30 नवंबर 2014

दो ग़ज़लें - नीरज गोस्वामी

नीरज गोस्वामी
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तुम्हारे ज़हन में गर खलबली है
बड़ी पुर-लुत्फ़ फिर ये ज़िन्दगी है

अजब ये दौर आया है कि जिस में
ग़लत कुछ भी नहीं है, सब सही है

मुसलसल तीरगी में जी रहे हैं
ये कैसी रौशनी हम को मिली है

मुकम्मल ख़ुद को जो भी मानता है
यक़ीं मानें, बहुत उस में कमी है

जुड़ा तुम भीड़ से हो कर तो देखो
अलग राहों में कितनी दिलकशी है

समन्दर पी रहा है हर नदी को
हवस बोलें इसे या तिश्नगी है

नहीं आती है नीरज हाथ जो भी
हर एक वो चीज़ लगती क़ीमती है




मुश्किलों की बड़ी हैं यही मुश्किलें
आप जब चाहें कम हों – तभी ये बढ़ें

अब कोई दूसरा रासता ही नहीं
याद तुझ को करें और ज़िन्दा रहें

बस इसी सोच से झूठ क़ायम रहा
बोल कर सच भला हम बुरे क्यों बनें

डालियों पे फुदकने से जो मिल गयी
उस ख़ुशी के लिये क्यों फ़लक पर उड़ें

हम दरिन्दे नहीं गर हैं इनसान तो
आईना देखने से बता क्यों डरें

ज़िन्दगी ख़ूबसूरत बने इस तरह
हम कहें तुम सुनो तुम कहो हम सुनें

आ के हौले से छू लें वो होठों से गर

तो सुरीले मुरलिया से नीरज बजें

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