम तक पहुँचाने के लिये बहुत-बहुत आभार।

समय-समय पर विभिन्न विद्वान साथियों / आचार्यों / पुस्तकों / अन्तर्जालीय आलेखों से प्राप्त जानकारियाँ आप सभी के साथ बाँटी हैं और आशा है “सरसुति के भण्डार की बड़ी अपूरब बात। ज्यों-ज्यों खरचौ, त्यों बढ़ै, बिनु खरचें घट जात॥“ वाले सिद्धान्त का अनुसरण करते हुये आप सब लोग भी इन बातों को अन्य व्यक्तियों तक अवश्य पहुँचाएँगे।

वर्तमान आयोजन यहाँ पूर्णता को प्राप्त होता है। धर्मेन्द्र भाई के छन्द आप को कैसे लगे अवश्य ही लिखियेगा।

विशेष निवेदन :- इस पोस्ट के बाद वातायन पर शिव आधारित छंदों, ग़ज़लों, कविताओं, गीतों, आलेखों वग़ैरह का सिलसिला शुरू करने की इच्छा हो रही है। यदि यह विचार आप को पसन्द आवे तो प्रकाशन हेतु सामाग्री  navincchaturvedi@gmail.com पर भेज कर अनुग्रहीत करें।  


नमस्कार....... 

SP2/3/8 दिगम्बर नासवा जी और योगराज प्रभाकर जी के छन्द

नमस्कार

कल क़रीब एक-डेढ़ साल बाद आदरणीय श्री योगराज प्रभाकर जी की आवाज़ सुनाई पड़ी। लम्बी और अत्यधिक पीड़ादायक बीमारी के बाद आप हमारे बीच लौटे हैं। आप के परिवारी जनों के साथ-साथ आप की वापसी हमारे लिये भी सौभाग्य की बात है। सौभाग्य की बात इसलिये कि यह किरदार प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से निरन्तर ही छन्द साहित्य की सेवा में लगा हुआ है। हम आप की स्वस्थ और दीर्घायु की मङ्गल-कामना करते हैं। मैं एक बार फिर से लिखना चाहूँगा कि योगराज भाई जी ने मुझे फेसबुकिया होने से बचाया और आज यह मञ्च जिस मक़ाम पर पहुँचा है उस में भी आप का महत्वपूर्ण योगदान है। मञ्च के निवेदन पर आप ने अपने छन्द भेजे हैं, आइये पहले आप के छंदों को पढ़ते हैं :-

मैं क्या हूँ? बस हूँ सिफ़र, तनहा, बे-औक़ात
साथ मिले गर 'एक' भी, 'नौ' को दे दूँ मात
'नौ' को दे दूँ मात, सिफ़र से दस हो जाऊँ
तुम जो दे दो साथ, किसी गिनती में आऊँ
इसको दोस्त कदापि न समझो विकट समस्या
लाज़िम है यह साथ, वगरना तुम क्या मैं क्या

तुम लय, सुर अरु ताल हो, ख़ुद में हो संगीत
तर्ज़ इधर बेतर्ज़ सी, तुम सुन्दरतम गीत          
तुम सुन्दरतम गीत, बिखेरो छटा बसंती
मैं भटका सा राग, मगर तुम "जै जै वंती"
मैं गरिमा से हीन, मगर हो गरिमामय तुम   
मैं हूँ कर्कश बोल, मृदुल, मनुहारी लय तुम

हम के अन्दर हैं छिपे, हिंदू-मुस्लिम नाम
भीड़ पड़ी जब देश पर, दोनों आए काम
दोनों आए काम, कहाँ से नफ़रत आई
भारत माँ हैरान, लड़ें क्यों दोनों भाई  
अपने झण्डे छोड़, उठायें क़ौमी परचम  
इक माँ की सन्तान, बताएँ दुनिया को हम

सलिल जी की तरह ही योगराज जी के साथ भी भाषा तथा छन्द वग़ैरह के विषय में लम्बी-लम्बी वार्ताएँ होती रही हैं। आप भाषाई चौधराहट के मुखर विरोधी हैं। सिफ़्र [21] को सिफ़र [12] नज़्म करते हैं, वो भी धड़ल्ले के साथ। सिफ़्र यानि शून्य। शून्य को ले कर आप ने जो छन्द कहा है उस पूरे छन्द की हर एक पंक्ति बरबस ही आगे बढ़ते क़दमों को रोकती है।  छंदों में अक्सर ही जो रूखापन दिखाई पड़ने लगा है उस के कुछ कारण हैं मसलन [1] अत्यधिक शास्त्रीयता [2] वाक्यों का स्पष्ट-सरस-सरल न होना [3] सार्थक संदेश की अनुपस्थिति  और [4] हृदय की बजाय मस्तिष्क का अधिक इस्तेमाल।  “तुम जो दे दो साथ, किसी गिनती में आऊँ” और “वगरना तुम क्या मैं क्या” जैसे वाक्य सीधे दिल से निकले हुये वाक्य हैं। गिनती वाले वाक्य में जहाँ हृदय का आर्तनाद है वहीं वगरना वाले वाक्य में सार्थक संदेश भी है। इन ही तत्वों से छन्द, छन्द बनता है।

तुम वाले छन्द को देखिये। मैं कुछ भी नहीं और तुम सब कुछ, यही सब तो कहा जाना है। बस हम लोग कैसे-कैसे इस बात को कहते हैं, वह देखने जैसा होता है। एक-एक शब्द को पढ़ना बड़ा ही सुखद अनुभव है। अरे, इतनी मनुहार सुन कर तो पत्थरों का कलेज़ा भी पिघल जाये। जीते रहिये योगराज जी।

हम वाले छन्द के हम में हिन्दू-मुस्लिमएकता का नारा बुलन्द करने के लिये, 'क़ौमी परचम' यानि 'इन्सानियत का परचम' बुलन्द करने के लिये कवि को सादर प्रणाम। यार, यहाँ आप से जलन होती है, मैं ऐसा क्यूँ नहीं सोच पाया? तुस्सी ग्रेट हो भाई जी। मालिक आप की हज़ारी उम्र करें। जीते रहिये, और यूँ ही ख़ुश होने के मौक़े देते रहिये।

इस पोस्ट के दूसरे छन्दानुरागी हैं भाई दिगम्बर नासवा जी। पिछले आयोजन के दौरान समस्या-पूर्ति मञ्च पर हम उन के दोहे पढ़ चुके हैं। एक छन्द पुष्प के साथ आप इस आयोजन में उपस्थित हो रहे हैं। आइये पढ़ते हैं आप का छन्द :-

'मैं' से 'हम' के बीच में बीते पच्चिस साल
अब क्या बोलूँ, क्या किया, इन सालों ने हाल
इन सालों ने हाल बिगाड़ा भर कर भुस्सा
माँ-बापू नाराज़, बहन-भाई भी गुस्सा
कहे दिगम्बर सास बहू का झगड़ा भारी
इस को सुलझाने में सारी दुनिया हारी

विश्वस्त सूत्रों [ J ] से पता चलता है कि यह छन्द इन का अपना अनुभव नहीं है बल्कि किसी बहुत ही ख़ास मित्र का अनुभव है। भाई हमें भी आप के उस ख़ास मित्र से बेहद हमदर्दी है। और अगर यह आप का अनुभव भी होता तो क्या हुआ, सौ में से कम से कम, एक सौ एक लोगों के साथ ये समस्या है ही। फिर भी दिगम्बर भाई आप ने कमाल किया है भाई और आप को इस कमाल के लिये बहुत-बहुत बधाई। आयोजन में हास्य-रस की कुछ कमी खल रही थी, सो शेखर के बाद आप ने भी इस कमी को भरने में अच्छा योगदान दिया है। कुछ मित्र कहते हैं कि मैं हास्य का विरोधी हूँ, ऐसा नहीं, मैं हास्य का विरोधी नहीं बल्कि चुटकुला-सम्मेलनों / गोष्ठियों को कवि-सम्मेलनों / गोष्ठियों की जगह लेता देख कर दुखी अवश्य हूँ। चुट्कुले सुन कर हँसता हूँ और कविता की बदहाली पर रोता हूँ। 

तो साथियो आप इन छंदों का आनन्द लीजियेगा, अपने बहुमूल्य विचारों से अलङ्कृत कीजियेगा और हम बढ़ते हैं अगली पोस्ट की ओर।

जितने छन्द आये सभी पोस्ट हो चुके हैं। अगर अन्य साथी इस आयोजन से ख़ुद को दूर रखने के निर्णय पर क़ायम रहते हैं तो अगली पोस्ट समापन पोस्ट होगी।


नमस्कार 

SP2/3/6 शेखर चतुर्वेदी और ऋता शेखर मधु जी के छन्द

नमस्कार

हर साल, गर्मी की तरह सर्दी भी बढ़ती जा रही है। इस सर्दी का असर हमारे आयोजन पर भी पड़ा है। उत्तर के अधिकतर साथी इस ठिठुरती ठण्ड में चाह कर भी की बोर्ड पर उँगलियाँ नहीं चला पा रहे। ख़ैर, हम आयोजन को आगे बढ़ाते हुये आज की पोस्ट में शेखर चतुर्वेदी और ऋता शेखर मधु जी के छंद पढ़ते हैं। पहले शेखर चतुर्वेदी जी के छन्द  :-

हम को वैसे तो सनम, लगते हैं सब नेक
मगर ढूँढने जायँ तो, मिलता सौ में एक
मिलता सौ में एक, नहीं टिकता है वो भी
चल देता मुँह फेर स्वार्थ पूरा होते ही
कह शेखर कविराय भला ये कैसा जीवन
हृदय हुये संकीर्ण खो गया है अपनापन

तुम से मैं क्यूँ बोल दूँ, अपने दिल का हाल
हो सकता है ज़िन्दगी, भूले अपनी चाल
भूले अपनी चाल और इक रिश्ता टूटे
क्यूँ ऐसा बोलूँ जो कोई अपना रूठे
कह शेखर कविराय बड़े नाज़ुक हैं रिश्ते
अब इन की रक्षा करनी है हँसते-हँसते

मैं ही मैं दिखता जिसे और दिखे ना कोय
देर सवेरे ही भले निपट अकेला होय
निपट अकेला होय हुआ ज्यों वीर दशानन
कुछ भी रहा न शेष एक इस मैं के कारन
कह शेखर कविराय बुरा है दम्भ सदा ही
सब के हित की सोच भला होगा तेरा भी


मैं हर बार कहता हूँ, इस बार भी कहूँगा कि आज के दौर में जब नई पीढ़ी चुटकुलों को ही कविता समझ बैठी है तो ऐसे में शेखर जैसे नौजवानों को अपने पूर्वजों की राह पर चलता हुआ देखना बहुत हिम्मत देता है। शेखर को पढ़ने वालों ने नोट किया होगा कि वह लगातार ख़ुद से, अपनों से और समाज से संवाद बनाये हुये हैं। बिना लाग-लपेट के बात कहने में यक़ीन रखते हैं और इन के छंदों में अधिकांश वाक्य बहुत प्रभावशाली हो गये हैं। क्यूँ ऐसा बोलूँ जो कोई अपना रूठे”,कुछ भी रहा न शेष एक इस मैं के कारन या “सब के हित की सोच भला होगा तेरा भी ऐसे वाक्य / मिसरे हैं जो पाठक / श्रोता को बरबस ही बाँध लेते हैं।

साथियो हर आयोजन में हम कुछ न कुछ विषय विशेष पर फोकस करते हैं। वर्तमान आयोजन में हम साथियों से परफेक्ट वाक्य बनाने के लिये निवेदन कर रहे हैं। पाद-संयोजन से सुसज्जित, लयबद्ध, सहज, सरस, सार्थक और एक सम्पूर्ण वाक्य एक्स्ट्रा एक्स्प्लेनेशन की सारी संभावनाओं को समाप्त कर देता है। ऐसा वाक्य  पाठक / श्रोता तक अपनी बात एक झटके में पहुँचा देने में सक्षम होता है।

इस पोस्ट में आगे बढ़ते हुये हम पढ़ेंगे ऋता दीदी के छन्द :-

मैं मैं मैं करते रहे, रखकर अहमी क्षोभ
स्वार्थ सिद्धि की कामना , भरती मन में लोभ
भरती मन में लोभ, शोध कर लीजे मन का
मिले ज्ञान सा रत्न, मान कर लें इस धन का
करम बने जब भाव, धरम बन जाता है मैं
जग की माया जान, परम बन जाता है मैं

तुम ही मेरे राम हो, तुम ही हो घनश्याम
ओ मेरे अंतःकरण, तुम ही तीरथ धाम
तुम ही तीरथ धाम, भक्ति की राह दिखाते
बुझे अगर मन-ज्योत, हृदय में दीप जलाते
थक जाते जब पाँव, समीर बहाते हो तुम
पथ जाऊँ गर भूल, राह दिखलाते हो तुम

हम की महती भावना, मानव की पहचान
हम ही विमल वितान है, तज दें यदि अभिमान
तज दें यदि अभिमान, बने यह पर उपकारी
दीन दुखी सब लोग सहज होवें बलिहारी
कड़ुवाहट को त्याग, मृदुल आलोकित है हम
अपनाकर बन्धुत्व, वृहद परिभाषित है हम

मेरे नज़दीक तुम वाले छन्द में ऋता जी ने राम’, घनश्याम’, तीरथधाम और भक्ति को मर्यादा’, लीला’, वानप्रस्थ और सस्नेह-समर्पण के प्रतीक में लिया हुआ लगता है। मेरी ही तरह ऋता दीदी भी अपनी रचनाओं में हस्तक्षेप बर्दाश्त नहीं करतीं। उन का आग्रह रहता है कि हमें कमियाँ बतला दीजिये, सुधार हम ख़ुद करेंगे। दरअसल यही सही तरीक़ा है छन्द या ग़ज़ल सीखने का। शिल्प और कमियों की जानकारी हो जाये बस। बात कहना आ जाये, इतना ही ज़रूरी है और यह तभी हो सकता है जब हम उधार की कविता से परहेज़ करेंगे। इसे मैराथन दौड़ कहें या कुछ और पर इस मञ्च के कई साथी इसी तरह मश्क़ कर रहे हैं। ऋता जी के छंदों में तीनों शब्द अपने शास्वत अभिप्राय को ले कर हमारे सामने प्रस्तुत होते हैं। हम को विमल-वितान कहने की बात हो या बंधुत्व से वृहद की कल्पना, ऐसे विचार इन छंदों को भीड़ में अलग खड़ा कर दे रहे हैं।

साथियो आप आनन्द लीजियेगा इन छंदों का, नवाज़ियेगा अपनी टिप्पणियों से और हमें आज्ञा दीजिये अगली पोस्ट की तैयारी के लिये।


नमस्कार.....  

SP2/3/5 लोकेश शर्मा साहिल एवं अरुण निगम जी के छन्द

नमस्कार

पिछली पोस्ट की एक ख़ास बात यह रही कि सभी टिप्पणी-कर्ताओं ने पूरी पोस्ट नहीं पढ़ी। विश्वास न हो तो एक बार पोस्ट पढ़ कर शुरुआत की टिप्पणियों को भी पढ़ लीजिये। ख़ैर, यह सब चलता ही रहता है

दिखाता फिर रहा था ऐब सब को
सो, चकनाचूर होता जा रहा हूँ 

क़रीब ढाई-तीन साल पहले हर दिल अज़ीज़ भाई +Neeraj Goswami जी के वेबपेज पर जयपुर निवासी श्री लोकेश शर्मा जी का उपरोक्त शेर पढ़ा था। दर्पण का नाम लिये बिना ही दर्पण की बात कह दी शायर ने। यह कवि का कौशल्य कहलाता है। पढ़ कर रहा न गया सो हमने लोकेश जी को फोन [9414077820] भी लगा दिया, बातचीत हुईं और तब से गुफ़्तगू का सिलसिला शुरू हो गया। लोकेश जी को हम पहले भी इस वेबपेज पर पढ़ चुके हैं। वर्तमान आयोजन की सूचना मिलते ही महज़ चन्द ही घण्टों मैं आप ने देखिये कितने असरदार, विविधता पूर्ण और मनोरम छन्द भेजे हैं। इन तीन शब्दों का जादू अब और निखार पाने लगा है :-  

तुम तो मेरे मित्र हो, क्यूँ करते हो घात
बड़ा बतंगड़ बन गई इक छोटी सी बात
इक छोटी सी बात फ़क़त है सुनी सुनाई
तुम ने भी अनदेखी कर दी हर सच्चाई
कह साहिल मुरझाय हुये हैं रिश्ते गुम-सुम
ग़लतफ़हमियाँ जीत गईं अरु हारे हम-तुम

हम सब जो इस देश में, मञ्च-वीर हैं मित्र
कवि-सम्मेलन का किया हमने अजब चरित्र
हमने अजब चरित्र बना डाला मञ्चों का
वाचिकता को खेल बना डाला कञ्चों का
कह साहिल झल्लाय हुई है कविता बेदम
सिर्फ़ तालियों और लिफ़ाफ़ों में उलझे हम

मैं तो इस जञ्जाल से बहुत थक गया यार
ख़ुशियाँ दीखें हर तरफ़, लेकिन मन बीमार
लेकिन मन बीमार पड़ा क्यों कभी न जाना
मन का मौसम क्यूँ ख़ुशियों से रहा अजाना
कह साहिल समझाय करे बकरी ज्यों मैं-मैं
जीवन भर बस इसी तरह जीता आया मैं


'मञ्चों' के साथ 'कञ्चों' का क़ाफ़िया न सिर्फ़ बैठाना बल्कि उस के साथ पूरा-पूरा न्याय भी करना..... भाई इस के लिये आप विशेष बधाई के अधिकारी हैं। लोकेश जी ने हर कवि के दिल की बात कह दी है। वास्तव में आज कविता बेदम हुई जा रही है मगर लोग हैं कि उन्हें तो बस कॉमेडी शो की तर्ज़ पर होने वाले चुटकुला सम्मेलन ही अच्छे लग रहे हैं। बहुत ही कम लोग हैं जो अच्छी कविता सुनना चाहते हैं, और ये जो बहुत ही कम लोग हैं इन में से भी ज़ियादातर स्वयं रचनाधर्मी होते हैं। कहीं-कहीं कवि मज़बूर दिखता है तो कहीं-कहीं शठ भी। समय निर्णय लेगा इस बारे में। बहरहाल 'मैं-हम-तुम' इन तीन शब्दों की शाख़ पर लोकेश जी ने क्या ही सुंदर सुमन लगाये हैं, आनन्द आ गया। 

मित्रो तरही की तरह ही समस्या पूर्ति आयोजन भी कवियों को मश्क़ करने के लिये सबसे बढ़िया साधन है। ऐसे आयोजनों के द्वारा हम इस विपरीत समय में कविता को ज़िन्दा रखने का अल्प प्रयास तो कर ही सकते हैं। दूसरी महत्वपूर्ण बात [यह मेरा व्यक्तिगत मत है] ऐसे आयोजनों में हमें ख़ुद मश्क़ करना चाहिये, जैसी भी कविता लिख सकें, स्वयं लिखें, हाँ मार्गदर्शन लेने में कोई बुराई नहीं है, मगर प्रयास और मशक़्क़त हम अगर ख़ुद करेंगे तो दो-तीन तरही या समस्या-पूर्ति के बाद हम कम-अज़-कम पूर्ण वाक्य / मिसरा बनाना और मिसरों / पंक्तियों को गिरह करना तो सीख ही जाएँगे। 

इस पोस्ट के दूसरे छंदानुरागी हैं भाई अरुण निगम जी। अरुण जी मञ्च के पुराने साथी हैं और वातायन तथा समस्या पूर्ति आयोजनों में निरंतर प्रस्तुत होते रहे हैं। पिछले कुछ दिनों से इन की सहभागिता कम होने का कारण तब पता चला जब हमें इन की प्रकाशित हुई पुस्तक की सूचना मिली। इन की पुस्तक आप इन से फोन [9907174334] पर बात कर के मँगवा सकते हैं। आइये पढ़ते हैं आप के छन्द :-  

मैं-मैं तू करके हुआ, भौतिक सुख में लीन
अहम् भाव अरु देह की, रहा बजाता बीन
रहा बजाता बीन , नहीं  ‘मैं’ को पहचाना 
परम तत्व को  भूल ,जोड़ता रहा खजाना   
क्या  दिखलाकर दाँतकरेगा केवल हैं हैं ?
जब पूछें यमराज, कहाँ बतला  तेरा  मैं 

तुम-मैं मैं-तुम एक है , परम ब्रम्ह का अंश 
जाति- धर्म  इसका नहीं , और न कोई वंश
और न कोई वंश ,यही तो अजर - अमर है
अविनाशी  है  रूह , और  काया  नश्वर है
कर इसका अहसास,ह्रदय में रुमझुम रुमझुम
परम ब्रम्ह का अंश , एक है तुम-मैं मैं-तुम 
  
‘हम’ नन्हा-सा शब्द है,अणु जैसा ही जान
शक्ति कल्पनातीत है,‘हम’ से कौन महान
‘हम’ से कौन महान, एकता का परिचायक
‘हम’ देता सुख शांति, रहा हरदम ‘हम’ नायक 
जीना सब के साथ , नहीं  रहना तन्हा-सा
अणु जैसा ही जान,शब्द है ‘हम’ नन्हा-सा 


अविनाशी  है  रूह और  काया  नश्वर है ...................................... जीना सब के साथ नहीं  रहना तन्हा-सा.............. क्या ही सुंदर बातें कही हैं अरुण जी ने। शब्दों के शिल्पी हैं आप। साथियो आप को याद होगा पहले के आयोजनों में अरुण जी टिप्पणियाँ भी छन्द में ही देते थे। पुस्तक प्रकाशन के मद्देनज़र ज़रा से [लापता गञ्ज वाले] बिजी पाण्डेय हो गये हैं :) अब लगता है मञ्च को आप की सहभागिता फिर से मिलने लगेगी। अरुण जी कई सालों से ड्यूटी के सिलसिले में घर-परिवार से दूर रहे और अब लम्बे अन्तराल के बाद ठाकुरजी ने इन्हें वापस घर-परिवार के साथ रहने का अवसर दिया है। जीवन की अनन्य ख़ुशियों में से यह एक बहुत बड़ी ख़ुशी मानी जाती है। हम आप की ख़ुशियों की मङ्गल कामना करते हैं। 

साथियो आनन्द लीजिये दौनों साथियों के छंदों का, नवाज़िएगा अपनी अनमोल टिप्पणियों से और हम बढ़ते हैं अगली पोस्ट की ओर। 

नमस्कार 

SP2/3/4 मेरे सब दिन-रैन तुम्हारे आभारी हैं - राजेन्द्र स्वर्णकार

नमस्कार

मकर पर्व संक्रान्ति की अनेक शुभ-कामनाएँ। परम पिता परमेश्वर से प्रार्थना है कि समस्त मानव समुदाय के जीवन को ख़ुशियों से भर दे और राजेन्द्र स्वर्णकार भाई जी के घर होने वाले मांगलिक कार्यक्रम की खुशियों को दोबाला कर दे। मञ्च के साथी भाई श्री राजेन्द्र स्वर्णकार जी के दो सुपुत्र इसी महीने परिणय सूत्र में बँधने जा रहे हैं। मञ्च दौनों बालकों के सुखमय दाम्पत्य जीवन की मंगलकामना करता है।

अपने राजेन्द्र भाई जी को जानने वाले अच्छी तरह से जानते हैं कि राजेन्द्र जी इस मञ्च के लिये सदैव और सहर्ष तत्पर रहते हैं। “रस परिवर्तन” के आह्वान का सम्मान रखते हुये आपने इतने बिजी शेड्यूल के बीच भी क्या ही शानदार छंद भेजे हैं। आइये पहले छंद पढ़ते हैं।

मैं क्या था? तुम बिन, प्रिये ! मात्र मूक-पाषाण !
फूँक दिए निष्प्राण में सजनी ! तुमने प्राण !! 
सजनी ! तुमने प्राण भरे उपवन महकाया !
हर अंकुर हर पुष्प खिला डाला ...मुर्झाया  !!
है उपकृत हर साँस कहूँ रसना से क्या मैं ?!
मेरे सब दिन-रैन तुम्हारे आभारी हैं !

तुम से मैंने पा लिया जीने का आधार !
अब जीवन पल-पल लगे इक अनुपम उपहार !!
इक अनुपम उपहार प्रिये हूँ ऋणी तुम्हारा !
जीवन सुख-संयोग सहित हो पूर्ण हमारा !!
हँसते-गाते नित्य रहें हम क्यों गुम-सुम से ?
ख़ुश रहना संसार सीख ले हमसे-तुमसे !! 

हम ही राधा-कृष्ण थे हम ही राँझा-हीर !
कैसे समझेंगे न हम इक-दूजे की पीर ?!
इक-दूजे की पीर एक सुख-दुख सब अपने !
एक प्राण दो देहएक-से अपने सपने !!
सौ जनमों तक प्रीत हमारी ना होगी कम !
बने पुजारी-प्रीत जनम फिर से लेंगे हम !! 

राजेन्द्र स्वर्णकार 09314682626

पहले छन्द की दूसरी पंक्ति यानि दोहे के चौथे चरण की, फिर उस के बाद इसी छन्द की तीसरी पंक्ति यानि रोला वाले हिस्से के प्रथम चरण के पूर्वार्ध में “सजनी तुमने प्राण” वाले हिस्से को पढ़िएगा और देखिएगा कवि के कौशल्य को। किस तरह एक शब्द समूह 'सजनी तुमने प्राण' दो अलग हिस्सों में दो पृथक वाक्यों का परफेक्ट हिस्सा बन रहा है। कुण्डलिया छंदों में इस तरह के प्रयोग कवि की मेधा का प्रदर्शन करते हैं। इसी पहले छंद की पञ्च लाइन यानि कि आख़िरी पंक्ति “मेरे सब दिन-रैन तुम्हारे आभारी हैं “ भी बहुत ही ज़बरदस्त है। तीसरे छंद में 'एक प्राण दो देह' वाला हिस्सा तो अतिशय मनोरम है। एक प्राण दो देह की संज्ञा हमें राधा और कृष्ण के माध्यम से मिली है, राधा और कृष्ण जैसे प्रेम की बातें करने वाले छंद में एक प्राण दो देह ने समाँ बाँध दिया है।  

जिस तरह हमें खाने की थाली में सिर्फ़ मीठा या सिर्फ़ नमकीन या सिर्फ़ तरल की अपेक्षा न रहकर एक सम्पूर्ण भोजन की अपेक्षा रहती है, ठीक उसी तरह साहित्य में भी विविध रसों के साथ ही किसी आयोजन का पूर्ण आनंद आता है। वर्तमान समस्या पूर्ति आयोजन के शब्द घोषित करते वक़्त यही मंशा थी कि अलग-अलग मेधाओं के दर्शन होंगे। शुरुआत में ही कल्पना जी ने न सिर्फ़ एक स्त्री के मनोभावों को बहुत ही सशक्त ढंग से अभिव्यक्त किया बल्कि बालमना अभिव्यक्ति बाग़ के फूल भी बहुत ही ज़बर्दस्त रही। उस के बाद खुर्शीद भाई ने हमें राष्ट्र-प्रेम के डोंगे में बैठाया; सत्यनारायण जी, सौरभ जी और श्याम जी ने आध्यात्मिक और कल्याणकारी बातें बतियाईं और अब राजेन्द्र जी ने मञ्च को अपने शृंगार रस आधारित छंदों से स-रसमय बना दिया है। कोई अनिवार्य नहीं कि मैं-हम-तुम केवल आध्यात्मिक या शृंगारिक बातों के लिये ही सूटेबल हैं, वरन ये तीन शब्द तो अपने अंदर समस्त रसों को समेटे हुये हैं। उम्मीद करते हैं कि हमारे साथी हमें विविध रसों से सराबोर छन्द भेज कर अनुग्रहीत करेंगे। 

एक और बात भी कहने को जी हो रहा है कि गूढ बातों के लिये ज़रूरी नहीं कि शब्दावली भी अति गूढ ही ली जाये [हालाँकि कभी-कभी मैं भी इस दुविधा का शिकार होता रहा हूँ] बल्कि वृंद जैसे अल्पज्ञात मगर अत्यंत सशक्त कवि की तरह आसान ज़बान में भी पते की बात कही जा सकती है। वृंद जी के कुछ दोहे इसी वेबपेज पर भी हैं, जिन्हें पढ़ने के लिये आप 'वातायन के रत्न' वाली सूची में 'V' पर जा कर उन के नाम पर क्लिक कर के पढ़ सकते हैं। 

राजेन्द्र जी आप को इन मधुर और मोदमय छन्द रचनाओं के लिये ख़ूब-ख़ूब बधाई। इतने बिजी शेड्यूल में भी आप ने अपनी सहभागिता बनाये रखी, आप का बहुत-बहुत आभार। साथियो राजेन्द्र जी के छंदों पर अपनी राय रखने के साथ ही साथ उन के घर होने वाले मांगलिक कार्य की अग्रिम बधाइयाँ भी दीजियेगा और हम बढ़ते हैं अगली पोस्ट की ओर।

नमस्कार