26 फ़रवरी 2011

हिन्दोस्ताँ को जगदगुरु यूँ ही नहीं कहते सभी - नवीन

हर आदमी की होती है अपनी अलग इक एंटिटी|
दुनिया मगर अक्सर समझ पाती न ये रीयेलिटी |१|

हिन्दोस्ताँ को जगदगुरु यूँ ही नहीं कहते सभी|
डायवर्सिटी होते हुए भी है यहाँ पर यूनिटी|२|

गिनती पहाड़ों से भी आगे है गणित का दायरा|
माइनस करे एनीमिटी और प्लस करे ह्यूमेनिटी|३|

ताउम्र जो साहित्य की आराधना करते रहें|
क्यूँ भूल जाती हैं उन्हें सरकार और सोसाइटी|४|

सीखा है जो 'कल' से वही हाजिर किया 'कल' के लिए|
अब आप को करना है तय, कैसी है ये वेराइटी|५|


मुसतफ़इलुन मुसतफ़इलुन मुसतफ़इलुन मुसतफ़इलुन 
2212 2212 2212 2212
बहरे रजज मुसम्मन सालिम

औरतें


ये औरतें हर जगह दीख जाती हैं
जब एक पत्ता फूटता है
हल्का बैंगनी-हरा
कोमल अधरों पर सुबह की मुसकान सहेजता
तब एक छोटी बच्ची औरत बनकर
गुड़ियों में बना रही होती है घर
संभाल रही होती है
खिलौनों के बर्तन
जिसमें कांच के रेशों -सा
खिंचने लगता है उसका वज़ूद.
जब कुछ मोगरे अपने सफ़ेद मुख पर
पोत लेते हैं खुशबू
और गुलाब रंग लेता है ओंठ लाल
तब एक कौमार्य औरत बनकर
ठेल रहा होता है अपना बदन
जैसे कछुआ समेटता है
हाथ-पैर कड़े खोल में
मोटा कपड़ा भी पारदर्शी हो जाता है
और किसी झिझक में
बंद कर रही होती है झरोखे , खिड़कियाँ
तब वह सिल रही होती है घर के परदे
जिसकी सीवनों में
सिल जाती है उसकी बखिया
कई तुरपने, काज , कसीदे ..
किसी सिंड्रेला के जूते छूट जाते हैं बॉल डांस में
और एक जूता लिए करती है इंतज़ार
पर महल कोई घसीट कर ले जाता है तहखाने में
अतीत की सभ्यताएँ
नदी किनारे यूं ही बिखरी रहती हैं
जिस पर लहरों की चादर चलती है
एक पर एक कई
और तलौंछ में सोई होती है जलपरी
आधी मछली ..
उसकी भौहें कितनी घनी हो जाती हैं
जैसे गरम भाप से नहाकर आता है बादल
उसकी बरौनियों पर बिजली टूटती है
रह-रहकर .. सिहरकर
और जंगल भीगते रहते हैं
पहाड़ों , मैदानों पर
तब वह किसी बेडौल गागर -सी
भर रही होती है जल
तुम्हारी क्षुधा की कितनी परवाह है उसे ..
पता नहीं किस बुढ़ापे तक
उसे ऐसे ही दीखना है
दरवेश रेत उड़ती रहती है
और फ़ैल जाते हैं सहारा के बदोइन
जिप्सी , थार के गाड़लिए ..
रेत की झुर्रियों में
कई हवाएं बंद हैं शायद !

ये रात कैसे अचानक निखर निखर सी गयी

धुआँ उठा है कहीं खत जला दिये गए क्या
किसी के नाम के आँसू बहा दिये गए क्या

तो क्या हमारा कोई मुंतज़िर नहीं है वहाँ
वो जो चराग थे सारे बुझा दिये गए क्या

उजाड़ सीने में ये साँय साँय आवाजें
जो दिल में रहते थे बिल्कुल भुला दिये गए क्या

हमारे बाद न आया कोई भी सहरा तक
तो नक्श-ए-पा भी हमारे मिटा दिये गए क्या

ये रात कैसे अचानक निखर निखर सी गयी
अब उस दरीचे से परदे हटा दिये गए क्या
:- मनोज अज़हर
  • azhar.manoj@gmail.com

मुफ़ाएलुन फ़एलातुन मुफ़ाएलुन फालुन  
1212 1122 1212 22 
बहरे मुजतस मुसमन मखबून महजूफ

हम तो ठहरे यार मलँग



तेरे सपने, तेरे रँग
क्या-क्या मौसम मेरे सँग

आँखों से सब कुछ कह दे
ये तो है उसका ही ढँग

लमहे में सदियाँ जी लें
हम तो ठहरे यार मलँग

जीवन ऐसे है जैसे
हाथों में बच्चे के पतँग

गुल से ख़ुश्बू कहती है
जीना मरना है इक सँग

कैसे गुज़रे हवा भला
शहर की सब गलियाँ हैं तँग
:-देवमणि पांडेय


लोग बन्दर से नचाये जा रहे है

खोट के सिक्के चलाये जा रहे है
लोग बन्दर से नचाये जा रहे है

आसमां में सूर्य शायद मर गया है
मोमबत्ती को जलाये जा रहे है

देखिये तांडव यहाँ पर हो रहा है
रामधुन क्यों गुनगुनाये जा रहे है

जो पिघल कर मोम से बहने लगे है
लोग वो काबिल बताये जा रहे है

आप को वो स्वप्नजीवी मानते है
स्वप्न अब रंगीन लाये जा रहे है

देखते है आसमां कैसे दिखेगा
शामियाने और लाये जा रहे है

:- अश्विनी कुमार शर्मा
  • ashvaniaugust@gmail.com

यूँ ही आँगन में बम नहीं आते

लुटके मंदिर से हम नहीं आते
मयकदे में कदम नहीं आते

कोई बच्चा कहीं कटा होगा
गोश्त यूँ ही नरम नहीं आते

आग दिल में नहीं लगी होती
अश्क इतने गरम नहीं आते

कोइ फिर भूखा सो गया होगा
यूँ ही जलसों में रम नहीं आते

प्रेम में गर यकीं हमें होता
इस जहाँ में धरम नहीं आते

कोई अपना ही बेवफ़ा होगा
यूँ ही आँगन में बम नहीं आते
धर्मेन्द्र कुमार सज्जन का कल्पना लोक


दूसरी समस्या पूर्ति - दोहा - पूर्णिमा जी और निर्मला जी [1-2]

सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन

लो आ गयी बेला दोहा छंद पर दूसरी समस्यपूर्ति के श्री गणेश की| सर्व प्रथम, चौपाई छंद पर पहली समस्या पूर्ति पर अपनी अपनी रचनाएँ भेजने वाले एवं उन रचनाओं पर अपनी टिप्पणी रूपी पुष्पों की वर्षा करने वाले सभी कला प्रेमियों का अभिनंदन|

पहली समस्या पूर्ति का अनुभव काफी उत्साह प्रद रहा, बस एक छोटी सी बात जो दिल में खटकी थी, वो थी नारी शक्ति की अनुपस्थिति| माँ शारदे ने इस बार हमारी प्रार्थना सुन कर पहली दो पूर्तियाँ महिलाओं द्वारा ही भिजवाई हैं|


Purnima Varman

अनुभूति, अभिव्यक्ति एवं नवगीत की पाठशाला यानि पूर्णिमा वर्मन जी| अंतर्जाल पर साहित्य के प्रति आपके समर्पण को भला कौन नहीं जानता| सब से पहले आपके दोहे प्राप्त हुए हैं| तो आइये पढ़ते हैं पुर्णिमा जी के दोहे:-

जोश, जश्न, पिचकारियाँ, अंबर उड़ा गुलाल|
हुरियारों की भीड़ में, जमने लगा धमाल|1|

शहर रंग से भर गया, चेहरों पर उल्लास|
गली गली में टोलियाँ, बाँटें हास हुलास|2|

हवा हवा केसर उड़ा, टेसू बरसा देह|
बातों में किलकारियाँ, मन में मीठा नेह|3|

ढोलक से मिलने लगे, चौताले के बोल|
कंठों में खिलने लगे, राग बसंत हिँदोल|4|

मंद पवन में उड़ रहे, होली वाले छंद|
ठुमरी, टप्पा, दादरा, हारमोनियम, चंग|5|

नदी चल पड़ी रंग की, सबका थामे हाथ|
जिसको रंग पसंद हो, चले हमारे साथ|6|

घर घर में तैयारियाँ, ठंडाई पकवान|
दर देहरी पर रौनकें, सजेधजे मेहमान|7|

नगर नगर झंकृत हुआ, दुनिया हुई सितार|
सर पर चढ़कर बोलता, होली का त्यौहार|8|

मन के तारों पर बजे, सदा सुरीली मीड़|
शहरों में सजती रहे, हुरियारों की भीड़|9|

होली की दीवानगी, फगुआ का संदेश|
ढाई आखर प्रेम के, द्वेष बचे ना शेष|10|



My Photo
दूसरी समस्या पूर्ति मिली है आदरणीय निर्मला कपिला जी से| वर्ष 2009 में श्रेष्ठ कहानी के 'संवाद' पुरस्कार तथा वर्ष 2010 के लोक संघ परिकल्पना सम्मान [कथा-कहानी] को प्राप्त करने वाली आदरणीया निर्मला जी के ब्लॉग वीर बहूटी से हम में से अधिकांश लोग परिचित हैं| उन के अनुसार उन्होने जीवन में पहली बार ही दोहे लिखे हैं| ओहोहोहों निर्मला जी आप के जीवट को सादर प्रणाम| आइये पढ़ते हैं उन के दोहे:-


लाज शर्म को छोड कर, लगी पिया के अंग|
होली खेली प्रीत से, देख हुये वो दंग|1|

होली होली खेलते, लाल हुये हैं गाल|
सडकों पर करते युवा, देखो खूब धमाल|2|

होली के त्यौहार पर, झूमें गायें लोग|
घर घर मे हैं पक रहे, मीठे छ्प्पन भोग|3|

कोयल विरहन गा रही, दर्द भरे से गीत|
रंग लगाऊँ आज क्या, दूर गये मन मीत।|4|

होली के त्यौहार पर, सखियाँ करें पुकार|
होली खेलो साथ मे, लला श्याम सुकुमार|5|

धूम मची चारों तरफ, होली का त्यौहार|
कौन करे बिन साजना, रंगों की बौछार|6|

समस्या पूर्ति की पंक्ति को आपने 2 रूपों में 3 स्थानों पर प्रयोग में लिया है| क्या बात है निर्मला जी|

तो देखा, कितने सुंदर दोहे भेजे हैं इन दो कवियत्रियों ने| अब आप की बारी हैं इन दोहों पर प्रशंसा के पुष्पों की वर्षा करने की| आपके दोहों की प्रतीक्षा है| जानकारी वाली लिंक एक बार फिर रेडी रिफरेंस के लिए:- समस्या पूर्ति: दूसरी समस्या पूर्ति - दोहा - घोषणा|

22 फ़रवरी 2011

यकीं न हो तो गूगल अर्थ पे जा के देखो तुम - नवीन

सूने जङ्गल देख के अक्सर ऐसा लगता है
उतना ही लिखना था जितना अच्छा लगता है

आप ही कहिये आप का दरिया किस को पेश करूँ
ये प्यासा, वो जल बिन मछली जैसा लगता है

रब ही जाने उस पर क्यों गुस्सा आता है मुझे
जबकि सलीक़ा उस का मेरे जैसा लगता है

मत पूछें मुझसे मेरी ख़ामोशी की वज़्हें
ख़ुद को चूँटी काट के बोलें – कैसा लगता है

यक़ीं न हो तो गूगल अर्थ पे जा कर देख लें ख़ुद
अपना मुम्बै खेत-खिलौनों जैसा लगता है

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सभी दिखें नाखुश, सबका दिल टूटा लगता है
तमाम दुनिया का इक जैसा किस्सा लगता है

तुम्हीं कहो किसको दूँ अपने हिस्से का पानी
झुलस रहा ये, वो जल बिन मछली-सा लगता है

रिवायती ग़ज़लें चिलमन पे कह तो दूँ लेकिन
नये जमाने का कपड़ों से झगड़ा लगता है

यकीं न हो तो गूगल अर्थ पे जा के देखो तुम
बड़ा शहर भी खेत खिलोनों जैसा लगता है

नहीं किताबें पढ़ के होता जन-धन संचालन
भले भलों को इसमें खास तजुर्बा लगता है

दूसरी समस्या पूर्ति - दोहा - घोषणा

सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन|

दूसरी समस्या पूर्ति की घोषणा का समय आ गया है| आदरणीय शास्त्री जी, आचार्य सलिल जी और भाई रविकान्त पाण्डेय जी के आलेख पढ़ चुके होंगे अब तक आप लोग| दूसरी समस्या पूर्ति दोहों को ले कर ही है| जिन लोगों ने अब तक नहीं पढ़ा हो उपरोक्त आलेखों को, यहीं ब्लॉग पर फिर से पढ़ सकते हैं| वैसे मैं संक्षिप्त में एक बार फिर से दोहों के बारे में यहाँ प्रकाश डाल देता हूँ:

दोहा - चार चरण
पहला और तीसरा चरण = 13 मात्रा, अंत में लघु गुरु अपेक्षित
दूसरा और चौथा चरण = 11 मात्रा, अंत में गुरु लघु अपेक्षित
उदाहरण:-
बुरा जु देखन में चला
12 1 211 2 12 = 13
बुरा न मिल्या कोय
12 1 112 21 = 11
जो दिल देखा आपुना
2 11 22 212 = 13
मो से बुरा न कोय
2 2 12 1 21 = 11

मात्रा गिनती के बारे में संक्षिप्त में इस ब्लॉग के नीचे के भाग में भी एक टेक्स्ट दिया हुआ है|

समस्या पूर्ति की पंक्ति :- "होली का त्यौहार"

कवियों से प्रार्थना है कि कम से कम 3 दोहे प्रस्तुत करें
समस्या पूर्ति की पंक्ति 'होली का त्यौहार' को किसी भी एक दोहे के किसी भी एक चरण में प्रयोग करें| आप देखेंगे कि इस पंक्ति कि मात्राओं कि गिनती होती है 11, यानि ये किसी भी चरण में आ सकती है|
एक और बात, कहन को विस्तार देने के लिहाज से, कवि गण इस पंक्ति में प्रयुक्त शब्द 'का' की जगह 'के', 'सा' या 'से' भी ले सकते हैं, यथा:-

[1] होली के त्यौहार की बड़ी अनोखी बात
[2] दुनिया भर में भिन्न है होली का त्यौहार
[3] होली सा त्यौहार है ये सारा संसार

विशेष :- ये उदाहरण नए लोगों के लिए हैं| स्थापित विद्वान तो स्वयं समर्थ हैं ही|

आप सभी से सविनय निवेदन है कि अपनी अपनी पूर्तियाँ यथा शीघ्र navincchaturvedi@gmail.com पर भेजने की कृपा करें|

पूर्व में इस ब्लॉग पर दोहों पर प्रकाशित आलेखों की लिंक्स एक बार फिर से :-



सभी साहित्य रसिकों से एक बार फिर से विनम्र निवेदन है कि भारतीय छंद साहित्य की सेवा स्वरुप आरंभ किए गए इस आयोजन में अपना बहुमूल्य योगदान देने की कृपा करें|

सादर

21 फ़रवरी 2011

चले आओ किसी का डर नहीं है


चले आओ किसी का डर नहीं है|
ये मेरा है तुम्हारा घर नहीं है|1|

पहुँच ही जाएगी कानों में तेरे|
मेरी आवाज अब बे-पर नहीं है|2|

यहाँ सब काम लेते हैं नजर से |
किसी के हाथ में खंजर नहीं है|3|

हुए हैं रहनुमा राहों के पत्थर |
मुझे अब ठोकरों का डर नहीं है|4|

हैं चेहरे पर यहाँ चेहरे हजारों |
हया आँखों में रत्ती भर नहीं है |5|
:- सुनील टाँकSuniltaank8@gmail.com

20 फ़रवरी 2011

दोहा गाथा सनातन - १ - संजीव 'सलिल'


अंतर्जाल पर आचारी संजीव वर्मा 'सलिल' जी को सभी जानते हैं| उन्हें किसी परिचय की आवश्यकता हैं है| आपने 'दोहा' विषय पर एक आलेख हम लोगों की जानकारी मेन इजाफा करने के लिए भेजा है, जिसे यहाँ तदस्वरूप प्रस्तुत किया जा रहा है|

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दोहा गाथा सनातन - १ :

संजीव 'सलिल'

दोहा गाथा सनातन, शारद कृपा पुनीत.
साँची साक्षी समय की, जनगण-मन की मीत.


हिन्दी ही नहीं सकल विश्व के इतिहास में केवल दोहा सबसे पुराना छंद है जिसने एक नहीं अनेक बार युद्धों को रोका है, नारी के मान-मर्यादा की रक्षा की है, भटके हुओं को रास्ता दिखाया है, देश की रक्षा की है, हिम्मत हार चुके राजा को लड़ने और जीतने का हौसला दिया है, बीमारियों से बचने की राह सुझाई है और जिंदगी को सही तरीके से जीने का तरीका ही नहीं बताया भगवान के दर्शन कराने में भी सहायक हुआ है. आप इसे दोहे की अतिरेकी प्रशंसा मत मानिये. हम इस दोहा गोष्ठी में न केवल कालजयी दोहाकारों और उनके दोहों से मिलेंगे अपितु दोहे की युग परिवर्तनकारी भूमिका के साक्षी बनकर दोहा लिखना भी सीखेंगे.


अमरकंटकी नर्मदा, दोहा अविरल धार.
गत-आगत से आज का, सतत ज्ञान व्यापार.

आप यह जानकर चकित होंगे कि जाने-अनजाने आप दैनिक जीवन में कई बार दोहे कहते-सुनते हैं. आप में से हर एक को कई दोहे याद हैं. हम दोहे के रचना-विधान पर बात करने के पहले दोहा-लेखन की कच्ची सामग्री अर्थात हिन्दी के स्वर-व्यंजन, मात्रा के प्रकार तथा मात्रा गिनने का तरीका, गण आदि की जानकारी को ताजा करेंगे. बीच-बीच में प्रसंगानुसार कुछ नए-पुराने दोहे पढ़कर आप ख़ुद दोहों से तादात्म्य अनुभव करेंगे.

कल का कल से आज ही, कलरव सा संवाद.
कल की कल हिन्दी करे, कलकल दोहा नाद.


(कल = बीता समय, आगामी समय, शान्ति, यंत्र)


भाषा :
अनुभूतियों से उत्पन्न भावों को अभिव्यक्त करने के लिए भंगिमाओं या ध्वनियों की आवश्यकता होती है. भंगिमाओं से नृत्य, नाट्य, चित्र आदि कलाओं का विकास हुआ. ध्वनि से भाषा, वादन एवं गायन कलाओं का जन्म हुआ.


चित्र गुप्त ज्यों चित्त का, बसा आप में आप.
दोहा सलिला निरंतर करे अनाहद जाप.


भाषा वह साधन है जिससे हम अपने भाव एवं विचार अन्य लोगों तक पहुँचा पाते हैं अथवा अन्यों के भाव और विचार गृहण कर पाते हैं. यह आदान-प्रदान वाणी के माध्यम से (मौखिक) या लेखनी के द्वारा (लिखित) होता है.


निर्विकार अक्षर रहे मौन, शांत निः शब्द
भाषा वाहक भाव की, माध्यम हैं लिपि-शब्द.


व्याकरण ( ग्रामर ) -


व्याकरण ( वि + आ + करण ) का अर्थ भली-भांति समझना है. व्याकरण भाषा के शुद्ध एवं परिष्कृत रूप सम्बन्धी नियमोपनियमों का संग्रह है. भाषा के समुचित ज्ञान हेतु वर्ण विचार (ओर्थोग्राफी) अर्थात वर्णों (अक्षरों) के आकार, उच्चारण, भेद, संधि आदि , शब्द विचार (एटीमोलोजी) याने शब्दों के भेद, उनकी व्युत्पत्ति एवं रूप परिवर्तन आदि तथा वाक्य विचार (सिंटेक्स) अर्थात वाक्यों के भेद, रचना और वाक्य विश्लेष्ण को जानना आवश्यक है.


वर्ण शब्द संग वाक्य का, कविगण करें विचार.
तभी पा सकें वे 'सलिल', भाषा पर अधिकार.


वर्ण / अक्षर :


वर्ण के दो प्रकार स्वर (वोवेल्स) तथा व्यंजन (कोंसोनेंट्स) हैं.


अजर अमर अक्षर अजित, ध्वनि कहलाती वर्ण.
स्वर-व्यंजन दो रूप बिन, हो अभिव्यक्ति विवर्ण.


स्वर ( वोवेल्स ) :


स्वर वह मूल ध्वनि है जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता. वह अक्षर है. स्वर के उच्चारण में अन्य वर्णों की सहायता की आवश्यकता नहीं होती. यथा - अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:. स्वर के दो प्रकार १. हृस्व ( अ, इ, उ, ऋ ) तथा दीर्घ ( आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: ) हैं.


अ, इ, उ, ऋ हृस्व स्वर, शेष दीर्घ पहचान
मिलें हृस्व से हृस्व स्वर, उन्हें दीर्घ ले मान.




व्यंजन (कांसोनेंट्स) :


व्यंजन वे वर्ण हैं जो स्वर की सहायता के बिना नहीं बोले जा सकते. व्यंजनों के चार प्रकार १. स्पर्श (क वर्ग - क, ख, ग, घ, ङ्), (च वर्ग - च, छ, ज, झ, ञ्.), (ट वर्ग - ट, ठ, ड, ढ, ण्), (त वर्ग त, थ, द, ढ, न), (प वर्ग - प,फ, ब, भ, म) २. अन्तस्थ (य वर्ग - य, र, ल, व्, श), ३. (उष्म - श, ष, स ह) तथा ४. (संयुक्त - क्ष, त्र, ज्ञ) हैं. अनुस्वार (अं) तथा विसर्ग (अ:) भी व्यंजन हैं.


भाषा में रस घोलते, व्यंजन भरते भाव.
कर अपूर्ण को पूर्ण वे मेटें सकल अभाव.


शब्द :


अक्षर मिलकर शब्द बन, हमें बताते अर्थ.
मिलकर रहें न जो 'सलिल', उनका जीवन व्यर्थ.


अक्षरों का ऐसा समूह जिससे किसी अर्थ की प्रतीति हो शब्द कहलाता है. यह भाषा का मूल तत्व है. शब्द के १. अर्थ की दृष्टि से : सार्थक (जिनसे अर्थ ज्ञात हो यथा - कलम, कविता आदि) एवं निरर्थक (जिनसे किसी अर्थ की प्रतीति न हो यथा - अगड़म बगड़म आदि), २. व्युत्पत्ति (बनावट) की दृष्टि से : रूढ़ (स्वतंत्र शब्द - यथा भारत, युवा, आया आदि), यौगिक (दो या अधिक शब्दों से मिलकर बने शब्द जो पृथक किए जा सकें यथा - गणवेश, छात्रावास, घोडागाडी आदि) एवं योगरूढ़ (जो दो शब्दों के मेल से बनते हैं पर किसी अन्य अर्थ का बोध कराते हैं यथा - दश + आनन = दशानन = रावण, चार + पाई = चारपाई = खाट आदि), ३. स्रोत या व्युत्पत्ति के आधार पर तत्सम (मूलतः संस्कृत शब्द जो हिन्दी में यथावत प्रयोग होते हैं यथा - अम्बुज, उत्कर्ष आदि), तद्भव (संस्कृत से उद्भूत शब्द जिनका परिवर्तित रूप हिन्दी में प्रयोग किया जाता है यथा - निद्रा से नींद, छिद्र से छेद, अर्ध से आधा, अग्नि से आग आदि) अनुकरण वाचक (विविध ध्वनियों के आधार पर कल्पित शब्द यथा - घोडे की आवाज से हिनहिनाना, बिल्ली के बोलने से म्याऊँ आदि), देशज (आदिवासियों अथवा प्रांतीय भाषाओँ से लिए गए शब्द जिनकी उत्पत्ति का स्रोत अज्ञात है यथा - खिड़की, कुल्हड़ आदि), विदेशी शब्द ( संस्कृत के अलावा अन्य भाषाओँ से लिए गए शब्द जो हिन्दी में जैसे के तैसे प्रयोग होते हैं यथा - अरबी से - कानून, फकीर, औरत आदि, अंग्रेजी से - स्टेशन, स्कूल, ऑफिस आदि), ४. प्रयोग के आधार पर विकारी (वे शब्द जिनमें संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया या विशेषण के रूप में प्रयोग किए जाने पर लिंग, वचन एवं कारक के आधार पर परिवर्तन होता है यथा - लड़का लड़के लड़कों लड़कपन, अच्छा अच्छे अच्छी अच्छाइयां आदि), अविकारी (वे शब्द जिनके रूप में कोई परिवर्तन नहीं होता. इन्हें अव्यय कहते हैं. इनके प्रकार क्रिया विशेषण, सम्बन्ध सूचक, समुच्चय बोधक तथा विस्मयादि बोधक हैं. यथा - यहाँ, कहाँ, जब, तब, अवश्य, कम, बहुत, सामने, किंतु, आहा, अरे आदि) भेद किए गए हैं. इनके बारे में विस्तार से जानने के लिए व्याकरण की किताब देखें. हमारा उद्देश्य केवल उतनी जानकारी को ताजा करना है जो दोहा लेखन के लिए जरूरी है.


नदियों से जल ग्रहणकर, सागर करे किलोल.
विविध स्रोत से शब्द ले, भाषा हो अनमोल.


इस पाठ को समाप्त करने के पूर्व श्रीमद्भागवत की एक द्विपदी पढिये जिसे वर्तमान दोहा का पूर्वज कहा जा सकता है -


नाहं वसामि बैकुंठे, योगिनां हृदये न च .
मद्भक्ता यत्र गायन्ति, तत्र तिष्ठामि नारद.


अर्थात-
बसूँ न मैं बैकुंठ में, योगी उर न निवास.
नारद गायें भक्त जंह, वहीं करुँ मैं वास.


इस पाठ के समापन के पूर्व कुछ पारंपरिक दोहे पढिये जो लोकोक्ति की तरह जन मन में इस तरह बस गए की उनके रचनाकार ही विस्मृत हो गए. पाठकों को जानकारी हो तो बताएं. आप अपने अंचल में प्रचलित दोहे उनके रचनाकारों की जानकारी सहित भेजें.


सरसुती के भंडार की, बड़ी अपूरब बात.
ज्यों खर्चे त्यों-त्यों बढे, बिन खर्चे घट जात.

जो तो को काँटा बुवै, ताहि बॉय तू फूल.
बाको शूल तो फूल है, तेरो है तिरसूल.

होनी तो होकर रहे, अनहोनी ना होय.
जाको राखे साइयाँ, मर सके नहिं कोय.

समय बिताने के लिए, करना है कुछ काम.
शुरू करो अन्त्याक्षरी, लेकर हरि का नाम.

जैसी जब भवितव्यता, तैसी बने सहाय.
आप न जाए ताहि पे, ताहि तहाँ ले जाय.


पाठक इन दोहों में समय के साथ हिन्दी के बदलते रूप से भी परिचित हो सकेंगे. अगले पाठ में हम दोहों के उद्भव, वैशिष्ट्य तथा तत्वों

19 फ़रवरी 2011

छंद शास्त्र: एक संक्षिप्त परिचय - रविकान्त पाण्डेय

छंद शास्त्र: एक संक्षिप्त परिचय


रविकान्त पाण्डेय

वेद, जो कि सनातन माने गये हैं और जिनका भारतीय जनमानस पर गहरा प्रभाव है उनका ही एक अंग है छंद शास्त्र- "छंदः पादौ तु वेदस्य"। वैसे वेदों को समस्त विद्याओं का आदिस्रोत माना जाता है। यहां ये स्पष्ट कर देना उचित प्रतीत होता है कि कविता बिना छंदों के भी लिखी जा सकती है, लोग लिखते भी हैं, पर छंद रचना को आयु प्रदान करता है और "कवि" को "सुकवि" बनाने में सहायक होता है।

छंद की प्रेरणा कहां से मिली ?

मनुष्य की प्रेरणा का आदिस्रोत सदैव प्रकृति रही है। प्रक्रुति के साम्राज्य में चीजें एक निश्चित विधान के अनुसार घटित होती हैं- रात फ़िर दिन फ़िर रात, वसंत फ़िर ग्रीष्म फ़िर वर्षा आदि। प्रक्रुति के सान्निध्य में मनुष्य ने ब्रह्मांड में व्याप्त इस नियम को, इस क्रमिक व्यवस्था को पहचाना। और इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि जब तमसा नदी के तट पर संसार का सबसे पहला काव्य सृजित हुआ तो उसका रचयिता जनमानस से दूर प्रकृति के ही सान्निध्य में रहनेवाला एक ऋषि था जिससे उसके ह्रुदय की संवेदना ने श्लोक कहलवा दिया-

मा निषाद प्रतिष्टां त्वमगमः शाश्वतीसमाः
यत्क्रौंच मिथुनात्मेकमवधीः काममोहितम

इस तरह से प्रारंभ हुआ संसार का सर्वप्रथम काव्य रामायण और वाल्मीकि आदिकवि हुये।

छंद शास्त्र के आचार्य

इस संबंध में संस्कृत में काफ़ी काम हुआ है और इस सिलसिले में सबसे पहला नाम आचार्य पिंगल का आता है। इनकी पुस्तक "छंदःसूत्रम" को आज भी विषय की सर्वाधिक प्रामाणिक रचना होने का गौरव प्राप्त है। अन्य परवर्ती आचार्यों में नाट्यशास्त्र के रचयिता भरत, ज्योतिषाचार्य वाराहमिहिर, अग्निपुराण, श्रुतबोध के रचयिता कालिदास, सुवृत्ततिलक के रचयिता आचार्य क्षेमेंद्र, छंदोsनुशासन के रचयिता हेमचंद्र, वृत्तरत्नाकर के रचयिता केदारभट्ट, छंदोमंजरी के रचयिता गंगादास तथा वाणीभूषण के रचयिता दामोदर आदि का नाम मुख्य रूप से उल्लेखनीय है जिन्होनें अपनी इन पुस्तकों में इस विधा पर प्रकाश डाला है। हिंदी की प्रमुख पुस्तकों में भूषण चंद्रिका, छंदोऽर्णव एवं छंद प्रभाकर आदि का नाम लिया जा सकता है।

छंदों के प्रकार

प्रयोग के हिसाब से छंदों के दो भेद हैं- वैदिक और लौकिक। वैदिक छंद सात हैं- गायत्री, उष्णिक, अनुष्टुप, वृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप और जगती। लैकिक छंद कई हैं जैसे- मंदाक्रांता, घनाक्षरी, दोहा, चौपाई आदि। अब छंदों की नियम व्यवस्था पर आते हैं। इस हिसाब से मोटे तौर पर दो विभाजन हैं (कुछ विद्वान तीन भी मानते है, विस्तार भय से इस पर फ़िलहाल चर्चा नहीं करेंगे)- मात्रिक छंद और वार्णिक छंद। मात्रिक में सिर्फ़ मात्राओं का बंधन होता है साथ ही कहीं कहीं पर लगु, गुरु का क्रम होता है जबकि वार्णिक वृत्तों में वर्णों का एक विशिष्ट क्रम होता है। आगे इस संबंध में विस्तार से चर्चा की जायेगी। एक छंद में सामान्यतया चार पाद होते हैं और अगर इन चारों पादों में समान योजना हो तो इन्हे सम, सम और विषम पादों में एक सी योजना हो तो अर्द्धसम और सभी पादों में अलग योजना हो तो इन्हे विषम कहा जाता है। नीचे के चित्र में देखें-

नोट: विस्तारभय से कई बातें छोड़ दी गई हैं एवं जनसामान्य को छंदों से परिचय कराने के उद्देश्य से यह संक्षिप्त जानकारी उपलब्ध कराई गई है। जैसे-जैसे हम आगे बढ़ेंगे, विषय विस्तार पाता जायेगा।
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छंद: कुछ और बातें

अब तक आपके सम्मुख स्पष्ट हो चुका होगा कि जब रचना में मात्रा, वर्ण, यति, गति आदि का ध्यान रखा जाये तो रचना छंदबद्ध कहलायेगी जिसे पद्य कहते हैं। जो बिना छंद के हो तो गद्य और जहां दोनों हों वहां चंपू समझना चाहिये।

आइये अब गणित की तरफ़ बढ़ते हैं-

गुरुलघु वर्णों की पहचान

छंद सीखने वालों को सर्वप्रथम गुरुलघु विचार पर ध्यान देना चाहिये। इस संबंध में निम्न बातें ध्यातव्य हैं-

१. ह्रस्व अक्षर को लघु माना जाता है। इसे "।" चिन्ह से प्रदर्शित किया जाता है। उदाहरण- अ, इ, उ, र, रि, तु आदि लघु हैं।

२. अर्द्धचंद्रबिंदु वाले वर्ण भी लघु माने जाते हैं जैसे "हँसी" में हँ" लघु है।

३. दीर्घ अक्षर को गुरु कहते है। इसे "ऽ" चिन्ह से प्रदर्शित किया जाता है। उदाहरण- आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अः, रा, रे, री आदि।

४. संयुक्ताक्षर के पूर्व के लघु को दीर्घ माना जाता है। उदाहरण- सत्य, धर्म इनमें स और ध को गुरु माना जायेगा।

५. कभी-कभी संयुक्ताक्षर के पूर्व के लघु पर उच्चारणकाल में भार नहीं पडता। ऐसी स्थिति में उन्हे लघु ही माना जाता है। उदाहरण- तुम्हें, यहां तु लघु है।

६. कभी-कभी चरणांत के लघु को गुरु मान लिया जाता है। पढ़ते वक्त इसे दीर्घवत पढ़ा जाता है।

मात्रा और उसकी गणना

वर्णों के उच्चारण में लगनेवाले समय को मात्रा कहते हैं। इस हिसाब से अर्द्धमात्रा, एकमात्रा, द्विमात्रा और त्रिमात्रा का विधान है जो इस प्रकार हैं-

एक मात्रो भवेद ह्रस्वः द्विमात्रो दीर्घ उच्यते
त्रिमात्रस्तु प्लुतो ज्ञेयो व्यंजनंचार्द्ध मात्रकम

अर्थात ह्रस्व की एक मात्रा, दीर्घ की दो मात्रा, प्लुत की तीन और व्यंजन की आधी मात्रा मानी जाती है। पूर्व में हम कह आये हैं कि मनुष्य मूलतः प्रकृति से प्रेरणा लेता है अतः यहां बताना उचित होगा कि इन मात्राओं के प्राकृतिक उदाहरण क्या हैं-

चाषश्चैकांवदेन्मात्रां द्विमात्रं वायसो वदेत
त्रिमात्रंतु शिखी ब्रूते नकुलश्चार्द्धमात्रकम

अर्थात नीलकंठ की बोली एकमात्रा, कौआ दो मात्रा, मोर तीन मात्रा और नेवला आधीमात्रा वाला होता है। इनमें से छंदशास्त्र में सिर्फ़ एक और दो मात्राओं का ही प्रयोग होता है जो कि क्रमशः लगु और गुरु के लिये निर्धारित है।



गण विधान

तीन वर्णों को मिलाकर एक वर्णिक गण बनता है जिनकी कुल संख्या आठ है। इसे निम्न रूप में याद रखें-

यमाताराजभानसलगा:

१. यमाता = यगण = ।ऽऽ
२. मातारा = मगण = ऽऽऽ
३. ताराज = तगण = ऽऽ।
४. राजभा = रगण = ऽ।ऽ
५. जभान = जगण = ।ऽ।
६. भानस = भगण = ऽ॥
७. नसल = नगण = ॥।
८. सलगाः = सगण = ॥ऽ

इन आधारभूत नियमों को आत्मसात कर लेने पर आगे की राह आपके लिये आसान हो जायेगी।
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दोहा और उसका छंद विधान

परिचय: हममे से शायद ही कोई ऐसा होगा जिसने दोहे का नाम न सुना होगा। लोक में कबीर, तुलसी आदि के कतिपय दोहे मुहावरों की तरह प्रचलित हैं-

अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम
दास मलूका कहि गये सबके दाता राम

आछे दिन पाछे गयो हरि सों रखा न हेत
अब पछताये होत क्या चिड़िया चुग गइ खेत

सतसइया के दोहरे अरु नावक के तीर
देखन में छोटन लगें घाव करें गंभीर

आवत ही जो हर्ष नहिं नैनन नहीं सनेह
तुलसी तहां न जाइये कंचन बरसे मेंह

दोहे इस तरह हमारे जीवन में प्रविष्ट हो चुके हैं कि सुख-दुख, दर्शन, उपदेश आदि कोई भी क्षेत्र इनसे अछूता नहीं है। वास्तव में दोहा साहित्य की प्राचीन तथापि संपन्न विधा है।

दोहे का छंद शास्त्र

दोहा मात्रिक अर्द्धसम छंद है। अर्द्धसम की परिभाषा के मुताबिक इसके समचरणों में एक योजना तथा विषम चरणों में अन्य पदयोजना पाई जायेगी। विष चरण यानि पहले और तीसरे चरण में १३ मात्रायें एवं सम चरण यानि दूसरे तथा चौथे चरण में ११ मात्रायें रहेंगी।

विषम चरणों की बनावट: आदि में जगण न हो।

बनावट दो तरह की प्रचलित है- पहली- ३+३+२+३+२ = १३ (यहां चौथे त्रिकल में ।ऽ वर्जित है)
जैसे- राम नाम सुमिरा करो (सही)
राम नाम लो सदा तुम (गलत)

दूसरा प्रकार यूं है- ४+४+३+२ = १३ (यहां भी त्रिकल ।ऽ के रूप में नहीं आ सकता)

सम चरणों की बनावट: पहला प्रकार, ३+३+२+३ = ११
दोसरा प्रकार, ४+४+३ = ११ दोनों ही स्थितियों में अंत का त्रिकल हमेंशा ऽ। के रूप में आयेगा।

उपर्युक्त नियमों पर यदि सूक्ष्म दृष्टि दौड़ायें तो आप पायेंगे कि यहां सम के पीछे सम (४+४) और विषम के पीछे विषम (३+३) यानि एक ही चीज को दुहराया गया है इसी कारण इसे दोहा या दोहरा के नाम से जाना जाता है। साथ ही आप पायेंगे कि विषम चरणों के अंत में सगण, रगण अथवा नगण आयेगा और सम चरणों के अंत में जगण या तगण आयेगा।

विशेष: विषम चरण के प्रारंभ में जगण का निषेध सिर्फ़ नरकाव्य के लिये है। देवकाव्य या मंगलवाची शब्द होने की स्थिति में कोई दोष नहीं है। साथ ही जगण एक शब्द के तीन वर्णों में नहीं आना चाहिये, यदि दो शब्दों से मिलकर जगण बने तो वहां दोष नहीं है जैसे- " महान" एक शब्द के तीन वर्ण जगण बना रहे हैं अतः वर्जित है। जहां जहां = जहांज हां (जगण दो शब्दों से बन रहा है अतः दोष नहीं है।)
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दोहों में विषम पद के बारे में कुछ अन्य उदाहरण

कबीर यहु घर प्रेम का
जाति न पूछो साधु की
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वर्तमान / सामयिक संदर्भों में आप जैसे नौजवान की छंदों में अभिरुचि काफी प्रभावित करती है| आभार रविकान्त पाण्डेय जी|
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17 फ़रवरी 2011

छन्‍द - अमृत ध्वनि - बैरी संशय

संशय मन का मीत ना, जानत चतुर सुजान|
इस में कोई गुण नहीं, ये है अवगुण ख़ान||
ये है अवगुण ख़ान, करे नुकसान भयानक|
मान मिटावत, शान गिरावत, द्वेष प्रचारक|
द्वंद बढ़ावत, चैन नसावत, शांति करे क्षय|
मन भटकावत, जिय झुलसावत, बैरी संशय||

15 फ़रवरी 2011

शेष के भाई भतीजे पल गए

सांप इतने आस्तीं में पल गए
हम बदल कर जैसे हो संदल गए

प्यास ऐसी दी समंदर ने हमें
लब हमारे खुश्क होकर जल गए

चाँद निकला रात में नंगे बदन
देवता सब छोड़ कर पीपल गए

इश्क नेमत है, क़ज़ा है या भरम
फैसले कितने इसी पर टल गए

आज रोया हूँ बहुत मैं रात भर
बन के आँसू सारे अरमां गल गए

रौनकें चेहरों कि उडती देख ली
जब जुबां से सच के गोले चल गए

बेअसर होती गयी हर बद्दुआ
हम दुआ देने कि बाज़ी चल गए

हो गए बर्बाद कोई गम नहीं
शेष के भाई भतीजे पल गए

तमाशेबाज ख़ुद भी इक तमाशा बन के रहता है



वो थोड़ा है मगर काफी ज़ियादा बन के रहता है
तमाशेबाज ख़ुद भी इक तमाशा बन के रहता है

किसी खुर्शीद के इम्कान का ख़टका भी है दिल में
जभी तो चाँद मारे डर के आधा बन के रहता है

कभी मजबूरियाँ इंसाँ को ऐसे दिन दिखाती हैं
वो जिनका हो नहीं सकता हो , उनका बन के रहता है

सियासत के कबीले की अजब शतरंज है यारों
यहाँ सरदार ही अक्सर पियादा बन के रहता है

नकाबें ओढ कर मिलने से उसको ये हुआ हासिल
दयारे-ग़ैर में सबसे शनासा बन के रहता है

सुलगता हूँ तेरे दिल में सुलगने दे अभी मुझको
कि दिल का दाग़ फिर दिल का असासा बन के रहता है

वो मेरी ख़ूबियों पर तंज के परदे लगाता है
रुख़े- कुहसार पर कोई कुहासा बन के रहता है

अगर ढोने की कुव्वत हो तो उससे राबता रखिये
वो जिन काँधों पे रहता है जनाज़ा बन के रहता है –
--- मयंक अवस्थी

तेरी मर्ज़ी है मेरे दोस्त! बदल ले रस्ता

http://gazalganga.blogspot.com

गर यही हद है तो अब हद से गुजर जाने दे।
ए जमीं! मुझको खलाओं में बिखर जाने दे।

रुख हवाओं का बदलना है हमीं को लेकिन
पहले आते हुए तूफाँ को गुज़र जाने दे ।

तेरी मर्ज़ी है मेरे दोस्त! बदल ले रस्ता
तुझको चलना था मेरे साथ, मगर जाने दे।

ये गलत है कि सही, बाद में सोचेंगे कभी
पहले चढ़ते हुए दरिया को उतर जाने दे।

हम जमीं वाले युहीं ख़ाक में मिल जाते हैं
आसमां तक कभी अपनी भी नज़र जाने दे।

दिन के ढलते ही खयालों में चला आता है
शाम ढलते ही जो कहता था कि घर जाने दे।
-देवेन्द्र गौतम

13 फ़रवरी 2011

रूप चंद्र शास्त्री जी का हास्य-व्यंग्यात्मक लेख दोहों के ऊपर


दोहा लिखिएः वार्तालाप

आज मेरे एक धुरन्धर साहित्यकारमित्र की चैट आई-
धुरन्धर साहित्यकार- शास्त्री जी नमस्कार!
मैं- नमस्कार जी!
धुरन्धर साहित्यकार- शास्त्री जी मैंने एक दोहा लिखा है, देखिए! मैं- जी अभी देखता हूँ!
(
दो मिनट के् बाद)
धुरन्धर साहित्यकार- सर! आपने मेरा दोहा देखा!
मैं- जी देखा तो है! क्या आपने दोहे लिखे हैं? धुरन्धर साहित्यकार- हाँ सर जी!
मैं- मात्राएँ नही गिनी क्या? धुरन्धर साहित्यकार- सर गिनी तो हैं!
मैं- मित्रवर! दोहे में 24 मात्राएँ होती हैं। पहले चरण में 13 तथा दूसरे चरण में 11! धुरन्धर साहित्यकार- हाँ सर जी जानता हूँ! (उदाहरण)
( चलते-चलते थक मत जाना जी,
साथी मेरा साथ निभाना जी।)
मैं- इस चरण में आपने मात्राएँ तो गिन ली हैं ना! धुरन्धर साहित्यकार- हाँ सर जी! चाहे तो आप भी गिन लो!
मैं- आप लघु और गुरू को तो जानते हैं ना! धुरन्धर साहित्यकार- हाँ शास्त्री जी!
मैं लघु हूँ और आप गुरू है!
मैं-वाह..वाह..आप तो तो वास्तव मेंधुरन्धर साहित्यकार हैं!
धुरन्धर साहित्यकार- जी आपका आशीर्वाद है!
मैं-भइया जी जिस अक्षर को बोलने में एक गुना समय लगता है वो लघु होता है और जिस को बोलने में दो गुना समय लगता है वो गुरू होता है! धुरन्धर साहित्यकार-सर जी आप बहुत अच्छे से समझाते हैं। मैंने तो उपरोक्त लाइन में केवल शब्द ही गिने थे! आपका बहुत-बहुत धन्यवाद!
कुछ ख्याति प्राप्त दोहे:-


आदरणीय निदा फ़ाज़ली जी का दोहा:-

बच्चा बोला देख के,
२२ २२ २१ २ = १३
मस्जिद आलीशान|
२११ २२२१ = ११
अल्ला तेरे एक को,
२२ २२ २१ २ = १३
इत्ता बड़ा मकान||
२२ १२ १२१ = ११


आदरणीय कबीर दास जी का दोहा:-

कबिरा खड़ा बज़ार में,
११२ १२ १२१ २ = १३
माँगे सबकी खैर|
२२ ११२ २१ = ११
ना काहू से दोसती,
२ २२ २ २१२ = १३
ना काहू से बैर||
२ २२ २ २१ = ११


आदरणीय कुँवर कुसुमेश जी का दोहा:-

लाई चौदह फरवरी,
२२ २११ १११२ = १३
वैलेण्टाइन पर्व|
२२२११ २१ = ११
बूढ़े माथा पीटते ,
२२ २२ २१२ = १३
नौजवान को गर्व||
२१२१ २ २१ = ११

दोस्तो अगली समस्या पूर्ति हम लोग दोहों पर ले रहे हैं, वो भी होली के त्यौहार को ध्यान में रखते हुए|
दूसरी समस्या पूर्ति की पंक्ति की घोषणा जल्द ही की जाएगी| तब तक आप सभी शास्त्री जी के आलेख का आनंद उठाईएगा|

विशेष:- इस आयोजन का मूल उद्देश्य, क्लिष्टताओं के कारण भारतीय छंद विधा से विमुख हो चुके या हो रहे साहित्य प्रेमियों में फिर से रुझान जगाना है| यहाँ कोई विद्वत प्रतिस्पर्धा नहीं है| घोषणा होने से पूर्व यदि कोई अग्रज अपने विचार / लेख भेजना चाहें, तो उन का सहर्ष स्वागत है|

12 फ़रवरी 2011

पहली समस्या पूर्ति - चौपाई - श्री रूप चंद्र शास्त्री 'मयंक' जी [१०] और पिताजी का आशीर्वाद [११]





अंतरजाल पर आज कौन नहीं जानता आदरणीय श्री रूप चंद्र शास्त्री 'मयंक' जी को| चर्चा मंच, उच्चारण, शब्दों का दंगल, बच्चों की दुनिया जैसे कई सारे ब्लॉग्स के अलावा उन का ब्लॉग अग्रिगेटर ब्लाग मंच भी काफ़ी लोक प्रिय है| शुभेच्छा स्वरूप भेजी गयी आपकी चौपाइयों का रसास्वादन करते हैं हम:-

भुवन भास्कर बहुत दुलारा।
मुख मंडल है प्यारा-प्यारा।।
सुबह-सुबह जब जगते हो तुम|
कितने अच्छे लगते हो तुम|१|

श्याम-सलोनी निर्मल काया।
बहुत निराली प्रभु की माया।।
जब भी दर्श तुम्हारा पाते।
कली सुमन बनकर मुस्काते|२|

कोकिल इसी लिए है गाता।
स्वर भरकर आवाज लगाता।।
जल्दी नीलगगन पर आओ।
जग को मोहक छवि दिखलाओ|३|


पूज्य पिताजी श्री छोटू भाई चतुर्वेदी जी इस आयोजन के बारे में जान कर बहुत ही प्रसन्न हुए| आशीर्वाद स्वरूप उन्होने भी चार चौपाइयाँ भेजी हैं:-


हर युग के इतिहास ने कहा|
भारत का ध्वज उच्च ही रहा|

सोने की चिड़िया कहलाया|

सदा लुटेरों के मन भाया|१|


पर, सपूत भारत के सच्चे|

माता शाकुन्तल के बच्चे|

कभी शिवा, राणा, सावरकर|

साथ लिए नेताजी लश्कर|२|


बिस्मिल अब्दुल नैरोजी सँग|

वीर भगत, आज़ाद रँगे रँग|

खूब लडी थी लक्ष्मी बाई|

अँग्रेज़ों ने मुँह की खाई|३|


सदा सदा ही चमके हो तुम|

कितने अच्छे लगते हो तुम|

रस बन कर भव-सर में बहना|

आपस में हिल मिल कर रहना|४|

पूज्य पिताजी की इन चौपाइयों के साथ समापन करते हैं पहली समस्या पूर्ति का|

जल्द ही बतियाना शुरू करेंगे दूसरी समस्या पूर्ति के बारे में|

5 फ़रवरी 2011

छन्‍द - कुण्‍डलिया - एक्सक्यूजी परसन

हरदम ही देते रहें, ये या वो एक्स्क्यूज|
सज्जन वो, तुम जान लो, करते हैं कन्‍फ्यूज||
करते हैं कन्‍फ्यूज, पूजते दिखते जाहिर|
किंतु हमारी टाँग, खींचने में वो माहिर|
इतने बदलें रंग, कि शरमा जाए मौसम|
फिर भी ख़ासमखास, चहेते सबके हरदम||

रब नें ग़ज़ब यार प्रकृति बनाई है

ROSE


बनाई है विधाता नें वसुंधरा बाक़ायदा
रीति-नीति-प्रीति, कन-कन में समाई है|

समाई है सम्‍वेदना, दान-प्रतिदान, मान,
आन-बान, ख़ान-पान प्रभुता बताई है|

बताई है पते की बात यै ही हर शास्त्र* नें
लाँघी मरज़ाद जानें, वानें हार पाई है|

पाई है बिना एफर्ट हमनें बतौर गिफ्ट
रब नें ग़ज़ब यार प्रकृति बनाई है||
बनाई है..............

ब्रजभाषा, हिन्दी, उर्दू और अँग्रेज़ी शब्दों के साथ अनुप्रास अलंकार से अलंकृत यह "सांगोपांग सिंहावलोकन" छंद है|
इस छंद में व्यक्त बातों से जुड़ी शंकाओं के समाधान हेतु गुलाब के फूल का चित्र है|



*one may consider this as a research based STUDY with logics

4 फ़रवरी 2011

पहली समस्या पूर्ति - चौपाई - शेखर चतुर्वेदी जी [८] और मृत्युंजय जी [९]

समस्त सम्माननीय साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन

पहली समस्या पूर्ति 'चौपाई' के अगले पड़ाव में इस बार दो रचनाधर्मियों को पढ़ते हैं|

श्री शेखर चतुर्वेदी जी:-

साहित्य वारिधि स्व. डॉ शंकरलाल चतुर्वेदी "सुधाकर" जी के पौत्र, भाई शेखर जी युवा कवि हैं| वर्तमान में अहमदाबाद में कार्य रत हैं| संस्कारों से सुसज्जित उनकी रचना पढ़ते हैं पहले:-

मुझको जग में लाने वाले |
दुनिया अजब दिखने वाले |
उँगली थाम चलाने वाले |
अच्छा बुरा बताने वाले |१|

मेरी दुनिया है तुमसे ही |
प्यारी बगिया हैं तुमसे ही |
इस मूरत को गढ़ा है तुमने|
अनुग्रह किया बड़ा है तुमने|२|

मुझसे प्यार छुपाते हो तुम |
दिल में मुझे बसाते हो तुम |
सर पर कर जब रखते हो तुम|
कितने अच्छे लगते हो तुम|३|

भाई श्री मृत्युंजय जी:-

भाई मृत्युंजय जी ने ब्रज से जुड़ी चौपाइयाँ भेजी हैं| उन से संपर्क न हो पाने के कारण, उन के बारे में विवरण देना सम्‍भव नहीं हो पा रहा| आप लोग उन के ब्लॉग http://mrityubodh.blogspot.com/ पर उन से मिल सकते हैं| तो आइए पढ़ते हैं उनकी चौपाइयाँ|

श्याम वर्ण, माथे पर टोपी|
नाचत रुन-झुन रुन-झुन गोपी|
हरित वस्त्र आभूषण पूरा|
ज्यों लड्डू पर छिटका बूरा|१|

स्नेह मिलत छन-कती कड़ाही|
भाजा आस लार टपकाही|
नासा रसना मिटत पियासी|
रस भीगी ज्यों होत कपासी|२|

बेगुन कहें बेगि नहीं आवो|
मिलत नित्यही बाद बढावो|
घंटी बजे टड़क टुम टुम टम|
कितने अच्छे लागत हौ तुम|३|

अगली किश्त में २ प्रस्तुतियों के साथ इस पहली समस्या पूर्ति का समापन करेंगे और साथ ही घोषणा करेंगे अगली समस्या पूर्ति की| आप सभी के सहयोग के लिए बहुत बहुत आभार|