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विशेष - कब परिपक्व होगी भोजपुरी ग़ज़ल - इरशाद खान सिकन्दर

कब परिपक्व होगी भोजपुरी ग़ज़ल
- इरशाद खान सिकन्दर
                                      
ग़ज़ल और उसका व्याकरण नामक पुस्तक के पहले ही अध्याय में लिखित पंक्तियों पर ज़रा ग़ौर कीजिये ‘’यदि कोई व्यक्ति यह प्रश्न करता है कि ग़ज़ल क्या है तो, मेरे  विचार में, इस विषय की प्रारंभिक चर्चा के समय उसे यह उत्तर दिया जाना चाहिए कि ग़ज़ल जो कुछ भी हो लेकिन वह गीत कदापि नहीं है ! इस बात का उल्लेख इसलिए आवश्यक है क्योंकि भोजपुरी में आज भी ऐसे लोगों की संख्या बहुत अधिक है जो विरह गीत को ही ग़ज़ल समझते हैं! ग़ज़ल का शाब्दिक अर्थ ‘प्रेमालाप’ या महबूब से बातें करना अवश्य है किन्तु प्रेमालाप या महबूब से की गयी सभी  बातें ग़ज़ल नहीं होतीं! यहाँ ये भी स्पष्ट करना आवश्यक है कि अब ग़ज़ल अपने शाब्दिक अर्थ के दायरे से बाहर निकलकर समूचे ब्रम्हांड और ब्रम्हांड के सब विषयों पर गंभीर विमर्श कर रही है! ग़ज़ल होने के लिए ग़ज़ल के मूल सिद्धांत एवं व्याकरण का पालन अति आवश्यक है! ग़ज़ल अपने हुस्न में तनिक भी कमी बर्दाश्त नहीं कर सकती; और अगर किसी ने जबरन इससे कोई छेड़छाड़ की तो स्वयं ये उसे अपने प्रांगण से बाहर धकेल देती है! आज के समय में जहाँ काव्य की दूसरी विधाएं दम तोड़ रही हैं वहीँ ग़ज़ल प्रतिदिन अपने दीवानों की तादाद बढ़ा रही है!

कहा जाता है कि इस्लाम पूर्व अरब में ग़ज़ल का जन्म हुआ! ग़ज़ल से पहले अरब प्रांत में क़सीदे (लम्बी कविता, प्रशंसागान) का चलन था! एक लेख में प्रख्यात कथाकार प्रोफ़ेसर अब्दुल बिस्मिल्लाह साहब फ़रमाते हैं-‘क़सीदे में जब प्रेम का प्रवेश हुआ तो ग़ज़ल का जन्म हुआ और इसका श्रेय जाता है इमरउल क़ैस (539ई.)को! अरबी साहित्य के विशेषज्ञों का मानना है कि इमरउल क़ैस ज़माना-ए-जाहिलिया (अंधकार युग) का पहला शायर है जिसने ग़ज़ल कही! उसी ने सर्वप्रथम प्रेमिका के उजड़े दयार पर रूककर उसकी याद में अपने दोस्तो के साथ मिलकर रोने की काव्यात्मक परम्परा की नींव डाली’’

इमरउल क़ैस से शुरू हुई ग़ज़ल, पीढ़ी दर पीढ़ी अपना सफ़र तय करती हुई पहले ईरान फिर हिन्दुस्तान पहुंची! तब हिन्दुस्तान में उर्दू का जन्म नहीं हुआ था! हिंदी या हिन्दवी में जो सबसे पहली ग़ज़ल कही गयी वो संभवतः अमीर ख़ुसरो साहब ने कही जिसका मतला यूँ है-

जब यार देखा नैन भर दिल की गयी चिंता उतर
ऐसा नहीं कोई अजब राखे उसे समझायकर

मुग़लों के शासन काल में बादशाह के लोगों और मक़ामी लोगों की बात चीत से जो  तीसरी भाषा जन्मी उसे रेख़्ता का नाम दिया गया ! रेख़्ता यानी मिलीजुली भाषा रेख़्ता यानी उर्दू का पुराना नाम! रेख़्ता यानी ग़ज़ल की नयी भाषा! ग़ज़ल अरबी, फ़ारसी, हिन्दवी से होती हुई अब रेख़्ता में प्रवेश कर चुकी थी! और ये कहना अतिश्योक्ति न होगी कि ग़ज़ल पूरी तरह जवान रेख़्ता यानी उर्दू में ही हुई और जवानी भी ऐसी कि जो ढलने का नाम ही नहीं लेती मशहूर शायर मुनव्वर राना साहब फ़रमाते हैं-

ये सच है उम्र सभी औरतें छुपाती हैं
मगर शबाबे-ग़ज़ल वाक़ई सलामत है

ग़ज़ल ने उर्दू फ़ारसी में इतनी ख़्याति अर्जित कर ली कि हिन्दुस्तान की दूसरी ज़बानें भी इस विधा की तरफ़ खिंचती चली आईं! हिंदी में भारतेंदु हरिश्चंद्र समेत समय समय पर तमाम रचनाकारों ने इस विधा में कोशिशें कीं! जो कि आज भी जारी है, किन्तु केवल दुष्यंत कुमार को छोड़ कोई स्थापित न हो सका!

पंजाबी ज़बान में भी तमाम शायरों ने ग़ज़लें कहीं जिनमें  शिव कुमार बटालवी साहब का नाम उल्लेखनीय है! आज गुजराती, मराठी, सिन्धी, ब्रज, मैथिली, भोजपुरी, अवधी समेत भारत की तमाम ज़बानों में ग़ज़लें कही जा रही हैं.किन्तु उर्दू वाला मज़ा किसी दूसरी ज़बान की ग़ज़ल में मौजूद नहीं हैं बल्कि अधिकतर तो ऐसी हैं जिन्हें ग़ज़ल कहना ग़ज़ल की तौहीन होगी! इसका सबसे बड़ा कारण दूसरी ज़बान के शायरों का ग़ज़ल के मौलिक स्वरुप से अनभिज्ञ होना है! हम ऊपर चर्चा कर चुके हैं कि ग़ज़ल अरबी फ़ारसी से होती हुई उर्दू ज़बान तक पहुंची लेकिन इस यात्रा में एक जो सबसे महत्त्वपूर्ण बात शामिल है वो यह है कि ग़ज़ल के मौलिक स्वरुप में कोई परिवर्तन नहीं हुआ था अर्थात ग़ज़ल के छंद वही थे और इस विधा को अपनाने वाले रचनाकार इससे भली भांति परिचित थे! हाँ आगे चलकर इसमें ज़बान की तराश-ख़राश एवं इसे और बेहतर बनाने के लिए विशेषज्ञों ने ख़ूब काम किया! जो कि इसके हुस्न और कशिश को आज भी बरक़रार रखे हुए है!


मैंने इस लेख के शीर्षक में कहा कि ‘कब परिपक्व होगी भोजपुरी ग़ज़ल’ इसका मुख्य कारण ये है कि दूसरी ज़बानों की ग़ज़लें धीरे धीरे ग़ज़ल के मौलिक स्वरुप तक पहुँच रही हैं, और दूसरी ज़बानों के रचनाकार इस दिशा में गंभीरता से कार्य कर रहे हैं किन्तु बड़े दुःख के साथ इस कटु सत्य को स्वीकार करना होगा कि इस दिशा में भोजपुरी की हालत दयनीय है! हालांकि साहित्य की सभी विधाओं में भोजपुरी की हालत दयनीय है किन्तु बात ग़ज़ल पर हो रही है इसलिए ग़ज़ल विधा का ही मैंने उल्लेख किया, मेरे इस कथन का यह अर्थ कदापि नहीं है कि भोजपुरी में ग़ज़लों पर काम नहीं हो रहा, काम तो खूब हो रहा है यहाँ तक कि ग़ज़ल के संग्रह प्रकाशित हो रहे हैं, किन्तु अधिकतर लोग ग़ज़ल के नाम पर कूड़ा-कचरा परोस रहे हैं, और जो रचनाकार ग़ज़ल कहने में सक्षम हैं वो कोई लाभ न मिलता देख अपने आप को इससे अलग किये हुए हैं! इन बिन्दुओं पर भोजपुरी के रचनाकारों को गंभीरता से विचार करना होगा! और नए रचनाकारों को ग़ज़ल की बारीकियाँ सीखकर ही इस विधा में प्रयास करना होगा तभी वो खुद को और भोजपुरी ग़ज़ल को सम्मान दिला पायेंगे!

3 ग़ज़लें इरशाद खान सिकन्दर


रूह से तोड़के सबने बदन से जोड़ दिया

रिश्ता-ए-इश्क़ के धागे को धन से जोड़ दिया

है मिरा काम मुहब्बत की पैरवी करना

जबसे इक चाँद ने मुझको किरन से जोड़ दिया

मैं उसे ओढ़के फिरता था दश्त भर लोगो

क्यों मिरा जिस्म किसी पैरहन से जोड़ दिया

वक़्त ने तोड़ दिया था मगर तअज्जुब है

आपने दिल को मिरे इक छुअन से जोड़ दिया

मेरी ग़ज़लों ने मुहब्बत की नींव रक्खी है

बेवतन जो था उसे भी वतन से जोड़ दिया

शह्र के लोगों को ये बात नागवार लगी

गाँव का दर्द भी हमने सुख़न से जोड़ दिया

अब तो लाज़िम है सियासत के कुछ हुनर सीखें

शाह ने हमको भी इक अंजुमन से जोड़ दिया





कल रात पूरी रात तिरी याद आई है
जानाँ ये मेरे इश्क़ की पहली कमाई है


मैं इन दिनों हूँ हिज्र की लज़्ज़त में मुब्तला
इक उम्र काम करके ये तनख़्वाह पाई है


हाज़िर हूँ अपने दिल की मैं खाता-बही के साथ
ये मैं हूँ और ले ये तिरी पाई-पाई है


ख़ारिज सिरे से कर दिया सबकी दलील को
जब भी चलाई इश्क़ ने अपनी चलाई है 

तकिये का हाल देखके लगता है रातभर
सब आँसुओं ने ख़्वाब की बरसी मनाई है


जबसे सुना कि इश्क़ तिजारत मुफ़ीद है
हमने भी दिल दिमाग़ की पूँजी लगाई है


शाइस्तगी बनी ही मिरे ख़ानदान से
लहजे में ये मिठास बुज़ुर्गों से आई है


इक पल भी इस जहान से निभनी मुहाल थी
हमने किसी के इश्क़ में जग से निभाई है


तस्वीर का ये रुख भी सिकन्दहै क्या अजब

जब रंग उड़ गया तो ग़ज़ल रंग लाई है

बहरे मज़ारिअ मुसमन अख़रब मकफूफ़ मकफूफ़ महज़ूफ़
मफ़ऊलु फ़ाइलातु  मुफ़ाईलु फ़ाइलुन
 221 2121 1221 212 



तेरे अल्फ़ाज़ के पत्थर मिरे सीने पे लगे
मेरे अहसास के टुकड़े मिरे चेहरे पे लगे


हमने उनको भी कलेजे से लगा रक्खा है
संग जो भी हमें महबूब के सजदे पे लगे

इतना सुनने से तो अच्छा था कि मर ही जाता
मेरी आवाज़ पे पहरे तिरे कहने पे लगे


मैं तिरे इश्क़ में ऐसा हूँ तो ऐसा ही सही
लगे इलज़ाम अगर तौर तरीक़े पे लगे


इश्क़ ने तेरी बहाली की बिना रक्खी है
देखियो! कोई न धब्बा तिरे ओहदे पे लगे


इससे पहले तो ज़मीं थी, वो फ़लक था, दिल था
ये तो दीवार से हम आपके आने पे लगे


क्या नज़ारा था गले आज लगे वो ऐसे
जैसे जुमला कोई आकर किसी जुमले पे लगे


वो तो हम थे जो कभी आह क्या उफ़ तक भी न की
जब कि सब तीर तिरे सीधे कलेजे पे लगे


टस से मस भी जो हुआ मैं तो सिकंदरकैसा

लाख कैंची मिरे मज़बूत इरादे पे लगे
बहरे रमल मुसम्मन मख़बून महज़ूफ़
फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन
2122 1122 1122 22

:- इरशाद खान सिकन्दर 
– 9818354784

भोजपुरी गजलें - इरशाद खान सिकन्दर

खेते ईंट उगावल छोड़ा
धरती के तड़पावल छोड़ा

आधी रात के खोंखी आई
सँझवे से मुंह बावल छोड़ा

जून जमाना गइल ऊ काका
लइकन के गरियावल छोड़ा

बात समझ में आवत नइखे
बेसी बात बनावल छोड़ा

काम अधिक बा छोट ह जिनकी
जाँगर तू लुकवावल छोड़ा

भँइस के आगे बीन बजाके
आपन गुन झलकावल छोड़ा




छूटल आपन देस विधाता
गाँव भइल परदेस विधाता

केहू राह निहारत होई
लागी दिल पर ठेस विधाता

जोहत जोहत आँख गइल अब
कब आई सन्देस विधाता

उखड़ल उखड़ल मुखड़ा सबके
काहे बिखरल केस विधाता

चरिये दिन में खूब देखवलस
जिनगी आपन टेस विधाता

ओही खातिर धइले बानी
जोगी के ई भेस विधाता

:- इरशाद खान सिकन्दर
9818354784

4 भोजपुरी गजलें - इरशाद खान सिकन्दर



कई शब्द लिखि लिखि के काटल रहे
तबो गम न रचना में आँटल रहे

भरल दुःख के गगरी से घर बा भरल
एही से त मनवा उचाटल रहे

मिलन,बेवफाई,जुदाई,तड़प
सफर केतना हिस्सा में बाँटल रहे

कहीं का कहानी ल एतने समझ
मोहब्बत के पन्ना भी फाटल रहे

‘सिकन्दर’ के कोशिश भइल ना सफल
कि नेहिया से धरती ई पाटल रहे


बहरे मुतक़ारिब मुसम्मन मक़्सूर
फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़उल
122 122 122 12



दिल में हलचल मचवले बा काहो
चाँद पागल बनवले बा काहो

एतना बेकल तू कहँवा जातारा
केहू अँखिया बिछौले बा काहो

तू अकेले में मुस्कुरातारा
फूल बिजली गिरवले बा काहो

पाँव थिरके के समझीं का मतलब
नाच नेहिया नचवले बा काहो

काहे अइसे चिहुँक के उठ गइला
नींद, सपना उड़वले बा काहो


बहरे खफ़ीफ मुसद्दस मख़बून
फ़ाइलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन
2122 1212 22



ख्वाहिश बा कवनो अइसने जादू देखाई दे
हम देखीं आइना त उहे ऊ देखाई दे

अइसे ऊ हमरा याद में आवस कबो कबो
जइसे अन्हरिया रात में जुगनू देखाई दे

अइसे भी ज़िंदगी में त आवेला केतना लोग
जइसे केहू के आँखि में आँसू देखाई दे

बाटे हो रोम-रोम में खुशबू वो फूल के
चाहेला मन कि सामने खुशबू देखाई दे

पावे करार कइसे ई मोर  बेकरार दिल
कवनो न उनके दीद के पहलू देखाई दे


बहरे मज़ारिअ मुसमन अख़रब मकफूफ़ मकफूफ़ महज़ूफ़
मफ़ऊलु फ़ाइलातु  मुफ़ाईलु फ़ाइलुन
221 2121 1221 212



कोरे कागज पे प्यार लिखि लिखि के
ऊ मिटावेला  यार लिखि लिखि के

रास आ गइल बाटे पतझड़ का
काट देला बहार लिखि लिखि के

चाँदनी रात के बिछौना पर
सुत गइल ऊ अन्हार लिखि लिखि के

आज ले कुछ जवाब ना आइल
चिट्ठी भेजनीं हजार लिखि-लिखि के

चल ‘सिकन्दर’ तें काहें रोवेले
दुःख के बोझा उतार लिखि लिखि के


बहरे खफ़ीफ मुसद्दस मख़बून
फ़ाइलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन
2122 1212 22



इरशाद खान सिकन्दर

9818354784

ज़ियादा हों अगर उम्मीद बच्चे टूट जाते हैं - 'लफ़्ज़' का छत्तीसवाँ अंक

भारतीय गद्य साहित्य और खास कर व्यंग्य में अपने जीवन काल में ही अपना लोहा मनवा चुके, पद्म-भूषण तथा साहित्य अकादमी जैसे पुरस्कारों को सुशोभित करते, 'राग दरबारी' जैसे कालजयी उपन्यास के शिल्पकार श्रीलाल शुक्ल जी को समर्पित है 'लफ़्ज़' का छत्तीसवाँ अंक। इस बार के अंक में ज़ारी किश्तों के अतिरिक्त श्रीलाल शुक्ल जी ही छाये हुये हैं, और क्यों न हों - बक़ौल सम्पादकीय - "साहित्य की सामान्य परम्परा के अनुसार, उत्पाती लेखन या उपद्रवी बयानों के कारण चर्चित हुये लेखक-लेखिकाओं से अधिक चर्चित तथा सम्मानित श्रीलालजी किंवदन्ती बन चुके थे।"

हर बार की तरह इस बार भी 'लफ़्ज़' में भरत भूषण पंत जी की नज़्मों के अलावा चार शायरों के कलाम पढ़ने को मिले। मेरे स्वभाव और रुचि के अनुसार मैंने जो छाँटा है, आप लोगों के साथ साझा करना चाहूँगा।