27 अक्तूबर 2022

हिंदी ग़ज़ल के प्रति आस्था का उद्घोष हैं 'धानी चुनर' की हिन्दी ग़ज़लें - देवमणि पाण्डेय



नवीन चतुर्वेदी के नए ग़ज़ल संग्रह का नाम है धानी चुनर। इससे पहले ब्रज ग़ज़लों के उनके दो संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इस संग्रह में 87 रसीली एवं व्यंजनात्मक हिंदी ग़ज़लें शामिल हैं। संग्रह की पहली ग़ज़ल में उन्होंने हिंदी ग़ज़ल के प्रति अपनी आस्था का उद्घोष किया है-
 
ओढ़कर धानी चुनर हिंदी ग़ज़ल
बढ़ रही सन्मार्ग पर हिंदी ग़ज़ल
देवभाषा की सलोनी संगिनी
मूल स्वर में है प्रवर हिंदी ग़ज़ल
 
हिंदी भाषा के पास संस्कृत की परंपरा से प्राप्त विपुल शब्द संपदा है। नवीन जी ने इस शब्द संपदा का सराहनीय उपयोग किया है। ऐसे बहुत से शब्द हैं जो हमारी बोलचाल से बाहर होकर हमारी स्मृति या शब्दकोश तक सीमित हो गए हैं। नवीन जी ने इनको ग़ज़लों में पिरो कर संरक्षित करने का नेक काम किया है। तदोपरांत और अंततोगत्वा ऐसे ही शब्द हैं। ग़ज़ल में इनकी शोभा देखिए-
 
हृदय को सर्वप्रथम निर्विकार करना था
तदोपरांत विषय पर विचार करना था
 
अंततोगत्वा दशानन हारता है राम से
शांतिहंता शांति दूतों को हरा सकते नहीं
 
फ़िराक़ गोरखपुरी ने एक बातचीत में कहा था कि हिंदुस्तान में ग़ज़ल को आए हुए अरसा हो गया। अब तक उसमें यहां की नदियां, पर्वत, लोक जीवन, राम और कृष्ण क्यों शामिल नहीं हैं? कवि नवीन चतुर्वेदी ने अपने हिंदी ग़ज़ल संग्रह 'धानी चुनर' में फ़िराक़ साहब के मशवरे पर भरपूर अमल किया है। उनकी हिंदी ग़ज़लों में हमारी सांस्कृतिक विरासत के साथ-साथ हमारे पौराणिक चरित्र राम सीता, कृष्ण राधा, शिव पार्वती आदि अपने मूल स्वभाव के साथ शामिल हैं। हमारी आस्था के केंद्र में रहने वाले ये पात्र अपनी विशेषताओं के साथ बार-बार नवीन जी की ग़ज़लों में आते हैं और हमारी सोच एवं सरोकार का हिस्सा बन जाते हैं-
 
अगर अमृत गटकना हो तो कतराते हैं माहेश्वर
मगर विषपान करना हो तो आ जाते हैं माहेश्वर
 
निरंतर सद्गुणों का उन्नयन करते हुए रघुवर
यती बनकर जिए पल पल जतन करते हुए रघुवर
 
किसी भी रचनाकार का एक दायित्व यह भी होता है कि वह समाज के कुछ विशिष्ट मुद्दों को रेखांकित करे ताकि दूसरों के मन में भी सकारात्मक सोच का उदय हो। इसी सामाजिक सरोकार के तहत नवीन चतुर्वेदी ने कई ग़ज़लों में स्त्री अस्मिता को रेखांकित करने की अच्छी कोशिश की है-
 
हे शुभांगी कोमलांगों का प्रदर्शन मत करो
ये ही सब करना है तो संस्कार वाचन मत करो
सृष्टि के आरंभ से ही तुम सहज स्वाधीन थीं
क्यों हुई परवश विचारो, मात्र रोदन मत करो
 
सामाजिक सरोकार के इसी क्रम में नवीन जी ने पुरुषों की मानसिकता को भी उद्घाटित किया है-
 
व्यर्थ साधो बन रहे हो, कामना तो कर चुके हो
उर्वशी से प्रेम की तुम, याचना तो कर चुके हो
 
जैसे नटनागर ने स्पर्श किया राधा का मन
उसका अंतस वैसी ही शुचिता से छूना था
 
इन गज़लों में नयापन है, ताज़गी है और कथ्य की विशिष्टता है। ये ग़ज़लें उस मोड़ का पता देती हैं जहां से हिंदी ग़ज़ल का एक नया कारवां शुरू होगा-
 
दुखों की दिव्यता प्रत्येक मस्तक पर सुशोभित है
समस्या को सदा संवेदना की दृष्टि से देखें
 
वो जो दो पंक्तियों के मध्य का विवरण न पढ़ पाए
उसे पाठक तो कह सकते हैं संपादक कहें कैसे
 
नवीन चतुर्वेदी की हिंदी ग़ज़लें प्रथम दृष्टि में शास्त्रीय संगीत की तरह दुरूह लगती हैं। मगर जब आप इन के समीप जाते हैं, इन्हें महसूस करते हैं तो इनमें निहित विचारों और भावनाओं की ख़ुशबू से आपका मन महकने लगता है। ये कहना उचित होगा कि नवीन चतुर्वेदी की हिंदी ग़ज़लें किसी संत के सरस प्रवचन की तरह हैं जो हमारे अंतस को आलोकित करती हैं और मन को भी आह्लादित करती हैं। इस रचनात्मक उपलब्धि के लिए मैं नवीन सी. चतुर्वेदी को बहुत-बहुत बधाई देता हूं।
 
इस किताब के प्रकाशक हैं आर. के. पब्लिकेशन मुंबई। उनका संपर्क नंबर है- 90225-21190, 98212-51190
 
आपका-
देवमणि पांडेय
सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाडा, गोकुलधाम, फिल्मसिटी रोड, गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063 , 98210 82126

1 जून 2022

'लव की हॅप्पी एंडिंग' एवं 'कुछ दिल की कुछ दुनिया की' - पुस्तक समीक्षा

अब जरूर हम मथुरा को ठीकठाक सा एक टाउन कह सकते हैं मगर 1990 के आसपास मथुरा इतना डिवैलप नहीं हुआ था । हालाँकि रिफायनरी आ चुकी थी, टाउनशिप बस चुकी थी, कॉलोनियों की बात हवाओं में तैरने लगी थी फिर भी 1990 का मथुरा 1980 के मथुरा से बहुत अधिक उन्नत नहीं लगता था ।

उस मथुरा की एक गली में जन्मी हुई लड़की की शादी महानगर में होती है । मथुरा के संस्कारों को मस्तिष्क में और महानगर वाले पतिदेव के अहसासात को दिल में सँजोये हुए वह गुड़िया बाबुल का घर छोड़ कर पी के नगर के लिए निकल पड़ती है । जिस तरह कहते हैं न कि दुनिया गोल है उसी तरह गृहस्थी की दुनिया भी सभी जगह और सभी के लिए गोल-मोल ही होती है । उस गोल-मोल दुनिया में यह लड़की डटकर परफोर्म करती है, दूरदर्शन, सी एन एन, सी एन बी सी, डी डी भारती और आई बी एन से मीडिया अनुभव ग्रहण करते हुए कालान्तर में एक सफल लेखिका बन कर राष्ट्रीय पटल पर छा जाती है । इस लड़की का घर का नाम गुड़िया ही है और अब भारतीय साहित्य-जगत इसे अर्चना चतुर्वेदी के नाम से जानता है । उत्कृष्ट कोटि की व्यंग्य लेखिका अर्चना जी का साहित्यिक प्रवास उत्तरोत्तर ऊर्ध्व-गामी रहा है । ब्रजभाषा और हिन्दी दौनों ही क्षेत्रों में आप की रचनाओं को पाठकों का अपरिमित स्नेह प्राप्त हुआ है । आप की अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं । आपको अनेक पुरस्कार मिल चुके हैं ।

पिछले दिनों आप की दो पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं । पहली पुस्तक “लव की हॅप्पी एंडिंग” जो कि हास्य कहानी संग्रह है और दूसरी पुस्तक “कुछ दिल की कुछ दुनिया की” किस्सा गोई पर आधारित है । अर्चना चतुर्वेदी प्रसन्नमना लेखिका हैं, दिल से लिखती हैं, मज़े ले-ले कर लिखती हैं, इसीलिए इन्हें पढ़ने वाले इन्हें बार-बार पढ़ना चाहते हैं ।





इन पुस्तकों को भावना प्रकाशन से मँगवाया जा सकता है ।

भावना प्रकाशन – फोन नम्बर – 8800139685, 9312869947

31 मई 2022

श्राद्ध के दिन पर्व मनाएँ या नहीं

How to celebrate Diwali If shradham falls on that day?

प्रश्न पूछा गया है कि श्राद्ध तिथि अगर दिवाली को पड़ जाये तो दिवाली को कैसे सेलिब्रेट किया जाये ?

सबसे पहले तो हमें यह समझ लेना चाहिए कि हम श्राद्ध क्यों मनाते हैं और श्राद्ध का अर्थ क्या होता है ?

श्राद्ध का अर्थ

अपने पितरों को याद कर के उन के कल्याण हेतु अपनी-अपनी लोक रीतियों के अनुसार जो कुछ भी पुण्य काम हम सच्ची श्रद्धा के साथ करते हैं उसे श्राद्ध कहा जाता है ।

श्राद्ध क्यों मनाते हैं

हमारे बड़े-बुजुर्ग जो कि जीवित हैं उनके प्रति श्रद्धा प्रकट करने के लिए हमारे पास अनेक विकल्प होते हैं मगर हमारे जो बड़े-बुजुर्ग स्वर्गवासी हो चुके हैं उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए श्राद्ध-कर्म किया जाता है ।

श्राद्ध तिथि को पर्व मनाएँ या नहीं

यह प्रश्न सैद्धान्तिक कम और व्यावहारिक अधिक है । यह विषय अलग-अलग व्यक्तियों के लिए अलग-अलग प्रसंगों के लिए अलग-अलग है । यदि वह तिथि किसी बड़े-बुजुर्ग की है जो सबकुछ भोग-विलास कर के भरा-पूरा परिवार छोड़ कर के सुखद स्थिति में इस नश्वर संसार को छोड़ कर परलोक सिधारे हैं उस केस में तो सुबह के समय तिथि के अनुसार श्राद्ध कर्म करने के उपरान्त अन्य पारिवारिक सदस्यों की सहमति के साथ पर्व मनाने में कोई समस्या नहीं है परन्तु यदि यह प्रसंग दुखदायक है तो ऐसे में पर्व सम्बन्धी निर्णय लोक के अनुसार पारिवारिक सदस्यों से परामर्श कर के लेना ही अच्छा रहता है ।

28 मई 2022

हम ग़ालिबो-नज़ीर नहीं बन सके तो क्या

 

हम ग़ालिबो-नज़ीर नहीं बन सके तो क्या
शेरो-सुख़न में हमने गुज़ारी तमाम उम्र
उर्दू ज़बाँ पै अपना भी है क़र्ज़ दोसतो
हमने इसी की ज़ुल्फ़ सँवारी तमाम उम्र

हिमाचल प्रदेश के भाषा व संस्कृति विभाग द्वारा प्रकाशित उर्दू साहित्य की त्रैमासिक पत्रिका “ जदीद फ़िक्रो-फ़न” का 102 वाँ अंक प्राप्त हुआ । पत्रिका के मुख्य सम्पादक हैं डॉ. पंकज ललित और अतिथि सम्पादक हैं श्री विजय कुमार अबरोल उर्फ़ ज़ाहिद अबरोल साहब । आदरणीय लालचन्द प्रार्थी उर्फ़ चाँद कुल्लुवी साहब को अपनी उपरोक्त पंक्तियाँ समर्पित कर के अपने सम्पादकीय को शुरू करते हुए अबरोल साहब ने भूत-वर्तमान और भविष्य की अच्छी पड़ताल की है । विशेषतः इन्हों ने विवेच्य अंक में उन रचनधर्मियों को विशेषतः स्थान दिया है जो किसी न किसी कारणवश भीड़ से दूर रहते हैं । उर्दू की इस पत्रिका के 26 पन्ने देवनागरी लिपि में हैं और 86 पन्ने नस्तालीक रस्म-उल-ख़त (पर्शियन स्क्रिप्ट जिसे हम उर्दू समझते हैं ) में हैं । मैं चूँकि पशियन स्क्रिप्ट से अनभिज्ञ हूँ इसलिए बस देवनागरी लिपि वाले हिस्से का ही रसास्वादन कर सका हूँ ।
 
इस पत्रिका से कुछ चुनिन्दा अशआर
 
मैं पहले ख़ौफ़ फैलाता हूँ फिर यह सोचता हूँ
परिन्दे मेरे आँगन में उतरते क्यों नहीं हैं
: अयाज़ अहमद तालिब
 
हमारी आँखें हमारी कहाँ हैं हो कर भी
वही है देखना हम को जो रब दिखाता है
“ कृष्ण कुमार “तूर”
 
तेरे मकान के बेलों लदे दरीचे पर
ये किसकी रूह का ताइर तवाफ़ करता है
“ राजिन्दर नाथ “राहबर”
 
रहते थी जिसके हाथ हमेशा कपास में
बेचारा मर गया नये कपड़ों की आस में
“ ज़मीर दरवेश
 
अब्र ख़ुशियों का अगर जम कर नहीं बरसा तो क्या
ग़म के बादल भी बहुत जल्दी धुआँ हो जाएँगे
: आबशार आदम
 
बहुत से लोग हवादिस में मारे जाते हैं
हर आदमी का जनाज़ा नहीं निकलता है
: “कशिश” होशियारपुरी
 
एक पोरस भी तो रहता है हमारे अन्दर
जो ‘सिकन्दर’ को ‘सिकन्दर’ नहीं रहने देता
: द्विजेंद्र द्विज
 
अब वो भी दिन में तारे दिखलाते हैं
जिनकी थाली में कल चाँद उतारा था
: नववीत शर्मा
 
यादों के गुलशन में यूँ तो रंग-बिरंगे फूल भी हैं
लेकिन फिरते हैं काँटों को सीने से चिपकाए लोग
: कृष्ण कुमार “नाज़”
 
ऐ वतन! अहले-वतन उनको भुला देते हैं
जो तेरा क़र्ज़ चुकाते हुए मर जाते हैं
“ सुभाष गुप्ता “शफ़ीक़”
 
कहाँ पर वार करना है पराया क्या ही जाने
कहाँ से दुर्ग ढहना है ये अपना जानता है
: जावेद उलफ़त
 
मोहल्ले वालों का सर फोड़ना है बात अलग
फटेगी शर्ट तो समझोगे तुम रफ़ू क्या है
: टी. एन. राज़
 
पहली सफ़ों में आज गुलूकार आ गये
कितना बड़ा मज़ाक़ हुआ शाइरी के साथ
: काशिफ़ अहसन
 
इस पत्रिका के सम्पादकीय में श्री विजय कुमार अबरोल उर्फ़ ज़ाहिद अबरोल साहब ने लिखा है कि 1982 में परलोक सिधार चुके चाँद कुल्लुवी साहब का देवनागरी लिपि में शेरी मजमूआ अभी भी प्रकाशन के लिए प्रतीक्षारत है । इस के अलावा भी अबरोल साहब ने इस बात से जुड़ी और भी बातों पर इशारे किए हैं । जो नहीं लिखा है उसे भी कोई भी ललितकला प्रेमी सहज ही समझ सकता है । आओ हम सभी आशा करें कि अबरोल साहब के प्रयासों को सफलता मिले ।

31 अक्तूबर 2021

सदियों का सारांश - द्विजेन्द्र द्विज - एक समीक्षा

 

पहाड़ों पर जाना किसे अच्छा नहीं लगता ? कौन है जिसे पहाड़ों से मुहब्बत नहीं है? पहाड़ों का हुस्न, पहाड़ों का पानी, पहाड़ों की चढ़ाई, पहाड़ों की उतराई, पहाड़ों की गर्मी, पहाड़ों की सर्दी, पहाड़ों का खाना, पहाड़ों के सरोकार ऐसे अनेक विषयों से आप अवश्य ही दो-चार हो चुके होंगे अब तक । पहाड़ों पर अनेक कविताएँ, गीत, शेर आदि भी पढे होंगे आप ने अब तक । परन्तु किसी एक ही काव्य संग्रह विशेष कर ग़ज़ल संग्रह में बार-बार पहाड़ों के बारे में बतियाना और वह भी अलग-अलग ज़ावियों के साथ ऐसे उदाहरण अगर आप को मिले भी होंगे तो बहुत कम ही मिले होंगे । उस में भी विशेष बात यह कि शायर भी पहाड़ों वाला ही हो ।

 आज की इस चर्चा में हम स्वभाव से बहुत ही विनम्र और अध्ययन में बहुत ही गहरे शायर श्री द्विजेन्द्र द्विज जी के हालिया रिलीज हुए ग़ज़ल-संग्रह “सदियों का सारांश “ की बात का रहे हैं ।

 द्विज जी न केवल हिमाचली, उर्दू और हिन्दी के बेहतरीन जानकार हैं बल्कि अंग्रेजी के भी उन चुनिन्दा जानकारों में आप का शुमार होता है जो अंग्रेजी भाषा की बारीकियों पर साधिकार बात करते हैं । 10 अक्तूबर 1962 को इस धराधाम पर द्विज जी पधारे और अब तक उन्हें उनकी कृतियों के लिए अनेकानेक सम्मान प्राप्त हो चुके हैं । “ ऐब पुराणा सीहस्से दा “ नाम से आप का हिमाचली ग़ज़ल संग्रह क़ाफ़ी चर्चित हुआ है ।

 विवेच्य ग़ज़ल-संग्रह “ सदियों का सारांश “ में द्विज जी ने देवनागरी लिपि में अपनी उर्दू ग़ज़लों को संग्रहित कर प्रस्तुत किया है । इस ग़ज़ल-संग्रह में शायर ने हिन्दी भाषा के लालित्य को भी बख़ूबी इस्तेमाल किया है । उर्दू शायरी में जिन अशआर  को सुना / पढ़ा और सराहा जाता रहा है, आइये पहले ऐसे कुछ अशआर पढ़ते हैं

 इन आँसुओं को सीने में रखना मुहाल है
धारे निकल ही आते हैं पत्थर को तोड़ के
 
ज़ुरअत करे, कहे तो कोई आसमान से
पंछी कहाँ गये, जो न लौटे उड़ान से
 
चलो मिलकर उजालों के लिए दीपक जलाते हैं
अंधेरे में अकेले बैठना अच्छा नहीं लगता
 
शिफ़ाख़ाने में तेरे ऐ हकीम, इतनी तो राहत हो
न कम हो दर्द लेकिन दर्द सहने की इजाज़त हो
 
वो आयी है तो चमन मुँह बना के बैठा है
गयी बहार को रोयेगी हर कली इक दिन
 
एक लमहे को उसको देखा था
उम्र भर फिर उसी के ख़्वाब आये
 
कोई निस्बत नहीं ज़मीं से मियाँ
घर तुम्हारा है आसमान में क्या
 
जो धोखा दे रहे थे हर नज़र को
मैं आख़िर ऐसे मंज़र देखता क्या
 
मशीन बन तो चुका हूँ मगर नहीं भूला
कि मेरे जिस्म में दिल भी कभी धड़कता था

 द्विज जी ने रवायती और जदीद दौनों तरह की शायरी की है । हिन्दी ग़ज़ल के नाम से मशहूर मगर वास्तव में दुष्यंत कुमार की उर्दू शायरी का जो लबो-लहजा है वह भी द्विज जी के यहाँ भरपूर मात्रा में उपलब्ध है । इस ग़ज़ल संग्रह में पहली दो ग़ज़लें ऐसी हैं जिन की रदीफ़ ही “पहाड़” है । इन दौनों ग़ज़लों में और दीगर ग़ज़लों में भी जहाँ-जहाँ मौक़ा मिला है शायर ने पहाड़ों से अपने पवित्र-प्रेम को बड़ी ही शिद्दत से बयान किया है । आइये अब उन अशआर को पढ़ते हैं जो मुझे इस ग़ज़ल संग्रह का वैशिष्ठ्य प्रतीत हुए :

 ख़ुद भले ही झेली हो त्रासदी पहाड़ों ने
बस्तियों को दी लेकिन हर ख़ुशी पहाड़ों ने
 
भाता अगर है आप को जीना पहाड़ का
लेकर कहाँ से आयेंगे सीना पहाड़ का
 
जो देखना है तुझको भी जीना पहाड़ का
सर्दी में आ के काट महीना पहाड़ का
 
इमदाद हो कोई कि इशारा वतन का हो
आता है काम ख़ून-पसीना पहाड़ का
 
बस आसमान सुने तो इन्हें सुने यारो
पहाड़ की भी पहाड़ों सी ही व्यथाएँ हैं
 
न जाने कितनी सुरंगें निकल गयीं उस से
खड़ा पहाड़ भी तो आँख का ही धोखा था
 
रू-ब-रू हमसे हमेशा रहा है हर मौसम
हम पहाड़ों का भी किरदार सम्हाले हुए हैं
 
फिर आज धूप टहलती दिखी पहाड़ों पर
फिर आज दीप उमीदों के हो गये रौशन
 
पर्वतों को चीर कर जिस दम नदी आगे बढ़ी
दूर उसका फिर किनारे से किनारा हो गया
 
कुछ देर डरायेगा पहाड़ों का कुहासा
फिर इस में नज़र आयेगी सूरज की किरन भी
 
आगे बढ़ने पै मिलेंगे तुझे मंज़र भी हसीन
इन पहाड़ों के कुहासे को कुहासा न समझ

 द्विज जी ने अपनी शायरी में सादगी को वरीयता प्रदान की है । हालाँकि व्यंजनात्मकता और लालित्य से इन्होंने परहेज़ नहीं किया है मगर जो देखा सो लिखा पर इनका अधिक ज़ोर रहा है और आज के युग में ऐसे साहित्य को भी रेखांकित किया जा रहा है । द्विज जी को इस ग़ज़ल संग्रह के लिए बहुत-बहुत बधाई ।

भारतीय ज्ञान पीठ की लोकोदय ग्रंथमाला के अंतर्गत प्रकाशित इस पुस्तक को पाने का पता

भारतीय ज्ञानपीठ
18, इन्स्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नयी दिल्ली – 110003
फोन – 011-24626467, 23241619, 09350536020 
ईमेल – bjnanpith@gmail.com
 
द्विज जी का मोबाइल नम्बर – 09418465008
 
सादर सप्रेम
जय श्री कृष्ण

मनसुख विरह - एक उत्तम ब्रजभाषा काव्य संग्रह

 

ऐसा शायद ही कोई साहित्य प्रेमी होगा जिसे ब्रजभाषा के बारे में जानकारी न हो - जिसने ब्रज भाषा की रचनाओं का रसास्वादन न किया हो, जिसने ब्रजसरोवर में गोते न लगाये हों, जिसने सूरदास सहित अष्टछाप के विविध कवियों की अमृतवाणी चखी न हो, जिसने दीवानी मीरा के निश्छल और निष्कपट प्रेम की अनुभूति न की हो, जिसने रहीम के दोहों में छुपे जीवन दर्शन का अवलोकन न किया हो, जिसने भूषण के अर्थ विस्फोट वाले छंदों और केशव के काव्य सौन्दर्य से सुसज्ज छंदों का विहंगावलोकन न किया हो, जिसने तुलसी के “ माया तू न गयी मेरे मन ते “ जैसे अनेकानेक पदों और छंदों से सुरभित कानन में विचरण न किया हो, जिसने “ काहु दिन उठ गयौ मेरे हाथ, बलम तोहि ऐसौ मारोंगी” या “ बन गये नंदलाल लिलिहार कि लीला गुदवाय लेहु प्यारी “ या ब्रज की तोहि लाज मुकुट वारे” जैसे अनेक रसियाओं / भजनों पर ठुमके न लागाये हों । ब्रजभाषा जिसके बारे में कहा जाता है कि “ धन्य ब्रजभासा तो सी दूसरी न भासा तै नें बानी के बिधाता कों बोलिवौ सिखायौ है” , ऐसी ब्रजभाषा से अमूमन हर रसिक साहित्यानुरागी भलीभाँति परिचित है ।

ब्रजभाषा में अनन्त काल से उत्कृष्ट से उत्कृष्टतम रचनाएँ होती रही हैं । अमीर खुसरो हों या बाबा फ़रीद ख़ान साहब हों, भारतेन्दु हरिश्चंद्र हों या जयशंकर प्रसाद, बाबू जगन्नाथ दास रत्नाकर, कविवर नवनीत, गोविंद कवि जी, लला कवि, नाथ कवि, चतुर्भुज पाठक कंज जी, यमुना प्रसाद चतुर्वेदी प्रीतम जी जैसे अनेकानेक रचनाधर्मियों ने ब्रजभाषा के उपवन में भाँति-भाँति के सुमन सरसाये हैं ।

आज हम 2021 में प्रकाशित हुई बड़ी ही प्यारी सी कृति “ मनसुख विरह “ की चर्चा कर रहे हैं । इस पुस्तक को, जिसे “खण्डकाव्य” कहने में किसी को संकोच नहीं होना चाहिए, ब्रजभाषा के वर्तमान काल के समर्पित अध्येता, मनीषी एवं शिल्पी श्री राधा गोविन्द पाठक जी ने प्रस्तुत किया है ।

मनसुख या मनसुखा यशोदानन्दन भगवान श्री कृष्ण के परमप्रिय सखाओं में से एक हैं । बचपन के सखाओं एवं सखियों की स्मृतियाँ सदैव ही मधुर ही होती हैं । उन के साथ व्यतीत किये गये पल-छिन अनन्य होते हैं । ऐसी अनेक बातें होती हैं जिन्हें ऐसे सखाओं और सखियों के सिवा और कोई भी नहीं जानता या नहीं जान सकता । लीला पुरुषोत्तम आनन्दघन श्याम सुन्दर के सनेही सखा के स्वरूप में अधिकांश लोगों को सुदामा चरित्र ही याद आता है । परन्तु कविवर राधा गोविन्द पाठक जी ने श्री कृष्ण के बालसखा मनसुखा के माध्यम से रसिकता से ओतप्रोत लड़कपन के विविध कथानकों को पटल पर लाने का पूर्णरूपेण सफल प्रयास किया है ।

हमने ब्रज साहित्य में राधा के विरह को पढ़ा है, गोपियों के कष्ट पढे हैं, मातु यशोदा की पीड़ा पढ़ी है, अन्य ब्रजवासियों की अनुभूतियाँ भी पढ़ी हैं परन्तु जिस तरह से एक बालसखा के बालमन की अनुभूतियों को ब्रजभाषा के छंदों के माध्यम से कवि ने प्रस्तुत किया है वह बड़ा ही लोमहर्षक है । एक उदाहरण देखिये :

एक दिन रूठ गयौ खेल खेल में हम सों
का बिध मनायौ सुधि रह रह आवै है

सपने हू सोचौ नहिं जैहै तू हमें बिसार
पल हू न चैनरैन बीत नाँहि पावै है

छाती फटी जातआह निकसत बैनन सों
नेह कूँ निभावै हैकै बीजूरी गिरावै है

धीर को धरावैभाँति-भाँति की उठत पीर,
निपट लबार तेरी याद च्यों सतावै है

 जिन्हों ने ब्रज साहित्य में गोपियों की पीड़ा और उलाहने पढे हुए हैं ऐसे साहित्यानुरागी इस महीन अन्तर को स्पष्ट रूप से अनुभूत कर सकते हैं । जिन लोगों ने अपने लड़कपन में जम कर शरारतें की हैं उन के लिए यह छन्द विशेष रूप से :

एक दिन तुममैं औ सिरीदामा तीनों मिलि
पौंचे लखि सूनों घर ललिता कौ पाइ कें
 
माखन चुरान खान निज नेह देखन कों
भिरौ हो जो द्वारधीरें खोलि दियौ जाइ कें
 
सूनौ सौ सदन जानि तीनों घुसि कें सप्रेम
हम दोऊ घोड़ा बने तू लियौ चढ़ाइ कें
 
पकरत छींकौ निज घर आई ललिता तौ
चौंकि भाजे तीनों झट मटुकी गिराइ कें

 “ मनसुख विरह “ में कवि ने कृष्ण की अमूमन सभी बाल लीलाओं का वर्णन सखा की स्मृतियों और अनुभूतियों के माध्यम से किया है जो अपने आप में अनूठा है । कृष्ण जिनके आराध्य हैं उन्हें तो यह पुस्तक आनन्ददायिनी सिद्ध होगी ही परन्तु जो लोग भले ही कृष्ण को आराध्य न मानते हों परन्तु बाल लीलाओं के रसिक हों और कृष्ण के लौकिक स्वरूप से प्रभावित हों उन्हें भी यह पुस्तक आनन्द से सराबोर करेगी, ऐसा इस पुस्तक को पढ़ कर सिद्ध होता है ।

 इस पुस्तक और इस प्रसंग पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है परन्तु समीक्षा का उद्देश्य क्षुधा की पूर्ति करना न हो कर क्षुधा को जगाना होता है इसलिए कविवर राधा गोविन्द जी के इस काव्य-कर्म की अनुशंसा करते हुए लेखनी को यहीं विराम देना श्रेयस्कर है ।

 पुस्तक प्राप्ति हेतु सम्पर्क करें

 श्री गोविन्द पचौरी, जवाहर पुस्तकालय, हिन्दी पुस्तक प्रकाशक एवं वितरक, सदर बाजार, मथुरा – 281001, मोबाइल – 09897000951

ईमेल – jawahar.pustakalaya@gmail.com

 कवि का सम्पर्क मोबाइल नम्बर – 9837426310

जय श्री कृष्ण

राधे राधे

24 अक्तूबर 2021

करवा चौथ कविता - मेरे तो तुम ही ईश्वर हो - अटल राम चतुर्वेदी

 

 

 तुम ढूँढ़ो दुनिया में ईश्वर।

मेरे तो तुम ही ईश्वर हो।

मेरी है हर साँस तुम्हारी।

तुम पर ही मैं सब कुछ हारी।

सदा तुम्हारी आस करूँ मैं।

तुम ही तो शीतल तरुवर हो।

मेरे तो तुम ही ईश्वर हो।

तुम बिन मैं तड़फूँ बन मछली।

तुम्हें देखकर ही मैं सँभली।

होश नहीं रहता मुझको कुछ।

तुम हो तो मुझ पर है सब कुछ।

तुम ही तो मेरे सहचर हो।

मेरे तो तुम ही ईश्वर हो।

"अटल" प्रीत का तुमसे बंधन।

तुमसे बिंदिया, चूड़ी, कंगन।

तुम्हीं सितारे मेरे सिर के।

तुम बिन भटकूँ बिन मंजिल के।

तुम्हीं शक्ति व बुद्धि प्रवर हो।

मेरे तो तुम ही ईश्वर हो।

तुमसे जुड़ा अनूठा नाता।

साथ तुम्हारा मुझको भाता।

झेलूँ दिन भर भूख-प्यास मैं।

लगे उमर तुमको चाहूँ मैं।

मैं नदिया तो तुम सागर हो।

मेरे तो तुम ही ईश्वर हो।


अटल राम चतुर्वेदी 

बदन की आग दिखाई गई थी साज़िश से - मयंक अवस्थी

 


बदन की आग दिखाई गई थी साज़िश से ।

बदन में आग लगा दी गई थी साज़िश से ॥

 

हम उसको धर्म की आँधी समझ रहे थे मगर ।

वो  धूल आँख में झोंकी  गई थी साज़िश से ॥

 

मिलेगी राह तो मुर्दे भी उठ के दौड़ेंगे ।

वो कब्र इसलिए खोदी गई थी साज़िश से ॥

 

उस एक बेल ने पानी पे कर लिया कब्ज़ा ।

जो बेल ताल में डाली गई थी साज़िश से ॥

 

नदी को पार कराने का आसरा दे कर ।

भँवर में नाव भी मोड़ी गई थी साज़िश से ॥

 

मचल-मचल के चराग़ों से जा लिपटती थी ।

हवा दयार में भेजी गई थी साज़िश से ॥

 

चरस जो दूर तलक लहलहा रही है यहाँ ।

ये ख़ुद  नहीं उगी,  बोई गई थी साज़िश से ॥

 

हमारे ख़्वाब तो बेचे ही ताजिरों ने मगर ।

हमारी नींद भी बेची गई थी साज़िश से ॥

 

मयंक अवस्थी

यही इक मुख़्तसर सी दास्ताँ सब को सुनानी है - प्रेम भटनेरी



यही इक मुख़्तसर सी दास्ताँ सब को सुनानी है ।

हर इक मौसम में ख़ुश रहना यही तो ज़िंदगानी है ॥

 

मिरे दिल पर हुई दस्तक न जाने कौन आया है ।

फ़ज़ा की आहटों में आज ख़ुशबू ज़ाफ़रानी है ॥

 

तुम्हें जब मुझ से मिलना हो तो अपने आप से मिल लो ।

तुम्हारे दिल में रहता हूँ तुम्हारी बात मानी है ॥

 

कहीं बालू कहीं पत्थर कहीं कटते किनारे हैं ।

कोई कुछ भी नहीं कहता ये दरिया की रवानी है ॥

 

दिखाता है जो सब को रास्ता दुनिया में सोचो तो ।

ये उस का ही इशारा है उसी की मेहरबानी है ॥

 

छुपाऊँ किस तरह ख़ुद को मैं इन नक़ली नक़ाबों में ।

हक़ीक़त सामने इक रोज़ यारो आ ही जानी है ॥

 

प्रेम भटनेरी

इस ग़लाज़त को साफ़ कर देना - चेतन पंचाल

 


इस  ग़लाज़त को साफ़ कर देना ।

मुझको दिल से मुआफ़ कर देना ॥

 

मैं  अगर   भूलना   तुम्हें    चाहूँ ।

मुझको मेरे  खिलाफ़  कर  देना ॥

 

ग़लतियाँ  बाद  में  बताना  मेरी ।

पहले मुझको  मुआफ़ कर देना ॥

 

मैं करूँ गर तअल्लुक़ात को तर्क ।

तुम  ज़रा  इख़्तिलाफ़  कर देना ॥

 

गर   अंधेरा  उठाये  सर  "चेतन" ।

जुगनुओं  को ख़िलाफ़ कर देना ॥

 

चेतन पंचाल